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(Hindi) Pisanhari ka kuan

(Hindi) Pisanhari ka kuan

“गोमती ने मरते हुए चौधरी विनायक सिंह से कहा- “”चौधरी, मेरे जीवन की यही इच्छा थी।””

चौधरी ने गम्भीर हो कर कहा- “”इसकी कुछ चिंता न करो काकी; तुम्हारी इच्छा भगवान् पूरी करेंगे। मैं आज ही से मजदूरों को बुला कर काम पर लगाये देता हूँ। भगवान ने चाहा, तो तुम अपने कुएँ का पानी पियोगी। तुमने तो गिना होगा, कितने रुपये हैं?””

गोमती ने एक पल आँखें बंद करके, बिखरी हुई यादों को इकट्ठा करके कहा- “”भैया, मैं क्या जानूँ, कितने रुपये हैं? जो कुछ हैं, वह इसी हाँड़ी में हैं। इतना करना कि इतने ही में काम चल जाए। किसके सामने हाथ फैलाते फिरोगे?””

चौधरी ने बंद हाँड़ी को उठा कर हाथों से तौलते हुए कहा- “”ऐसा तो करेंगे ही काकी; कौन देने वाला है। एक चुटकी भीख तो किसी के घर से निकलती नहीं, कुआँ बनवाने को कौन देता है। धन्य हो तुम कि अपनी उम्र भर की कमाई इस धर्म के काम के लिए दे दी।””

गोमती ने गर्व से कहा- “”भैया, तुम तो तब बहुत छोटे थे। तुम्हारे काका मरे तो मेरे हाथ में एक कौड़ी भी न थी। दिन-दिन भर भूखी पड़ी रहती। जो कुछ उनके पास था, वह सब उनकी बीमारी में उठ गया। वह भगवान् के बड़े भक्त थे। इसीलिए भगवान् ने उन्हें जल्दी से बुला लिया। उस दिन से आज तक तुम देख रहे हो कि किस तरह दिन काट रही हूँ।

मैंने एक-एक रात में मन-मन भर अनाज पीसा है; बेटा! देखने वाले आश्चर्य मानते थे। न-जाने इतनी ताकत मुझमें कहाँ से आ जाती थी। बस, यही इच्छा रही कि उनके नाम का एक छोटा-सा कुआँ गाँव में बन जाए। नाम तो चलना चाहिए। इसीलिए तो आदमी बेटे-बेटी को रोता है।””

इस तरह चौधरी विनायक सिंह को वसीयत करके, उसी रात को बुढ़िया गोमती मर गई। मरते समय आखिरी शब्द, जो उसके मुंह से निकले, वे यही थे- “”कुआँ बनवाने में देर न करना।””

उसके पास पैसे हैं यह तो लोगों को अंदाजा था; लेकिन दो हजार है, इसका किसी को अंदाजा न था। बुढ़िया अपने पैसों को बुराइयों की तरह छिपाती थी। चौधरी गाँव का मुखिया और नीयत का साफ आदमी था। इसलिए बुढ़िया ने उसे यह आखिरी आदेश किया था। चौधरी ने गोमती के क्रिया-कर्म में बहुत रुपये खर्च न किये। जैसे ही इन संस्कारों से छुट्टी मिली, वह अपने बेटे हरनाथ सिंह को बुला कर ईंट, चूना, पत्थर का हिसाब करने लगे। हरनाथ अनाज का व्यापार करता था। कुछ देर तक तो वह बैठा सुनता रहा, फिर बोला- “”अभी दो-चार महीने कुआँ न बने तो कोई बड़ा हर्ज है?””

चौधरी ने “”हुँह!”” करके कहा- “”हर्ज तो कुछ नहीं, लेकिन देर करने का काम ही क्या है। रुपये उसने दे ही दिये हैं, हमें तो फोकट में यश मिलेगा। गोमती ने मरते-मरते जल्द कुआँ बनवाने को कहा था।””

हरनाथ- “”हाँ, कहा तो था, लेकिन आजकल बाजार अच्छा है। दो-तीन हजार का अनाज भर लिया जाए, तो अगहन-पूस तक सवाया हो जायगा। मैं आपको कुछ सूद दे दूँगा। चौधरी का मन शक और डर के दुविधा में पड़ गया। दो हजार के कहीं ढाई हजार हो गये, तो क्या कहना। जगमोहन में कुछ बेल-बूटे बनवा दूँगा। लेकिन डर था कि कहीं घाटा हो गया तो?

इस शक को वह छिपा न सके, बोले- “”जो कहीं घाटा हो गया तो?””

हरनाथ ने तड़प कर कहा- “”घाटा क्या हो जायगा, कोई बात है?””

“”मान लो, घाटा हो गया तो?””

हरनाथ ने गुस्सा होकर कहा- “”यह कहो कि तुम रुपये नहीं देना चाहते, बड़े धर्मात्मा बने हो!””

दूसरे बूढ़े लोगों की तरह चौधरी भी बेटे से दबते थे। डरी हुई आवाज में बोले- “”मैं यह कब कहता हूँ कि रुपये न दूँगा। लेकिन पराया धन है, सोच-समझ कर ही तो उसमें हाथ लगाना चाहिए। व्यापार का हाल कौन जानता है। कहीं भाव और गिर जाए तो? अनाज में घुन ही लग जाए, कोई दुश्मन घर में आग ही लगा दे। सब बातें सोच लो अच्छी तरह।””

हरनाथ ने ताना मारते हुए कहा- “”इस तरह सोचना है, तो यह क्यों नहीं सोचते कि कोई चोर ही उठा ले जाए; या बनी-बनायी दीवार बैठ जाए? ये बातें भी तो होती ही हैं।””

चौधरी के पास अब और कोई दलील न थी, कमजोर सिपाही ने ताल तो ठोंकी, अखाड़े में उतर पड़ा; पर तलवार की चमक देखते ही हाथ-पाँव फूल गये। बगलें झाँक कर चौधरी ने कहा- “”तो कितना लोगे?””

हरनाथ कुशल योद्धा की तरह, दुश्मन को पीछे हटता देख कर, फैल कर बोला- “”सब का सब दीजिए, सौ-पचास रुपये ले कर क्या खिलवाड़ करना है?””

चौधरी राजी हो गये। गोमती को उन्हें रुपये देते किसी ने न देखा था। लोक-निंदा की संभावना भी न थी। हरनाथ ने अनाज भरा। अनाजों के बोरों का ढेर लग गया। आराम की मीठी नींद सोने वाले चौधरी अब सारी

रात बोरों की रखवाली करते थे, मजाल न थी कि कोई चुहिया बोरों में घुस जाए। चौधरी इस तरह झपटते थे कि बिल्ली भी हार मान लेती। इस तरह छ: महीने बीत गये। पौष में अनाज बिका, पूरे 500 रु. का फायदा हुआ।

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(Hindi) Aatmsangeet

(Hindi) Aatmsangeet

“आधी रात थी। नदी का किनारा था। आकाश के तारे स्थिर थे और नदी में उनकी परछाई लहरों के साथ चंचल। स्वर्ग जैसे संगीत की मनोहर और जीवन देने वाली, जान देने वाली आवाजें इस खामोश, सुनसान और अंधेरे नजारे पर इस तरह छा रही थी, जैसे दिल पर उम्मीदें छायी रहती हैं, या चहरे पर शोक।

रानी मनोरमा ने आज गुरु-दीक्षा ली थी। दिन-भर दान और व्रत में लगे रहने के बाद मीठी नींद की गोद में सो रही थी। अचानक उनकी आँखें खुलीं और ये मन को भाने वाली आवाजें कानों में पहुँची। वह परेशान हो गयी- “”जैसे दीपक को देखकर पतंग; वह बेचैन हो उठी, जैसे शक्कर की गंध पाकर चींटी। वह उठी और पहरेदारों और चौकीदारों की नजरों से बचती हुई राजमहल से बाहर निकल आयी, जैसे दर्द भरा रोना सुनकर आँखों से आँसू निकल जाते हैं।

नदी के किनारे पर कँटीली झाड़िया थीं। ऊँचे टीले थे। भयानक जानवर थे और उनकी डरावनी आवाजें! और उनसे भी ज़्यादा भयानक उनकी कल्पना। मनोरमा कोमलता और नाजुकता की मूर्ति थी। लेकिन उस मीठा संगीत का आकर्षण उसे मगन होने की हालत में खींचे लिया जाता था। उसे दुःख और तकलीफ़ों  का ध्यान न था।

वह घंटों चलती रही, यहाँ तक कि रास्ते में नदी ने उसे रोका।

मनोरमा ने मजबूर होकर इधर-उधर नजर दौड़ाई। किनारे पर एक नाव दिखाई दी। पास जाकर बोली- “”माँझी, मैं उस पार जाऊँगी, इस सुंदर गाने ने मुझे बेचैन कर दिया है।””

माँझी- “”रात को नाव नहीं खोल सकता। हवा तेज है और लहरें डरावनी। जान-जोखिम हैं।'

मनोरमा- “”मैं रानी मनोरमा हूँ। नाव खोल दे, मुँहमाँगी मजदूरी दूँगी।””

माँझी- “”तब तो नाव किसी तरह नहीं खोल सकता। रानियों का इसमें गुजारा नहीं।””

मनोरमा- “”चौधरी, तेरे पाँव पड़ती हूँ। जल्दी नाव खोल दे। मेरी जान खिंची चली जाती हैं।””

माँझी- “”क्या इनाम मिलेगा?””

मनोरमा- “”जो तू माँगे।””

माँझी- “”आप ही कह दें, गँवार क्या जानूँ, कि रानियों से क्या चीज माँगनी चाहिए। कहीं कोई ऐसी चीज न माँग बैठूँ, जो आपकी प्रतिष्ठा के खिलाफ हो?””

मनोरमा- “”मेरा यह हार बहुत ही कीमती है। मैं इसे दे देती हूँ।”” 

मनोरमा ने गले से हार निकाला, उसकी चमक से माँझी का चेहरा खिल गया। वह कठोर, और काला चहरा, जिस पर झुर्रियॉँ पड़ी थी।

अचानक मनोरमा को ऐसा लगा, मानों संगीत की आवाज और पास हो गयी हो। शायद कोई पूरा ज्ञानी आदमी खुशी से भरा हुआ उस नदी के किनारे पर बैठा हुआ उस शांत रात को संगीत से भर रहा है। रानी का दिल उछलने लगा। आह ! कितनी  मनमोहक  धुन थी ! उसने बेचैन होकर कहा- “”माँझी, अब देर न कर, नाव खोल, मैं एक पल भी धीरज नहीं रख सकती।””

माँझी- “”इस हार हो लेकर मैं क्या करुँगा?””

मनोरमा- “”सच्चे मोती हैं।””

माँझी- “”यह और भी मुसीबत हैं माँझिन गले में पहन कर पड़ोसियों को दिखायेगी, वह सब जलन से जलेंगी, उसे गालियाँ देंगी। कोई चोर देखेगा, तो उसकी छाती पर साँप लोटने लगेगा। मेरी सुनसान झोपड़ी पर दिन-दहाड़े डाका पड़ जायगा। लोग चोरी का अपराध लगायेंगे। नहीं, मुझे यह हार न चाहिए।””

मनोरमा- “”तो जो कुछ तू माँग, वही दूँगी। लेकिन देर न कर। मुझे अब धीरज नहीं है। इंतजार करने की जरा भी ताकत नहीं है। इन राग की एक-एक तान मेरी आत्मा को तड़पा देती है।””

माँझी- “”इससे भी अच्छी कोई चीज दीजिए।””

मनोरमा- “”अरे बेरहम! तू मुझे बातों में लगाये रखना चाहता हैं। मैं जो देती है, वह लेता नहीं, खुद कुछ माँगता नही। तुझे क्या मालूम मेरे दिल की इस समय क्या हालत हो रही है। मैं इस रूहानी चीज के लिए अपना सब कुछ दे सकती हूँ।””

माँझी- “”और क्या दीजिएगा?””

मनोरमा- “”मेरे पास इससे कीमती और कोई चीज नहीं है, लेकिन तू अभी नाव खोल दे, तो कसम खाती हूँ कि तुझे अपना महल दे दूँगी, जिसे देखने के लिए शायद तू कभी गया हो। साफ सफेद पत्थर से बना है, भारत में इसके जैसा दूसरा नहीं।””

माँझी- “”(हँस कर) उस महल में रह कर मुझे क्या खुशी मिलेगी? उलटे मेरे भाई-दोस्त दुश्मन हो जाएँगे। इस नाव पर अँधेरी रात में भी मुझे डर न लगता। आँधी चलती रहती है, और मैं इस पर पड़ा रहता हूँ। लेकिन वह महल तो दिन ही में फाड़ खायेगा। मेरे घर के आदमी तो उसके एक कोने में समा जाएँगे। और आदमी कहाँ से लाऊँगा; मेरे नौकर-चाकर कहाँ? इतना सामान कहाँ? उसकी सफाई और मरम्मत कहाँ से कराऊँगा? उसके बगीचे सूख जाएँगे, उसके आंगन में गीदड़ बोलेंगे और छत पर कबूतर और अबाबीलें घोंसले बनायेंगी।””

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(Hindi) Bhagavad Gita(Chapter 6)

(Hindi) Bhagavad Gita(Chapter 6)

“Special Thanks to Alka and Amit ji for bringing Shrimad Bhagavad Gita to masses in very simple language.

अध्याय 6: आत्म संयम योग 
 
कर्मयोग का विषय और योगारूढ़ के लक्षण, काम-संकल्प-त्याग का महत्व

श्लोक 1: 
श्री भगवान बोले- “जो मनुष्य कर्मफल पर आश्रित ना होकर निष्काम कर्म करता है, वही संन्यासी और योगी है, केवल अग्नि या कर्मों का त्याग करने वाला संन्यासी नहीं होता. हे अर्जुन! जिसे संन्यास कहा जाता है उसे तू योग जान क्योंकि कोई भी संकल्पों का त्याग किए बिना योगी नहीं बन सकता. योग में भलीभांति स्थित होने वाले, उनके लिए निष्काम कर्म योग ही साधन है और योगारुड़ हो जाने पर जो सर्व संकल्पों का अभाव है, वही हेतु कहा जाता है. जब कोई इंद्रियों के विषयों में या कर्मों में आसक्त नहीं होता तब सर्व संकल्पों का संयासी मनुष्य योगारुड ( योगयुक्त )कहा जाता है.” 

अर्थ: भगवान् यहाँ साफ़-साफ़ बता रहे हैं कि जो भी मनुष्य निष्काम भाव से कर्म करता है यानी ऐसे कर्म जिसमें ना अहंकार हो, ना कर्ता का भाव और ना फल पाने की कामना, वो सभी मनुष्य संयासी ही कहलाते हैं. इसलिए सिर्फ़ हवन-तप आदि करना, घरबार छोड़ देना या गेरुए कपड़े पहन लेने से कोई संयासी नहीं बन जाता क्योंकि अगर मन में कुछ पाने की ज़रा सी भी इच्छा बाकी हो तो वो संन्यास है ही नहीं. 

संकल्प का मतलब है जिस इच्छा को मनुष्य हर हाल में पूरा करना चाहता है, कैसे भी पाना चाहता है, वो इच्छा संकल्प में बदल जाती है. जब इच्छा गहरे में बैठ जाए तो उसे संकल्प कहते हैं. संकल्प का इतना गहरा असर होता है कि जब तक वो पूरा ना हो जाए मनुष्य को चैन नहीं आता. अक्सर ये संकल्प ज़िद और अहंकार के रूप में मनुष्य के चित्त में इम्प्रैशन बनकर बैठ जाते हैं. इसमें मनुष्य कुछ करने की ठान लेता है और उससे फल पाने की उम्मीद भी करता है. कोई भी मनुष्य तब तक योगी नहीं बन सकता जब तक उसे कुछ पाने की चाहत रहती है. जब मन में फल पाने का विचार छूट जाता है तो मन स्थिर हो जाता है, नहीं तो फल की इच्छा हमेशा मानसिक अशांति का कारण बनती है. इसलिए संकल्प का त्याग करना भी बेहद ज़रूरी है. संकल्प छोड़कर समर्पण करने से ही योगी बना जा सकता है. सांसारिक वस्तुओं की इच्छाओं का त्याग तो आवश्यक है ही लेकिन आलोकीक प्राप्तियों को पाने की इच्छा भी योगी नाही बनने देती क्योंकि भगवान कहते हैं कि आत्म-भाव मे स्थित होने से कुछ मांगना नही पड़ता बिना इच्छा के भगवान सभी शुभकामनाएं पूरी करता है। 
जब कर्म सकाम से निष्काम होते चले जाते हैं तो मनुष्य योगी बनने के रास्ते पर आगे बढ़ता चला जाता है. सकाम कर्म मनुष्य को भोग की ओर ले जाते हैं जबकि निष्काम कर्म योग की ओर. इसलिए सुबह से लेकर रात तक सारे कर्म जो रहे हैं उनमें से अगर सकामता का भाव हट जाए तो समझो निष्काम कर्म योग हो गया. यही कारण है कि मनुष्य को कहा गया है ‘बस कर्म करते रहो, फल की चाह मत करो’. इस रास्ते पर चलते-चलते जब मनुष्य योग की गहराई में चला जाता है तो सारे संकल्प अपने आप ही नष्ट होने लगते हैं. योग में इस अवस्था से ऊँची कोई अवस्था नहीं होती. 

मनुष्य के मन के अंदर जो होता है उसके कर्म भी वैसे ही होते हैं. योगारूढ़ का मतलब है जो योग की अवस्था में ठहर गया हो. यहाँ भगवान् कह रहे हैं कि जब कोई बाहरी दुनिया में चीज़ों  और कर्मों के प्रति लगाव छोड़ देता है तो उसका मतलब है कि उसने अपने मन को वश में कर लिया है. जब मन वश में हो जाता है तो इच्छा जन्म नहीं लेती जिस वजह से वो गहराई में जाकर संकल्प नहीं बनती. इस तरह वो योगी हर संकल्प से मुक्त हो जाता है और अपने आत्म भाव में ठहर जाता है , उसे ही योगारूढ़ कहते हैं. 

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(Hindi) Istifa

(Hindi) Istifa

“दफ्तर का बाबू एक बेजबान जीव है। मजदूरों को ऑंखें दिखाओ, तो वह त्योरियाँ बदल कर खड़ा हो जाए। कुली को एक डाँट बताओं, तो सिर से बोझ फेंक कर अपनी राह लेगा। किसी भिखारी को डाँटो, तो वह तुम्हारी ओर गुस्से की नजर से देख कर चला जायेगा। यहाँ तक कि गधा भी कभी-कभी तकलीफ पाकर दो लातें जड़ने लगता है; मगर बेचारे दफ्तर के बाबू को आप चाहे ऑंखे दिखायें, डाँट बतायें, झिड़कें या ठोकरें मारों, उसक माथे पर बल न आयेगा।

उसे अपने बुराइयों पर जो काबू होता है, वह शायद किसी संयमी साधु में भी न हो। संतोष का पुतला, सब्र की मूर्ति, सच्चा आज्ञाकारी, उसमें सभी मानवी अच्छाइयाँ मौजूद होती हैं। खंडहर की भी एक दिन किस्मत जागती हैं दीवाली के दिन उस पर भी रोशनी होती है, बरसात में उस पर हरियाली छाती है, प्रकृति की दिलचस्पियों में उसका भी हिस्सा है। मगर इस गरीब बाबू के नसीब कभी नहीं जागते। इसकी अँधेरी किस्मत में रोशनी का जलावा कभी नहीं दिखाई देता। इसके पीले चेहरे पर कभी मुस्कराहट की रोशनी नजर नहीं आती। इसके लिए सूखा सावन है, कभी हरा भादों नहीं। लाला फतहचंद ऐसे ही एक बेजबान जीव थे।

कहते हैं, इंसान पर उसके नाम का भी असर पड़ता है। फतहचंद की हालत में यह बात सच साबित न हो सकी। अगर उन्हें “”हारचंद”” कहा जाय तो शायद यह गलत न होगा। दफ्तर में हार, जिंदगी में हार, दोस्तों में हार, जीतन में उनके लिए चारों ओर निराशाऍं ही थीं। लड़का एक भी नहीं, लड़कियाँ थीं; भाई एक भी नहीं, भाभियाँ दो, जेब में पैसे नहीं, मगर दिल में दया और अच्छाई, सच्चा दोस्त एक भी नहीं, जिससे दोस्ती हुई, उसने धोखा दिया, इस पर सेहत भी अच्छी नहीं, बत्तीस साल की उम्र में बाल सफेद होने लगे थे।

ऑंखों में रोशनी नहीं, हाजमा खराब, चेहरा पीला, गाल चिपके, कमर झुकी हुई, न दिल में हिम्मत, न कलेजे में ताकत। नौ बजे दफ्तर जाते और छ: बजे शाम को लौट कर घर आते। फिर घर से बाहर निकलने की हिम्मत न पड़ती। दुनिया में क्या होता है; इसकी उन्हें बिलकुल खबर न थी। उनकी दुनिया लोक-परलोक जो कुछ था, दफ्तर था। नौकरी की खैर मनाते और जिंदगी के दिन पूरे करते थे। न धर्म से कुछ लेनादेना था, न ईमान से। न कोई मनोरंजन था, न खेल। ताश खेले हुए भी शायद लम्बा समय गुजर गया था।

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(Hindi) Nimantran

(Hindi) Nimantran

“पंडित मोटेराम शास्त्री ने अंदर जा कर अपने बड़े से पेट पर हाथ फेरते हुए यह पद(कविता का भाग) ऊँची आवाज में गाया,

“अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम, दास मलूका कह गये, सबके दाता राम!”

सोना ने खुश हो कर पूछा- “”कोई मीठी ताजी खबर है क्या?””

शास्त्री जी ने पैंतरे बदल कर कहा- “”मार लिया आज। ऐसा घात कर मारा कि चारों खाने चित्त। सारे घर का नेवता(निमंत्रण)! सारे घर का। वह बढ़-बढ़कर हाथ मारूँगा कि देखने वाले दंग रह जाएँगे। पेट महाराज अभी से बेचैन हो रहे हैं।””

सोना – “”कहीं पहले की तरह अब की भी धोखा न हो। पक्का कर लिया है न?””

मोटेराम ने मूँछें ऐंठते हुए कहा- “”ऐसा अपशगुन मुँह से न निकालो। बड़े जप-तप के बाद यह शुभ दिन आया है। जो तैयारियाँ करनी हों, कर लो।””

सोना – “”वह तो करूँगी ही। क्या इतना भी नहीं जानती? जन्म भर घास थोड़े ही खोदती रही हूँ; मगर है घर भर का न?””

मोटेराम – “”अब और कैसे कहूँ; पूरे घर भर का है। इसका मतलब समझ में न आया हो, तो मुझसे पूछो। अक्लमंदों की बात समझना सबका काम नहीं। मगर उनकी बात सभी समझ लें, तो उनकी अक्लमंदी का महत्त्व ही क्या रहे; बताओ, क्या समझीं? मैं इस समय बहुत ही सरल भाषा में बोल रहा हूँ; मगर तुम नहीं समझ सकीं। बताओ, अक्लमंदी किसे कहते हैं? महत्त्व ही का महत्व बताओ।

घर भर का निमंत्रण देना क्या मजाक है? हाँ, ऐसे मौके पर अक्लमंद लोग राजनीति से काम लेते हैं और उसका वही मतलब निकालते हैं, जो अपने फायदे में हो। मुरादापुर की रानी साहब सात ब्राह्मणों को इच्छापूर्ण खाना कराना चाहती हैं। कौन-कौन महाशय मेरे साथ जाएँगे, यह तय करना मेरा काम है। अलगूराम शास्त्री, बेनीराम शास्त्री, छेदीराम शास्त्री, भवानीराम शास्त्री, फेकूराम शास्त्री, मोटेराम शास्त्री आदि जब इतने आदमी अपने घर ही में हैं, तब बाहर कौन ब्राह्मणों को खोजने जाए।””

सोना – “”और सातवाँ कौन है?””

मोटे.- “”सोचो।””

सोना – “”एक पत्तल घर लेते आना।””

मोटे.- “”फिर वही बात कही, जिसमें बदनामी हो। छि: छि:! पत्तल घर लाऊँ। उस पत्तल में वह स्वाद कहाँ जो यजमान के घर पर बैठ कर खाना करने में है। सुनो, सातवें महाशय हैं, पंडित सोनाराम शास्त्री।””

सोना – “”चलो, दिल्लगी करते हो। भला, कैसे जाऊँगी?””

मोटे.- “”ऐसे ही मुश्किल मौकों पर तो विद्या की जरूरत पड़ती है। अक्लमंद आदमी मौके को अपना सेवक बना लेता है, बेवकूफ अपनी किस्मत को रोता है। सोनादेवी और सोनाराम शास्त्री में क्या अंतर है, जानती हो? सिर्फ कपड़े का। कपड़े का मतलब समझती हो? कपड़े “”पहनाव”” को कहते हैं। इसी साड़ी को मेरी तरह बाँध लो, मेरा कुर्ता पहन लो, ऊपर से चादर ओढ़ लो। पगड़ी मैं बाँधा दूँगा। फिर कौन पहचान सकता है?””

सोना ने हँसकर कहा- “”मुझे तो शर्म आएगी।””

मोटे.- “”तुम्हें करना ही क्या है? बातें तो हम करेंगे।””

सोना ने मन ही मन आने वाले खाने का मजा ले कर कहा- “”बड़ा मजा होगा!””

मोटे.- “”बस, अब देर न करो। तैयारी करो, चलो।””

सोना – “”कितनी चूरन बना लूँ?””

मोटे.- “”यह मैं नहीं जानता। बस, यही नमुना सामने रखो कि ज्यादा से ज्यादा फायदा हो।””

अचानक सोनादेवी को एक बात याद आ गयी। बोली- “”अच्छा, इन बिछुओं(पैर की उँगलियों मे पहने जाने वाला अंगुठी जैसा गहना) का क्या करूँगी?””

मोटेराम ने त्योरी चढ़ा कर कहा- “”इन्हें उठाकर रख देना, और क्या करोगी?””

सोना – “”हाँ जी, क्यों नहीं। उतार कर रख क्यों न दूँगी?

मोटे.- “”तो क्या तुम्हारे बिछुए पहने ही से मैं जी रहा हूँ? जीता हूँ पौष्टिक खाना के खाने से। तुम्हारे बिछुओं के पुण्य से नहीं जीता।””

सोना – “”नहीं भाई, मैं बिछुए न उतारूँगी।””

मोटेराम ने सोच कर कहा- “”अच्छा, पहने चलो, कोई नुकसान नहीं। भगवान यह बाधा भी दूर कर देंगे। बस, पाँव में बहुत-से कपड़े लपेट लेना। मैं कह दूँगा, इन पंडित जी को फीलपाँव हो गया। क्यों, कैसी सूझी?””

पंडिताइन ने पतिदेव को तारीफ भरी नजरों से देख कर कहा- “”जन्म भर पढ़ा नहीं है?””

शाम-समय पंडित जी ने पाँचों बेटों को बुलाया और उपदेश देने लगे- “”बेटों, कोई काम करने के पहले खूब सोच-समझ लेना चाहिए कि कैसा क्या होगा। मान लो, रानी साहब ने तुम लोगों का पता-ठिकाना पूछना शुरू किया, तो तुम लोग क्या जवाब दोगे? यह तो बड़ी बेवकूफी होगी कि तुम सब मेरा नाम लो। सोचो, कितने कलंक और शर्म की बात होगी कि मुझ-जैसा अक्लमंद सिर्फ खाना के लिए इतनी बड़ी चाल चले। इसलिए तुम सब थोड़ी देर के लिए भूल जाओ कि मेरे बेट हो। कोई मेरा नाम न बतलाये। दुनिया में नामों की कमी नहीं, कोई अच्छा-सा नाम चुन कर बता देना। पिता का नाम बदल देने से कोई गाली नहीं लगती। यह कोई अपराध नहीं।””

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(Hindi) Kaptan Sahab

(Hindi) Kaptan Sahab

“जगत सिंह को स्कूल जाना दवाई खाने या मछली का तेल पीने से कम नापसंद न था। वह सैर करने वाला, आवारा, घुमक्कड़ लड़का था। कभी अमरूद के बागों की ओर निकल जाता और अमरूदों के साथ माली की गालियाँ बड़े शौक से खाता। कभी दरिया की सैर करता और मल्लाहों की छोटी नाव में बैठकर उस पार के देहातों में निकल जाता। गालियाँ खाने में उसे मजा आता था। गालियाँ खाने का कोई मौका वह हाथ से न जाने देता।

सवार के घोड़े के पीछे ताली बजाना, घोड़ागाड़ी को पीछे से पकड़ कर अपनी ओर खींचना, बूढों की चाल की नकल करना, उसके मनोरंजन की चीजें थी। आलसी काम तो नहीं करता; पर बुरी आदतों का दास होता है, और बुरी आदतें पैसे के बिना पूरे नहीं होतीं। जगत सिंह को जब मौका मिलता घर से रुपये उड़ा ले जाता। नकद न मिले, तो बरतन और कपड़े उठा ले जाने में भी उसे शर्म न आती थी। घर में शीशियाँ और बोतलें थीं, वह सब उसने एक-एक करके रद्दी बाजार पहुँचा दी।

पुराने दिनों की कितनी चीजें घर में पड़ी थीं, उसके मारे एक भी न बची। इस कला में ऐसा अच्छा और काबिल था कि उसकी चतुराई और तेजी पर आश्चर्य होता था। एक बार बाहर ही बाहर, सिर्फ दीवार  के सहारे अपने दो-मंजिला मकान की छत पर चढ़ गया और ऊपर ही से पीतल की एक बड़ी थाली लेकर उतर आया। घर वालें को आहट तक न मिली।

उसके पिता ठाकुर भक्त सिहं अपने कस्बे के डाकखाने के मुंशी थे। अफसरों ने उन्हे शहर का डाकखाना बड़ी दौड़-धूप करने पर दिया था; लेकिन भक्त सिंह जिन इरादों से यहाँ आये थे, उनमें से एक भी पूरा न हुआ। उल्टे नुकसान यह हुआ कि देहात में जो सब्जी, उपले-ईंधन मुफ्त मिल जाते थे, वे सब यहाँ बंद हो गये। यहाँ सबसे पुरानी जान पहचान न थी, न किसी को दबा सकते थे, न सता सकते थे। इस बुरी हालत में जगत सिंह की चोरियां बहुत अखरतीं। उन्होंने कितनी ही बार उसे बड़ी बेरहमी से पीटा।

जगत सिंह बड़े शरीर का होने पर भी चुपके में मार खा लिया करता था। अगर वह अपने पिता के हाथ पकड़ लेता, तो वह हिल भी न सकते; पर जगत सिंह इतना बदतमीज न था। हाँ, मार-पीट, घुड़की-धमकी किसी का भी उस पर असर न होता था।

जगत सिंह जैसे ही घर में कदम रखता; चारों ओर से काँव-काँव मच जाती, माँ दुर-दुर करके दौड़ती, बहने गालियाँ देने लगती; मानो घर में कोई साँड़ घुस आया हो। घर वाले उसकी सूरत से जलते थे। इन तिरस्कारों ने उसे बेशर्म बना दिया था। तकलीफों को जानने के कारण वह बेफिक्र-सा हो गया था। जहाँ नींद आ जाती, वहीं पड़ा रहता; जो कुछ मिल जाता, वही खा लेता।
जैसे-जैसे घर वालें को उसकी चोरी की कला के तरीकों का पता चलता जाता था, वे उससे चौकन्ने होते जाते थे। यहाँ तक कि एक बार पूरे महीने-भर तक उसकी दाल न गली। चरस वाले के कई रुपये ऊपर चढ़ गये। गाँजे वाले ने धुआँधार तकाजे करने शुरू किय। हलवाई कड़वी बातें सुनाने लगा। बेचारे जगत का निकलना मुश्किल हो गया। रात-दिन ताक-झाँक में रहता; पर मौका न मिलता था।

आखिर एक दिन बिल्ली के भाग का छींका टूटा। भक्तसिंह दोपहर को डाकखानें से चले, जो एक बीमा-रजिस्ट्री थी, जेब में डाल ली। कौन जाने कोई डाकिया शरारत कर जाए; लेकिन घर आये तो लिफाफे को अचकन की जेब से निकालने का होश न रहा। जगत सिंह तो ताक लगाये हुए था ही। पैसे के लालच से जेब टटोली, तो लिफाफा मिल गया। उस पर कई आने के टिकट लगे थे। वह कई बार टिकट चुरा कर आधे दामों पर बेच चुका था। चट लिफाफा उड़ा लिया। अगर उसे मालूम होता कि उसमें नोट हैं, तो शायद वह न छूता; लेकिन जब उसने लिफाफा फाड़ डाला और उसमें से नोट निकल पड़े तो वह बड़ी मुसीबत में पड़ गया। वह फटा हुआ लिफाफा गला-फाड़ कर उसके गलत हरकत को धिक्कारने लगा।

उसकी हालत उस शिकारी की-सी हो गयी, जो चिड़ियों का शिकार करने जाए और अंजाने में किसी आदमी पर निशाना मार दे। उसके मन में पश्चाताप था, शर्म थी, दुख था, पर उसमे भूल की सजा सहने की ताकत न थी। उसने नोट लिफाफे में रख दिये और बाहर चला गया।

गरमी के दिन थे। दोपहर को सारा घर सो रहा था; पर जगत की आँखें में नींद न थी। आज उसकी बुरी तरह पिटाई होगी- इसमें शक न था। उसका घर पर रहना ठीक नहीं, दस-पाँच दिन के लिए उसे कहीं खिसक जाना चाहिए। तब तक लोगों का गुस्सा शांत हो जाता। लेकिन कहीं दूर गये बिना काम न चलेगा। बस्ती में वह ज्यादा दिन तक छुपकर नहीं रह सकता। कोई न कोई जरुर ही उसका पता बता देगा और वह पकड़ लिया जायगा। दूर जाने के लिए कुछ न कुछ खर्च तो पास होना ही चहिए।

क्यों न वह लिफाफे में से एक नोट निकाल ले? यह तो मालूम ही हो जायगा कि उसी ने लिफाफा फाड़ा है, फिर एक नोट निकल लेने में क्या नुकसान है? दादा के पास रुपये तो है ही, झक मार कर दे देंगे। यह सोचकर उसने दस रुपये का एक नोट उड़ा लिया; मगर उसी समय उसके मन में एक नयी कल्पना का पैदा हुई। अगर ये सब रुपये लेकर किसी दूसरे शहर में कोई दूकान खोल ले, तो बड़ा मजा हो। फिर एक-एक पैसे के लिए उसे क्यों किसी की चोरी करनी पड़े! कुछ दिनों में वह बहुत-सा रुपया जमा करके घर आयेगा; तो लोग कितने चौंक जाएँगे!

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(Hindi) Ishwariya Nyaay

(Hindi) Ishwariya Nyaay

“कानपुर जिले में पंडित भृगुदत्त नामक एक बड़े जमींदार थे। मुंशी सत्यनारायण उनके कर्मचारी थे। वह बड़े वफादार और अच्छे स्वभाव के इंसान थे। लाखों रुपये की तहसील और हजारों मन अनाज का लेन-देन उनके हाथ में था; पर कभी उनकी नीयत न बिगड़ती। उनके अच्छे इंतजाम से रियासत दिनोंदिन उन्नति करती जाती थी। ऐसे फर्ज निभाने वाले सेवक का जितना सम्मान होना चाहिए, उससे ज्यादा ही होता था। दुख-सुख के हर मौके पर पंडित जी उनके साथ बड़ी दयालुता से पेश आते।

धीरे-धीरे मुंशी जी का भरोसा इतना बढ़ा कि पंडित जी ने हिसाब-किताब को समझना भी छोड़ दिया। मुमकिन है, उनसे पूरा जीवन इसी तरह निभ जाती, पर होनी ताकतवर है। प्रयाग में कुम्भ लगा, तो पंडित जी भी नहाने गये। वहाँ से लौटकर फिर वे घर न आये। मालूम नहीं, किसी गड्ढे में फिसल पड़े या कोई जानवर उन्हें खींच ले गया, उनका फिर कुछ पता ही न चला। अब मुंशी सत्यनाराण के अधिकार और भी बढ़े। एक बदकिस्मत विधवा और दो छोटे-छोटे बच्चों के सिवा पंडित जी के घर में और कोई न था।

अंतिम संस्कार से निपट कर एक दिन दुखी पंडिताइन ने उन्हें बुलाया और रोकर कहा- “”लाला, पंडित जी हमें मँझधार में छोड़कर स्वर्ग चले गये, अब यह नाव तुम्ही पार लगाओगे तो लग सकती है। यह सब खेती तुम्हारी लगायी हुई है, इसे तुम्हारे ही ऊपर छोड़ती हूँ। ये तुम्हारे बच्चे हैं, इन्हें अपनाओ। जब तक मालिक जिये, तुम्हें अपना भाई समझते रहे। मुझे भरोसा है कि तुम उसी तरह इस भार को सँभाले रहोगे।””

सत्यनाराण ने रोते हुए जवाब दिया- “”भाभी, भैया क्या उठ गये, मेरी तो किस्मत ही फूट गई, नहीं तो मुझे आदमी बना देते। मैं उन्हीं का नमक खाकर जिया हूँ और उन्हीं की चाकरी में मरुँगा भी। आप धीरज रखें। किसी तरह की चिंता न करें। मैं जीते-जी आपकी सेवा से मुँह न मोडूँगा। आप सिर्फ इतना कीजिएगा कि मैं जिस किसी की शिकायत करुँ, उसे डाँट दीजिएगा; नहीं तो ये लोग सिर चढ़ जाएँगे।””

इस घटना के बाद कई सालो तक मुंशीजी ने रियासत को सँभाला। वह अपने काम में बड़े अच्छे थे। कभी एक पैसे की भी गड़बड़ नहीं हुई। सारे जिले में उनका सम्मान होने लगा। लोग पंडित जी को भूल- सा गये। दरबारों और कमेटियों में वे शामिल होते, जिले के अधिकारी उन्हीं को जमींदार समझते। दूसरे अमीरों में उनका आदर था; पर इज्जत बढ़ने की महँगी चीज है। और भानुकुँवरि, दूसरी औरतों की तरह पैसे को खूब पकड़ती। वह इंसान की मन के भावों से परिचित न थी।

पंडित जी हमेशा लाला जी को इनाम देते रहते थे। वे जानते थे कि ज्ञान के बाद, नीयत का दूसरा आधार अपनी अच्छी हालत है। इसके सिवा वे खुद भी कभी कागजों की जाँच कर लिया करते थे। नाम के लिए ही सही, पर इस निगरानी का डर जरुर बना रहता था; क्योंकि नीयत का सबसे बड़ा दुश्मन मौका है। भानुकुँवरि इन बातों को जानती न थी। इसलिए मौके और पैसे की कमी-जैसे ताकतवर दुश्मनों के पंजे में पड़ कर मुंशीजी की नीयत कैसे न बिगड़ती?

कानपुर शहर से मिला हुआ, ठीक गंगा के किनारे, एक बहुत आजाद और उपजाऊ गाँव था। पंडित जी इस गाँव को लेकर नदी-किनारे पक्का घाट, मंदिर, बाग, मकान आदि बनवाना चाहते थे; पर उनकी यह इच्छा पूरी न हो सकी। इत्तेफाक से अब यह गाँव बिकने लगा। उनके जमींदार एक ठाकुर साहब थे। किसी फौजदारी के मामले में फँसे हुए थे। मुकदमा लड़ने के लिए रुपये की चाह थी। मुंशीजी ने कचहरी में यह समाचार सुना। चटपट मोल-तोल हुआ। दोनों तरफ गरज थी।

सौदा पटने में देर न लगी, बैनामा(अग्रीमेंट) लिखा गया। रजिस्ट्री हुई। रुपये मौजूद न थे, पर शहर में साख थी। एक महाजन के यहाँ से तीस हजार रुपये मँगवाये गये और ठाकुर साहब को नजर किये गये। हाँ, काम-काज की आसानी के ख्याल से यह सब लिखा-पढ़ी मुंशीजी ने अपने ही नाम की; क्योंकि मालिक के लड़के अभी नाबालिग थे। उनके नाम से लेने में बहुत झंझट होती और देर होने से शिकार हाथ से निकल जाता। मुंशीजी बैनामा लिये बहुत खुश हो कर भानुकुँवरि के पास आये। पर्दा कराया और यह अच्छी खबर सुनाई। भानुकुँवरि ने भरी आँखों से उनको धन्यवाद दिया। पंडित जी के नाम पर मन्दिर और घाट बनवाने का इरादा पक्का हो गया।

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(Hindi) Durasha

(Hindi) Durasha

“[होली का दिन]
(समय-9 बजे रात आनंदमोहन तथा दयाशंकर बातचीत करते जा रहे हैं।)

आनंदमोहन – “”हम लोगों को देर तो न हुई। अभी तो नौ बजे होंगे !””

दयाशंकर – “”नहीं अभी क्या देर होगी !””

आनंदमोहन – “”वहाँ बहुत इंतज़ार न कराना। क्योंकि एक तो दिन भर गली-गली घूमने के बाद मुझमें इंतज़ार करने की ताकत ही नहीं, दूसरे ठीक ग्यारह बजे बोर्डिंग हाउस का दरवाज़ा बंद हो जाता है।””

दयाशंकर – “”अजी चलते-चलते थाली सामने आयेगी। मैंने तो सेवती से पहले ही कह दिया है कि नौ बजे तक सामान तैयार रखना।””

आनंदमोहन – “”तुम्हारा घर तो अभी दूर है। यहाँ मेरे पैरों में चलने की ताकत ही नहीं। आओ कुछ बातचीत करते चलें। भला यह तो बताओ कि परदे के बारे में तुम्हारा क्या ख्याल है? भाभी जी मेरे सामने आयेंगी या नहीं? क्या मैं उनका चहरा देख पाऊंगा? सच कहो।””

दयाशंकर – “”तुम्हारे और मेरे बीच में तो भाईचारे का रिश्ता है। अगर सेवती मुँह खोले हुए भी तुम्हारे सामने आ जाय तो मुझे कोई तकलीफ नहीं। लेकिन साधारणतः मैं परदे की प्रथा पर भरोसा करता हूँ और साथ देता हूँ। क्योंकि हम लोगों की सामाजिक नीति इतनी पवित्र नहीं है कि कोई औरत अपनी शर्म-भाव को चोट पहुँचाये बिना अपने घर से बाहर निकले।””

आनंदमोहन – “”मेरे ख्याल में तो पर्दा ही गलत हरकतों का मूल कारण है। पर्दे से स्वभावतः आदमियों के मन में उत्सुकता पैदा होती है। और वह भाव कभी तो बातों में दिखता है और कभी तिरछी नजरों में।””

दयाशंकर – “”जब तक हम लोग इतने पक्के इरादे वाले  न हो जायँ कि सतीत्व को बचाने के लिए जान दे सकें तब तक परदे की प्रथा को तोड़ना समाज के रास्ते में जहर बोना है।””

आनंदमोहन – “”आपके ख्याल से तो यही साबित होता है कि यूरोप में सतीत्व-रक्षा के लिए रात-दिन खून की नदियाँ बहा करती हैं।””

दयाशंकर – “”वहाँ इसी बेपर्दगी(बिना पर्दे) ने तो सतीत्व-धर्म को बर्बाद कर दिया है। अभी मैंने किसी अखबार में पढ़ा था कि एक औरत ने किसी आदमी पर इस तरह का मुकदमा किया था कि उसने मुझे बेशर्मी से गलत नजर से घूरा था। लेकिन विचारक ने उस औरत को सर से पैर तक देख कर यह कह कर मुकदमा खारिज कर दिया कि हर इंसान को हक है कि बाजार में नौजवान औरत को घूर कर देखे। मुझे तो यह मुकदमा और यह फैसला पूरी तरह मजाकिया जान पड़ते हैं और किसी भी समाज के लिए शर्मनाक हैं।””

आनंदमोहन – “”इस बात को छोड़ो। यह तो बताओ कि इस समय क्या-क्या खिलाओगे दोस्त नहीं तो दोस्त की बात ही हो।””

दयाशंकर – “”यह तो सेवती की खाना बनाने की काबिलियत पर निर्भर है। पूरियाँ और कचौरियाँ तो होंगी ही। हो सकता है खूब खरी भी होंगी। जितना हो सके खस्ते और समोसे भी आयेंगे। खीर आदि के बारे में भविष्यवाणी की जा सकती है। आलू और गोभी की रसे वाली तरकारी और मटर दालमोट भी मिलेंगे। फीरिनी के लिए भी कह आया था। गूलर के कोफते और आलू के कबाब यह दोनों सेवती खूब पकाती है। इनके सिवा दही-बड़े और चटनी-अचार तो पूछना बेकार ही है। हाँ शायद किशमिश का रायता भी मिले जिसमें केसर की सुगंध उड़ती होगी।””

आनंदमोहन – “”दोस्त मेरे मुँह में तो पानी भर आया। तुम्हारी बातों ने तो मेरे पैरों में जान डाल दी। शायद पँख होते तो उड़ कर पहुँच जाता।””

दयाशंकर – “”लो अब तो आ ही जाते हैं। यह तम्बाकू वाले की दूकान है इसके बाद चौथा मकान मेरा ही है।””

आनंदमोहन – “”मेरे साथ बैठ कर एक ही थाली में खाना। कहीं ऐसा न हो कि ज्यादा खाने के लिए मुझे भाभी जी के सामने शर्मिंदा होना पड़े।””

दयाशंकर – “”इससे तुम बेफिक्र रहो। उन्हें कम खाने वाले आदमी से चिढ़ है। वे कहती हैं- “”जो खायेगा ही नहीं, दुनिया में काम क्या करेगा? आज शायद तुम्हारी बदौलत मुझे भी काम करने वालों की कतार में जगह मिल जावे। कम से कम कोशिश तो ऐसी ही करना।””

आनंदमोहन – “”भाई जितना हो सके कोशिश करूँगा। शायद तुम ही जीत जाओ।””

दयाशंकर – “”यह लो आ गये। देखना सीढ़ियों पर अँधेरा है। शायद दीया जलाना भूल गयी।””

आनंदमोहन – “”कोई हर्ज नहीं। अंधेरे की दुनिया ही में तो सिकंदर को अमृत मिला था।””

दयाशंकर – “”अंतर इतना ही है कि अंधेरे की दुनिया में पैर फिसले तो पानी में गिरोगे और यहाँ फिसला तो पथरीली सड़क पर।””

[ज्योतिस्वरूप आते हैं ]

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(Hindi) Chakma

(Hindi) Chakma

“सेठ चंदूमल जब अपनी  दुकान  और गोदाम में भरे हुए माल को देखते तो मुँह से ठंडी साँस निकल जाती। यह माल कैसे बिकेगा बैंक का सूद बढ़ रहा है  दुकान  का किराया चढ़ रहा है कर्मचारियों का वेतन बाकी पड़ता जा रहा है। ये सभी पैसे खुद से देने पड़ेंगे। अगर कुछ दिन यही हाल रहा तो दिवालिया के सिवा और किसी तरह जान न बचेगी। उस पर भी धरने वाले रोज सिर पर शैतान की तरह सवार रहते हैं।

सेठ चंदूमल की  दुकान  चाँदनी चौक दिल्ली में थी। मुफस्सिल में भी कई दुकानें थीं। जब शहर काँग्रेस कमेटी ने उनसे विलायती कपड़े की खरीद और बिक्री के बारे में इंतजार कराना चाहा तो उन्होंने कुछ ध्यान न दिया। बाजार के कई दलालो ने उनकी देखा-देखी प्रतिज्ञा-पत्र (promissory note) पर दस्तखत करने से इनकार कर दिया। चंदूमल को जो नेता बनना कभी न नसीब हुआ था वह इस मौके पर बिना हाथ-पैर हिलाये ही मिल गया। वे सरकार के अच्छा चाहने वाले थे।

साहब बहादुरों को समय-समय पर तोहफे भेजते थे। पुलिस से भी नजदीकी थी। म्युनिसिपैलिटी के सदस्य भी थे। काँग्रेस के व्यापारिक कार्यक्रम का विरोध करके शांतिसभा के खजानची बन बैठे। यह इसी अच्छा चाहने की बरकत थी। युवराज का स्वागत करने के लिए अधिकारियों ने उनसे पचीस हजार के कपड़े खरीदे। ऐसा लायक आदमी काँग्रेस से क्यों डरे? काँग्रेस है किस खेत की मूली? पुलिसवालों ने भी बढ़ावा दिया- “”प्रतिज्ञा-पत्र पर बिल्कुल भी दस्तखत न कीजिएगा। देखें ये लोग क्या करते हैं। एक-एक को जेल न भिजवा दिया तो कहिएगा।””

लाला जी के हौसले बढ़े। उन्होंने काँग्रेस से लड़ने की ठान ली। उसी का नतीजा था कि तीन महीनों से उनकी  दुकान  पर सुबह से 9 बजे रात तक पहरा रहता था। पुलिस-दलों ने उनकी  दुकान  पर वालंटियरों को कई बार गालियाँ दीं, कई बार पीटा, खुद सेठ जी ने भी कई बार उन पर बाण चलाये, लेकिन पहरे वाले किसी तरह न टलते थे। बल्कि इन अत्याचारों के कारण चंदूमल का बाजार और भी गिरता जाता। मुफस्सिल की  दुकानों  से मुनीम लोग और भी बुरी खबर भेजते रहते थे।

बहुत परेशानी थी। इस मुश्किल से निकलने का कोई उपाय न था। वे देखते थे कि जिन लोगों ने प्रतिज्ञा-पत्र पर दस्तखत कर दिये हैं वे चोरी-छिपे कुछ-न-कुछ विदेशी माल लेते हैं। उनकी  दुकानों  पर पहरा नहीं बैठता। यह सारी परेशानी मेरे ही सिर पर है।

उन्होंने सोचा पुलिस और हाकिमों की दोस्ती से मेरा भला क्या हुआ उनके हटाये ये पहरे नहीं हटते। सिपाहियों की प्रेरणा से ग्राहक नहीं आते ! किसी तरह पहरे बन्द हो तो सारा खेल बन जाता।

इतने में मुनीम जी ने कहा- “”लाला जी यह देखिए कई व्यापारी हमारी तरफ आ रहे थे। पहरेवालों ने उनको न जाने क्या मंत्र पढ़ा दिया सब चले जा रहे हैं।””

चंदूमल- “”अगर इन पापियों को कोई गोली मार देता तो मैं बहुत खुश होता। यह सब मेरा सब कुछ बर्बाद करके दम लेंगे।””

मुनीम- “”कुछ हेठी तो होगी अगर आप प्रतिज्ञा पर दस्तखत कर देते तो यह पहरा उठ जाता। तब हम भी यह सब माल किसी न किसी तरह खपा देते।””

चंदूमल- “”मन में तो मेरे भी यह बात आती है पर सोचो बेइज्जती कितनी होगी? इतनी हेकड़ी दिखाने के बाद फिर झुका नहीं जाता। फिर अफसरों की नजरों में गिर जाऊँगा। और लोग भी ताने देंगे कि चले थे बच्चा काँग्रेस से लड़ने ! ऐसी मुँह की खायी कि होश ठिकाने आ गये। जिन लोगों को पीटा और पिटवाया, जिनको गालियाँ दीं, जिनकी हँसी उड़ायी, अब उनकी शरण कौन मुँह ले कर जाऊँ, मगर एक उपाय सूझ रहा है। अगर चकमा चल गया तो पौबारह है। बात तो तब है जब साँप को मारूँ मगर लाठी बचा कर। पहरा उठा दूँ पर बिना किसी की खुशामद किये।””

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(Hindi) Jab Jab Jab Right Hook

(Hindi) Jab Jab Jab Right Hook

“ये समरी आपको क्यों पढ़नी चाहिए? 
नहीं, ये किताब बॉक्सिंग के बारे में  नहीं  है. बल्कि ये हमे बताएगी कि सोशल  मीडिया पर विनिंग कंटेंट कैसे लिखे ताकि  लोगों  को आपका  ब्रैंड  पसंद आये और वो आपके कस्टमर्स बन जाए. आप मार्केटर है या कोई स्माल बिजेनस ओनर? ये किताब आपके लिए काफी मददगार साबित होगी क्योंकि ये आपको सोशल मिडीया पर अपनी प्रेजेंस इम्प्रूव करना सिखाएगी जैसे कि फेसबुक, ट्वीटर,  इंस्टाग्राम  और टम्बलर पर पोपुलर कैसे हुआ जाए ? आप जानना चाहते है? तो जवाब इस किताब में मिलेंगे. 

ये समरी किस-किसको पढ़नी चाहिए? 
–    मार्केटिंग स्टूडेंट्स को 
–     इंटरप्रेन्योर्स  को 
–     ब्रैंड  मैनेजर्स को 
–    vloggers को 
–    सोशल  मीडिया इन्फ्लुएंशर्स को 

ऑथर के बारे में 
गैरी  वेनरचक  एक एंटप्रेन्योर और जाने माने इंटरनेट पर्सनेलिटी हैं. उन्होंने अपने सोशल  मीडिया करियर की शुरुवात एक वाइन एक्सपर्ट Youtuber के रूप में की थी और अब वो VaynerX  और VaynerMedia  के ज़रिए  लोगों  को डिजिटल मार्केटिंग और सोशल  मीडिया सर्विस प्रोवाइड कराते हैं. गैरी Gallery Media Group के ओनर भी हैं और उनका सबसे बड़ा सपना है कि वो सुपर स्टार  फ़ुटबॉल टीम , New York Jets को ख़रीदें.  

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(Hindi) THE ARTIST’S WAY- A Spiritual Path to Higher Creativity

(Hindi) THE ARTIST’S WAY- A Spiritual Path to Higher Creativity

“The artist's way: एक artist के रूप  में ख़ुद की पोटेंशियल को ढूँढने का एक बेहतरीन गाइड है।  खराब हालातो के कारण या किसी और वजह से बहुत से लोग अपनी काबिलियत को पहचान नहीं पाते।
Julia Cameron, इस बुक की  ऑथर , आपको ऐसे सफ़र पर लेकर जाएँगी जहाँ आप अपने आगे ना बढ़ पाने के कारणों को पहचान सकेंगे और उनका हल ढूंढ पाएँगे ।ये बुक आपके सारे शक और निराशा को दूर कर देगी और आपके अंदर के artist को बाहर आने  में  मदद करेगी ।

 ये समरी किसे पढ़नी चाहिए?

•     आर्टिस्ट,  राइटर ,  म्यूजिशियन , मूर्ति बनाने वाले, पेंटर, एक्टर
•    जिन्हें भी art  में  interest  है 
•    वो लोग जिनका अपने ऊपर विश्वास नहीं है, जो सोचते है की वो कुछ भी अच्छा नहीं कर सकते
•    जो सोचते है की उनके पास वो काबिलियत नहीं है जो अच्छे आर्टिस्ट के पास होती है

 ऑथर  के बारे  में 

Julia Cameron एक  ऑथर , director, और फिल्म मेकर हैं । उन्होंने लगभग पंद्रह किताबें लिखी हैं । “The right to write, The artist's way, walking in this world” उनकी किताबों के नाम हैं। उन्होंने  कई फिल्मो के लिए भी लिखा है जैसे “”Taxi driver”” और “”Newyork””। इसके साथ ही उन्होंने  एक फेमस फ़िल्म “”God's will”” की कहानी लिखी है, उसे प्रोडूस और डायरेक्ट भी किया है। Julia Cameron फिल्म मेकिंग, क्रिएटिविटी के रास्ते में आने वाले ब्लॉक्स को दूर करना और राइटिंग भी सिखाती हैं।

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(Hindi) What I Wish I Knew When I Was 20: A Crash Course on Making Your Place in the World

(Hindi) What I Wish I Knew When I Was 20: A Crash Course on Making Your Place in the World

“टाइम मशीन इंसान के सबसे बड़े सपनों में से एक रहा होगए. कभी-कभी आप ऐसे लोगों से मिलते हैं जो अपनी लाइफ से परेशान हैं और पुराने वक्त में वापस जाना चाहते हैं. लकीली, हमें इन जैसे बुक्स की वजह से टाइम मशीन की ज़रूरत नहीं पड़ेगी.

टीना सीलिग की “” व्हॉट  आई विश आई न्यू व्हेन आई  वॉज़ ट्वेंटी “” उन चीजों की ढूंढ़ती है जो आप तब एक्सपीरियंस करेंगे जब आप अपने लाइफ की इम्पोर्टेन्ट बदलावों में से एक से गुजरते हैं , जैसे कि कॉलेज से ग्रेजुएट होना, पढ़ाई पूरी करना, और असली दुनिया में काम करना शुरू करना.

यह समरी किसे पढ़नी चाहिए?

•    फ्रेश ग्रेजुएट्स
•    कॉलेज के स्टूडेंट्स 
•    हाई स्कूल के स्टूडेंट्स 
•    टीनएजर्स 
•    मिलेनियल्स

ऑथर के बारे में

टीना सीलिग स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ इंजीनियरिंग में एंटरप्रेन्योरशिप सेंटर के स्टैनफोर्ड टेक्नोलॉजी वेंचर्स प्रोग्राम (STVP) की एग्ज़ेक्युटिव डायरेक्टर हैं. टीना को इंजीनियरिंग एजुकेशन में एक नेशनल लीडर के तौर पर मानते हुए, नेशनल एकेडेमी ऑफ इंजीनियरिंग से 2009 के गॉर्डन प्राइज से रिवॉर्ड किया गया था. उन्होंने 15 पॉपुलर साइंस बुक्स और एजुकेशनल गेम्स भी लिखे हैं.
 

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(Hindi) ART OF WAR

(Hindi) ART OF WAR

“जिस बुक का आपको इंतज़ार था वो आपके सामने पेश है. ये अपने समय की बेस्ट सेलिंग क्लासिक बुक्स में से एक है और आखिर आप इस किताब में दिए सन ज़ू के प्रिंसिपल्स सीखोगे और ये भी सीखोगे कि ये प्रिंसिपल्स आपके बिजनेस, करियर और डेली लाइफ में कैसे अप्लाई होते है. दुश्मन बाहर आपके अगले कदम में इंतज़ार में बैठा है. ऐसे में आपका अगला कदम क्या होगा? ये जानने के लिए आज ही पढ़े आर्ट ऑफ़ वॉर. 

ये समरी किस-किसको पढ़नी चाहिए 

●    एंटप्रेन्योर्स 
●    एथलीट्स 
●    यंग पोलीटीशियन या जो लोग पोलिटिक्स में अपना करियर बनाना चाहते हैं  
●     मैनेजर्स 
●    कॉलेज स्टूडेंट्स 

ऑथर के बारे में 

सन ज़ू लगभग 540 बीसी में जन्मे थे. उनके बारे में काफी कम जानकारी उपलब्ध है, कई  लोगों  का मानना है कि वो एक इन्सान थे जबकि कुछ  लोगों  को इस बात पर शक है, उनका कहना है कि ये कुछ महान  लोगों  का एक ग्रुप था. इस विवाद के बाव ज़ू द उनकी जिंदगी के बारे में जो आम धारणा प्रचलित है वो ये है कि जन्म से उनका नाम सन वू था पर बाद में एक जर्नल के तौर पर उन्होंने अपनी काबिलियत से सन ज़ू यानी” मास्टर सन” का टाईटल हासिल किया. 

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(Hindi) 100 Ways to Motivate Others

(Hindi) 100 Ways to Motivate Others

“क्या आप नए-नए एंटप्रेन्योर या  मैनेजर बने है और आपको समझ नहीं आ रहा कि अपने अंडर काम करने वाले  लोगों  को कैसे मोटिवेट करे ? क्या आप टीम लीडर है जो अपने एम्प्लोईज़ से बैटर  रिजल्ट चाहते है? अगर हाँ तो ये किताब ख़ास आपके लिए ही है. ये किताब आपको एक सक्सेसफुल लीडर, एक अच्छा  मैनेजर और दूसरों के लिए एक इंस्पायरिंग एक्जाम्पल  बनने में आपकी हेल्प करेगी. इसे पढ़कर आप कुछ ऐसे टिप्स सीखेगें जो आपके वर्क प्लेस की डे-टू-डे  प्रॉब्लम  सोल्व करने में आपकी हेल्प करेगी. 

ये समरी किस-किसको पढ़नी चाहिए? 
•     मैनेजर 
•    टीम लीडर 
•    सुपरवाईजर 
•    एंटप्रेन्योर 

ऑथर के बारे में 
स्टीव  चैंडलर एक बेस्ट सेलिंग ऑथर और मोटिवेशनल स्पीकर हैं. वो प्रोफेशनल्स के लिए कई तरह के वर्कशॉप और सेमिनार organize करते हैं. स्टीव को कोचिंग का गॉडफादर भी कहा जाता है. इसके साथ ही   उन्होंने “कोचिंग प्रोस्पेरिटी स्कूल” की शुरुआत की जो लाइफ कोच बनने की इच्छा रखने वाले लोगों को ट्रेनिंग देता है. 
 

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(Hindi) THE MILLIONAIRE NEXT DOOR- The Surprising Secrets of America’s Rich

(Hindi) THE MILLIONAIRE NEXT DOOR- The Surprising Secrets of America’s Rich

“ये बुक हमें उम्मीद देती है कि आम लोगों के पास बड़े रिस्क उठाए बिना अमीर बनने का एक सही मौका है. रेगुलर जॉब करने वाले लोग अगर सेविंग करें और जरूरत से ज्यादा खर्च न करें तो वे आराम से अपनी ज़िंदगी ज़ी सकते हैं. अगर आप अपनी आदतों को बदलने के लिए तैयार हैं तो आप ऐसा ज़रूर कर पाएंगे. ये बुक आपको पैसों के बारे में सोचने के तरीके और अपने फैमिली के लाइफस्टाइल को बदलना सीखाती है.

ये समरी किसे पढ़नी चाहिए?
• जो लोग अपनी ज़िंदगी की शुरुआत कर रहे हैं 
• बिज़नस चलाने वाले 
• पेरेंट्स
• घर का खर्चा चलाने वाले लोग
• हर कोई जो पैसे बचाना शुरू करना चाहता है

ऑथर के बारे में
डॉ. थॉमस जे.  स्टैनली  अमेरिका के अमीरों में सबसे मैन अथॉरिटी थे. वे एक जाने माने रिसर्चर और एडवाइजर थे. वो कई अवार्ड जीत चुके किताबों के ऑथर और को-ऑथर भी थे.
डॉ. विलियन डी. डैंको, स्कूल ऑफ बिजनेस, University of Albany के  एमेरिटस (सम्मानित रिटायरमेंट ले चुके प्रोफेसर) प्रोफेसर थे. वो कंस्यूमर बिहेवियर और ख़ासतौर से दौलत बढ़ाने के तरीकों के जानकार थे. वो दौलत और दौलतमंद होने के बारे में दो किताबों के को-ऑथर भी हैं.
 

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