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Category: GIGL Technical

(hindi) 17 Anti Procrastination Hacks

(hindi) 17 Anti Procrastination Hacks

“मैं भी इससे गुजर चुका हूँ। हम सब काम टालते हैं। मैं खुद गारंटी देता हूँ की आपकी सभी टालमटोल करने की आदत खत्म हो जाएँगी, अगर आप इस बुक में दिए हुए hacks यूज़ करते हैं। मुझे यह कैसे पता? दरअसल यह समरी एक ऐसे ही इंसान ने लिखी है जिसे काम टालने की आदत थी लेकिन किसी तरह इन टिप्स को यूज करते हुए उन्होंने यह समरी पूरी की। क्या आप अपनी टालमटोल वाली आदत की चेन को तोड़ना चाहते है? तो इसे पढ़े।  

ये समरी किस-किसको पढ़नी चाहिए? 
·         एम्प्लॉईस 
·         स्टूडेंट्स 
·         सभी टालमटोल करने वाले लोग 
·         वो सभी लोग जो कोई काम करना चाहते है पर कर नहीं पा रहे हैं 

ऑथर के बारे में  
Dominic Mann एक ऑस्ट्रेलियन ऑथर हैं, जिन्होंने अपनी जिंदगी लोगों की मदद करने के लिए समर्पित कर दी ताकि वे अपनी जिंदगी में वो सब हासिल कर सकें जो वो सच में करना चाहते हैं । उन्होंने सेल्फ-डिसिप्लिन, डेली रूटीन मास्टरी, अनलिमिटेड मोटिवेशन और ऐसी कई किताबें लिखी हैं।  
 

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(hindi) Balidan

(hindi) Balidan

“इंसान के आर्थिक हालात का सबसे ज्यादा असर उसके नाम पर पड़ता है। मौजे बेला के मँगरू ठाकुर जब से कान्सटेबल हो गए हैं, इनका नाम मंगलसिंह हो गया है। अब उन्हें कोई मंगरू कहने का हिम्मत नहीं कर सकता। कल्लू अहीर ने जब से हलके के थानेदार साहब से दोस्ती कर ली है और गाँव का मुखिया हो गया है, उसका नाम कालिकादीन हो गया है। अब उसे कल्लू कहें तो गुस्सा करता है। इसी तरह हरखचन्द्र कुरमी अब हरखू हो गया है। आज से बीस साल पहले उसके यहाँ शक्कर बनती थी, कई हल की खेती होती थी और कारोबार खूब फैला हुआ था।

लेकिन विदेशी शक्कर की आमदनी ने उसे बर्बाद कर दिया। धीर-धीरे कारखाना टूट गया, जमीन टूट गई, खरीददार टूट गए और वह भी टूट गया। सत्तर साल का बूढ़ा, जो तकियेदार बिस्तर  पर बैठा हुआ नारियल पिया करता, अब सिर पर टोकरी लिये खाद फेंकने जाता है। लेकिन उसके चहरे पर अब भी एक तरह की गंभीरता, बातचीत में अब भी एक तरह की अकड़, चाल-ढाल से अब भी एक तरह का स्वाभिमान भरा हुआ है। उस पर समय की गति का असर नहीं पड़ा। रस्सी जल गई, पर बल नहीं टूटा। अच्छे दिन इंसान के चाल-चलन पर हमेशा के लिए अपना निशान छोड़ जाते हैं। हरखू के पास अब सिर्फ पाँच बीघा जमीन है और दो बैल हैं। एक ही हल की खेती होती है।

लेकिन पंचायतों में, आपस की कलह में, उसकी सलाह अब भी सम्मान की नजरों से देखी जाती है। वह जो बात कहता है, दो टूक कहता है और गाँव के अनपढ़ उनके सामने मुँह नहीं खोल सकते।

हरखू ने अपने जीवन में कभी दवा नहीं खायी थी। वह बीमार जरूर पड़ता, कुआँर मास में मलेरिया से कभी न बचता लेकिन दस-पाँच दिन में वह बिना दवा खाए ही ठीक हो जाता था। इस साल कार्तिक में बीमार पड़ा और यह समझकर कि अच्छा तो ही जाऊँगा, उसने कुछ परवाह न की। लेकिन अब का बुखार मौत का परवाना लेकर चला था। एक हफ्ता बीता, दूसरा हफ्ता बीता, पूरा महीना बीत गया, पर हरखू बिस्तर से न उठा। अब उसे दवा की जरूरत महसूस हुई । उसका लड़का गिरधारी कभी नीम का काढ़ा पिलाता, कभी गिलोय का रस, कभी गदापूरना की जड़। पर इन दवाइयों से कोई फायदा न होता। हरखू को विश्वास हो गया कि अब संसार से चलने के दिन आ गए।

एक दिन मंगलसिंह उसे देखने गए। बेचारा टूटी खाट पर पड़ा राम नाम जप रहा था। मंगलसिंह ने कहा- “”बाबा, बिना दवा खाए अच्छे न होंगे; मलेरिया की दवाई क्यों नहीं खाते ?”” हरखू ने उदासीन भाव से कहा- “”तो लेते आना।””

दूसरे दिन कालिकादीन ने आकर कहा- “”बाबा, दो-चार दिन कोई दवा खा लो। अब तुम्हारी जवानी का शरीर थोड़े है कि बिना दवा खाए के अच्छे हो जाओगे”।

हरखू ने धीरे से कहा- “”तो लेते आना।”” लेकिन रोगी को देख आना एक बात है, दवा लाकर देना दूसरी बात है। पहली बात शिष्टाचार से होती है, दूसरी सच्ची सहानुभूति से। न मंगलसिंह ने खबर ली, न कालिकादीन ने, न किसी तीसरे ने। हरखू बरामदे में खाट पर पड़ा रहता। मंगल सिंह कभी नजर आ जाते तो कहता- “”भैया, वह दवा नहीं लाए ?””

मंगलसिंह बचकर निकल जाते। कालिकादीन दिखाई देते, तो उनसे भी यही सवाल करता। लेकिन वह भी नजर बचा जाते। या तो उसे सूझता ही नहीं था कि दवा पैसों के बिना नहीं आती, या वह पैसों को भी जान से कीमती समझता था, या जीवन से निराश हो गया था। उसने कभी दवा के दाम की बात नहीं की। दवा न आयी। उसकी हालत दिनों दिन बिगड़ती गई। यहाँ तक कि पाँच महीने तकलीफ सहने के बाद वह ठीक होली के दिन मर गया। गिरधारी ने उसकी लाश बड़ी धूमधाम के साथ निकाला ! क्रिया कर्म बड़े हौसले से किया। गाँव के कई ब्राह्मणों को बुलाया।

बेला में होली न मनायी गई, न अबीर न गुलाल उड़ी, न बाजा बजे, न भांग की धारा बहीं। कुछ लोग मन में हरखू को कोसते जरूर थे कि इस बुड्ढ़े को आज ही मरना था; दो-चार दिन बाद मर जाता. 

लेकिन इतना बेशर्म कोई न था कि दुःख में खुशियाँ मनाता। वह शरीर नहीं था, जहाँ कोई किसी के काम में शामिल नहीं होता, जहाँ पड़ोसी को रोने-पीटने की आवाज हमारे कानों तक नहीं पहुँचती।

Puri Kahaani Sune…

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(hindi) Jwalamukhi

(hindi) Jwalamukhi

“डिग्री लेने के बाद मैं रोज लाइब्रेरी जाया करता। अखबार या किताबों को पढ़ने के लिए नहीं। किताबों को तो मैंने न छूने की कसम खा ली थी। जिस दिन गजट में अपना नाम देखा, उसी दिन मिल और कैंट को उठाकर अलमारी पर रख दिया। मैं सिर्फ अंग्रेजी अखबारों के ‘वांटेड’ column को देखा करता। जीवन की फ़िक्र सवार थी।

मेरे दादा या परदादा ने किसी अंग्रेज़ को लड़ाई के दिनों में बचाया होता या किसी इलाके का ज़मींदार होते, तो कहीं ‘नामिनेशन’ के लिए कोशिश करता। पर मेरे पास कोई सिफारिश न थी। दुख ! कुत्ते, बिल्लियों और मोटरों की माँग सबको थी। पर बी.ए. पास की कोई पूछ न थी। महीनों इसी तरह दौड़ते गुजर गये, पर अपने पसंद के हिसाब की कोई जगह नजर न आयी। मुझे अक्सर अपने बी.ए. होने पर गुस्सा आता था। ड्राइवर, फायरमैन, मिस्त्री, खानसामा या बावर्ची होता, तो मुझे इतने दिनों बेकार न बैठना पड़ता।

एक दिन मैं चारपाई पर लेटा हुआ अखबार पढ़ रहा था कि मुझे एक माँग अपनी इच्छा के हिसाब से दिखाई दी। किसी अमीर को एक ऐसे प्राइवेट सेक्रेटरी की ज़रूरत थी, जो अक्लमंद, खुशमिजाज, अच्छे दिल का और सुंदर हो। तनख्वाह एक हज़ार महीना ! मैं उछल पड़ा। कहीं मेरी किस्मत खुल जाती और यह नौकरी मिल जाती, तो ज़िंदगी चैन से कटती। उसी दिन मैंने अपना एप्लिकेशन अपने फोटो से साथ रवाना कर दिया,

पर अपने आसपास के लोगों में किसी से इसका ज़िक्र न किया कि कहीं लोग मेरी हँसी न उड़ाएँ। मेरे लिए 30 रु. महीने भी बहुत थे। एक हज़ार कौन देगा ? पर दिल से यह ख्याल दूर न होता ! बैठे-बैठे शेखचिल्ली की तरह सपने देखा करता। फिर होश में आकर खु़द को समझाता कि मुझमें अच्छी नौकरी के लिए कौन सी काबीलियत है। मैं अभी कालेज से निकला हुआ किताबों का पुतला हूँ। दुनिया से बेखबर !

उस नौकरी के लिए एक-से एक अक्लमंद, अनुभवी आदमी मुँह फैलाए बैठे होंगे। मेरे लिए कोई उम्मीद नहीं। मैं सुंदर सही, सजीला सही, मगर ऐसे पदों के लिए सिर्फ सुंदर होना काफ़ी नहीं होता। विज्ञापन में इसकी बात करने से सिर्फ इतना मतलब होगा कि बदसूरत आदमी की ज़रूरत नहीं, और सही भी है। बल्कि बहुत सजीलापन तो ऊँचे पदों के लिए कुछ अच्छा नहीं लगता। मध्यम वर्ग, तोंद भरा हुआ शरीर, फूले हुए गाल और अच्छे से बात करने का तरीका ही ऊँचें पद के अधिकारियों की निशानियां हैं और मुझ में इनमें से एक भी नहीं है।

इसी उम्मीद और डर में एक हफ्ता गुजर गया और  निराश हो गया। मैं भी कैसा बेवकूफ़ हूं कि बे सिर-पैर की बात के पीछे ऐसा फूल उठा, इसी को बचपना कहते हैं। जहाँ तक मेरा ख्याल है, किसी मस्तीखोर ने आजकल के पढ़े लिखों के समाज की बेवकूफी की परीक्षा करने के लिए यह नाटक किया है। मुझे इतना भी न सूझा। मगर आठवें दिन सुबह डाकिये ने मुझे आवाज़ दी। मेरे दिल में गुदगुदी-सी होने लगी। लपका हुआ आया। टेलीग्राम खोलकर देखा, लिखा- “”स्वीकार है, जल्दी आओ। ऐशगढ़।

मगर यह खुशखबरी पाकर मुझे वह खुशी न हुई, जिसकी उम्मीद थी। मैं कुछ देर तक खड़ा सोचता रहा, किसी तरह यकीन न आता था। ज़रूर किसी मस्तीखोर की बदमाशी है। मगर कोई नुकसान नहीं, मुझे भी इसका मुँहतोड़ जवाब देना चाहिए। टेलीग्राम दे दूँ कि एक महीने की तनख्वाह भेज दो। खुद ही सारी सच्चाई बाहर आ जाएगी। मगर फिर सोचा, कहीं सच में किस्मत खूल गई हो, तो इस हरकत से बना-बनाया खेल बिगड़ जायगा। चलो, मजाक ही सही जीवन में यह घटना भी याद रहेगी। जादू को तोड़ ही डालूं। यह तय करके टेलीग्राम से अपने आने की खबर दी और सीधे रेलवे स्टेशन पहुँचा। पूछने पर मालूम हुआ कि यह जगह दक्षिण की ओर है।

टाइमटेबल में उसके बारे में लिखा था। जगह बहुत सुंदर है, पर मौसम ठीक नहीं। हाँ, तंदुरुस्त नौजवानों पर उसका असर जल्दी नहीं होता। नजारे बहुत सुंदर है, पर ज़हरीले जानवर बहुत मिलते हैं। जितना हो सके अँधेरी घाटियों में नही जाना चाहिए। यह सब पढ़कर बेचैनी और भी बढ़ी ज़हरीले जानवर हैं तो हुआ करें, कहाँ नहीं हैं। मैं अँधेरी घाटियों के पास भूलकर भी न जाऊंगा। आकर सफर का सामान पैक किया और भगवान का नाम लेकर तय समय पर स्टेशन की तरफ चला, पर अपने बातूनी दोस्तों से इसका ज़िक्र न किया, क्योंकि मुझे पूरा यकीन था कि दो-ही-चार दिन में फिर अपना-सा मुँह लेकर लौटना पड़ेगा।

गाड़ी पर बैठा तो शाम हो गई थी। कुछ देर तक सिगार और अखबारों से दिल बहलाता रहा। फिर मालूम नहीं कब नींद आ गई। आँखें खुलीं और खिड़की से बाहर तरफ झाँका तो सुबह का सुंदर नजारा दिखाई दिया। दोनों ओर हरे पेड़ों से ढकी हुई पहाड़ियां, उन पर चरती हुई उजली-उजली गायें और भेंड़े सूर्य की सुनहरी किरणों में रँगी हुई बहुत सुन्दर मालूम होती थीं। जी चाहता था कि कहीं मेरी कुटिया भी इन्हीं सुखद पहाड़ियों में होती, जंगलों के फल खाता, झरनों का ताजा पानी पीता और खुशी के गीत गाता।

अचानक नजारा बदला कहीं उजले-उजले पक्षी तैरते थे और कहीं छोटी-छोटी डोंगियाँ कमजोर आत्माओं की तरह डगमगाती हुई चली जाती थीं। यह नजारा भी बदला। पहाड़ियों के बीच में एक गांव नजर आया, झाड़ियों और पेड़ों से ढका हुआ, मानो शांति और संतोष ने यहाँ अपना बसेरा बनाया हो। कहीं बच्चे खेलते थे, कहीं गाय के बछड़े उछलते थे। फिर एक घना जंगल मिला। झुण्ड-के-झुण्ड हिरन दिखाई दिये, जो गाड़ी की आवाज सुनते ही छलांग मारते दूर भाग जाते थे। यह सब नजारे सपने के समान आँखों के सामने आते थे और एक पल में गायब हो जाते थे। उनमें ऐसी शांति देने वाली खूबसूरती थी, जिससे दिल में इच्छाओं की लहरें उठने लगती।

आखिर ऐशगढ़ पास आया। मैंने बिस्तर सँभाला। जरा देर में सिगनल दिखाई दिया। मेरा दिल धड़कने लगा। गाड़ी रुकी। मैंने उतरकर इधर-उधर देखा, कुलियों को पुकारने लगा कि इतने में दो वरदी पहने हुए आदमियों ने आकर मुझे इज्जत से सलाम किया और पूछा- “”आप….से आ रहे हैं न, चलिये मोटर तैयार है।””

मैं खुश हो गया। अब तक कभी मोटर पर बैठने का मौका न मिला था। शान के साथ जा बैठा। मन में बहुत शर्मिंदा था कि ऐसे फटे हाल क्यों आया ? अगर जानता कि सचमुच किस्मत का तारा चमका है, तो ठाट-बाट से आता। खैर, मोटर चली, दोनों तरफ मौलसरी के घने पेड़ थे। सड़क पर लाल वजरी बिछी हुई थी। सड़क हरे-भरे मैदान में किसी सुंदर नदी के तरह बल खाती चली गई थी। दस मिनट भी न गुजरे होंगे कि सामने एक शांत सागर दिखाई दिया। सागर के उस पार पहाड़ी पर एक विशाल भवन बना हुआ था। भवन अभिमान से सिर उठाए हुए था, सागर संतोष से नीचे लेटा हुआ, सारा नजारा कविता, श्रृंगार और खु़शी से भरा हुआ था।

Puri Kahaani Sune…..

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(hindi) Brahm Ka Swang

(hindi) Brahm Ka Swang

“औरत –

मैं असल में अभागिन हूँ, नहीं तो क्या मुझे रोज ऐसे बुरे नजारे देखने पड़ते ! दुख की बात यह है कि वे मुझे सिर्फ देखने ही नहीं पड़ते, बल्कि बदकिस्मती ने उन्हें मेरे जीवन का मुख्य भाग बना दिया है। मैं उस अच्छे ब्राह्मण की बेटी हूँ, जिनके इंतजाम बड़े-बड़े धार्मिक कामों में जरूरी समझे जाते हैं। मुझे याद नहीं, घर पर कभी बिना नहाए और पूजा किये पानी की एक बूँद भी मुँह में डाली हो। मुझे एक बार तेज बुखार में नहाए बिना दवा पीनी पड़ी थी; उसका मुझे महीनों दुख रहा। हमारे घर में धोबी कदम नहीं रखने पाता ! चमारिन आंगन में भी नहीं बैठ सकती थी। लेकिन यहाँ आ कर मैं मानो भ्रष्ट दुनिया में पहुँच गयी हूँ।

मेरे पति बड़े दयालु, अच्छे चाल चलन वाले और लायक आदमी हैं ! उनके अच्छे गुणों को देख कर मेरे पिताजी ने उन्हें पसंद किया था। लेकिन ! वे क्या जानते थे कि यहाँ लोग अघोर-पंथ को मानने हैं। संध्या और पूजा तो दूर रही, कोई यहाँ रोज नहाता भी नहीं है। बैठक में रोज मुसलमान, ईसाई सब आया-जाया करते हैं और पति जी वहीं बैठे-बैठे पानी, दूध, चाय पी लेते हैं। इतना ही नहीं, वह वहीं बैठे-बैठे मिठाइयाँ भी खा लेते हैं।

अभी कल की बात है, मैंने उन्हें लेमोनेड पीते देखा था। घोड़े सम्भालने वाला जो चमार है, बेरोक-टोक घर में चला आता है। सुनती हूँ वे अपने मुसलमान दोस्तों के घर दावतें खाने भी जाते हैं। यह भ्रष्टाचार मुझसे नहीं देखा जाता। मेरा मन घिन से भर जाता है। जब वे मुस्कराते हुए मेरे पास आ जाते हैं और हाथ पकड़ कर अपने पास बैठा लेते हैं तो मेरा जी चाहता है कि जमीन फट जाय और मैं उसमें समा जाऊँ। हाय हिंदू जाति ! तूने हम औरतों को आदमियों की दासी बनना ही क्या, हमारे जीवन का सबसे बड़ा कर्तव्य बना दिया ! हमारी सोच की, हमारे सिद्धांतों की, यहाँ तक कि हमारे धर्म की भी कुछ कीमत नहीं रही।

अब मुझे धीरज नहीं। आज मैं इस हालात को खत्म कर देना चाहती हूँ। मैं इस राक्षसी भ्रष्ट-जाल से निकल जाऊँगी। मैंने अपने पिता के घर में जाने का फैसला कर लिया है। आज यहाँ सब मिलकर खाना खा रहे हैं, मेरे पति उसमें शामिल ही नहीं, बल्कि इसे करवाने वालों में से एक हैं। इन्हीं के बढ़ावे और मेहनत से यह अधर्मी अत्याचार हो रहा है। सभी जातियों के लोग एक साथ बैठ कर खाना खा रहे हैं। सुनती हूँ, मुसलमान भी एक ही लाइन में बैठे हुए हैं।

आकाश क्यों नहीं गिर पड़ता ! क्या भगवान् धर्म को बचाने के लिए अवतार न लेंगे। ब्राह्मण जाति अपने करीबी दोस्तों के सिवाय दूसरे ब्राह्मणों का पकाया खाना भी नहीं खाते, वही महान् जाति इस बुरी हालत मे आ गयी कि कायस्थों, बनियों, मुसलमानों के साथ बैठ कर खाने में जरा सी भी शर्म नहीं करती, बल्कि इसे जातीय बड़प्पन, जातीय एकता के अच्छे के लिए समझती है।

Puri Kahaani Sune…

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(hindi) Mantra

(hindi) Mantra

“शाम का वक्त था।  डॉक्टर चड्ढा गोल्फ खेलने के लिए तैयार हो रहे थे।  उनकी गाडी दरवाजे के सामने खड़ी थी कि तभी दो लोग एक पालकी उठाकार लाते हुए दिखे ।  पालकी के पीछे-पीछे एक बूढा लाठी टेकता हुआ आ रहा था ।  पालकी अस्पताल के सामने आकर रूक गयी। बूढ़े ने धीरे-धीरे दरवाजे पर लगे परदे से अंदर झॉँका। ऐसी साफ-सुथरी जमीन पर पैर रखते हुए उसे डर था कि कहीं कोई डांट ना दे।  वहां डाक्टर साहब को खड़े देखने के बाद भी उसकी कुछ कहने की हिम्मत नही हुई ।

डाक्टर साहब परदे के अंदर से रौबदार आवाज़ में बोले” कौन है? क्या चाहिए? 
बूढ़े ने उनके सामने हाथ जोड़ते हुए  कहा” साहब मै बड़ा गरीब आदमी हूँ। मेरा बेटा कई दिनों से बीमार है।  डाक्टर साहब ने सिगार जलाया और बोले” कल सुबह आना, इस समय हम मरीज़ नहीं देखते।  बूढा अपने घुटनों के बल जमीन पर सिर रख के बैठ गया और बोला” बड़ी मेहरबानी होगी आपकी साहब, मेरा बेटा मर जाएगा, बस एक बार देख लीजिए , चार दिन से उसने आँखे भी नहीं खोली है”

डाक्टर चड्ढा ने अपनी घड़ी पर नजर डाली। सिर्फ दस मिनट और बचे थे ।  उन्होंने गोल्फ स्टिक उठाते हुए कहा” कल सुबह आओ, ये हमारे खेलने का समय है” 

बूढ़े ने अपनी पगड़ी उतार कर दरवाजे पर रख दी और रोते हुए बोला” साहब बस एक बार देख लीजिए। बस, एक बार! मेरा बेटा मर जाएगा साहब, सात बेटो में से यही एक बचा है।  इसके बिना हम दोनों मियां-बीवी रो-रोकर मर जाएंगे. आपका बड़ा एहसान होगा साहब, भगवान् आपका भला करेगा।  

अस्पताल में ऐसे गंवार देहाती रोज़ ही आते थे और डॉक्टर साहब इन लोगो की आदत से खूब वाकिफ थे ।  इन लोगो को कितना भी समझा लो, इन्हें कोई फर्क नही पड़ता था, बस अपनी जिद पकड़कर बैठ जाते थे।  डॉक्टर साहब धीरे से पर्दा उठाकर बाहर निकले और अपनी गाड़ी की तरफ जाने लगे ।  उनके पीछे-पीछे बूढ़ा ये कहकर भागने लगा” साहब आपका बड़ा एहसान होगा ।  हम पर रहम कीजिए. मै बड़ा दुखी आदमी हूँ, मेरा कोई नहीं है इस दुनिया में ।  

पर डॉक्टर साहब ने एक बार भी उसकी तरफ मुड़कर नहीं देखा ।  गाडी में बैठकर बोले” कल सुबह आ जाना।  

और उनकी गाड़ी चल पड़ी।   बूढा कुछ देर तक यूं ही बेजान पत्थर की तरह गाडी को जाते देखता रहा उसे यकीन नहीं हो रहा था कि दुनिया में ऐसे लोग भी हो सकते है जो अपने मज़े और खेल-तमाशे के लिए किसी की जान तक की परवाह नहीं करते।  इन तमीज़दार लोगो की दुनिया इतनी बेदर्द, इतनी पत्थरदिल हो सकती है, ये उसे आज पता चला ।  

बूढा उन पुराने जमाने के लोगो में से था जो किसी के घर में लगी आग को बुझाने, मुर्दे को कंधा देने, लड़ाई-झगड़ा सुलझाने और किसी का भला करने के लिए हमेशा तैयार रहता था  ।  

जब तक गाड़ी दिखती रही, बूढा एकटक उसे देखता रहा।    शायद उसे अभी भी डॉक्टर के वापस लौट आने की उम्मीद थी ।  पर जब गाडी दूर चली गई तो उसने दोनों आदमियों से पालकी उठाने को बोला ।  पालकी जहाँ से आई थी, वही वापस चली गई।  
वो बूढा हर तरफ से नाउम्मीद होकर डॉक्टर चड्ढा के पास आया था। उसने डॉक्टर साहब की बड़ी तारीफ सुनी थी पर यहाँ भी उसे नाउम्मीदी ही हाथ लगी तो फिर वो किसी और डॉक्टर के पास नही गया ।  उसने अपनी किस्मत से हार मान ली।
 
उसी रात बूढ़े का सात साल का हंसता खेलता बेटा चल बसा ।  बूढ़े और बुढ़िया के जीने का बस वही सहारा था जो अब हमेशा-हमेशा के लिए उन्हें छोडकर जा चुका था ।  

घर के चिराग की मौत ने उन दोनों के जीवन की रौशनी छीन ली थी ।  मासूम बेटे की मौत से बूढ़े और बुढ़िया इस कदर सदमे में थे कि जिंदा लाश बनकर रह गए।  

इस घटना को कई साल गुजर गये। वक्त के साथ डॉक्टर चड़ढा ने ख़ूब पैसा और शोहरत हासिल की ।  बढती उम्र में भी वो अपनी सेहत का बड़ा खयाल रखते थे ।  उनकी उम्र पचास के करीब हो चुकी थी पर उनकी चुस्ती-फुर्ती नौजवानो को  भी मात करती थी ।  डॉक्टर साहब वक्त के बड़े पाबन्द थे, वक्त से खाते, वक्त से सोते और मजाल है कि वक्त की पाबंदी में ज़रा सी भी ढील हो जाए ।

अक्सर लोग सेहत की फ़िक्र तब करते है जब वो बीमार हो जाते है पर डॉक्टर साहब उन लोगो में से थे जिनके लिए पहले सेहत बाकी चीज़े बाद में ।  साथ ही वो ईलाज और परहेज के फायदे भी जानते थे।  उनके दो बच्चे थे, एक बेटा और एक बेटी और दोनों बच्चे उनकी तरह नियम-कायदों के पाबंद थे ।  यही नहीं डॉक्टर साहब की पत्नी श्रीमती चड्ढा दो बच्चो की माँ होने पर भी जवान लगती थी।  

उनकी बेटी की शादी हो चुकी थी ।  बेटा कालेज में पढ़ता था और माँ-बाप का लाड़ला था ।  वो एक खूबसूरत और शरीफ लड़का था, कालेज की शान, यार-दोस्तों में मशहूर।   
उसका आज बींसवा जन्मदिन था ।  शाम हो चुकी थी ।  हरी घास पर लोगो के बैठने के लिए कुर्सियां लगाई गई थी ।  एक तरफ शहर के नामी-गिरामी अमीर लोग और दूसरी तरफ कालेज के लड़के-लड़कियां बैठकर खाना खा रहे थे ।

 बिजली के रंग-बिरंगे तारो से उनका बगीचा जगमगा रहा था ।  कुछ हंसी-मजाक और मनोरंजन का भी इंतजाम था  एक छोटा सा ड्रामा खेलने की तैयारी हो रही थी।  ड्रामा खुद डॉक्टर साहब के बेटे कैलाशनाथ  ने लिखा था। इस ड्रामे का हीरो भी वही था ।  इस वक्त वो एक रेशम का कुर्ता पहने नंगे पाँव इधर से उधर भागता अपने दोस्तों की खातिरदारी में लगा हुआ था ।  कोई आवाज़ देता – “कैलाश, जरा यहाँ आना” तो कोई उधर से बुलाता-“कैलाश यार उधर ही रहोगे या यहाँ भी आओगे?” आज उसके जन्मदिन में मौके पर सब उसे छेड़ रहे थे, उससे हंसी मजाक कर रहे थे । 

बेचारे को दम लेने की भी फुर्सत नहीं थी ।  तभी एक खूबसूरत लड़की उसके पास आई और पूछा” कैलाश तुम्हारे सांप कहाँ है, ज़रा मुझे भी तो दिखाओ”! 

कैलाश ने उससे हाथ मिलाते हुए कहा”  मृणालिनी, इस वक्त माफ़ करो, कल दिखा दूंगा” पर मृणालिनी नहीं मानी, जिद करती हुई बोली” जी नहीं, आज ही दिखाने पड़ेंगे, मै नहीं मानने वाली ।  तुम रोज़ कल-कल करके मुझे टाल देते हो”  

Puri Kahaani Sune..

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The Five People You Meet in Heaven (English)

The Five People You Meet in Heaven (English)

“Why should you read this summary?

 

What do you think awaits you when you die? For Eddie, five people and five lessons were waiting for him in Heaven. In this book, you will learn that everything is connected and that sacrifice is a part of life. You will also learn about forgiveness and undying love. This international best-selling book will inspire you and help you to see meaning in your every-day life.

 

Who will learn from this summary?

 

▪    Anyone curious about the afterlife
▪    Anyone who needs inspiration

 

About the Author

 

Mitch Albom is a journalist, philanthropist, and best-selling author. He used to be a sports journalist for several well-known publications,  but an interview with his former college professor changed his life. Mitch Albom went on to write “Tuesdays with Morrie” and “The Five People You Meet in Heaven”, among others. Later, he started charity initiatives such as SAY Detroit and Have Faith Haiti Mission. Mitch Albom’s books have sold more than 39 million copies all over the world. 
 

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(hindi) Subhagi

(hindi) Subhagi

“और लोगों के यहाँ चाहे जो होता हो, तुलसी महतो अपनी लड़की सुभागी को लड़के रामू से थोड़ा भी कम प्यार न करते थे। रामू जवान होकर भी बेवकूफ था। सुभागी ग्यारह साल की बच्ची होकर भी घर के काम में इतनी चतुर, और खेती-बाड़ी के काम में इतनी समझदार थी कि उसकी माँ लक्ष्मी दिल में डरती रहती कि कहीं लड़की पर देवताओं की आँख न पड़ जाय। अच्छे  बच्चो से भगवान को भी तो प्यार है। कोई सुभागी की बड़ाई न करे, इसलिए वह बिना बात के  ही उसे डाँटती रहती थी। बड़ाई से लड़के बिगड़ जाते हैं, यह डर तो न था,  डर था – नजर का ! वही सुभागी आज ग्यारह साल की उम्र में विधवा हो गयी। 

घर में रोना मचा हुआ था। लक्ष्मी रो-रो कर परेशान थी। तुलसी अलग से दुःख से मरे जा रहे थे। सिर पीटते थे। उन्हें रोता देखकर सुभागी भी रोती थी। बार-बार माँ से पूछती, क्यों रोती हो अम्माँ, मैं तुम्हें छोड़कर कहीं न जाऊँगी, तुम क्यों रोती हो ? उसकी मासूम बातें सुनकर माँ का दिल और भी फटा जाता था। वह सोचती थी भगवान तुम्हारा यही खेल है ! जो खेल खेलते हो, वह दूसरों को दु:ख देकर। ऐसा तो पागल करते हैं। आदमी पागलपन करे तो उसे पागलखाने भेजते हैं, मगर तुम जो पागलपन करते हो, उसकी  कोई सजा नहीं। ऐसा खेल किस काम का कि दूसरे रोयें और तुम हँसो। तुम्हें तो लोग दया  करने वाला कहते हैं। यही तुम्हारी दया है !

और सुभागी क्या सोच रही थी ? उसके पास बहुत सारे रुपये होते, तो वह उन्हें छिपाकर रख देती। फिर एक दिन चुपके से बाजार चली जाती और अम्माँ के लिए अच्छे-अच्छे कपड़े लाती, दादा जब कुछ माँगने आते, तो तुरंत रुपये निकालकर दे देती, अम्माँ-दादा कितने खुश होते।

जब सुभागी जवान हुई तो लोग तुलसी महतो पर जोर डालने लगे कि, लड़की की शादी कहीं कर दो। जवान लड़की का ऐसे घूमना ठीक नहीं। जब हमारी बिरादरी में इसकी कोई बुराई नहीं है, तो क्यों परेशान होते हो ?
तुलसी ने कहा- “भाई मैं तो तैयार हूँ, लेकिन जब सुभागी भी माने। वह किसी तरह तैयार नहीं होती।“

हरिहर ने सुभागी को समझाकर कहा- “बेटी, हम तेरे ही भले के लिए कहते हैं। माँ-बाप अब बूढ़े हुए, उनका क्या भरोसा। तुम इस तरह कब तक बैठी रहोगी ?”

सुभागी ने सिर झुकाकर कहा- “चाचा, मैं तुम्हारी बात समझ रही हूँ, लेकिन मेरा मन शादी करने को नहीं कहता। मुझे आराम की चिंता नहीं है। मैं सब कुछ सहने को तैयार हूँ। और जो काम तुम कहो, वह मेहनत से करूँगी,  मगर शादी करने को मुझसे न कहो। जब मेरी कोई गलती देखना तो मेरा सिर काट लेना। अगर मैं सच्चे बाप की बेटी हूँगी, तो बात की भी पक्की हूँगी। फिर इज़्ज़त रखने वाले तो भगवान हैं, मेरी क्या हस्ती कि अभी कुछ कहूँ।“

उजड्ड रामू बोला – “तुम अगर सोचती हो कि भैया कमाएंगे और मैं बैठी मौज करूँगी, तो इस सहारे न रहना। यहाँ किसी ने जनम भर का ठेका नहीं लिया है।“

रामू की दुल्हन रामू से भी दो ऊँगली ऊँची थी। मटककर बोली- “हमने किसी का पैसा थोड़े ही खाया कि जनम भर बैठे भरा करें। यहाँ तो खाने को भी अच्छा चाहिए, पहनने को भी अच्छा चाहिए, यह हमारे बस की बात नहीं।“

सुभागी ने गर्व से भरी आवाज में कहा- “भाभी, मैंने तुम्हारा सहारा कभी नहीं लिया और भगवान ने चाहा तो कभी चाहूंगी भी नहीं। तुम अपनी देखो, मेरी चिंता न करो।“

रामू की पत्नी को जब मालूम हो गया कि सुभागी शादी न करेगी, तो और भी उससे लड़ने लग गयी। हमेशा एक-न-एक शिकायत लगाये रहती। उसे रुलाने में जैसे उसको मजा आता था। वह बेचारी देर रात से ही उठकर कूटने-पीसने में लग जाती, चौका-बरतन करती, गोबर पाथती। फिर खेत में काम करने चली जाती। दोपहर को आकर जल्दी-जल्दी खाना पकाकर सबको खिलाती। रात को कभी माँ के सिर में तेल डालती, कभी उसके हाथ -पैर दबाती। तुलसी को चिलम की आदत थी। उन्हें बार-बार चिलम पिलाती। जहाँ तक कोशिश होती, माँ-बाप को कोई काम न करने देती। हाँ, भाई को न रोकती। सोचती, यह तो जवान आदमी हैं, यह काम न करेंगे तो घर कैसे चलेगा।

मगर रामू को यह बुरा लगता। अम्मा और दादा को कुछ नहीं करने देती और चाहती है कि मैं सारा दिन काम करू। यहाँ तक कि एक दिन वह लड़ने को तैयार हो गया। सुभागी से बोला- “अगर उन लोगों का बड़ा प्यार है, तो क्यों नहीं अलग लेकर रहती हो। तब सेवा करो तो पता चले कि सेवा कड़वी लगती है कि मीठी। दूसरों के बल पर बड़ाई लेना आसान है। बहादुर वह है, जो अपने दम पर काम करे”।

सुभागी ने तो कुछ जवाब न दिया। बात बढ़ जाने का डर था। पर उसके माँ-बाप बैठे सुन रहे थे। महतो से न रहा गया। बोले- “क्या है रामू, उस बेचारी से क्यों लड़ते हो ? “
रामू पास आकर बोला- “तुम क्यों बीच में कूद पड़े, मैं तो उसे  कहता था।“
तुलसी- “जब तक मैं जिंदा हूँ, तुम उसे कुछ नहीं कह सकते। मेरे बाद जो चाहे करना। बेचारी का घर में रहना मुश्किल कर दिया।“
रामू- “आपको बेटी बहुत प्यारी है, तो उसे गले से लगा कर रखिए। मुझसे तो नहीं सहा जाता।“

तुलसी- “अच्छी बात है। अगर तुम्हारी यह मर्ज़ी है, तो यही होगा। मैं कल गाँव के आदमियों को बुलाकर बँटवारा कर दूँगा। तुम चाहे अलग हो जाओ , सुभागी दूर नहीं हो सकती।“

Puri Kahaani Sune….

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(hindi) Praayschit

(hindi) Praayschit

“दफ्तर में ज़रा  देर से आना अफसरों की शान है। जितना ही बड़ा अधिकारी होता है, उतनी ही देर में आता है; और उतने ही जल्दी जाता भी है। चपरासी की नौकरी चौबीसों घंटे की। वह छुट्टी पर भी नहीं जा सकता। अपना पूरा काम देना पड़ता है । खैर, जब बरेली जिला-बोर्ड़ के हेड क्लर्क बाबू मदारीलाल ग्यारह बजे दफ्तर आये, तब मानो दफ्तर नींद से जाग उठा। चपरासी ने दौड़ कर साईकिल ली, नौकर ने दौड़कर कमरे का पर्दा उठा दिया और जमादार ने डाक की किश्त मेज पर ला कर रख दी।

मदारीलाल ने पहला सरकारी लिफाफा खोला था कि उनका रंग उड़ गया। वे कई मिनट तक हैरानी की हालत में खड़े रहे, मानो सारी सुनने,समझने की ताकत ही खत्म हो गयी हो। उन्हें पहले भी बड़े-बड़े धक्के लग चुके थे, पर इतने परेशान वे कभी न हुए थे। बात यह थी कि बोर्ड़ के सेक्रेटरी की जो जगह एक महीने से खाली थी, सरकार ने सुबोधचन्द्र को वह जगह दी थी और सुबोधचन्द्र वह आदमी था, जिसके नाम ही से मदारीलाल को नफ़रत  थी। वह सुबोधचन्द्र, जो उनके साथ पढ़ता था, जिसे हराने की उन्होंने कितनी ही कोशिश की, पर कभी सफल न हुए। वही सुबोध आज उनका अफसर होकर आ रहा था। सुबोध की इधर कई सालों से कोई खबर न थी। इतना पता था कि वह फौज में भरती हो गया था।

मदारीलाल ने समझा—वहीं मर गया होगा; पर आज वह मानों जी उठा और सेक्रेटरी होकर आ रहा था। मदारीलाल को उसके नीचे पद पर काम करना पड़ेगा। इस बेइज्जती से तो मर जाना कहीं बेहतर था। सुबोध को स्कूल और कालेज की सारी बातें जरूर याद होंगी। मदारीलाल ने उसे कालेज से निकलवा देने के लिए कई बार कोशिश की, झूठे इल्ज़ाम लगाए, बदनाम किया। क्या सुबोध सब कुछ भूल गया होगा? नहीं, कभी नहीं। वह आते ही पुरानी बातो का बदला लेगा। मदारी बाबू को अपने बचने का कोई तरीका समझ नहीं आ रहा था।

मदारी और सुबोध के ग्रहों में ही तकरार थी , दोनों एक ही दिन, एक ही स्कूल में भर्ती हुए और पहले ही दिन से दिल में जलन और नफरत की वह चिनगारी पड़ गयी, जो आज बीस साल बीतने पर भी न बुझी थी। सुबोध की गलती यही थी कि वह मदारीलाल से हर बात में आगे था। अच्छा शरीर,रंग-रूप, अच्छा व्यवहार, विद्या-बुद्धि ये सब खूबी उसमें थी। मदारीलाल ने  उसकी यह गलती कभी माफ़ नहीं की।  सुबोध बीस साल तक लगाकर उनके दिल में चुभता रहा। जब सुबोध डिग्री लेकर अपने घर चला गया और मदारी फेल होकर इस दफ्तर में काम करने लगे , तब उनका मन शांत हुआ। पर जब पता चला कि सुबोध बसरे जा रहा है, तो मदारीलाल का चेहरा खिल उठा। उनके दिल से वह पुरानी नफरत निकल गयी। पर हाय री किस्मत ! आज वह पुराना जख्म कौन-कौन से दर्द और जलन के साथ खुल गया। आज उनकी किस्मत सुबोध के हाथ में थी। भगवान इतना जालिम है ! समय इतना ताकतवर!

जब जरा मन शांत हुआ, तब मदारी ने दफ्तर के क्लर्को को सरकारी हुक्म सुनाते हुए कहा—“अब आप लोग जरा हाथ-पॉँव सँभाल कर रहिएगा। सुबोधचन्द्र वे आदमी नहीं हें, जो गलतियों को माफ़ कर दें?”
एक क्लर्क ने पूछा—“क्या बहुत बेरहम है?”

मदारीलाल ने मुस्करा कर कहा—“वह तो आप लोगों को दो-चार दिन में पता लग ही जाएगा। मै अपने मुँह से किसी की क्यों शिकायत करूँ? बस, समझा दिया कि जरा हाथ-पॉँव सँभाल कर रहिएगा। आदमी लायक है, पर बड़ा ही गुस्से वाला, बड़ा घमंडी। गुस्सा तो उसकी नाक पर रहता है। खुद हजारों खा कर जाए और डकार तक न ले; पर क्या हिम्मत कि कोई नीचे वाला एक रूपए भी खाने पाए। ऐसे आदमी से भगवान ही बचाये! मैं तो सोच रहा हूँ कि छुट्टी लेकर घर चला जाऊँ। दोनों वक्त घर पर सेवा करनी होगी। आप लोग आज से सरकार के नौकर नहीं, सेक्रटरी साहब के नौकर हैं। कोई उनके लड़के को पढ़ायेगा। कोई बाजार से सामान लायेगा और कोई उन्हें अखबार सुनायेगा और चपरासी तो शायद दफ्तर में दिखाई ही न दे।“

Puri Kahaani Sune…

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(hindi) Muft Ka Yash

(hindi) Muft Ka Yash

“उन दिनों भाग्य से जिले के हाकिम एक बहुत अच्छे और प्रेमी आदमी थे। इतिहास और पुराने सिक्कों को ढूंढ़ने में उन्होंने अच्छी इज़्ज़त कमा ली थी। भगवान् जाने दफ्तर के इतने सारे काम में से उन्हें ऐतिहासिक छान-बीन के लिए कैसे समय मिल जाता था। वहाँ तो जब किसी अफसर से पूछिए, तो वह यही कहता है 'इतने सारे काम के बोझ से मरा जाता हूँ, सिर उठाने का समय नहीं मिलता ।' 

शायद शिकार और सैर भी उनके काम में ही आते है ? उन भले आदमी की कीर्ति मैंने देखी थीं और मन में उनकी इज़्ज़त करता था; लेकिन उनकी अफसरी किसी तरह के मेलजोल  में एक रूकावट की तरह थी। मुझे शक था कि अगर मेरी तरफ से शुरुआत हुई तो लोग यही कहेंगे कि इसमें मेरा कोई मतलब है और मैं किसी हालत  में भी यह इलजाम अपने सिर नहीं लेना चाहता।

मैं तो बड़े अफसरो की दावतों और सभी को इक्कठा कर त्योहार में बुलावा देने को  भी पसंद नहीं करता हूँ और जब कभी सुनता हूँ कि किसी अफसर को किसी आम जलसे का अध्यक्ष बनाया गया या कोई स्कूल, दवाख़ाना या विधवा आश्रम किसी गवर्नर के नाम से खोला गया, तो अपने भाई जैसे देश वासियो की गुलामों वाली सोच पर घंटों दुःखी होता हूँ; मगर जब एक दिन जिले के हाकिम ने खुद मेरे नाम बुलावा भेजा कि मैं आपसे मिलना चाहता हूँ; क्या आप मेरे बँगले पर आने की कोशिश करेंगे, तो मैं सोच में पड़ गया। क्या जवाब दूं ? अपने दो-एक दोस्तों से सलाह ली। 

उन्होंने कहा, 'साफ लिख दीजिए, मेरे पास समय नहीं है । वह जिले के हाकिम होंगे, तो अपने घर के होंगे, कोई सरकारी या क़ानून का काम होता, तो आपका जाना जरुरी  था, लेकिन आपस में मिलने  के लिए जाना आपकी इज़्ज़त  के खिलाफ है। आखिर वह खुद आपके घर पर क्यों नहीं आये ? इससे क्या उनकी इज्जत में कमी आ जाती ? इसीलिए तो खुद नहीं आये कि वह जिले के हाकिम हैं। इन पागल हिन्दुस्तानियों को कब समझ आयेगी कि दफ्तर के बाहर वे भी वैसे ही आम आदमी हैं, जैसे हम या आप। शायद ये लोग अपनी पत्नियों पर भी अपने अफसर होने का रोब मारते होंगे। अपना पद वो कभी नहीं भूलता।'
एक दोस्त  ने, जो चुटकुलों का  चलता -फिरता  खजाना हैं, हिन्दुस्तानी अफसरों के बारे में कई बड़ी मजेदार बाते सुनायीं।

 “एक अफसर साहब ससुराल गये। शायद पत्नी को विदा कराना था। जैसा आम रिवाज है, ससुर जी ने पहले ही वादे पर लड़की को विदा करना सही न समझा। कहने लगे बेटा, इतने दिनों के बाद आयी है अभी कैसे विदा कर दूं? भला, छ: महीने तो रहने दो”। उधर धर्म पत्नीजी ने भी नाइन से  ख़बर भेज दी अभी मैं नहीं जाना चाहती। आखिर माता-पिता से भी तो मेरा कोई रिश्ता है । तुम्हारे हाथ बिक थोड़े ही गयी हूँ ? दामाद साहब अफसर थे,  सरकारी रोब में गुस्सा हो गये। तभी घोड़े पर बैठे और सदर को चल पड़े। दूसरे ही दिन ससुरजी को सरकारी अफसर की तरह आदेश दे दिया। बेचारा बूढ़ा आदमी तुरन्त लड़की को साथ लेकर दामाद की सेवा में जा पहुँचा। तब जाके उनकी जान बची”। 

“ये लोग ऐसे झूठे अभिमानी होते हैं और फिर तुम्हें जिले के हाकिम से लेना ही क्या है? अगर तुम कोई लड़ाई की कहानी या लेख लिखोगे, तो तुरंत गिरफ्तार कर लिये जाओगे। जिले के हाकिम जरा भी दया न करेंगे। कह देंगे यह सरकार का हुक्म है, मैं क्या करूँ ? अपने लड़के के लिए कानूनगोई या नायब तहसीलदारी की इच्छा तुम्हें है नहीं। बेकार क्यों दौड़े जाओ।“ 

लेकिन, मुझे दोस्तों की यह सलाह पसन्द न आयी। एक भला आदमी जब बुलावा देता है, तो सिर्फ़ इसलिए मना कर देना कि जिले के हाकिम ने भेजा है, बेकार की जिद है। हाँ ये और बात है कि हाकिम साहब मेरे घर आ जाते, तो उनकी इज्जत कम न होती। दयालु आदमी बिना सोचे  चला आता, लेकिन भाई, जिले की अफसरी बड़ी चीज है और एक लेखक की हस्ती  ही क्या है।

 इंगलैंड या अमेरिका में कहानी लेखकों और उपन्यासकारों की मेज पर बुलावा होने में प्रधानमंत्री भी अपना गौरव समझेगा, जिले के हाकिम की तो गिनती ही क्या है ? लेकिन यह भारत है, जहाँ हर अमीर के दरबार में कविता के राजाओ की  भीड़ अमीरो के गुणगान के लिए जमा रहता था और आज भी राज्याभिषेक में हमारे लेखक-समूह बिना बुलाये राजाओं की सेवा में आते हैं, तारीफ़ करते हैं और इनाम के लिए हाथ फैलाते हैं। तुम ऐसे कहाँ के बड़े वह हो कि जिले के हाकिम तुम्हारे घर चला आये। जब तुममें इतनी अकड़ और नखरे है, तो वह तो जिले का राजा है।

 अगर उसे कुछ घमंड भी हो तो सही है। इसे उसकी कमजोरी कहो, बदतमीजी कहो, बेवकूफी कहो, असभ्य कहो, फिर भी सही है। देवता होना गर्व की बात है, लेकिन इंसान होना भी गुनाह नहीं। और मैं तो कहता हूँ भगवान को धन्यवाद दो कि जिले के हाकिम तुम्हारे घर नहीं आये, वरना तुम्हारी कितनी बेइज़्ज़त्ती होती। उनके आदर-सत्कार का सामान तुम्हारे पास कहाँ था ? ढंग की एक कुर्सी भी नहीं है। उन्हें क्या तीन टाँगों वाले सिंहासन पर बैठाते या मटमैली फर्श पर बिछी चादर पर ? तीन पैसे की चौबीस बीड़ियाँ पीकर दिल खुश कर लेते हो। है  हैसियत रुपये के दो सिगार खरीदने की ? तुम तो इतना भी नहीं जानते कि वह सिगार मिलता कहाँ है, उसका नाम क्या है।

Puri Kahaani Sune…

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(hindi) Hope and Help for Your Nerves

(hindi) Hope and Help for Your Nerves

“क्या कभी ऐसा हुआ है जब आप बेहद घबरा गए हों या नर्वस हो गए हों और अपने आप से पूछा हो “ क्या ऐसा होना नार्मल है?” अगर हाँ, तो ऐसा सोचने वाले आप इकलौते इंसान नहीं हैं. मेंटल हेल्थ बड़ा ही पेचीदा मामला होता है क्योंकि हर दिमाग अलग होता है और आप जो एक्सपीरियंस करते हैं ज़रूरी नहीं कि कोई दूसरा भी वही एक्सपीरियंस करेगा. ये बुक आपको आराम खोजने में मदद करेगी. इस जंग में आप अकेले नहीं हैं. ये बुक अप्पके लिए एक दोस्त, गुरु और थेरपिस्ट का काम करेगी. 

यह समरी किसे पढ़नी चाहिए?
•    जो लोग मेंटल हेल्थ से जुड़ी कंडीशन से जूझ रहे हैं 
•    मानसिक बीमारी से पीड़ित लोगों के परिवार या अपने 
•    मेंटल हेल्थ के सपोर्ट में बोलने वाले लोग 
•    थेरपिस्ट और काउंसलर 
•    साइकोलॉजी के स्टूडेंट 

ऑथर के बारे में 
डॉ. क्लेयर वीक्स एक प्रैक्टिशनर, researcher और राइटर हैं. उनकी expertise का फील्ड  चिंता या एंग्जायटी रहा है. उनकी किताबों ने कई लोगों को गाइड किया है, उन्हें आराम पहुंचाया है. आज भी डॉ. क्लेयर के बेहतरीन काम के बारे में कई सेल्फ़ हेल्प किताबों और academic जर्नल में लिखा जाता है. 
 

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(hindi) Gareeb Ki Haay

(hindi) Gareeb Ki Haay

“मुंशी रामसेवक भौंहे चढ़ाए हुए घर से निकले और बोले- “”इस जीने से तो मरना भला है।”” मौत को अक्सर इस तरह के जितना बुलाया जाता हैं, अगर वह सबको सच मान ले, तो आज सारा दुनिया उजाड़ दिखाई देता।

मुंशी रामसेवक चाँदपुर गाँव के एक बड़े अमीर थे। अमीरों के सभी गुण इनमें भरपूर थे। इंसान के स्वभाव की कमजोरियां उनके जीवन का आधार थीं। वह रोज मुन्सिफी अदालत के सामने एक नीम के पेड़ के नीचे कागजों का बस्ता खोल एक टूटी-सी चौकी पर बैठे दिखाई देते थे। किसी ने कभी उन्हें किसी सुनवाई मे कानूनी बहस या मुकदमे की पैरवी करते नहीं देखा। लेकिन उन्हें सब लोग मुख्तार साहब कहकर बुलाते थे। चाहे तूफान आये, पानी बरसे, ओले गिरें पर मुख्तार साहब वहां से न हिलते। जब वह अदालत चलते तो देहातियों के झुण्ड-के-झुण्ड उनके साथ हो लेते। चारों ओर से उन पर भरोसे और आदर की नजर पड़ती। सबमें मशहूर था कि उनकी जीभ पर सरस्वती बैठी हैं। इसे वकालत कहो या मुख्तारी, लेकिन यह सिर्फ कुल-मर्यादा का मान रखना था। कमाई ज्यादा न होती थी। चाँदी के सिक्कों की तो चर्चा ही क्या, कभी-कभी ताँबे के सिक्के भी मुश्किल से उनके पास आते थे।

मुंशीजी की कानूनी जानकारी में कोई शक न था। लेकिन 'पास' के झमेले ने उन्हें मजबूर कर दिया था। खैर, जो हो, उनका यह काम सिर्फ नाम के लिए था; नहीं तो उनके जीने का मुख्य साधन आस-पास की बेसहारा, पर खाने-पीने में सुखी विधवाओं और भोले-भाले लेकिन अमीर बूढ़ों की श्रद्धा थी। विधवाएँ अपना रुपया उनके यहां अमानत रखती थीं। बूढ़े अपने बिगड़े हुए बेटों के डर से अपना पैसा उन्हें रखने को देते। पर रुपया एक बार उनकी मुठ्ठी में जाकर फिर निकलना भूल जाता था। वह जरूरत पड़ने पर कभी-कभी कर्ज ले लेते थे। भला, बिना कर्ज लिए किसी का काम चल सकता है ? सुबह, शाम को लौटाने को कह कर रुपया लेते, पर वह शाम कभी नहीं आती थी। कुल मिलाकर मुंशीजी कर्ज लेकर देना सीखे नहीं ही थे। यह उनके घर का नियम था।

ये सब मामले कई बार मुंशी जी के सुख-चैन में खलल डालते थे। कानून और अदालत से तो उन्हें कोई डर न था। इस मैदान में उनका सामना करना पानी में मगर से लड़ना था। लेकिन जब कोई बदमाश उनसे भिड़ जाता, उनकी ईमानदारी पर शक करता और उनके मुँह पर बुरा-भला कहने पर उतारू हो जाता, तब मुंशीजी के दिल पर बड़ी चोट लगती। इस तरह की दुर्घटनाएँ अक्सर होती थीं। हर जगह ऐसे छोटे लोग रहते हैं, जिन्हें दूसरों को नीचा दिखाने में ही मजा आता है। ऐसे लोगों का सहारा पाकर कभी-कभी छोटे आदमी मुंशीजी के मुँह लग जाते थे। नहीं तो, एक सब्जी बेचने वाली की इतनी हिम्मत नहीं थी कि आँगन में जाकर उन्हें बुरा-भला कहे। मुंशीजी उसके पुराने ग्राहक थे; बरसों तक उससे सब्ज़ी -भाजी ली थी। अगर सब्जी के पैसे न दिया जाय, तो उसे सब्र करना चाहिए। पैसे जल्दी या देर से मिल ही जाते। लेकिन वह मुँहफट सब्जी बेचने वाली दो ही सालों में घबरा गई, और उसने कुछ पैसों के लिए एक इज्जतदार आदमी की इज्जत उतार दी। झुँझलाकर मुंशीजी ख़ुद को मौत के मुँह मे डालने पर उतारू हो गए, तो इसमें उनकी कोई गलती न थी।

इसी गाँव में मूँगा नाम की एक विधवा ब्राह्मणी रहती थी। उसका पति ब्रह्मा की काली फौज में हवलदार था और लड़ाई में वहीं मारा गया। सरकार की ओर से उसके अच्छे काम के बदले मूँगा को पाँच सौ रुपये मिले थे। विधवा औरत, जमाना खराब था, बेचारी ने सब रुपये मुंशी रामसेवक को सौंप दिए, और महीने-महीने थोड़ा-थोड़ा उसमें से माँगकर अपना गुजारा करती रही।

मुंशीजी ने यह कर्तव्य कई सालों तक तो बड़ी ईमानदारी के साथ पूरा किया पर जब बूढ़ी होने पर भी मूँगा नहीं मरी तो  मुंशी जी को यह चिंता हुई कि शायद उसमें से आधे पैसे भी उसके मरने तक न बचे, तो एक दिन उन्होंने कहा- “”मूँगा! तुम्हें मरना है या नहीं ? साफ-साफ कह दो कि मैं अपने मरने की फिक्र करूं ?””

Puri Kahaani Sune..

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(hindi) The Adventure of Black Peter

(hindi) The Adventure of Black Peter

“साल '95 की बात हैं, मैंने अपने दोस्त शरलॉक को पहले कभी इतने बेहतर मेन्टल और फिज़िकल हालत में नहीं देखा था. उसके बढ़ते हुए शोहरत से उसकी प्रैक्टिस काफी बढ़ गई थी. मुझे कहने की इज़ाज़त तो नहीं, पर हमारे बेकर स्ट्रीट के छोटे से आशियाने में कितने ही मशहूर क्लाइंट चक्कर काटते रहे, ये बात अगर मैं इशारों में भी बता दूँ, तो मैं नासमझ होने का दोषी कहलाऊंगा. हालाँकि, किसी बहुत बड़े आर्टिस्ट की ही तरह, शरलॉक बस अपने हुनर, अपने आर्ट के खातिर ही जीता था. ड्यूक ऑफ होल्डरनेस के मामले को छोड़कर मैंने उसे शायद ही कभी अपने सर्विस के लिए कोई इनाम का दावा करते देखा है. वो बाकियों से इतना अलग था कि हमेशा ही वो पावरफुल और दौलतमंद लोगों के मामलों तक को इंकार कर देता  अगर उनका केस उसकी सोच को अपील नहीं करता था. जबकि अगर कोई साधारण क्लाइंट का अजीबोगरीब और ड्रामा से भरा कोई भी केस हो जो उसकी सोच को अपील करता, उसे चैलेंज करता, तो उनमें वो हफ़्तों की मेहनत लगा देता था.

ये साल बड़ा यादगार रहा. एक के बाद एक अजीबोगरीब मामलों ने शरलॉक के ध्यान को अपनी ओर उलझाए रखा था, फिर चाहे वो कार्डिनल टोस्का की अचानक हुई मौत से जुड़ा मामला हो जिसे शरलॉक ने हिस होलीनेस द पोप, की इच्छा जताने पर अपने हाथों में लिया था. या फिर, विल्सन की गिरफ्तारी का मामला हो, जो कैनरी चिड़िया का एक ट्रेनर था जिसने ईस्ट-एन्ड लंदन से प्लेग-स्पॉट हटाया था. फिर, इन दो फेमस मामलों के खत्म होते न होते, वूडमैन्स ली के ट्रेजेडी और कैप्टन पीटर कैरी के मौत के केस आ गए थे. शरलॉक होम्स के कारनामों का रिकॉर्ड अधूरा ही रह जाएगा अगर उसमें इस मामले का ज़िक्र न हो.

जुलाई के पहले हफ्ते में, मेरा दोस्त घर से अक्सर लम्बे वक्त के लिए इतना ज़्यादा गायब रहने लगा था कि मुझे यक़ीन हो चला था कि उसके हाथ कुछ केस लगा हैं. उन दिनों, बहुत से बेढंगे आदमी आते और कैप्टन बेसिल के बारे में पूछताछ करते थे. मुझे समझ आ गई थी कि हो न हो, होम्स कई नाम और भेष बदल कर कहीं काम कर रहा हैं ताकि वो अपनी बड़ी शख्सियत को छुपा सके. पुरे लंदन में उसके पास कम से कम पांच ऐसे ठिकाने थे जहाँ जाकर वो अपना पहचान बदल लेता था. वो कभी इनके बारे में मेरे सामने खुलासा नहीं करता था और मेरी भी आदत नहीं थी कि मैं किसी को मुझ पर भरोसा करने के लिए मज़बूर करूँ. अपने इन्वेस्टीगेशन के बारे में उसने जो भी पहला इशारा दिया था, वो बहुत ही खास था. नाश्ते से पहले ही शरलॉक बाहर चला गया था, और मैं नाश्ता करने ही बैठ था, जब वो अपने लम्बे क़दमों से कमरे में आया. उसके सिर पर उसकी टोपी और उसकी बाजू के नीचे किसी छाते के जैसे एक बड़ा कांटे वाला भाला टिका था.

“”ओह गॉड, होम्स! “” मैंने चिल्लाकर कहा. “” तुम ये तो नहीं कहना चाह रहे न कि तुम पूरे लंदन में इस चीज़ के साथ घूम रहे थे?””

“” मैं कसाई के पास गया था और वहीं से वापस आया हूँ.””

“”कसाई के पास से?””

“”और वहां से मैं बहुत ज़्यादा भूख लेकर लौटा हूँ. इसलिए, माय डियर वॉटसन, इसमें कोई शक ही नहीं कि ब्रेकफास्ट से पहले हमें एक्सरसाइज करनी चाहिए. लेकिन, मैं दावे के साथ कह सकता हूँ, तुम बिलकुल अंदाज़ा नहीं लगा पाओगे कि मेरे एक्सरसाइज ने कौन सी शक्ल ले ली हैं.””

“”मैं कोशिश भी नहीं करूँगा.””

शरलॉक अपने लिए कॉफ़ी डालते हुए हंसने लगा.

“”अगर तुम एलरडाइस की दुकान में जाकर देखते तो तुम्हे वहां सीलिंग में मरा हुआ सूअर दिखता और एक शख्स को हथियार से उसे बुरी तरह मारते हुए देखते. मैं ही वो शख्स था और मुझे यक़ीन हो चला है कि मैं जितनी भी चाहे ताकत लगा लूँ, उसे एक वार में शांत नहीं कर सकता. क्या तुम कोशिश करना चाहोगे, वॉटसन?””

“”किसी भी कीमत में नहीं. लेकिन तुम ऐसा क्यों कर रहे थे?””

“” क्योंकि मुझे ये लगता हैं कि ये वूडमैन्स ली के राज़ का असर हैं. ओह, हॉपकिंस, आओ, मुझे तुम्हारा तार कल ही मिल गया था, और मैं तुम्हारा ही इंतज़ार कर रहा था. आओ, हमें ज्वाइन करो.””

हमारे मेहमान एक अलर्ट आदमी थे, कोई तीस साल की उम्र के , ट्वीड की जैकेट पहने ऐसे खड़े थे जैसे उन्हें किसी सरकारी वर्दी की आदत हो. मैंने फौरन उन्हें पहचान लिया था, स्टैनली हॉपकिंस, एक नौजवान पुलिस ऑफिसर जिनके भविष्य से होम्स को बड़ी उम्मीदें थी. बदले में, वो होम्स के फेमस साइंटिफिक तरीकों के लिए एक शागिर्द की तरह इज़्ज़त और तारीफ़ करता. हॉपकिंस के ऑयब्रोस गहरा गए थे और वो उदास होकर बैठ गया. 

“नहीं, थैंक यू, सर. मैंने यहाँ आने से पहले ही नाश्ता किया हैं. मैंने शहर में ही रात बिताई और रिपोर्ट करने के लिए कल ही आ गया था. ”

“”तुम्हें क्या रिपोर्ट करना था?””

“फेलियर, सर. पूरी तरह से. ”

“”तुमने कोई प्रोग्रेस नहीं की?””

“”बिलकुल नहीं.””

“”डियर मी! मुझे इस मामले पर एक नजर डालनी चाहिए,”- शरलॉक ने कहा.

“”मैं तो यही चाहता हूँ कि आपको इसे देखना चाहिए. ये मेरा पहला बड़ा मौका है, और मेरा दिमाग तो बिलकुल नहीं काम कर रहा. प्लीज, नीचे आ जाइए और मेरी हेल्प कीजिए.””

“”वेल, वेल, जो भी सबूत मिले है, मैंने उन्हें पहले से ही पढ़ लिया है, जिसमें इन्क्वेस्ट रिपोर्ट भी हैं, जिसे मैंने ध्यान से पढ़ा है. वैसे, उस क्राइम-सीन में मिले तंबाकू-पाउच से क्या समझे? क्या वहां कोई सुराग नहीं मिला?

हॉपकिंस हैरान दिखे.

“वो उनकी खुद की पाउच थी, सर. उसके अंदर उनके इनिशियल थे. और वो पाउच सील जानवर की चमड़ी का बना था — और वे एक पुराने शिकारी थे.”
 
“”लेकिन कोई पाइप नहीं था.””

“नहीं, सर, हमें वहां कोई पाइप नहीं मिला; असल में, वो बहुत कम स्मोक करते थे. हो सकता हैं फिर भी उन्होंने अपने दोस्तों के लिए वहाँ कुछ तंबाकू रखा हो. ”

“”इसमें कोई शक नहीं हैं. मैं ये सिर्फ इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि अगर मैं इस मामले को संभाल रहा होता तो मैं अपनी इन्वेस्टीगेशन की शुरुवात इसी पॉइंट से करता. हालाँकि, मेरे दोस्त डॉक्टर वॉटसन को इस मामले के बारे में कुछ भी पता नहीं है, और इस घटना को फिर से एक बार सुनने में कोई नुकसान तो नहीं, हॉपकिंस . बस हमें कुछ इम्पोर्टेन्ट बातों की डिटेल्स बता दो.”

स्टेनली हॉपकिंस ने अपनी जेब से एक पर्ची निकाली.

उन्होंने कहा, “मेरे पास कुछ तारीखें हैं, जो आपको मृत शख्स कैप्टन पीटर कैरी के करियर के बारे में बताएगी. उनका जन्म 1845 साल में हुआ था, पचास की उमर हो गई थी. वो एक बहादुर और कामयाब सील और व्हेल के शिकारी थे. 1883 में, उन्होंने डंडी के सील का शिकार करने वाली स्टीम ज़हाज़, सी-यूनिकॉर्न की कमान संभाली. उसके बाद उन्होंने बहुत सारे कामयाब समुद्री-सफर तय किए . और अगले ही साल , 1884 में, वो रिटायर हो गए. उसके बाद उन्होंने कुछ सालों तक अपना सफर ज़ारी रखा. और, आखिरकार उन्होंने ससेक्स में फॉरेस्ट रो के पास वूडमैन्स ली नाम की एक छोटी सी जगह खरीदी. वहाँ वो छह साल तक रहे, जहाँ एक हफ्ते पहले ही उनकी मौत हो गई.

“उनके कुछ बहुत ख़ास बातें थी. वे पब्लिक लाइफ में एक स्ट्रिक्ट प्यूरिटन थे, शख्त धार्मिक, शांत और उदास भी. उनके घर में उनकी पत्नी, उनकी बीस साल की बेटी, और दो मैड-सर्वेंट थे. वे अक्सर शराब में डूबे रहते थे, और जब वे फिट होते थे तो उन पर शैतान सवार हो जाता था. वो अपनी पत्नी और अपनी बेटी को आधी रात को घर से बाहर निकाल देते, उन्हें मारते-पीटते पार्क से गुज़रते जिससे पूरा गांव उनकी  चीखों से जाग जाता था.

“”उन्हें एक बार चर्च के पादरी की बेइज़्ज़ती करने पर भी बुलवाया गया था. सीधी बात कहे तो, पीटर कैरी से ज़्यादा खतरनाक आदमी दूर-दूर तक नहीं था, और मैंने तो सुना हैं कि नौकरी के दौरान ज़हाज़ को कमांड करते हुए भी वे ऐसे ही कैरेक्टर के होते थे. उनके सांवले रंग, लम्बी काली दाढ़ी के कारण तो है ही पर उनको उनके मिज़ाज़ के कारण भी ब्लैक पीटर का नाम दिया गया. मुझे ये बताने की ज़रूरत नहीं है कि उनके पड़ोसी उनको पसंद नहीं करते थे और उनसे बचते बचाते ही फिरते थे. मैंने उनकी मौत के बाद किसी को भी दुःख जताते नहीं सुना.

“”आपने उनके केबिन के क़ानूनी जांच के बारे में पढ़ा ही होगा, मिस्टर होम्स लेकिन शायद आपके दोस्त ने इसके बारे में नहीं सुना है. अपने घर से कुछ सौ गज की दूरी पर, उन्होंने खुद ही एक लकड़ी का आउटहाउस बनाया था जिन्हें वे 'केबिन' कहा करते थे. और वे यही हर रात सोते थे. ये एक छोटा, एक कमरे का हट था, जो सोलह बाई दस फीट का था. वे चाबी को अपनी जेब में रखते, अपना बिस्तर खुद बनाते, खुद ही साफ-सफाई करते, और किसी और को वहां पैर रखने की इज़ाज़त नहीं थी. केबिन में हर तरफ छोटी खिड़कियां हैं, जो पर्दे से ढंके हुए हैं जिनको कभी नहीं खोलते थे. इनमें से एक खिड़की हाई स्ट्रीट की ओर खुलती थी, और जब रात में इसमें बत्ती जलती तो लोग एक दूसरे को इशारा करते थे और सोचते थे कि ब्लैक पीटर वहाँ क्या कर रहे हैं. वो खिड़की ही है, मिस्टर होम्स, जिसने हमें कुछ सबूत दिए थे जो कि पूछताछ में आया हैं.

Puri Kahaani Sune….

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(hindi) Dharm Sankat

(hindi) Dharm Sankat

“'आदमियों और औरतों में बड़ा अन्तर है, तुम लोगों का दिल काँच की तरह कड़ा होता है और हमारा दिल नरम, वह जुदाई का दर्द नहीं सह सकता।'

काँच चोट लगते ही टूट जाता है। नरम चीजों में लचक होती है।'

'चलो, बातें न बनाओ। दिन-भर तुम्हारा रास्ता देखूँ, रात-भर घड़ी की सुइयाँ, तब कहीं आपके दर्शन होते हैं।'

'मैं तो हमेशा तुम्हें अपने दिल में छिपाए रखता हूँ।'

'ठीक बतलाओ, कब आओगे?'

'ग्यारह बजे, लेकिन पिछला दरवाजा खुला रखना।'

'उसे मेरी आँखें समझो।'

'अच्छा, तो अब चलता हुँ।'

पंडित कैलाशनाथ लखनऊ के जाने माने बैरिस्टरों में से थे कई सभाओं के मंत्री, कई समितियों के सभापति, पत्रों में अच्छे-अच्छे लेख लिखते, प्लेटफार्म पर शिक्षा देने वाला भाषण देते। पहले-पहले जब वह यूरोप से लौटे थे, तो यह उत्साह अपनी पूरी मौज पर था; लेकिन जैसे-जैसे बैरिस्टरी चमकने लगी, इस उत्साह में कमी आने लगी और यह ठीक भी था, क्योंकि अब बेकार न थे जो समय बर्बाद करते। हाँ, क्रिकेट का शौक अब जैसे का तैसा बना था। वह कैसर क्लब के संस्थापक और क्रिकेट के मशहूर खिलाड़ी थे।

अगर मि. कैलाश को क्रिकेट की धुन थी, तो उनकी बहन कामिनी को टेनिस का शौक था। इन्हें रोज नए मन बहलाने की चीजों की चाह रहती थी। शहर में कहीं नाटक हो, कोई थियेटर आये, कोई सर्कस, कोई बायसकोप हो, कामिनी उनमें न शामिल हो, यह नामुमकिन बात थी। मन बहलाने की कोई चीज उसके लिए उतनी ही जरूरी थी, जितना हवा और रोशनी।

मि. कैलाश पश्चिमी सभ्यता (कल्चर) के असर में बहने वाले अपने दूसरे साथियों की तरह हिंदू जाति, हिंदू सभ्यता, हिंदी भाषा और हिंदुस्तान के बहुत बड़े विरोधी थे। हिंदू सभ्यता मे उन्हें ख़ामियां दिखाई देती थी ! अपनी इस सोच को वे अपने तक ही सीमित न रखते थे, बल्कि बड़ी ही प्रभावशाली भाषा में इस बारे मे लिखते और बोलते थे। हिंदू सभ्यता के समझदार भक्त उनकी इस नासमझ सोच पर हँसते थे; लेकिन मजाक और विरोध तो सुधारने वाले का इनाम हैं। मि. कैलाश उनकी कुछ परवाह न करते। वे सिर्फ बातें ही नही करते थे, कर्मवीर भी पूरे थे। कामिनी की आजादी उनकी सोच का जीता जागता सबूत थी। अच्छा तो यह था कि कामिनी के पति गोपालनारायण भी इसी सोच में रँगे हुए थे। वे साल भर से अमेरिका में पढ़ाई कर रहे थे। कामिनी भाई और पति के सोच का पूरा फायदा उठाने में कमी न करती थी।

लखनऊ में अल्फ्रेड थिएटर कम्पनी आयी हुई थी। शहर में जहाँ देखिए, उसी तमाशे की चर्चा थी। कामनी की रातें बड़े मजे से कटती थीं रात भर थियेटर देखती, दिन को सोती और कुछ देर वही थियेटर के गीत गाती, सुंदरता और प्यार की नई आकर्षक दुनिया में घूमती थी जहाँ का दुख और परेशानी भी इस दुनिया के सुख और मजे से बढ़कर खुशी देने वाला है। यहाँ तक कि तीन महीने बीत गए, रोज़ प्यार की नई मन मोहने वाली शिक्षा और प्यार के मन बहलाने वाली बातों का दिल पर कुछ-न-कुछ असर होना चाहिए था, सो भी इस चढ़ती जवानी में। वह असर हुआ। इसकी शुरुआत उसी तरह हुई, जैसे कि अक्सर हुआ करती है।

थियेटर हाल में एक सुंदर और आकर्षक लड़के की आँखें कामिनी की ओर उठने लगीं। वह सुंदर और चंचल थी, इसलिए पहले उसे दिल में किसी राज का पता न चला। आँखों का सुन्दरता से बड़ा गहरा रिश्ता है। घूरना आदमी का और शर्माना औरत का स्वभाव है। कुछ दिनों के बाद कामिनी को इन आँखों में कुछ छुपे हुए भाव झलकने लगे। मंत्र अपना काम करने लगा। फिर आँखों में आपस मे बातें होने लगीं। आँखें मिल गई। प्यार बढ़ गया। कामिनी एक दिन के लिए भी अगर किसी दूसरे आयोजन में चली जाती, तो वहाँ उसका मन न लगता। मन उचटने लगता। आँखें किसी को ढूँढ़ा करतीं।

आखिर में शर्म का बाँध टूट गया। दिल में बहार आ गई। होंठों का ताला टूटा। प्यार भरी बातें होने लगी ! कविताओं के बाद कहानियों की बारी आयी और फिर दोनों एक दूसरे के करीब आ गए। इसके बाद जो कुछ हुआ, उसकी झलक हम पहले ही देख चुके हैं।

Puri Kahaani Sune…

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(hindi) It’s Called a Breakup Because It’s Broken: The Smart Girl’s Breakup Buddy

(hindi) It’s Called a Breakup Because It’s Broken: The Smart Girl’s Breakup Buddy

“किसी भी रिश्ते के टूट जाने के दर्द को हैंडल करना बहुत मुश्किल होता है. बहुत सारे लोग अभी भी अतीत के रिश्तों से मिले घावों से उभर रहे हैं. अपने सम्मान को बरक़रार रखते हुए अपने ex से छुटकारा पाने का क्या कोई रास्ता है? क्या किसी से छुटकारा पाने का कोई तरीका है? जवाब है हाँ. किसी भी रिश्ते से पार पाने के लिए आपको सिर्फ़ तीन रूल की जरुरत है. इस बुक में, आप कारगर रूप से सीखेंगें कि कैसे आगे बढ़ना है.   
 
ये समरी किस-किसको पढ़नी चाहिए?
 

●          जिन लोगों का रिश्ता हाल-फिलहाल में टूटा है

●          जो लोग अपने आप से प्यार करने की राह में हैं

●          जो लोग दिल टूटने के दर्द से जूझ रहे हैं

ऑथर्स के बारे में
Amiira Ruotola और Greg Behrendt पति पत्नी हैं, उनकी दो बेटियां हैं. Greg Behrendt एक बुक जिसका नाम है “”He's Just Not That into You” के co -author हैं. यह बुक  न्युयोर्क  टाइम्स की बेस्ट सेलर लिस्ट में थी और बाद में इस पर एक फिल्म भी बनी ।
Amiira Ruotola एक record executive के तौर पर रिटायर्ड हैं और अब एक फुल टाइम writer हैं। वे अभी अपनी पहली नॉवल पर काम कर रही हैं. वह outdress The enemy नाम के फैशन ब्लॉग के लिए काम करती हैं और अपने पति और बच्चों के साथ लॉस एंजेलेस में रहती हैं।   
 
 

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