“कल पड़ोस में बड़ी हलचल मची। एक पानवाला अपनी पत्नी को मार रहा था। वह बेचारी बैठी रो रही थी, पर उस बेरहम को उस पर जरा भी दया न आई । आखिर पत्नी को भी गुस्सा आ गया। उसने खड़े होकर कहा- “”बस, अब मारोगे, तो ठीक न होगा। आज से मेरा तुझसे कोई रिश्ता नहीं। मैं भीख माँगूँगी, पर तेरे घर न आऊँगी।”” यह कहकर उसने अपनी एक पुरानी साड़ी उठाई और घर से निकल पड़ी। आदमी लकड़ी के पुतले की तरह खड़ा देखता रहा।
पत्नी कुछ दूर चलकर फिर लौटी और दुकान की बक्सा खोलकर कुछ पैसे निकाले। शायद अभी तक उसे ममता थी; पर उस बेरहभ ने तुरन्त उसका हाथ पकड़कर पैसे छीन लिये। हाय रे निर्दयी ! कमजोर औरत की ओर आदमी का यह अत्याचार! एक दिन इसी पत्नी पर उसने जान दिये होंगे, उसका मुँह ताकता रहा होगा; पर आज इतना बेदिल हो गया है, मानो कभी की जान-पहचान ही नहीं थी । पत्नी ने पैसे रख दिये और बिना कहे-सुने चली गई। कौन जाने कहाँ! मैं अपने कमरे की खिड़की से घंटों देखती रही कि शायद वह फिर लौटे या शायद पानवाला ही उसे मनाने जाय; पर दो में से एक बात भी न हुई। आज मुझे औरत की सच्ची हालत का पहली बार पता चला।
यह दुकान दोनों की थी। आदमी तो मटरगश्ती किया करता था, पत्नी रात-दिन बैठी तपती थी। दस-ग्यारह बजे रात तक मैं उसे दुकान पर बैठी देखती थी। सुबह नींद खुलती, तब भी उसे बैठी पाती। नोच-खसोट, काट-कपट जितना आदमी करता था, उससे कुछ ज्यादा ही पत्नी करती थी। पर आदमी सब कुछ है, पत्नी कुछ नहीं! आदमी जब चाहे उसे निकाल बाहर कर सकता है!
इस परेशानी पर मेरा मन इतना अशांत हो गया कि नींद आँखों से भाग गई। बारह बज गये और मैं बैठी रही। आकाश पर साफ चाँदनी छिटकी हुई थी। रात के देवता अपने रत्न से जड़ें हुए सिंहासन पर गर्व से फूले बैठे थे। बादल के छोटे-छोटे टुकड़े धीरे-धीरे चंद्रमा के पास आते थे और फिर बिगड़े रूप में अलग हो जाते, मानो सफेद कपड़े पहने सुंदर औरतें उसके हाथों मैली और अपमानित होकर रोती हुई चली जा रही हों। इस कल्पना ने मुझे इतना बेचैन किया कि मैंने खिड़की बंद कर दी और पलंग पर आ बैठी। मेरे पति नींद में डूबे थे।
उनका तेज से भरा चहरा इस समय मुझे कुछ चंद्रमा से ही मिलता-जुलता मालूम हुआ। वही मुस्कुराहट भरी तस्वीर थी, जिससे मेरी आँख तृप्त हो जाती थी । वही बड़ा सीना था, जिस पर सिर रखकर मैं अपने अंदर एक नरम, मीठी कंपकंपाहट का अनुभव करती थी। वही मजबूत बाँहें, जो मेरे गले में पड़ जाती थीं, तो मेरे दिल में खुशी की हिलोरें-सी उठने लगती थीं। पर आज कितने दिन हुए, मैंने उस चहरे पर हँसी की चमकदार रेखा नही देखी, न देखने को मन बेचैन ही हुआ। कितने दिन हुए, मैंने उस सीने पर सिर नहीं रखा और न वह बाँहें मेरे गले में पड़ीं। क्यों? क्या मैं कुछ और हो गई, या पतिदेव ही कुछ और हो गये।
अभी बहुत दिन भी तो नहीं बीते, कुल पाँच साल हुए हैं क़ुल पाँच साल, जब पतिदेव ने बड़ी बड़ी आँखों और ललचाए होंठों से मेरा स्वागत किया था। मैं शर्म से सर झुकाये हुए थी। दिल में कितनी तेज बेचैनी हो रही थी कि उनका चहरा देख लूँ; पर शर्म के मारे सिर न उठा सकी । आखिर एक बार मैंने हिम्मत कर के आँखें उठाईं और नजर आधे रास्ते से ही लौट आई, तो भी उस आधे दर्शन से मुझे जो खुशी मिली, क्या उसे कभी भूल सकती हूँ? वह चित्र अब भी मेरे दिल की दीवारों पर खिंचा हुआ है। जब कभी उसकी याद आ जाती है, दिल खुश हो उठता है। उस मीठी याद में अब भी वही गुदगुदी, वही सनसनी है! लेकिन अब रात-दिन उस छवि के दर्शन करती हूँ।
Puri Kahaani Sune..
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