(Hindi) Aadhar

(Hindi) Aadhar

सारे गाँव  में  मथुरा जैसा गठीला जवान न था। उसकी उम्र कोई बीस साल थी । वो गाएँ चराता, दूध पीता, कसरत करता, कुश्ती लडता और पूरा  दिन बांसुरी बजाता बाज़ार  में  घूमता रहता था। उसकी शादी हो गई थी, पर अभी कोई बाल-बच्चा न था। घर में कई हल की खेती थी, कई छोटे-बडे भाई थे। वे सब मिलजुलकर  खेती-बाड़ी  करते थे। मथुरा पर सारे गाँव को गर्व था, जब उसे जॉँघिये-लंगोटे, नाल या मुग्दर के लिए रूपये-पैसे की जरूरत पडती तो तुरन्त दे दिये जाते थे।

सारे घर की यही इच्छा थी कि मथुरा पहलवान हो जाय और अखाडे  में  अपने से ताकतवर पहलवान  को पछाडे। इस लाड – प्यार से मथुरा जरा बिगड़ गया था। गायें किसी के खेत में पड़ी हैं और ख़ुद  अखाडे  में  दंड लगा रहा है। कोई शिकायत करता तो उसके तेवर  बदल जाते । गरज कर कहता, “जो मन  में  आये कर लो, मथुरा तो अखाडा छोडकर हांकने न जायेंगे !” पर उसका डील-डौल देखकर किसी को उससे उलझने की हिम्मत न पडती । लोग मन मसोस कर रह  जाते.

गर्मियो के दिन थे, ताल-तलैया सूखे पड़े । जोरों की लू चलने लगी थी। गाँव में कहीं से एक सांड आ निकला और गायों के साथ हो लिया। सारे दिन गायों के साथ रहता, रात को बस्ती में घुस आता और खूंटो से बंधे बैलो को सींगों से मारता। कभी-किसी की गीली दीवार को सींगो से खोद डालता, घर का कूड़ा सींगो से उड़ाता। कई किसानो ने साग-भाजी लगा रखी थी, सारे दिन सींचते-सींचते थक जाते  थे। यह सांड रात को उन हरे-भरे खेतों में पहुंच जाता और खेत का खेत तबाह कर देता ।

लोग उसे डंडों से मारते, गाँव के बाहर भगा आते, लेकिन थोड़ी देर में गायों में पहुंच जाता। किसी की अक्ल काम न करती थी कि इस मुसीबत को कैसे टाला जाय। मथुरा का घर गांव के बीच  में  था, इसलिए उसके खेतो को सांड से कोई नुक्सान न होता था । गांव में बवाल  मचा हुआ था और मथुरा को जरा भी चिन्ता न थी।
आखिर जब धैर्य का अंतिम बंधन टूट गया तो एक दिन लोगों ने जाकर मथुरा को घेरा और बोले —“भाई, कहो तो गांव में रहें, कहीं तो निकल जाएं । जब खेती ही न बचेगी तो रहकर क्या करेगें? तुम्हारी गायों के पीछे हमारा सत्यानाश हुआ जा रहा है और तुम अपने रंग में मस्त हो।

अगर भगवान ने तुम्हें ताकत दी है तो इससे दूसरो की रक्षा करनी चाहिए, यह  नहीं  कि सबको पीस कर पी जाओ । सांड तुम्हारी गायों के कारण आता है और उसे भगाना तुम्हारा काम है ; लेकिन तुम कानो में तेल डाले बैठे हो, मानो तुमसे कुछ मतलब ही  नहीं ”।
मथुरा को उनकी हालत पर दया आयी। ताकतवर आदमी अक्सर दयालु होता है। बोला—“अच्छा जाओ, हम आज सांड को भगा देंगे”।
एक आदमी ने कहा—“दूर तक भगाना,  नहीं  तो फिर लौट आयेगा”।
मथुरा ने कंधे पर लाठी रखते हुए जवाब दिया—“अब लौटकर न आयेगा”।

चिलचिलाती दोपहर थी। मथुरा सांड को भगाये जा रहा था। दोंनो पसीने से तर थे। सांड बार-बार गांव की ओर घूमने की कोशिश करता, लेकिन मथुरा उसका इरादा ताडकर दूर से ही उसका रास्ता रोक लेता। सांड गुस्से  से पागल होकर कभी-कभी पीछे मुडकर मथुरा पर वार  करना चाहता लेकिन उस समय मथुरा बचकर बगल से ताबड-तोड इतनी लाठियां जमाता कि सांड को फिर भागना पडता. कभी दोनों अरहर के खेतो में दौडते, कभी झाडियों में ।

अरहर की खूटियों से मथुरा के पांव लहू-लुहान हो रहे थे, झाडियों में धोती फट गई थी, पर उसे इस समय सांड का पीछा करने के सिवा और कोई सुध न थी। गांव पर गांव आते और निकल जाते। मथुरा ने ठान लिया कि इसे नदी पार भगाये बिना दम न लूंगा। उसका गला  सूख गया था और आंखें लाल हो गयी थी, रोम-रोम से चिनगारियां सी निकल रही थी, दम निकल  गया था ; लेकिन वह एक पल  के लिए भी दम न लेता था। दो ढाई घंटो के बाद जाकर नदी आयी।

यही हार-जीत का फैसला होने वाला था, यही से दोनों खिलाडियों को अपने दांव-पेंच के जौहर दिखाने थे। सांड सोच रहा था, अगर नदी में उतर गया तो यह मार ही डालेगा, एक बार जान लडाकर लौटने की कोशिश करनी चाहिए। मथुरा सोच रहा  था, अगर वह लौट पडा तो इतनी  मेंहनत बेकार हो जाएगी और गांव के लोग  मेंरी हंसी उडायेगें। दोनों अपने – अपने घात में थे। सांड ने बहुत चाहा कि तेज दौडकर आगे निकल जाऊं और वहां से पीछे को मुड़ जाऊं , पर मथुरा ने उसे मुडने का मौका न दिया।

उसकी जान इस वक्त सुई की नोक पर थी, एक हाथ भी चूका और जान गई, जरा पैर फिसला और फिर उठना नशीब न होगा। आखिर इंसान ने जानवर  पर जीत पायी और सांड को नदी में घुसने के सिवाय और कोई उपाय न सूझा। मथुरा भी उसके पीछे नदी  में  उतर  गया और इतने डंडे लगाये कि उसकी लाठी टूट गयी।

TO READ OR LISTEN COMPLETE BOOK CLICK HERE

अब मथुरा को जोरो से प्यास लगी। उसने नदी में मुंह लगा दिया और इस तरह पानी  कर पीने लगा मानो सारी नदी पी जाएगा। उसे अपने जीवन में कभी पानी इतना अच्छा न लगा था और न कभी उसने इतना पानी पीया था। मालूम  नहीं , पांच सेर पी गया या दस सेर लेकिन पानी गरम था, प्यास न बुझी ; जरा देर में फिर नदी में मुंह लगा दिया और इतना पानी पीया कि पेट में सांस लेने की जगह भी न रही। तब गीली धोती कंधे पर डालकर घर की ओर चल दिया।
लेकिन दस ही क़दम चला होगा कि पेट में मीठा-मीठा दर्द होने लगा। उसने सोचा, दौड कर पानी पीने से ऐसा दर्द अकसर हो जाता है, जरा देर में दूर हो जाएगा। लेकिन दर्द बढने लगा और मथुरा का आगे जाना मुश्किल  हो गया। वह एक पेड के नीचे बैठ गया और दर्द से बैचेन होकर जमीन पर लोटने लगा। वो कभी पेट को दबाता, कभी खडा हो जाता कभी बैठ जाता, पर दर्द बढता ही जा रहा  था। अन्त में उसने जोर-जोर से कराहना और रोना शुरू किया; पर वहां कौन बैठा था जो, उसकी मदद करता ।

दूर तक कोई गांव  नहीं , न आदमी न आदमजात। बेचारा दोपहर के सन्नाटे में तडप-तडप कर मर गया। हम कडे से कडा घाव सह सकते है लेकिन जरा सा-भी बदलाव   नहीं  सह सकते। वही देव का सा जवान जो कोसो तक सांड को भगाता चला आया था, तत्वों के विरोध का एक वार भी न सह सका। कौन जानता था कि यह दौड उसके लिए मौत की दौड होगी ! कौन जानता था कि मौत ही सांड का रूप लेकर उसे यों नचा रही है। कौर जानता था कि पानी  जिसके बिना उसकी जान होंठों  पर आ रही थी , उसके लिए ज़हर का काम करेगी ।
शाम के समय उसके घरवाले उसे ढूंढते हुए आये। देखा तो वह कभी ना टूटने वाली नींद में मग्न था।

एक महीना गुजर गया। गांव वाले अपने काम-धंधे में लगे । घरवालों ने रो-धो कर सब्र किया; पर अभागिन विधवा के आंसू कैसे पोंछते  । वह हरदम रोती रहती। आंखे चांहे बन्द भी हो जाती, पर दिल लगातार रोता रहता था। इस घर में अब कैसे जीवन कटेगा  ? किस आधार पर जिऊंगी ? अपने लिए जीना या तो महात्माओं को आता है या स्वार्थी और दुष्ट लोगों को । अनूपा को यह कला क्या मालूम ? उसे  तो जीवन का एक आधार चाहिए था, जिसे वह अपना सब कुछ समझे, जिसके लिए, जिस पर वह घमंड करे ।

घरवालों को यह गवारा न था कि वह दूसरी शादी करे । इसमें बदनामी थी। इसके सिवाय इतनी सुशील, घर के कामों में कुशल, लेन-देन के मामलों में इतनी होशियार और तारीफ़ के काबिल औरत  का किसी दूसरे के घर जाना ही उनके लिए सहन करना मुश्किल था। उधर अनूपा के मायके वाले एक जगह बातचीत पक्की कर रहे थे। जब सब बातें तय हो गयी, तो एक दिन अनूपा का भाई उसे विदा कराने आ पहुंचा ।

अब तो घर में खलबली मच गई । इधर कहा गया, हम विदा न करेगें । भाई ने कहा, हम बिना विदा कराये मानेंगे  नहीं । गांव के आदमी जमा हो गये, पंचायत होने लगी। यह फ़ैसला हुआ कि अनूपा पर छोड दिया जाय, कि वो जहाँ चाहे रहे। यहां वालो को विश्वास था कि अनूपा इतनी जल्द दूसरा घर करने को राजी न होगी, दो-चार बार ऐसा कह भी चुकी थी। लेकिन उस वक्त जो पूछा गया तो वह जाने को तैयार थी। आखिर उसकी विदाई की तैयारी होने लगी । डोली आ गई।

गांव-भर की औरतें उसे देखने आयीं। अनूपा उठ कर अपनी सांस के पैरों में गिर पडी और हाथ जोड़कर बोली—“अम्मा, कहा-सुना माफ़ करना। मन तो था कि इसी घर में पडी रहूं, पर भगवान को मंजूर  नहीं  है”। यह कहते-कहते उसकी जबान बंद हो गई।
सास दुःख से बेचैन हो उठी। बोली—“बेटी, जहां जाओ वहां सुखी रहो। हमारा बुरा भाग्य   नहीं  तो क्यों तुम्हें इस घर से जाना पडता। भगवान का दिया और सब कुछ है, पर  उन्होंने जो  नहीं  दिया उसमें अपना क्या ज़ोर; बस आज तुम्हारा देवर सयाना होता तो बिगडी बात बन जाती। तुम्हारे मन में जंचें तो इसी को अपना समझो : पालो-पोसो बडा हो जायेगा तो सगाई कर दूंगी”।

यह कहकर उसने अपने सबसे छोटे लडके वासुदेव से पूछा—“क्यों रे ! भाभी  से शादी करेगा ?”
वासुदेव की उम्र पांच साल से ज़्यादा न थी। अबकी उसकी शादी होने वाली थी । बातचीत हो चुकी थी। बोला—“तब तो दूसरे के घर नहीं  जायगी ना ?”
माँ—“ नहीं , जब तेरे साथ शादी हो जायगी तो क्यों जायगी ?”
वासुदेव—“तब मैं करूंगा”
मां—“अच्छा, उससे पूछ, तुझसे शादी करेगी”।

वासुदेव अनूप की गोद में जा बैठा और शरमाता हुआ बोला—“हमसे शादी करोगी?”
यह कह कर वह हंसने लगा; लेकिन अनूप की आंखें भर गयीं, वासुदेव को गले से लगाते हुए बोली —“अम्मा, दिल से कहती हो?”
सास—“भगवान् जानते हैं!”
अनूपा—“आज यह  में रे हो गये ?”

सास—“हां सारा गांव देख रहा है” ।
अनूपा—“तो भैया से कह दो, घर जायें, मैं उनके साथ न जाऊंगी”।
अनूपा को जीवन के लिए आधार की जरूरत थी। वह आधार मिल गया। सेवा इंसान  की स्वाभाविक प्रवृत्ति या स्वभाव  है। सेवा ही उसके जीवन का आधार है।

TO READ OR LISTEN COMPLETE BOOK CLICK HERE

SHARE
Subscribe
Notify of
Or
guest

0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments