(hindi) Aakhiri Heela
हालाँकि मेरी याददाश्त धरती के इतिहास की सारी याद रखने लायक तारीखें भूल गयीं, वह तारीखें जिन्हें रातों को जागकर और दिमाग को परेशान कर याद किया था, मगर शादी की तारीख समतल जमीन में एक खम्बे की तरह पक्की है। न भूलता हूँ, न भूल सकता हूँ। उससे पहले और पीछे की सारी घटनाएँ दिल में मिट गयीं, उनका निशान तक बाकी नहीं। वह सारी अलग बाते अब एक हो गयी है और वह मेरी शादी की तारीख है। चाहता हूँ, उसे भूल जाऊँ, मगर जिस तारीख को रोज याद किया जाता हो, वह कैसे भूला जाय, रोज याद क्यों करता हूँ, यह उस मुसीबत से पूछिए जिसे भगवान के भजन के सिवा जीवन के उद्धार का कोई सहारा न रहा हो।
लेकिन क्या मैं शादीशुदा जीवन से इसलिए भागता हूँ कि मुझमें हँसी मज़ाक करने की आदत नहीं है और मैं नाजुक से मन को मोहने वाली के मोह से दूर हो गया हूँ और मेरा हर मोह माया से नाता टूट चुका है। क्या मैं नहीं चाहता कि जब मैं सैर करने निकलूँ, तो दिल में बसने वाली पत्नी भी मेरे साथ हों। ऐय्याशी की चीज़ो की दुकानों पर उनके साथ जाकर थोड़ी देर के लिए उन चीज़ो के लिए उसकी जिद देखने की ख़ुशी मिले। मैं उस गर्व और ख़ुशी और जरुरत को महसूस कर सकता हूँ, जो मेरे और भाइयों की तरह मेरे दिल में भी जिंदा होगा, लेकिन मेरे भाग्य में वह खुशियाँ वह मौज-मस्ति नहीं हैं।
क्योंकि चित्र का दूसरा पहलू भी तो देखता हूँ। एक पक्ष जितना ही मन को लुभाने वाला और खींचने वाला है, दूसरा उतना ही दिल दुखने वाला और डरावना। शाम हुई और आप बदनसीब बच्चे को गोद में लिये तेल या ईंधन की दुकान पर खड़े हैं। अंधेरा हुआ और आप आटे की पोटली बगल में दबाये गलियों में ऐसे कदम बढ़ाये हुए निकल जाते हैं, मानो चोरी की है। सूरज निकला और बच्चों को गोद में लिये होमियोपैथ डाक्टर की दुकान में टूटी कुर्सी पर बैठे हैं। किसी खोंमचे वाले की मीठी आवाज सुनकर बच्चे ने आसमान चीरने वाला रोना शुरू किया और आपकी जान निकली। ऐसे बापों को भी देखा है, जो दफ्तर से लौटते हुए पैसे-दो पैसे की मूँगफली या रेवड़ियाँ लेकर शर्म के साथ जल्दी से इसलिए खा जाते है कि घर पहुँचते-पहुँचते बच्चों के हमला करना से पहले ही वो ख़त्म हो जाय। कितना निराश करता है यह नज़ारा, जब देखता हूँ कि मेले में बच्चा किसी खिलौने की दुकान के सामने जिद कर रहा है और पिता महोदय ऋषियों की तरह ” थोड़ी देर की जिद है” का राग अलाप रहे हैं।
चित्र का पहला रुख तो मेरे लिए कामदेव का सपना है, दूसरा रुख एक कड़वा सच। इस सच के सामने मेरी सारी हँसी मज़ाक करने की आदत गायब हो जाती है। मेरे सारे उसूल, बुनियाद और कल्पना इसी शादी के फंदों से बचने में इस्तेमाल हुई है। जानता हूँ कि जाल के नीचे जाना है, मगर जाल जितना ही रंगीन और मोल लेने वाला है, दाना उतना ही दुःख देने वाला और जहरीला। इस जाल में पक्षियों को तड़पते और फड़फड़ाते देखता हूँ, और फिर भी जाल पर जा बैठता हूँ।
लेकिन इधर कुछ दिनों से श्रीमतीजी ने बिना चैन लिए जिद करना शुरू किया कि मुझे बुला लो। पहले जब छुट्टियों में जाता था, तो मेरा सिर्फ़ 'कहाँ चलोगी' कह देना मन की शांति के लिए बहुत होता था, फिर मैंने 'झंझट है' कहकर उन्हें तसल्ली देनी शुरू की। इसके बाद घर-परिवार की मुश्किलों से डराया, पर अब कुछ दिनों से उनकी शंका बढ़ती जा रही है। अब मैंने छुट्टियों में भी उनकी जिद के डर से घर जाना बंद कर दिया है कि कहीं वह मेरे साथ न चल खड़ी हों और अलग-अलग बहानों से उन्हें डरता रहता हूँ।
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मेरा पहला बहाना ख़त-संपादकों के जीवन की कहानियों के बारे में था। कभी बारह बजे रात को सोना नसीब होता है, कभी पूरी रात जागना पड़ जाता है। सारे दिन गली-गली ठोकरें खानी पड़ती हैं। इस पर और अलग से यह भी कि हमेशा सिर पर नंगी तलवार लटकती रहती है। न जाने कब गिरफ्तार हो जाऊँ, कब जमानत की जरुरत हो जाय। जासूसी पुलिस की एक फौज हमेशा पीछे पड़ी रहती है। कभी बाजार में निकल जाता हूँ, तो लोग उंगलियाँ उठाकर कहते हैं वह जा रहा है अखबारवाला। मानो संसार में भगवान, राक्षस, दुनिया के जीव-जंतुओं की जितनी मुसीबते, उनका जिम्मेदार मैं हूँ। मानो मेरा दिमाग झूठी खबरें बनाने का दफ्तर है। सारा दिन अफसरों की सेवा और पुलिस की चापलूसी में निकल जाता है।
कान्सटेबलों को देखा और जान निकलने लगी। मेरी तो यह हालत है और अफसर हैं कि मेरी सूरत से डरते हैं। एक दिन बदकिस्मती से एक अंग्रेज के बँगले की तरफ जा निकला। साहब ने पूछा “क्या काम करता है?” मैंने गर्व के साथ कहा, “अखबार का संपादक हूँ”। साहब तुरंत अंदर घुस गये और दरवाजे बंद कर लिये। फिर मैंने मेम साहब और बाबा लोगों को खिड़कियों से झाँकते देखा, मानो मैं कोई डरावना जानवर हूँ। एक बार रेलगाड़ी में सफर कर रहा था, साथ और भी कई दोस्त थे, इसलिए अपने पद की इज़्ज़त रखने के लिए सेकेंड क्लास का टिकट लेना पड़ा। गाड़ी में बैठा तो एक साहब ने मेरे सूटकेस पर मेरा नाम और पद देखते ही तुरंत अपना बक्सा खोला और रिवाल्वर निकालकर मेरे सामने गोलियाँ भरीं, जिससे मुझे पता चल जाय कि वह मुझसे सावधान है। मैंने देवीजी से पैसे की परेशानियों का कभी जिक्र नहीं किया, क्योंकि मैं औरत के सामने यह जिक्र करना अपनी इज़्ज़त के खिलाफ समझता हूँ। हालाँकि मैं वह जिक्र करता, तो मुझ पर देवीजी को दया जरूर आती ।
मुझे विश्वास था कि श्रीमतीजी फिर यहाँ आने का नाम न लेंगी। मगर यह मेरा वहम था। उनकी जिद वैसे ही होती रही।
तब मैंने दूसरा बहाना सोचा। शहरो में बहुत बीमारिया हैं। सभी खाने-पीने की चीज में मिलावट है । दूध में मिलावट, घी में मिलावट, फलों में मिलावट, साग-सब्जी में मिलावट, हवा में मिलावट, पानी में मिलावट। आदमी का जीवन पानी की लकीर है ! जिसे आज देखो वह कल गायब। अच्छे-खासे बैठे हैं, दिल की धड़कन बंद हो गयी। घर से सैर को निकले, मोटर से टकराकर ऊपर का रास्ता पकड़ लिया । अगर कोई शाम को सही सलामत घर आ जाय, तो उसे किस्मत वाला समझो। मच्छर की आवाज कान में आयी, दिल बैठा, मक्खी नजर आयी और हाथ-पाँव फूले। चूहा बिल से निकला और जान निकल गयी। जिधर देखिए यमराज ही दिखाई देते है। अगर मोटर और गाडी से बचकर आ गये, तब मच्छर और मक्खी के शिकार हुए। बस यही समझ लो कि मौत हरदम सिर पर नाचती रहती है। रात-भर मच्छरों से लड़ता हूँ, दिन-भर मक्खियों से। नन्ही-सी जान को किन-किन दुश्मनों से बचाऊँ। साँस भी मुश्किल से लेता हूँ कि कहीं टी बी के कीटाणु फेफड़े में न पहुँच जायँ।
देवीजी को फिर भी मुझ पर विश्वास न आया। दूसरे ख़त में भी वही इच्छा थी। लिखा था, तुम्हारे ख़त ने एक और चिंता बढ़ा दी अब। अब रोज ख़त लिखा करना, मैं एक न सुनूँगी और सीधे चली आऊँगी। मैंने दिल में कहा, चलो, सस्ते छूटे।
मगर यह डर लगा हुआ था कि न जाने कब उन पर शहर आने की जिद सवार हो जाय। इसलिए मैंने तीसरा बहाना सोच निकाला। यहाँ दोस्तों के मारे मुसीबत रहती है, आकर बैठ जाते हैं तो उठने का नाम भी नहीं लेते मानो अपना घर बेच आये हैं। अगर घर से चले जाओ, तो आकर बेधड़क कमरे में बैठ जाते हैं और नौकर से जो चीज चाहते हैं, उधार मँगवा लेते हैं। देना मुझे पड़ता है। कुछ लोग तो हफ्तों पड़े रहते हैं, जाने का नाम ही नहीं लेते। रोज उनकी सेवा करो, रात को थिएटर या सिनेमा दिखाओ। फिर सबेरे तक ताश या शतरंज खेलो। ज्यादातर तो ऐसे हैं, जो शराब के बिना जिंदा ही नहीं रह सकते।