(hindi) Aadarsh Virodh

(hindi) Aadarsh Virodh

महाशय दयाकृष्ण मेहता के पाँव जमीन पर न पड़ते थे। उनकी वह इच्छा पूरी हो गयी थी जो उनके जीवन का सुंदर सपना था। उन्हें वह राज्याधिकार मिल गया था जो भारत  में रहने वालों के लिए जीवन-स्वर्ग है। वाइसराय ने उन्हें अपनी कामकारिणी सभा (executive assembly) का मेम्बर बना दिया था।

दोस्त उन्हें बधाइयाँ दे रहे थे। चारों ओर खुशियाँ मनाई जा रही थी, कहीं दावतें होती थीं, कहीं आश्वासन-पत्र दिये जाते थे। वह उनका अकेले का सम्मान नहीं, देश का सम्मान समझा जाता था।अंग्रेज़ अधिकारी भी उन्हें हाथों-हाथ लिये फिरता था।

महाशय दयाकृष्ण लखनऊ के एक मशहूर बैरिस्टर थे। बड़े उदार दिल, राजनीति में कुशल और लोगों के लिए काम करने वाले। हमेशा सामाजिक कामों में लगे रहते। पूरे देश में शासन का ऐसा निडर जानकार, बिना पक्ष लिए बात करने वाला न था और न लोगों को इतनी बारीकी से समझने वाला, ऐसा भरोसेमंद और अच्छे दिल का दोस्त था।

अखबारों में इस नियुक्ति पर खूब बातें हो रही थीं। एक ओर से आवाज आ रही थी हम गवर्नमेंट को इस चुनाव पर बधाई नहीं दे सकते। दूसरी ओर के लोग कहते थे, यह सरकार की दयालुता और लोगों के फायदे के लिए सोचने का सबसे बड़ा उदाहरण है। तीसरा दल भी था, जो दबी जबान से कहता था कि देश का एक और आधार, बुनियाद गिर गया।

शाम का समय था। कैसर पार्क में लिबरल लोगों की ओर से महाशय मेहता को पार्टी दी गयी ! प्रान्त भर के खास आदमी इकट्ठा थे। खाने के बाद सभापति ने अपने भाषण में कहा- “हमें पूरा यकीन है कि आपका मेंबर बनना लोगों के लिए फायदेमंद होगा, और आपकी कोशिशों से उन धाराओं में बदलाव हो जायगा, जो हमारे देश में परेशानी बनी हुई हैं।”

महाशय मेहता ने जवाब देते हुए कहा- “देश का कानून हालातों के कारण होते हैं। जब तक हालातों में बदलाव न हो, कानून में अच्छी व्यवस्था की उम्मीद करना बेकार है।”

सभा ख़त्म हो गयी। एक दल ने कहा- “कितना अच्छा और इंसाफ वाला राजनैतिक कायदा है।”

दूसरा पक्ष बोला- “आ गये जाल में।”

तीसरे दल ने निराशा से सिर हिला दिया, पर मुँह से कुछ न कहा।

मि. दयाकृष्ण को दिल्ली आये हुए एक महीना हो गया। फागुन का महीना था। शाम हो रही थी। वे अपने बगीचे में तालाब के किनारे एक मखमली आरामकुर्सी पर बैठे थे। मिसेज रामेश्वरी मेहता सामने बैठी हुई पियानो बजाना सीख रही थीं और मिस मनोरमा तालाब की मछलियों को बिस्कुट के टुकड़े खिला रही थीं। सहसा उसने पिता से पूछा- “यह अभी कौन साहब आये थे।”

मेहता- “कौंसिल के सैनिक मेम्बर हैं।”

मनोरमा- “वाइसराय के नीचे यही होंगे ?”

मेहता- “वाइसराय के नीचे तो सभी हैं। तनख्वाह भी सबकी बराबर है, लेकिन इनकी काबिलियत तक कोई नहीं पहुँचता। क्यों राजेश्वरी, तुमने देखा, अंग्रेज़ लोग कितने अच्छे और शांत होते हैं।”

राजेश्वरी- “मैं तो उन्हें शांति का पुतला कहती हूँ। इस गुण में भी ये हमसे आगे  हैं। उनकी पत्नी मुझसे कितने प्यार से गले मिलीं।”

मनोरमा- “मेरा तो जी चाहता था, उनके पैरों पर गिर पडूँ।”

मेहता- “मैंने ऐसे दयालु, सभ्य, ईमानदार और लोगों को समझने वाला इंसान नहीं देखे। हमारा दया-धर्म कहने ही को है। मुझे इसका बहुत दुख है कि अब तक क्यों इनके बारे में हमारी सोच गलत रही। आमतौर पर इनसे हम लोगों को जो शिकायतें हैं उनका कारण आपस में जान पहचान ना होना है। एक दूसरे के स्वभाव और व्यवहार को नहीं जानना है ।”

राजेश्वरी- “एक यूनियन क्लब की बड़ी जरूरत है जहाँ दोनों जातियों के लोग एक साथ होने का सुख उठा पाएँ। आपस की दुश्मनी मिटाने का बस यही तरीका है !”

मेहता- “मेरा भी यही सोचना है। (घड़ी देख कर) 7 बज रहे हैं, व्यवसाय मंडल (board of business) के जलसे का समय आ गया। भारत में रहने वालों की अजीब हालत है। ये समझते हैं कि हिंदुस्तानी मेम्बर काउंसिल   में आते ही हिंदुस्तान के मालिक हो जाते हैं और जो चाहें आजादी से कर सकते हैं। उम्मीद की जाती है कि वे सरकारी कानून को पलट दें, नया आकाश और नया सूरज बना दें। उन सीमाओं के बारे में नहीं सोचा जाता है जिनके अंदर मेम्बरों को काम करना पड़ता है।

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राजेश्वरी- “इनमें उनकी गलती नहीं। दुनिया की यह रीत है कि लोग अपनों से सभी तरह की उम्मीद रखते हैं। अब तोकाउंसिल  के आधे मेम्बर हिंदुस्तानी हैं। क्या उनकी राय का सरकार के कानून पर असर नहीं हो सकता ?”

मेहता- “जरूर हो सकता है, और हो रहा है। लेकिन उस कानून को बदला नहीं जा सकता। आधे नहीं, अगर सारे मेम्बर हिंदुस्तानी हों तो भी वे नयी नीति की शुरुआत नहीं कर सकते। वे कैसे भूल जाएँ कि काउंसिल  में उनकी मौजूदगी  सिर्फ़  सरकार की कृपा और भरोसे पर टिकी है। उसके अलावा वहाँ आ कर उन्हें अंदर के हालातों के बारे में पता चलता है और लोगों के ज्यादातर शक बेकार लगने लगते हैं, पद के साथ जिम्मेदारी का भारी बोझ भी सिर पर आ पड़ता है। कोई नया कानून बनाते समय उनके मन में यह बात आना स्वभाविक है कि इसका कोई उल्टा असर ना हो जाए। यहाँ असल में उनकी आजादी खत्म हो जाती है। उन लोगों से मिलते हुए भी झिझकते हैं जो पहले इनके साथ काम कर चुके थे; पर अब अपने मनमाने सोच के कारण सरकार की आँखों में खटक रहे हैं। अपने भाषण में इंसाफ और सच्चाई की बातें करते हैं और सरकार की नीति को गलत समझते हुए भी उसका समर्थन करते हैं। जब इसके खिलाफ वे कुछ कर ही नहीं सकते, तो इसका खिलाफत करके बेइज्जत क्यों बनें ? इस हालत में यही सबसे सही है कि बातें बना कर खुद को बचाया जाय। और सबसे बड़ी बात यह है कि ऐसे अच्छे, दयालू, कानून के बारे में अच्छा सोचने वाले के खिलाफ कुछ कहना या करना इंसानियत और अच्छे व्यवहार का गला घोटना है। यह लो, मोटर आ गयी। चलो व्यवसाय-मंडल में लोग आ गये होंगे।”

ये लोग वहाँ पहुँचे तो तालियां बजने लगी। सभापति महोदय ने एड्रेस पढ़ा जिसका सार यह था कि सरकार को उन शिल्प-कलाओं (craft) को बचाना चाहिए जो देश के दूसरे शिल्प-कलाओं के कारण मिटी जाती हैं। देश की व्यवसायिक उन्नति (commercial progress)  के लिए नये-नये कारखाने खोलने चाहिए और जब वे सफल हो जावें तो उन्हें व्यावसायिक संस्थाओं (business organization) के हवाले कर देना चाहिए। उन कलाओं की पैसे से मदद करना भी उसका फर्ज है, जो अभी सोती हुई हालत में हैं, जिससे लोगों का उत्साह बढ़े।

मेहता महोदय ने सभापति को धन्यवाद देने के बाद सरकार की व्यवसाय से जुड़े कानून की घोषणा करते हुए कहा- “आपके सिद्धांत बिल्कुल सही हैं, लेकिन उसे व्यवहार में लाना बहुत मुश्किल है। गवर्नमेंट मान भी जाती है, लेकिन औद्योगिक (industrial) कामों में आगे बढ़ना जनता का काम है। आपको याद रखना चाहिए कि भगवान भी उन्हीं की मदद करता है जो अपनी मदद आप करते हैं। आपमें खुद पर यकीन, औद्योगिक उत्साह का बड़ी कमी है। कदम कदम पर सरकार के सामने हाथ फैलाना अपनी नालायक और निकम्मे होने की सूचना देना है।”

दूसरे दिन अखबारों में इस भाषण पर बातें होने लगीं। एक दल ने कहा- “मिस्टर मेहता की स्पीच ने सरकार की नीति को बड़े अच्छे और साफ ढंग से तय कर दिया है।”

दूसरे दल ने लिखा- “हम मिस्टर मेहता की स्पीच पढ़ कर चकित हो गये। व्यवसाय-मंडल ने वही रास्ता अपनाया जिसको दिखाने वाले खुद मिस्टर मेहता थे। उन्होंने उस कहावत को सच कर दिया कि ‘नमक की खान में जो कुछ जाता है, नमक हो जाता है’।”

तीसरे दल ने लिखा- “हम मेहता महोदय के इस सिद्धांत से पूरी तरह सहमत हैं कि हमें कदम कदम पर सरकार के सामने गरीबों की तरह हाथ न फैलाना चाहिए। यह भाषण उन लोगों की आँखें खोल देगी जो कहते हैं कि हमें लायक आदमीओं को काउंसिल में भेजना चाहिए। व्यवसाय-मंडल के सदस्यों पर दया आती है जो आत्म-विश्वास का उपदेश सुनने के लिए कानपुर से दिल्ली गये थे।”

चैत का महीना था। शिमला आबाद हो चुका था। मेहता महाशय अपने library  में बैठे हुए पढ़ रहे थे कि राजेश्वरी ने आ कर पूछा- 'ये कैसे पत्र हैं ?”

मेहता- “यह खर्च का हिसाब किताब है। अगले हफ्ते मेंकाउंसिल  में पेश होगा। उनकी कई चीजें ऐसी हैं जिन पर मुझे पहले भी शक था और अब भी है। अब समझ में नहीं आता कि इस पर इजाजत कैसे दूँ। यह देखो, तीन करोड़ रुपये ऊँचें पद के कर्मचारियों की तनख्वाह बढ़ाने के लिए रखे गये हैं। यहाँ कर्मचारियों की तनख्वाह पहले से ही बढ़ी हुई है। इसे बढ़ाने की जरूरत ही नहीं, पर बात जबान पर कैसे लाऊँ ? जिन्हें इससे फायदा होगा वे सभी रोज के मिलने वाले हैं। सैनिक खर्च में बीस करोड़ बढ़ गये हैं। जब हमारी सेनाएँ दूसरे देशों में भेजी जाती हैं तो पता ही है कि हमारी जरूरत से ज्यादा हैं, लेकिन इस चीज के खिलाफ बोलूँ तो काउंसिल  मुझ पर उँगलि उठाने लगे।”

राजेश्वरी- “इस डर से चुप रह जाना तो ठीक नहीं, फिर तुम्हारे यहाँ आने से ही क्या फायदा हुआ।”

मेहता- “कहना तो आसान है, पर करना मुश्किल  है। यहाँ जो कुछ आदर-सम्मान है, सब हाँ-हुजूर में है। वायसराय की नज़र जरा तिरछी हो जाय, तो कोई पास न फटके। नाक कटा बन जाऊँ। यह लो, राजा भद्रबहादुर सिंह जी आ गये।”

राजेश्वरी- “शिवराजपुर कोई बड़ी रियासत है।”

मेहता- “हाँ, साल में पंद्रह लाख से कम कमाई न होगी और फिर आजाद राज्य है।

राजेश्वरी- “राजा साहब मनोरमा की ओर बहुत आकर्षित हो रहे हैं। मनोरमा को भी उनसे प्यार होता जान पड़ता है।

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