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Category: GIGL Technical

(hindi) The Power

(hindi) The Power

“आपको ये समरी क्यों पढ़नी चाहिए?

लाइफ बहुत ही कॉम्प्लिकेटेड है, और बहुत से लोग जो चाहते हैं उसे पाने के लिए काफी स्ट्रगल करते हैं. वे नहीं जानते कि वे एक सीक्रेट पॉवर को मिस कर रहे हैं जो उन्हें कुछ भी हासिल करने में मदद कर सकती हैं. ये बुक सिखाएगी कि ये ताकत, ये पॉवर कितना ज़रूरी हैं और इसे अपने डेली रूटीन में डालना कितना आसान हैं. आप सीखेंगे कि प्यार की ताकत, लॉ ऑफ़ अट्रैक्शन, दौलत और हेल्थ को अट्रैक्ट करने के लिए आपकी पॉजिटिव फ्रीक्वेंसी की ताकत का यूज़ कैसे करें.

इस समरी को किसे पढ़ना चाहिए?

• कोई भी जिसे मोटिवेशन और इंस्पिरेशन चाहिए.

ऑथर के बारे में
रोंडा बर्न एक फिल्ममेकर और ऑथर हैं. वो वॉलेस डी वॉटल्स की लिखी “”द साइंस ऑफ गेटिंग रिच”” बुक से इंस्पायर हुई थीं. रोंडा ने लॉ ऑफ़ अट्रैक्शन के बारे में काफ़ी रिसर्च की. उन्होंने 2006 में डॉक्यूमेंट्री फिल्म 'द सीक्रेट' बनाई जो कि उनकी सबसे ज्यादा बिकने वाली इंटरनेशनल बुक पर बेस्ड है. 'द सीक्रेट' की दुनिया भर में 19 मिलियन कॉपी बिक चुकी है.

 

 

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(hindi) Irresistible: The Rise of Addictive Technology and the Business of Keeping Us Hooked

(hindi) Irresistible: The Rise of Addictive Technology and the Business of Keeping Us Hooked

“2010 में स्टीव जॉब्स ने आईपैड लांच किया था. तब उन्होंने बोला था कि सबके पास आई पैड होना चाहिए. आईपैड एक्स्ट्राऑर्डनरी है. ये हमारे एक्सपीरिएंस को एकदम अलग लेवल पर ले जाता है. लेकिन स्टीव जॉब्स ने अपने बच्चो को कभी आईपैड टच भी नहीं करने दिया. 
जर्नलिस्ट और बायोग्राफर्स ने ये प्रूव करके दिखाया कि स्टीव जॉब्स के घर में आईपैड अलाउड ही नहीं था. क्योंकि जॉब्स से बेहतर कौन जान सकता है कि मोबाइल डिवाइसेस कितने एडिक्टिव होते है. इसलिए स्टीव जॉब्स ने कभी भी अपने बच्चो को अपने प्रोडक्ट्स यूज़ नहीं करने दिए. 
क्या आप जानते है फोन इतने एडिक्टिव क्यों होते है? क्या आपको जानना है कि हम खुद को और अपने बच्चो को फोन की एडिक्शन से कैसे बचा सकते है जो आप सबकी लाइफ को अफेक्ट कर रहा है? अगर आप भी इस सवाल का जवाब ढूंढ रहे है तो ये किताब पढ़िये. 

ये समरी किस-किसको पढ़नी चाहिए?
•    पेरेंट्स
•    टीनएजर्स
•    कॉलेज स्टूडेंट
•    Millennials

ऑथर के बारे में 
Adam Alter एक बेस्ट सेलिंग ऑथर, प्रोफेसर और कोलुम्निस्ट है. वो एनवाईयू में प्रोफेसर है. साथ ही वो ड्रंक टैंक पिंक के ऑथर भी है और उनकी अगली किताब भी आने वाली है जिसका टाईटल है एस्केप वेलोसिटी. एडम वाशिंगटन पोस्ट, न्यू यॉर्क टाइम्स और बाकि दूसरे पोपुलर पब्लिकेशन के लिए भी लिख चुके है.  
 

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(hindi) The Courage Habit: How to Accept Your Fears, Release the Past, and Live Your Courageous Life

(hindi) The Courage Habit: How to Accept Your Fears, Release the Past, and Live Your Courageous Life

“क्या कभी आपको ऐसा लगा कि जैसे आप जिंदगी की उलझनों में फंस गए है ? क्या आप उन बंधनों को तोडना चाहते हो जो आपको बांधे हुए है ? हम में से हर कोई अपने अंदर कोई न कोई बदलाव चाहता है पर वो बदलाव कैसे लाये ये हम नही जानते. आपके मन में भी अगर इस तरह के सवाल है तो ये किताब आपके लिए है. ये किताब आपके प्रोब्लम का सोल्यूशन लेकर आई है. ये बुक आपको स्टेप बाई स्टेप अपनी स्टोरी में चेंज लाना सिखाएगी. इसे पढ़कर आप सीखोगे कि अपनी हैबिट कैसे चेंज की जाए, अपने डरो का सामना कैसे किया जाए और एक अपने लिए एक बैटर फ्यूचर कैसे बनाया जाए. 

ये समरी किस-किसको पढ़नी चाहिए? 
•    टीनएजर्स 
•    कॉलेज स्टूडेंट
•    यंग प्रोफेशनल

ऑथर के बारे में 
केट स्वोबोडा YourCourageousLife ब्लॉग की क्रिएटर और करेजियस लिविंग प्रोग्राम की ऑथर है. साथ ही वो करेजियस लिविंग कोच सर्टिफिकेशन प्रोग्राम की फाउंडर भी है. केट की स्पेशल बात है कि वो लोगो ये सिखाती है कि हम कैसे ब्रेव बने, अपने डर का सामना कैसे करे और अपनी लाइफ में कैसे बदलाव लेकर आये. दुनिया के टॉप 50 blogger की लिस्ट में केट भी शामिल है जो हेल्थ और फिटनेस की दुनिया में एक रियल चेंज लेकर आये है.  
 

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(hindi) Swatv Raksha

(hindi) Swatv Raksha

“मीर दिलादूल्हा अली के पास एक बड़ी रास का कुम्मैत घोड़ा था। कहते तो वह यही थे कि मैंने अपनी जिन्दगी की आधी कमाई इस पर खर्च की है, पर असल में उन्होंने इसे फौज से सस्ते दामों मोल लिया था। यों कहिए कि यह फौज का निकाला हुआ घोड़ा था। शायद फौज के अधिकारियों ने इसे अपने यहाँ रखना सही न समझ कर नीलाम कर दिया था। मीर साहब अदालत में मोहर्रिर (अदालत में जो लिखने का काम करते हैं) थे। शहर के बाहर मकान था। अदालत तक आने में तीन मील का रास्ता तय करना पड़ता था, एक जानवर की जरूरत थी। यह घोड़ा आसानी से मिल गया, ले लिया।

पिछले तीन सालों से वह मीर साहब की ही सवारी में था। देखने में तो उसमें कोई बुराई न थी, पर शायद आत्म-सम्मान कुछ ज़्यादा ही था। उसे उसकी इच्छा के खिलाफ या शर्मिंदा करने वाले काम में लगाना मुश्किल था। खैर, मीर साहब ने सस्ते दामों में कलाँ रास का घोड़ा पाया, तो फूले न समाये। ला कर दरवाजे पर बाँध दिया। घोड़े का ध्यान रखने वाले का इंतजाम करना मुश्किल था। बेचारे खुद ही शाम-सबेरे उस पर दो-चार हाथ फेर लेते थे। शायद घोड़ा इस सम्मान से ख़ुश होता था। इसी कारण रोज का खाना बहुत कम होने पर भी वह असंतुष्ट नहीं जान पड़ता था। उसे मीर साहब से कुछ सहानुभूति हो गयी थी। इस वफादारी में उसका शरीर बहुत पतला हो चुका था; पर वह मीर साहब को ठीक  समय पर खुशी से अदालत पहुँचा दिया करता था। उसकी चाल उसके अंदर के संतोष को दिखाती थी।

दौड़ना वह अपनी स्वाभाविक गम्भीरता के खिलाफ समझता था, ये उसकी नजर में मनमानी थी। अपने मालिक के प्रति वफादारी में उसने अपने कितने ही लम्बे समय से रहे हक का बलिदान कर दिया था। अब अगर किसी हक से प्यार था तो वह रविवार के दिन घर पर रहना था। मीर साहब रविवार को अदालत न जाते थे। घोड़े को मलते, नहलाते थे। इसमें उसे बहुत खुशी मिलती। वहाँ अदालत में पेड़ के नीचे बँधे हुए सूखी घास पर मुँह मारना पड़ता था, लू से सारा शरीर झुलस जाता था; कहाँ इस दिन छप्परों की शीतल छाँव में हरी-हरी दूब खाने को मिलती थी।

इसलिए रविवार को आराम करना वह अपना हक समझता था और मुमकिन न था कि कोई उसका यह हक छीन सके। मीर साहब ने कभी-कभी बाजार जाने के लिए इस दिन उस पर सवार होने की कोशिश की, पर इस कोशिश में बुरी तरह मुँह की खायी। घोड़े ने मुँह में लगाम तक न ली। आखिर में मीर साहब ने अपनी हार मान ली। वह उसके आत्म-सम्मान को चोंट पहुँचा कर अपनी जान को जोखिम में न डालना चाहते थे।

मीर साहब के पड़ोस में एक मुंशी सौदागरलाल रहते थे। उनका भी अदालत से कुछ रिश्ता था। वह मुहर्रिर न थे, कर्मचारी भी न थे। उन्हें किसी ने कभी कुछ लिखते-पढ़ते न देखा था। पर उनका वकीलों और मुख्तारों के समाज में बड़ा मान था। मीर साहब से उनकी बड़ी दोस्ती थी।

जेठ का महीना था। बारातों की धूम थी। बाजे वाले सीधे मुँह बात न करते थे। पटाखे वाले के दरवाजे पर जरूरतमंद लोग चर्खी की तरह चक्कर लगाते थे। नाचने वाले लोगों को उँगलियों पर नचाते थे। पालकी उठाने वाले लोग  पत्थर के देवता बने हुए थे, तोहफे ले कर भी न पसीजते थे। इसी सब लोगों की धूम में मुंशीजी ने भी लड़के की शादी तय दी। दबाववाले आदमी थे। 

धीरे-धीरे बारात का सब सामान जुटा तो लिया, पर पालकी का इंतज़ाम न कर सके। पालकी उठाने वालों ने ऐन समय पर एडवांस लौटा दिया। मुंशी जी बहुत गुस्सा हुए, हरजाने की धमकी दी, पर कुछ फल न हुआ। मजबूर होकर यही तय किया कि दूल्हे को घोड़े पर बिठा कर बारात की रस्म पूरी कर ली जाय। छह बजे शाम को बारात चलने का मुहूर्त था। चार बजे मुंशी ने आकर मीर साहब से कहा- “”यार अपना घोड़ा दे दो, दूल्हे को स्टेशन तक पहुँचा दें। पालकी तो कहीं मिलती नहीं।””

मीरसाहब- “”आपको मालूम नहीं, आज रविवार का दिन है।””

मुंशी जी- “”मालूम क्यों नहीं है, पर आखिर घोड़ा ही तो ठहरा। किसी न किसी तरह स्टेशन तक पहुँचा ही देगा। कौन सा दूर जाना है ?””

मीरसाहब- “”ऐसे तो आपका जानवर है, ले जाइए। पर मुझे उम्मीद नहीं कि आज वह खुद पर हाथ तक रखने दे।””

मुंशी जी- “”अजी मार के आगे भूत भागता है। आप डरते हैं। इसलिए आप से बदमाशी करता है। बच्चा पीठ पर बैठ जाएगा तो कितना ही उछले-कूदे पर उन्हें हिला न सकेगा।””

मीरसाहब- “”अच्छी बात है, जाइए और अगर उसकी यह जिद आप लोगों ने तोड़ दी, तो मैं आपका बड़ा एहसान मानूँगा।””

Puri Kahaani Sune…

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The Personal MBA: A World-Class Business Education in a Single Volume (English)

The Personal MBA: A World-Class Business Education in a Single Volume (English)

“Why should you read this summary?

 

This is the business book for dummies. This is the simplest  business book you will find. If you want to start a business, this book will make everything easier for you. It’s full of practical insight and interesting stories to learn from. Forget having an MBA. This book has the most important concepts you need to become a happy and successful entrepreneur.

 

Who should read this book?

 

●    Anyone who wants to start a business
●    Entrepreneurs who wants to earn more

 

About the Author

 

Josh Kaufman is a business coach, keynote speaker and best-selling author. He worked for several years as brand manager in Procter & Gamble. Then he realized that his true calling was to run a business of his own. Josh doesn’t have an MBA, but he has read hundreds of business books and gained thousands of hours of practical experience. 

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(hindi) MOOTH

(hindi) MOOTH

“डॉक्टर जयपाल ने फर्स्ट क्लास की डिग्री पायी थी, पर इसे किस्मत ही कहिए या काम के उसूलों को न जानना कि उन्हें अपने काम में ज़्यादा तरक्की ना मिली। उनका घर पतली गली में था; पर उनके मन में खुली जगह में घर लेने की इच्छा तक न हुई। दवाइयों की आलमारियाँ, शीशियाँ और डाक्टरी मशीन वगैरह भी साफ-सुथरे न थे। कंजूसी के उसूल का वह अपनी घरेलू बातों में भी बहुत ध्यान रखते थे।

बेटा जवान हो गया था, पर अभी उसकी पढ़ाई का सवाल सामने न आया था। सोचते थे कि इतने दिनों तक किताबों से सर मार कर मैंने ऐसी कौन-सी बड़ी दौलत पा ली, जो उसके पढ़ाने-लिखाने में हजारों रुपये बर्बाद करूँ। उनकी पत्नी अहल्या धीरज वाली औरत थी, पर डॉक्टर साहब ने उसके इस खूबी पर इतना बोझ रख दिया था कि उसकी कमर भी झुक गयी थी। माँ भी जिंदा थी, पर गंगा नहाने के लिए तरस कर रह जाती थी; 

दूसरे धार्मिक जगहें घूमने की बात ही क्या ! इस बेरहम कंजूसी का नतीजा यह था कि इस घर में सुख और शांति का नाम न था। अगर कोई अलग चीज थी तो वह बुढ़िया नौकरानी जगिया थी। उसने डॉक्टर साहब को गोद में खिलाया था और उसे इस घर से ऐसा प्यार था कि सब तरह की मुश्किलें झेलती थी, पर टलने का नाम न लेती थी।

डॉक्टर साहब डाक्टरी इनकम की कमी को कपड़े और शक्कर के कारखानों में हिस्से लेकर पूरा करते थे। आज इत्तेफाक से बम्बई के कारखाने ने उनके पास annual प्रॉफिट के साढ़े सात सौ रुपये भेजे। डॉक्टर साहब ने बीमा खोला, नोट गिने, डाकिये को विदा किया, पर डाकिये के पास रुपये ज्यादा थे, बोझ से दबा जाता था। बोला- “”हुजूर रुपये ले लें और मुझे नोट दे दें तो बड़ा अहसान हो, बोझ हलका हो जाय।”” डॉक्टर साहब डाकियों को खुश रखा करते थे, उन्हें मुफ्त दवाइयाँ दिया करते थे। सोचा कि हाँ, मुझे बैंक जाने के लिए ताँगा मँगाना ही पड़ेगा, क्यों न मुफ्त के एहसान वाले उसूल से काम लूँ। रुपये गिन कर एक थैली में रख दिये और सोच ही रहे थे कि चलूँ उन्हें बैंक में रखता आऊँ कि एक रोगी ने बुला भेजा।

ऐसे मौके यहाँ कम ही आते थे। हलांकि डॉक्टर साहब को बक्से पर भरोसा न था, पर मजबूर हो कर थैली बक्सेे में रखी और रोगी को देखने चले गये। वहाँ से लौटे तो तीन बज चुके थे, बैंक बंद हो चुका था। आज रुपये किसी तरह जमा न हो सकते थे। हर दिन की तरह क्लिनिक में बैठ गये। आठ बजे रात को जब घर के अंदर जाने लगे, तो थैली को घर ले जाने के लिए बक्से से निकाला, थैली कुछ हलकी जान पड़ी, तुरंत उसे दवाइयों के तराजू पर तौला, होश उड़ गये। पूरे पाँच सौ रुपये कम थे। यकीन न हुआ।

थैली खोल कर रुपये गिने। पाँच सौ रुपये कम निकले। पागलों सी हड़बड़ाहट के साथ बक्से के दूसरे खानों को टटोला लेकिन बेकार। निराश होकर एक कुर्सी पर बैठ गये और याददाश्त को इकट्ठा करने के लिए आँखें बँद कर दीं और सोचने लगे, मैंने रुपये कहीं अलग तो नहीं रखे, डाकिये ने रुपये कम तो नहीं दिये, मैंने गिनने में भूल तो नहीं की, मैंने पचीस-पचीस रुपये की गड्डियाँ लगायी थीं, पूरी तीस गड्डियाँ थीं, खूब याद है। मैंने एक-एक गड्डी गिन कर थैली में रखी, याददाश्त मुझे धोखा नहीं दे रही है।

सब मुझे ठीक-ठीक याद है। बक्से का ताला भी बंद कर दिया था, लेकिन ओह, अब समझ में आया , चाबी मेज पर ही छोड़ दी, जल्दी के मारे उसे जेब में रखना भूल गया, वह अभी तक मेज पर पड़ी है। बस यही बात है, चाबी जेब में डालने की याद नहीं रही, लेकिन ले कौन गया, बाहर दरवाजे बंद थे। घर में रखे रुपये-पैसे कोई छूता नहीं, आज तक कभी ऐसा मौका नहीं आया। जरूर यह किसी बाहरी आदमी का काम है। हो सकता है कि कोई दरवाजा खुला रह गया हो, कोई दवा लेने आया हो, चाबी मेज पर पड़ी देखी हो और बक्से खोल कर रुपये निकाल लिये हों।

इसी से मैं रुपये नहीं लिया करता, कौन ठिकाना डाकिये का ही काम हो, मुमकिन है, उसने मुझे बक्से में थैली रखते देखा था। रुपये जमा हो जाते तो मेरे पास पूरे … हजार रुपये हो जाते, ब्याज जोड़ने में आसानी होती। क्या करूँ। पुलिस को खबर दूँ ? बेकार बैठे-बिठाये परेशानी मोल लेनी है। बहुत से आदमियों की दरवाजे पर भीड़ होगी। दस-पाँच आदमियों को गालियाँ खानी पड़ेंगी और नतीजा कुछ नहीं ! तो क्या सब्र से बैठा रहूँ ? कैसे सब्र करूँ ! यह कोई मुफ्त का मिला पैसा तो था नहीं, हराम के पैसे होती तो समझता कि जैसे आया, वैसे गया। यहाँ एक-एक पैसा अपने पसीने का है।

Puri Kahaani Sune…

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(hindi) The Adventure of the Golden Pince-Nez

(hindi) The Adventure of the Golden Pince-Nez

“जब भी मैं उन तीन बड़े हाथ से लिखी हुई किताबों को देखता हूँ जिसमें हमारे 1894 के साल भर के काम लिखे हैं, तो मेरे लिए इन कीमती ख़ज़ाने में से उन केस को चुनना मुश्किल होगा जो दिलचस्प हो और साथ ही जिसमें मेरे दोस्त का वो ख़ास अंदाज़ भी शामिल हो जिनके लिए वो मशहूर हैं. जैसे ही मैंने उन पन्नों को पलटा, उनमें 'रेड लीच' की बेकार कहानी और क्रॉस्बी, जो एक बैंकर था, उसकी भयानक मौत की कहानी के बारे में लिखे मेरे ही नोट्स देखने को मिले.

मुझे इसमें एडलटन ट्रेजेडी और इकलौती एक प्राचीन ब्रिटिश बैरो का लेखा-जोखा भी देखने को मिला. इन्हीं में मशहूर स्मिथ-मोर्टिमर उत्तराधिकार मामला भी आता है और, वो बुलेवार्ड हत्यारा, ह्यूरेट को ढूंढ़ने और उसे गिरफ़्तार करने का मामला जिसके एवज़ में होम्स को फ्रांस के राष्ट्रपति से उनका ऑटोग्राफ किया हुआ थैंक्य यू लेटर मिला था और साथ ही उसे 'ऑर्डर ऑफ़ द लीजन ऑफ़ ऑनर' का सम्मान मिला था. ये सभी मामले कुछ न कुछ कहानियाँ कहते हैं, लेकिन ऐसा कोई भी मामला नहीं जिसमें एक साथ कई मज़ेदार पॉइंट शामिल हैं जैसा योक्ली ओल्ड प्लेस मामले में नौजवान विल्बी स्मिथ की अफसोसजनक मौत और उसके बाद की घटनाओं में है.

ये नवंबर के करीब की एक तूफ़ानी और भयानक रात थी. होम्स और मैं पूरी शाम एक साथ चुपचाप बैठे थे, वो एक पावरफुल लेंस के साथ बाकी बचे ऑरिजिनल लेख को सही कर रहा था, और मैं इन लेखों में लगा हुआ था. बाहर बेकर स्ट्रीट में बड़े ज़ोरो शोरो से तेज़ हवा चल रही थी, बारिश के थपेड़ों से खिड़कियाँ भी जमकर पिट रहे थे. अज़ीब बात हैं, शहर की इस गहराई में जहाँ दस मील की दूरी तक इंसान की क़ारीगरी हमें घेरे हुए हैं, यहां कुदरत की मज़बूत पकड़ को यूँ महसूस करना और ये एहसास होना कि कुदरत के इस ताकत के सामने सारा लंदन ही किसी खेत में फैले मिट्टी के बने छुछुंदरों के घरोंदे से ज़्यादा कुछ नहीं. मैं खिड़की के नज़दीक गया और बाहर सुनसान सड़क पर अपनी नज़र दौड़ाई. कहीं-कहीं लैंप के उजाले में कीचड़ से सने रोड और चमचमाते फुटपाथ रोशन हो रहे थे. ऑक्सफोर्ड स्ट्रीट के आखिरी छोर से इकलौती एक कैब पानी से भरे रास्ते से चली आ रही थी.

“”वेल, वॉटसन, हमें आज रात को भी बाहर नहीं निकलना है,”  होम्स ने अपने लेंस को एक तरफ रख कर और पलिम्पसेट को रोल करते हुए कहा. “एक सिटींग के लिए ये बहुत काम हो गया. ये आँखों को थका देने वाला काम हैं. अब तक मैं यही समझ सका हूँ कि 15वी सदी के आखरी सालों की  तारीख के ऐबी के एकाउंट से ज़्यादा दिलचस्प नहीं हैं. हैल्लो! हेलो! ये क्या हैं?””

बहती हवा के शोर के बीच, घोड़े की टाप और पक्की सड़क पर पहियों के घिसने की आवाज़ आ रही थी. मैंने जो कैब देखी थी, वो हमारे ही दरवाज़े  पर आकर रुक गई थी.

जैसे ही एक आदमी उसमें से निकला, मेरे मुंह से फौरन निकला- “”वो क्या चाहता है?””

“”क्या चाहता हैं! वो हमें चाहता है. और हम, मेरे दोस्त वॉटसन, ओवरकोट और गलबन्द और जूतों को बरसात से बचाना चाहते हैं, और हर वो सामान जो इंसान ने मौसम से लड़ने के लिए बनाए हैं. वैसे थोड़ा इंतजार करो, कैब वहाँ हैं. अब भी उम्मीद बाकी है. अगर वो चाहता हैं कि हम उसके पास आए तो वो ज़रूर रुकेगा. दौड़ो, मेरे प्यारे दोस्त. दरवाज़ा खोलो, अब तक तो सभी भले लोग सो चुके हैं.”

जब हॉल के लैंप का उजाला, आधीरात को आए मेहमान के ऊपर पड़ा तो मुझे उन्हें पहचानने में कोई दिक्कत नहीं हुई. ये होनहार यंग डिटेक्टिव स्टेनली हॉपकिंस थे जिनके करियर में होम्स ने कई बार अपना इंटरेस्ट दिखाया था.

“”क्या वो अंदर है?”” हॉपकिंस ने बड़ी बेसब्री से पूछा.

“”माय डियर सर, ऊपर आ जाओ,”” होम्स ने आवाज़ देकर कहा. “”उम्मीद करता हूँ कि ऐसी रात में तुम्हारे पास हमारे लिए कोई प्लान नहीं है.””

डिटेक्टिव सीढ़ियों पर चढ़े. हमारा लैंप उनके चमकते वाटरप्रूफ पर उजाला कर रहा था. मैंने सीढ़ियाँ चढ़ने में उनकी मदद की जबकि होम्स ने आग में लकड़ी को ठीक किया.
“”मेरे दोस्त हॉपकिंस, आग के पास आओ और अपने पैरों को गर्म करो,”” शरलॉक ने कहा. “यहाँ एक सिगार है, और डॉक्टर के पास गर्म पानी और नींबू का नुस्खा हैं जो ऐसी रात के लिए एक अच्छी दवा हैं. तुम इतनी तूफ़ानी रात यहाँ आए हो, लगता हैं कोई बहुत ही ज़रूरी बात हैं. “”
“वाकई में, मिस्टर होम्स. आज दोपहर का दिन मेरे लिए बहुत ही हलचल वाला था. क्या आपने योक्ली मामले में लेटेस्ट एडिशन में कुछ देखा हैं? “”

“”मैंने 15वी सदी के बाद से अभी तक कुछ भी नहीं देखा हैं.

“वेल, वो तो सिर्फ एक पैराग्राफ था, सब गलत था इसलिए तुमने कुछ भी मिस नहीं किया हैं. मैंने रुका नहीं हूँ.  चैथम से सात मील और रेलवे लाइन से तीन मील की दुरी पर, ये केंट में हैं. मुझे सवा-तीन बजे को तार मिला, पाँच बजे यॉक्ली ओल्ड प्लेस पहुंचा, मैंने जाँच-पड़ताल की, आखिरी ट्रेन से चैरिंग क्रॉस वापस गया, और कैब से सीधे आपके ही पास पहुंचा हूँ.”

“” इसका मतलब तुम अपने केस में क्लियर नहीं हो?””

“इसका मतलब ये हैं कि मैं न तो इसका सिर समझ सका हूँ न ही पैर. ये काम आज भी वैसे ही बहुत उलझा हुआ हैं जैसे कि जब मैंने शुरू में इसको संभालना शुरू किया था. पहले तो इतना सिंपल लग रहा था कि लगता था कि कोई भी इसमें गलती नहीं कर सकता. मिस्टर होम्स, इस केस के पीछे कोई मकसद ही नहीं हैं. और, यही मुझे परेशान करता है कि मुझे कोई मकसद समझ ही नहीं आ रहा. यहाँ एक आदमी मर गया है – इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता लेकिन, जहाँ तक मैं देख सकता हूँ, कोई कारण, कोई मकसद दिखता ही नहीं कि इस दुनिया में कोई भी उसे नुकसान क्यों पहुंचाना चाहता था.””
होम्स ने अपना सिगार जलाया और कुर्सी पर बैठ गया.
“”चलो हम इसके बारे में सुनते हैं,”” शरलॉक ने कहा.

स्टेनली हॉपकिंस ने कहा, “”मैंने अपनी तरफ से जुटा लिए हैं. मैं बस अब इन्हें समझना चाहता हूँ. जहाँ तक मुझे ये कहानी समझ आई हैं, वो बताता हूँ. कुछ साल पहले इस कंट्री हाउस यॉक्ली ओल्ड प्लेस को एक बुजुर्ग शख्स ने ख़रीदा जिनका नाम प्रोफेसर कॉरम हैं. वे बीमार हैं जो अपने बिस्तर में अपना आधा वक्त बिताते हैं, और बाकी का आधा वक्त घर में लड़खड़ाते हुए एक छड़ी के सहारे घूमते हैं या फिर माली उन्हें बाथ-चेयर में बिठा कर धकेलता हैं.

उन्हें उनके कुछ पड़ोसी पसंद करते हैं जो उनसे कभी-कभी बात करते हैं. वे एक बहुत ही विद्वान शख्स के तौर पर जाने जाते हैं. उनके घर में एक बुज़ुर्ग हाउसकीपर मिसेज़ मार्कर और एक नौकरानी सूज़न टैर्लटन शामिल हैं. ये दोनों उनके साथ तब से हैं जब से प्रोफेसर यहाँ आए थे, और ये दोनों लेडीज़ बहुत अच्छे कैरेक्टर के लगते हैं. प्रोफेसर एक बुक लिख रहे हैं, और एक साल पहले उन्होंने एक सेक्रेटरी रखने का सोचा. लेकिन, इसमें उनकी पहली दो कोशिशें नाकाम रहीं और तीसरी बार में मिस्टर विल्बी स्मिथ जो सीधे युनिवर्सिटी से निकला एक नौजवान था, वो ठीक वैसे ही निकला जैसा प्रोफेसर को अपने सेक्रेटरी के रूप में चाहिए था.

उसके काम में सुबह-सुबह प्रोफेसर के डिक्टेशन के लिए लिखने का काम शामिल था और शाम को अगले दिन के काम की तैयारी करना था. विल्बी स्मिथ में ऐसी कोई भी बात नहीं जो उसके खिलाफ जाती हैं, न अपिंघम के लड़के के तौर पर और न ही कैम्ब्रिज के एक यंग शख्स के तौर पर .मैंने उसके प्रशंसापत्रों को पढ़ा हैं, और पहले से ही वो एक सज्जन, शांत और मेहनती शख्स था जिसमें कोई भी खराबी नहीं. आज सुबह ही प्रोफेसर की स्टडी- रूम में इस शख्स की मौत हो गई जिसे देखकर साफ़ तौर पर कहा जा सकता हैं कि ये मर्डर ही है.”

हवा का झोंका तेज़ी से खिड़कियों पर चोट कर रहे थे. होम्स और मैं आग के और भी करीब बैठे जबकि यंग इंस्पेक्टर धीरे-धीरे पॉइंट बाय पॉइंट अपनी कहानी आगे बढ़ा रहे थे.

उन्होंने कहा,-“” अगर आप पुरे इंग्लैंड में ढूंढे तो भी मुझे नहीं लगता कि आपको इनके घर जैसा कोई और घर मिलेगा जिसमें सबकुछ घर के अंदर ही हैं और जहाँ बाहरी दुनिया का असर बिलकुल न के बराबर हैं. हफ्ते बीत जाते हैं और कोई भी उनके गार्डन के गेट के सामने से नहीं गुज़रता. प्रोफेसर अपने ही काम में दबे रहते हैं और इसके अलावा उन्हें किसी और कोई चीज़ की परवाह नहीं. नौजवान स्मिथ पड़ोस में किसी को नहीं जानता था, और अपने एम्प्लॉयर की ही तरह रहता था. दोनों लेडीज़ के पास घर से निकलने की कोई वजह नहीं थी.

माली मोर्टिमर जो बाथ-चेयर में प्रोफेसर को ढोने का काम करता हैं, एक आर्मी पेंशनर हैं और एक बेहतरीन कैरेक्टर का क्रीमियन शख्स हैं. वो उस घर में नहीं रहता और गार्डन के दूसरे छोर पर एक तीन-कमरे वाली कॉटेज में रहता हैं. आपको यॉक्ली ओल्ड प्लेस में बस यही लोग मिलेंगे. इस घर के गार्डन का गेट मेन लंदन टू चैथम रोड तक सौ गज की दूरी पर हैं. ये गेट बस एक कुंडी के सहारे खुलता हैं और इसमें से किसी को भी अंदर आने से रोकने के लिए कुछ भी नहीं हैं.

Puri Kahaani Sune…

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(hindi) VIMATA

(hindi) VIMATA

“पत्नी की मौत के तीन ही महिने बाद दूसरी शादी करना उसकी आत्मा के साथ ऐसी नाइंसाफी और ऐसी चोट है जो कभी भी माफ नहीं किया जा सकता। मैं यह कहूँगा कि उस स्वर्ग में रहने वाली की मुझसे आखिरी इच्छा थी और न मेरा शायद यह कहना ही सही समझा जाय कि हमारे छोटे बेटे के लिए ‘माँ’ का होना बहुत जरुरी था।

लेकिन इस बारे में मेरी आत्मा साफ है और मैं उम्मीद करता हूँ कि स्वर्ग में मेरे इस काम की बेदर्दी से बुराई न की जायगी। बात यह कि मैंने शादी की और हालांकि एक नई शादीशुदा औरत के लिए ममता उपदेश बेकार की बात थी, पर मैंने पहले ही दिन अम्बा से कह दिया कि मैंने तुमसे सिर्फ इसलिए शादी की है कि तुम मेरे मासूम बेटे की माँ बनो और उसके दिल से उसकी माँ की मौत का दुख मिटा दो।

दो महिने बीत गये। मैं शाम के समय मुन्नू को साथ ले कर टहलने जाया करता था। लौटते समय कभी कभी दोस्तों से भी मिल लिया करता था। उस समय मुन्नू चिड़िया की तरह चहकता। असल में इस तरह मिलने से मेरा इरादा मन बहलाना नहीं, सिर्फ मुन्नू के असाधारण दिमाग के चमत्कार को दिखाना था। मेरे दोस्त जब मुन्नू को प्यार करते और उसकी कमाल के दिमाग की तारीफ करते तो मेरा दिल खुशी से उछलने लगता।

एक दिन मैं मुन्नू के साथ बाबू ज्वालासिंह के घर बैठा हुआ था। वो मेरे बहुत अच्छे दोस्त थे। मुझमें और उनमें कुछ भेदभाव न था। इसका मतलब यह नहीं है कि हम अपनी तकलीफें, अपने पारिवारिक झगड़े और पैसे से जुड़ी परेशानियों की बात किया करते थे। नहीं, हम इन मुलाकातों में भी अपनी इज्जत को बचाते और अपने बुरे हालात का जिक्र कभी जबान पर न आता था। हम अपनी बुराइयों को हमेशा छिपाते थे। एक होकर भी हम अलग थे और अपनेपन में भी अंतर था। 

अचानक बाबू ज्वालासिंह ने मुन्नू से पूछा “”क्यों तुम्हारी अम्माँ तुम्हें खूब प्यार करती हैं न ?””

मैंने मुस्करा कर मुन्नू की ओर देखा। उसके जवाब को लेकर मुझे कोई शक न था। मैं अच्छी तरह जानता था कि अम्बा उसे बहुत प्यार करती है। लेकिन मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब मुन्नू ने इस सवाल का जवाब मुँह से न दे कर आँखों से दिया। उसकी आँखों से आँसू की बूँदें टपकने लगीं। मैं शर्म से गड़ गया। इन आँसुओं ने अम्बा के उस सुंदर रूप को मिटा दिया जो पिछले दो महिने से मैंने दिल में बना कर रखा था।

ज्वालासिंह ने कुछ शक की नजरों से देखा और फिर मुन्नू से पूछा “”क्यों रोते हो बेटा ?””

मुन्नू बोला “”रोता नहीं हूँ, आँखों में धुआँ लग गया था।””

ज्वालासिंह का विमाता की ममता पर शक करना साधारण बात थी; लेकिन असल में मुझे भी शक हो गया ! अम्बा अच्छे दिल और प्यार की वो देवी नहीं है, जिसकी तारीफ करते मेरी जुबान न थकती थी। वहाँ से उठा तो मेरा दिल भरा हुआ था और शर्म से सिर न उठता था।

मैं घर की ओर चला तो मन में सोचने लगा कि किस तरह अपने गुस्से को जताऊँ। क्यों न मुँह ढंक कर सोया रहूँ। अम्बा जब पूछे तो कठोरता से कह दूँ कि सिर में दर्द है, मुझे तंग मत करो। खाने के लिए उठाये तो झिड़क कर जवाब दूँ। अम्बा जरूर समझ जायगी कि कोई बात मेरी इच्छा के खिलाफ हुई है। मेरे पैर पकड़ने लगेगी। उस समय मै ताना मारते हुए उसका दिल पढ़ लूँगा। ऐसा रुलाऊँगा कि वह भी याद करे। फिर ध्यान आया कि उसका हँसमुख चेहरा देख कर मैं अपने दिल को काबू में रख सकूँगा या नहीं।

Puri Kahaani Sune…

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(hindi) VIDHWANS

(hindi) VIDHWANS

“जिला बनारस में बीरा नाम का एक गाँव है। वहाँ एक विधवा बुढ़िया, बीन बच्चों की, गोंड़िन रहती थी, जिसका भुनगी नाम था। उसके पास एक फुट भी जमीन न थी और न रहने का घर ही था। उसके जीवन का सहारा सिर्फ एक भाड़ था यानी खाना भूनने का चूल्हा। गाँव के लोग अक्सर एक समय चबैना या सत्तू पर गुजारा करते ही हैं, इसलिए भुनगी के भाड़ पर रोज भीड़ लगी रहती थी। वह जो कुछ भुनने के बदले पाती वही भून या पीस कर खा लेती और भाड़ ही की झोंपड़ी के एक कोने में पड़ रहती।

वह सुबह उठती और चारों ओर से भाड़ जलाने के लिए सूखी पत्तियाँ बटोर लाती। भाड़ के पास ही, पत्तियों का एक बड़ा ढेर लगा रहता था। दोपहर के बाद उसका भाड़ जलता था। लेकिन जब एकादशी या पूर्णिमा के दिन नियम के हिसाब से भाड़ न जलता, या गाँव के जमींदार पंडित उदयभान पाँडे के दाने भूनने पड़ते, उस दिन उसे भूखे ही सोना पड़ता था। पंडित जी उससे मुफ्त में दाने ही न भुनवाते थे, उसे उनके घर का पानी भी भरना पड़ता था। और कभी-कभी इस कारण से भी भाड़ बन्द रहता था। वह पंडित जी के गाँव में रहती थी, इसलिए उन्हें उससे सभी तरह की काम लेना का हक था। उसे नाइंसाफी नहीं कहा जा सकता। नाइंसाफी सिर्फ इतनी थी कि काम मुफ्त का लेते थे।

उनकी सोच यह थी कि जब खाने ही को दिया गया तो मुफ्त का काम कैसा। किसान को हक है कि बैलों को दिन भर जोतने के बाद शाम को खूँटे से भूखा बाँध दे। अगर वह ऐसा नहीं करता तो यह उसकी दयालुता नहीं है, सिर्फ अपने फायदे की चिन्ता है। पंडित जी को उसकी चिंता न थी क्योंकि एक तो भुनगी दो-एक दिन भूखी रहने से मर नहीं सकती थी और अगर किस्मत से मर भी जाती तो उसकी जगह दूसरा गोंड़ बड़ी आसानी से बसाया जा सकता था। पंडित जी की यही क्या कम दया थी कि वह भुनगी को अपने गाँव में बसाये हुए थे।

चैत का महीना था और संक्रांति का त्योंहार। आज के दिन नये अनाज का सत्तू खाया और दान दिया जाता है। घरों में आग नहीं जलती। भुनगी का भाड़ आज बड़े जोरों पर था। उसके सामने एक मेला-सा लगा हुआ था। साँस लेने का भी समय न था। ग्राहकों की जल्दबाजी पर कभी-कभी झुँझला पड़ती थी, कि इतने में जमींदार साहब के यहाँ से दो बड़े-बड़े टोकरे अनाज से भरे हुए आ पहुँचे और हुक्म हुआ कि अभी भून दे। भुनगी दोनों टोकरे देख कर सहम उठी। अभी दोपहर थी पर शाम के पहले इतना अनाज भुनना नामुमकिन था। घड़ी-दो-घड़ी और मिल जाते तो एक हफ्ते भर के खाने का अनाज हाथ आता। भगवान से इतना भी न देखा गया, इन यमदूतों को भेज दिया। अब देर रात तक में भाड़ में जलना पड़ेगा; दुखी भाव से उसने दोनों टोकरे ले लिये।

चपरासी ने डाँट कर कहा- “”देर न लगे, नहीं तो तुम जानोगी।””

भुनगी- “”यहीं बैठे रहो, जब भुन जाय तो ले कर जाना। किसी दूसरे के दाने छुऊँ तो हाथ काट लेना।””

चपरासी- “”बैठने का हमें समय नहीं है, लेकिन तीसरे पहर तक दाना भुन जाय।””

चपरासी तो यह हुक्म देकर चलते बने और भुनगी अनाज भूनने लगी। लेकिन मन भर अनाज भूनना कोई हँसी खेल तो थी नहीं, उस पर बीच-बीच में भुनाई बन्द करके भाड़ भी जलाना पड़ता था। इसलिए तीसरा पहर हो गया और आधा काम भी न हुआ। उसे डर लगा कि जमींदार के आदमी आते होंगे। आते ही गालियाँ देंगे, मारेंगे। उसने और तेजी से हाथ चलाना शुरू किया। रास्ते की ओर ताकती और बालू नाँद में छोड़ती जाती थी। यहाँ तक कि बालू ठंडी हो गयी। उसकी समझ में न आता था, क्या करे। न भूनते बनता था न छोड़ते बनता था। सोचने लगी कैसी परेशानी है।

पंडित जी कौन सा मेरी रोटियाँ चला देते हैं, कौन सा मेरे आँसू पोंछ देते हैं। अपना खून जलाती हूँ तब कहीं दाना मिलता है। लेकिन जब देखो खोपड़ी पर सवार रहते हैं, इसलिए न कि उनकी चार हाथ जमीन से मेरा गुजारा हो रहा है। क्या इतनी-सी जमीन का इतना मोल है ? ऐसे कितने ही टुकड़े गाँव में बेकाम पड़े हैं, कितने घर उजाड़ पड़े हुए हैं। वहाँ तो केसर नहीं उगती फिर मुझी पर क्यों यह आठों पहर धौंस रहती है। कोई बात हुई और यह धमकी मिली कि भाड़ खोद कर फेंक दूँगा, उजाड़ दूँगा, मेरे सिर पर भी कोई होता तो क्या तकलीफ सहनी पड़तीं।

वह इन्हीं सोच में पड़ी हुई थी कि दोनों चपरासियों ने आकर तीखी आवाज में कहा- “”क्यों री, दाने भुन गये।””

भुनगी ने बीना डरे कहा- “”भून तो रही हूँ। देखते नहीं हो।””

चपरासी- “”सारा दिन बीत गया और तुमसे इतना अनाज न भूना गया ? यह तू दाना भून रही है कि उसे खराब कर रही है, इनका सत्तू कैसे बनेगा। हमारा सत्यानाश कर दिया। देख तो आज महाराज तेरी क्या हालत करते हैं।””

नतीजा यह हुआ कि उसी रात को भाड़ खोद डाला गया और वह बदकिस्मत विधवा बेसहारा हो गयी।

Puri Kahaani Sune…
“”जिला बनारस में बीरा नाम का एक गाँव है। वहाँ एक विधवा बुढ़िया, बीन बच्चों की, गोंड़िन रहती थी, जिसका भुनगी नाम था। उसके पास एक फुट भी जमीन न थी और न रहने का घर ही था। उसके जीवन का सहारा सिर्फ एक भाड़ था यानी खाना भूनने का चूल्हा। गाँव के लोग अक्सर एक समय चबैना या सत्तू पर गुजारा करते ही हैं, इसलिए भुनगी के भाड़ पर रोज भीड़ लगी रहती थी। वह जो कुछ भुनने के बदले पाती वही भून या पीस कर खा लेती और भाड़ ही की झोंपड़ी के एक कोने में पड़ रहती।

वह सुबह उठती और चारों ओर से भाड़ जलाने के लिए सूखी पत्तियाँ बटोर लाती। भाड़ के पास ही, पत्तियों का एक बड़ा ढेर लगा रहता था। दोपहर के बाद उसका भाड़ जलता था। लेकिन जब एकादशी या पूर्णिमा के दिन नियम के हिसाब से भाड़ न जलता, या गाँव के जमींदार पंडित उदयभान पाँडे के दाने भूनने पड़ते, उस दिन उसे भूखे ही सोना पड़ता था। पंडित जी उससे मुफ्त में दाने ही न भुनवाते थे, उसे उनके घर का पानी भी भरना पड़ता था। और कभी-कभी इस कारण से भी भाड़ बन्द रहता था। वह पंडित जी के गाँव में रहती थी, इसलिए उन्हें उससे सभी तरह की काम लेना का हक था। उसे नाइंसाफी नहीं कहा जा सकता। नाइंसाफी सिर्फ इतनी थी कि काम मुफ्त का लेते थे।

उनकी सोच यह थी कि जब खाने ही को दिया गया तो मुफ्त का काम कैसा। किसान को हक है कि बैलों को दिन भर जोतने के बाद शाम को खूँटे से भूखा बाँध दे। अगर वह ऐसा नहीं करता तो यह उसकी दयालुता नहीं है, सिर्फ अपने फायदे की चिन्ता है। पंडित जी को उसकी चिंता न थी क्योंकि एक तो भुनगी दो-एक दिन भूखी रहने से मर नहीं सकती थी और अगर किस्मत से मर भी जाती तो उसकी जगह दूसरा गोंड़ बड़ी आसानी से बसाया जा सकता था। पंडित जी की यही क्या कम दया थी कि वह भुनगी को अपने गाँव में बसाये हुए थे।

चैत का महीना था और संक्रांति का त्योंहार। आज के दिन नये अनाज का सत्तू खाया और दान दिया जाता है। घरों में आग नहीं जलती। भुनगी का भाड़ आज बड़े जोरों पर था। उसके सामने एक मेला-सा लगा हुआ था। साँस लेने का भी समय न था। ग्राहकों की जल्दबाजी पर कभी-कभी झुँझला पड़ती थी, कि इतने में जमींदार साहब के यहाँ से दो बड़े-बड़े टोकरे अनाज से भरे हुए आ पहुँचे और हुक्म हुआ कि अभी भून दे। भुनगी दोनों टोकरे देख कर सहम उठी। अभी दोपहर थी पर शाम के पहले इतना अनाज भुनना नामुमकिन था। घड़ी-दो-घड़ी और मिल जाते तो एक हफ्ते भर के खाने का अनाज हाथ आता। भगवान से इतना भी न देखा गया, इन यमदूतों को भेज दिया। अब देर रात तक में भाड़ में जलना पड़ेगा; दुखी भाव से उसने दोनों टोकरे ले लिये।

चपरासी ने डाँट कर कहा- “”देर न लगे, नहीं तो तुम जानोगी।””

भुनगी- “”यहीं बैठे रहो, जब भुन जाय तो ले कर जाना। किसी दूसरे के दाने छुऊँ तो हाथ काट लेना।””

चपरासी- “”बैठने का हमें समय नहीं है, लेकिन तीसरे पहर तक दाना भुन जाय।””

चपरासी तो यह हुक्म देकर चलते बने और भुनगी अनाज भूनने लगी। लेकिन मन भर अनाज भूनना कोई हँसी खेल तो थी नहीं, उस पर बीच-बीच में भुनाई बन्द करके भाड़ भी जलाना पड़ता था। इसलिए तीसरा पहर हो गया और आधा काम भी न हुआ। उसे डर लगा कि जमींदार के आदमी आते होंगे। आते ही गालियाँ देंगे, मारेंगे। उसने और तेजी से हाथ चलाना शुरू किया। रास्ते की ओर ताकती और बालू नाँद में छोड़ती जाती थी। यहाँ तक कि बालू ठंडी हो गयी। उसकी समझ में न आता था, क्या करे। न भूनते बनता था न छोड़ते बनता था। सोचने लगी कैसी परेशानी है।

पंडित जी कौन सा मेरी रोटियाँ चला देते हैं, कौन सा मेरे आँसू पोंछ देते हैं। अपना खून जलाती हूँ तब कहीं दाना मिलता है। लेकिन जब देखो खोपड़ी पर सवार रहते हैं, इसलिए न कि उनकी चार हाथ जमीन से मेरा गुजारा हो रहा है। क्या इतनी-सी जमीन का इतना मोल है ? ऐसे कितने ही टुकड़े गाँव में बेकाम पड़े हैं, कितने घर उजाड़ पड़े हुए हैं। वहाँ तो केसर नहीं उगती फिर मुझी पर क्यों यह आठों पहर धौंस रहती है। कोई बात हुई और यह धमकी मिली कि भाड़ खोद कर फेंक दूँगा, उजाड़ दूँगा, मेरे सिर पर भी कोई होता तो क्या तकलीफ सहनी पड़तीं।

वह इन्हीं सोच में पड़ी हुई थी कि दोनों चपरासियों ने आकर तीखी आवाज में कहा- “”क्यों री, दाने भुन गये।””

भुनगी ने बीना डरे कहा- “”भून तो रही हूँ। देखते नहीं हो।””

चपरासी- “”सारा दिन बीत गया और तुमसे इतना अनाज न भूना गया ? यह तू दाना भून रही है कि उसे खराब कर रही है, इनका सत्तू कैसे बनेगा। हमारा सत्यानाश कर दिया। देख तो आज महाराज तेरी क्या हालत करते हैं।””

नतीजा यह हुआ कि उसी रात को भाड़ खोद डाला गया और वह बदकिस्मत विधवा बेसहारा हो गयी।
 

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(hindi) Sankat Trin Ka

(hindi) Sankat Trin Ka

“जमींदार के नायब (सहायक या representative) गिरीश बसु के घर में प्यारी नाम की एक नौकरानी काम पर नई-नई लगी। जवान और नाज़ुक प्यारी अपने नाम के जैसी ही रुप और स्वभाव में भी थी। वह दूर पराए गांव से काम करने आई थी। कुछ ही दिन हुए थे उसे इस जगह काम करते हुए कि एक दिन वह अपनी मालकिन के पास आकर रोने लगी। बूढ़े नायब की गंदी नज़र उसे बेचैन कर रही थी। मालकिन ने उसे दिलासा दिया, बोली – ‘बेटी, तू कहीं और चली जा। तू भले विचारों वाली है, यहाँ तुझे परेशानी होगी।’ मालकिन ने कुछ पैसे देकर चुपचाप उसे विदा कर दिया।

प्यारी के लिए उस गांव से भाग जाना आसान नहीं था। हाथ में पैसे भी थोड़े से ही थे। इसलिए प्यारी ने गांव के ही एक भले आदमी हरिहर भट्टाचार्य के घर में शरण मांगी । उसके समझदार बेटों ने समझाना चाहा, ‘बाबूजी, बेकार किसलिए मुसीबत मोल ले रहे हैं?’ हरिहर सिद्धांत वाले आदमी  थे – ‘ख़ुद मुसीबत भी अगर आकर मुझसे शरण मांगे तो मैं उसे लौटा नहीं सकता।।।’

गिरीश बसु को प्यारी के पनाह की बात पता चली तो वह हरिहर भट्टाचार्य के पास पहुँचे, उन्हें प्रणाम किया, उनके पैर की धूल को माथे से लगाया और कहा, ‘भट्टाचार्य साहब , आपने मेरी नौकरानी किसलिए फुसला ली? घर के काम में बहुत दिक्कत हो रही है।’ जवाब में हरिहर भट्टाचार्य ने चंद खरी बातें कड़ी ज़बान में कह दीं। हरिहर सम्मानित, साफ व्यक्ति थे, किसी बात को लाग-लपेट में कहने के बजाए सीधे कहते थे। गिरीश बसु को यह बात बेहद अपमानजनक लगी। लेकिन झूठा दिखावा कर हरिहर को प्रणाम करते हुए उसने विदा ली।

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(hindi) Poorav Sanskar

(hindi) Poorav Sanskar

“अच्छे लोगों के हिस्से में भौतिक उन्नति कभी भूल कर ही आती है। रामटहल विलासी, बुरी आदतों वाला, बुरे चाल चलन के आदमी थे, पर लोगों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए इसमें बड़े चालाक थे , सूद-ब्याज के मामले में बढ़िया और मुकदमे-अदालत के काम में भी माहिर थे। उनका पैसा बढ़टा जा रहा था। सभी के साथ उनका लेनदेन था। उधर उन्हीं के छोटे भाई शिवटहल साधु-भक्त, धर्म पालन करने वाले और दूसरों की मदद करने वाले इंसान थे। उनका पैसा घटता जा रहा था।

उनके दरवाजे पर दो-चार मेहमान बने ही रहते थे। बड़े भाई का सारे मुहल्ले पर दबाव था। जितने नीचे तकबे के आदमी थे, उनका हुक्म पाते ही फौरन उनका काम करते थे। उनके घर की मरम्मत मुफ्त में हो जाती। कर्जदार सब्जी वाले साग-भाजी तोहफे में दे जाते। कर्जदार दूध वाला उन्हें दूसरों से ज्यादा दूध देता। छोटे भाई का किसी पर रोब न था। साधु-संत आते और मन भर के खाना खा के अपने रास्ते चले जाते। दो-चार आदमियों को रुपये उधार दिये भी तो ब्याज के लालच से नहीं, बल्कि मुसीबत से बचाने के लिए। कभी जोर दे कर तगादा न करते कि कहीं उन्हें दुख न हो।

इस तरह कई साल गुजर गये। यहाँ तक कि शिवटहल की सारी दौलत दूसरों की मदद में उड़ गयी। बहुत रुपये डूब भी गये ! उधर रामटहल ने नया मकान बनवा लिया। सोने-चाँदी की दुकान खोल ली। थोड़ी जमीन भी खरीदी और खेती-बारी करने लगे।

शिवटहल को अब चिंता हुई। गुजारा कैसे होगा ? पैसा न था कि कोई काम करते। वह लोगों को बहलाने का तरीका भी न आता था, जो बिना पैसा के भी अपना काम निकाल लेते। किसी से उधार लेने की हिम्मत न पड़ती थी। काम में घाटा हुआ तो देंगे कहाँ से ? किसी दूसरे आदमी की नौकरी भी न कर सकते थे। कुल-मर्यादा भंग हो जाती। दो-चार महीने तो जैसे तैसे करके काटे, अंत में चारों ओर से निराश हो कर बड़े भाई के पास गये और कहा- “”भैया, अब मेरे और मेरे परिवार के पालन का भार आपके ऊपर है। आपके सिवा अब किसकी शरण लूँ ?””

रामटहल ने कहा- “”इसकी कोई चिन्ता नहीं। तुमने कुकर्म में तो पैसा उड़ाया नहीं। जो कुछ किया, उससे कुल की कीर्ति ही फैली है। मैं धूर्त हूँ; दुनिया को ठगना जानता हूँ। तुम सीधे-सादे आदमी हो। दूसरों ने तुम्हें ठग लिया। यह तुम्हारा ही घर है। मैंने जो जमीन ली है, उसका  किराया वसूल करो, खेती-बारी का काम सँभालो। महीने में तुम्हें जितना खर्च पड़े, मुझसे ले जाओ। हाँ, एक बात मुझसे न होगी। मैं साधु-संतों का सत्कार करने के लिए एक पैसा भी न दूँगा और न तुम्हारे मुँह से अपनी बुराई सुनूँगा।””

शिवटहल ने खुशी से कहा- “”भैया, मुझसे इतनी भूल जरूर हुई कि मैं सबसे आपकी बुराई करता रहा हूँ, उसे माफ़ करें। अब से मुझे अपनी बुराई करते सुनना तो जो चाहे सजा देना। हाँ, आपसे मेरी एक विनती है, मैंने अब तक अच्छा किया या बुरा, पर भाभी जी को मना कर देना कि उसके लिए मेरी बेइज्जती न करें।””

रामटहल- “”अगर वह कभी तुम्हें ताना देंगी, तो मैं उनकी जीभ खींच लूँगा।””

रामटहल की जमीन शहर से दस-बारह कोस दूरी पर थी। वहाँ एक कच्चा मकान भी था। बैल, गाड़ी, खेती के दूसरे सामान वहीं रहते थे। शिवटहल ने अपना घर भाई को सौंपा और अपने बाल-बच्चों को ले कर गाँव चले गये। वहाँ ख़ुशी-ख़ुशी काम करने लगे। नौकरों ने काम में ज्यादा ध्यान दिया। मेहनत का फल मिला। पहले ही साल उपज डेढ़ गुना हो गया और खेती का खर्च आधा रह गया।

पर स्वभाव को कैसे बदलें ? पहले की तरह तो नहीं, पर अब भी दो-चार साधु शिवटहल का नाम सुनकर आ ही जाते थे और शिवटहल को मजबूर हो कर उनकी सेवा और सत्कार करना ही पड़ता था। हाँ, अपने भाई से यह बात छिपाते थे कि कहीं वह नाखुश हो कर जीविका का यह सहारा भी न छीन लें। फल यह होता कि उन्हें भाई से छिपा कर अनाज, भूसा, खली आदि बेचना पड़ता। इस कमी को पूरी करने के लिए वह मजदूरों से और भी कड़ी मेहनत लेते थे और खुद भी कड़ी मेहनत करते।

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The Effective Executive (English)

The Effective Executive (English)

“Why should you read this summary?

 

Companies are failing rapidly today. Why? Because executives are not effective. They use the same tactics used by the ones before them, and the trend goes on and on. So how do you become an effective executive? This book will teach you how.

 

Who will learn from this summary?

 

●    Executives
●    Lower-level employees
●    Top management officers
●    Business owners

 

About the author

 

The late Peter F. Drucker was an educator, consultant, and author of several books. He is considered the father of management thinking because of his innovative ideas on business management. Some of the major predictions he made in his writings have come to reality, including marketing's decisive importance. Many executives, and the business community at-large, have continued to use his books for guidance.
 

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(hindi) Pashu Se Manushya

(hindi) Pashu Se Manushya

“दुर्गा माली डॉक्टर मेहरा, बार-ऐट ला, के यहाँ नौकर था। पाँच रुपये महिने का तनख्वाह पाता था। उसके घर में बीवी और दो-तीन छोटे बच्चे थे। बीवी पड़ोसियों के लिए गेहूँ पीसा करती थी। दो बच्चे, जो समझदार थे, इधर-उधर से लकड़ियाँ, गेहूँ, उपले चुन लाते थे। लेकिन इतनी मेहनत करने पर भी वे बहुत तकलीफ में थे। दुर्गा, डॉक्टर साहब की नजर बचा कर बगीचे से फूल चुन लेता और बाजार में पुजारियों के हाथ बेच दिया करता था। कभी-कभी फलों पर भी हाथ साफ किया करता। यही उसकी ऊपरी कमाई थी। इससे खाने पीने आदि का काम चल जाता था। उसने कई बार डॉक्टर महोदय से तनख्वाह बढ़ाने के लिए प्रार्थना की, लेकिन डॉक्टर साहब नौकर की तनख्वाह बढ़ाने को छूत की बीमारी समझते थे, जो धीरे धीरे बढ़ती जाती है।

वो साफ कह दिया करते कि, “”भाई मैं तुम्हें बाँधे तो हूँ नहीं। तुम्हारा गुजारा यहाँ नहीं होता; तो और कहीं चले जाओ, मेरे लिए मालियों की कमी नहीं है।””

दुर्गा में इतनी हिम्मत न थी कि वह लगी हुई नौकरी छोड़ कर दूसरी नौकरी ढूँढ़ने निकलता। इससे ज्यादा तनख्वाह पाने की उम्मीद भी नहीं। इसलिए वह इसी निराशा में पड़ा हुआ जीवन के दिन काटता और अपने किस्मत को रोता था।

डॉक्टर महोदय को बागबानी से खास प्यार था। कई तरह के फूल-पत्ते लगा रखे थे। अच्छे-अच्छे फलों के पौधे दरभंगा, मलीहाबाद, सहारनपुर आदि जगहों से मँगवा कर लगाये थे। पेड़ों को फलों से लदे हुए देख कर उन्हें दिली खुशी होती थी। अपने दोस्तों के यहाँ गुलदस्ते और शाक-भाजी की टोकरियां तोहफे के तौर पर भिजवाते रहते थे। उन्हें फलों को खुद खाने का शौक न था, पर दोस्तों को खिलाने में उन्हें बेहद खुशी मिलती थी। हर फल के मौसम में दोस्तों की दावत करते, और 'पिकनिक पार्टियाँ' उनके मनोरंजन का जरूरी हिस्सा थीं।

एक बार गर्मियों में उन्होंने अपने कई दोस्तों को आम खाने की दावत दी। मलीहाबादी पेड़ में आम खूब लगे हुए थे। डॉक्टर साहब इन फलों को हर दिन देखा करते थे। ये पहले ही फले थे, इसलिए वे दोस्तों से उनके मिठास और स्वाद की तारीफ सुनना चाहते थे। इस सोच से उन्हें वही खुशी थी, जो किसी पहलवान को अपने चेलों के करतब दिखाने से होता है। इतने बड़े सुन्दर और सुकोमल आम खुद उन्होंने न देखे थे। इन फलों के स्वाद पर उन्हें इतना भरोसा था कि वे एक फल चख कर उनकी परीक्षा करना जरूरी न समझते थे, खासतौर पर इसलिए कि एक फल की कमी एक दोस्त को उसके स्वाद से दूर कर देगी।

Puri Kahaani Sune..

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