“राजा इन्द्रनाथ की मौत हो जाने के बाद कुँवर राजनाथ को दुश्मनों ने चारों ओर से ऐसा दबाया कि उन्हें अपनी जान बचाने के लिए एक पुराने नौकर की शरण में जाना पड़ा, जो एक छोटे-से गाँव का जागीरदार था। कुँवर स्वभाव से ही शांति पसंद, मजाकिया, हँस-खेल कर समय काटने वाले नौजवान थे। लड़ाई के मैदान की जगह कविता के मैदान में अपना चमत्कार दिखाना उन्हें ज़्यादा पसंद था। हंसी मजाक करने वाले लोगों के साथ, किसी पेड़ के नीचे बैठे हुए, कविताओं के बारे में बातें करने में उन्हें जो खुशी मिलती , वह शिकार या राज-दरबार में नहीं मिलती थी।
पहाड़ों से घिरे हुए गाँव में आ कर उन्हें जिस शांति और खुशी का अनुभव हुआ, उसके बदले में वह ऐसे कई राज्य-त्याग सकते थे। पहाड़ों की सुंदर छटा, आँखो को लुभाने वाली हरियाली, पानी की लहरों की मीठी वाणी, चिड़ियों की मीठी बोलियाँ, हिरण के बच्चों की छलाँगें, बछड़ों के खेलकूद, गांव वालों की बच्चों सी सरलता, औरतों की शर्म भरी चंचलता ! ये सभी बातें उनके लिए नयी थीं, पर इन सब से बढ़ कर जो चीज उनको आकर्षित करती थी, वह जागीरदार की जवान बेटी चंदा थी। चंदा घर का सारा काम-काज खुद करती थी। उसे माँ की गोद में खेलना नसीब ही न हुआ था।
पिता की सेवा में ही लगी रहती थी। उसकी शादी इसी साल होने वाली थी, कि इसी बीच कुँवर जी ने आ कर उसके जीवन में नई भावनाओं और उम्मीदों को पैदा कर दिया। उसने अपने पति का जो चित्र मन में खींच रखा था, वही मानो रूप धारण करके उसके सामने आ गया हो । कुँवर की आदर्श पत्नी भी चंदा के ही रूप में आ गयी; लेकिन कुँवर समझते थे , मेरी ऐसी किस्मत कहाँ? चंदा भी समझती थी, कहाँ यह और कहाँ मैं !
दोपहर का समय था और जेठ का महीना। खपरैल का घर भट्ठी की तरह तपने लगा। खस की स्क्रीन और तहखानों में रहने वाले राजकुमार का मन गरमी से इतना बेचैन हुआ कि वह बाहर निकल आये और सामने के बाग में जा कर एक घने पेड़ की छाँव में बैठ गये। अचानक उन्होंने देखा , चंदा नदी से पानी की मटका लिये चली आ रही है। नीचे जलती हुई रेत थी, ऊपर जलता हुआ सूरज । लू से शरीर झुलसा जाता था।
शायद इस समय प्यास से तड़पते हुए आदमी की भी नदी तक जाने की हिम्मत न पड़ती। चंदा क्यों पानी लेने गयी थी? घर में पानी भरा हुआ है। फिर इस समय वह क्यों पानी लेने निकली? कुँवर दौड़कर उसके पास पहुँचे और उसके हाथ से मटका छीनने की कोशिश करते हुए बोले – “”मुझे दे दो और भाग कर छाँव में चली जाओ। इस समय पानी का क्या काम था?””
चंदा ने मटका न छोड़ा। सिर से खिसका हुआ आँचल सँभालकर बोली – “”तुम इस समय कैसे आ गये? शायद मारे गरमी के अंदर न रह सके?””
कुँवर – “”मुझे दे दो, नहीं तो मैं छीन लूँगा।””
चंदा ने मुस्करा कर कहा – “”राजकुमारों को मटका ले कर चलना शोभा नहीं देता।””
कुँवर ने मटका का मुँह पकड़ कर कहा – “”इस अपराध की बहुत सजा सह चुका हूँ। चंदा, अब तो अपने को राजकुमार कहने में भी शर्म आती है।””
चंदा – “”देखो, धूप में खुद हैरान होते हो और मुझे भी हैरान करते हो। मटका छोड़ दो। सच कहती हूँ, पूजा का पानी है।””
कुँवर – “”क्या मेरे ले जाने से पूजा का पानी अपवित्र हो जाएगा?””
चंदा – “”अच्छा भाई, नहीं मानते, तो तुम्हीं ले चलो। हाँ, नहीं तो।””
कुँवर मटका ले कर आगे-आगे चले। चंदा पीछे हो ली। बगीचे में पहुँचे, तो चंदा एक छोटे-से पौधे के पास रुक कर बोली – “”इसी देवता की पूजा करनी है, मटका रख दो।””
कुँवर ने आश्चर्य से पूछा- “”यहाँ कौन सा देवता है, चंदा? मुझे तो नहीं नजर आता।””
चंदा ने पौधो को सींचते हुए कहा – “”यही तो मेरा देवता है।””
पानी पी कर पौधो की मुरझायी हुई पत्तियाँ हरी हो गयीं, मानो उनकी आँखें खुल गयी हों।
कुँवर ने पूछा- “”यह पौधा क्या तुमने लगाया है, चंदा?””
चंदा ने पौधों को एक सीधी लकड़ी से बाँधते हुए कहा – “”हाँ, उसी दिन तो, जब तुम यहाँ आये थे । यहाँ पहले मेरी गुड़ियों का घर था। मैंने गुड़ियों पर छाँव करने के लिए अमोला लगा दिया था। फिर मुझे इसकी याद नहीं रही। घर के काम-धन्धो में भूल गयी। जिस दिन तुम यहाँ आये, मुझे न-जाने क्यों इस पौधे की याद आ गयी। मैंने आ कर देखा, तो वह सूख गया था। मैंने तुरन्त पानी ला कर इसे सींचा, तो कुछ-कुछ ताजा होने लगा। तब से इसे सींचती हूँ। देखो, कितना हरा-भरा हो गया है।””
Puri Kahaani Sune…
“