“मृदुला मैजिस्ट्रेट की सुनवाई से औरतें जेल में वापस आयी, तो उसके चेहरे पर ख़ुशी थी । बरी हो जाने की गुलाबी उम्मीद उसके गालों पर चमक रही थी। उसे देखते ही राजनैतिक कैदियों के एक दल ने घेर लिया और पूछने लगीं- “”कितने दिन की हुई ?””
मृदुला ने जीत के गर्व से कहा- “”मैंने तो साफ-साफ कह दिया, मैंने धरना नहीं दिया। वैसे आप जबर्दस्त हैं, जो फैसला चाहें, करें। न मैंने किसी को रोका, न पकड़ा, न धक्का दिया, न किसी से मिन्नत की। कोई ग्राहक मेरे सामने आया ही नहीं। हाँ, मैं दुकान पर खड़ी ज़रूर थी। वहाँ कई वालंटियर गिरफ्तार हो गये थे। जनता जमा हो गयी थी। मैं भी खड़ी हो गयी। बस, थानेदार ने आकर मुझे पकड़ लिया।””
क्षमादेवी कुछ कानून जानती थीं। बोलीं- “”मैजिस्ट्रेट पुलिस के बयान पर फैसला करेगा। मैं ऐसे कितने ही मुकदमे देख चुकी हूँ ।””
मृदुला ने कहा – “”पुलिस वालों को मैंने ऐसा रगड़ा कि वह भी याद करेंगे। मैं मुकदमे की कार्रवाई में भाग न लेना चाहती थी; लेकिन जब मैंने उनके गवाहों को सरासर झूठ बोलते देखा, तो मुझसे रहा नहीं गया। मैंने उनसे बहस करनी शुरू की। मैंने भी इतने दिनों घास नहीं खोदी है। थोड़ा- बहुत कानून जानती हूँ। पुलिस ने समझा होगा, यह कुछ बोलेगी तो है नहीं, हम जो बयान चाहेंगे, देंगे। जब मैंने बहस शुरू की, तो सब बगलें झाँकने लगे। मैंने तीनों गवाहों को झूठा साबित कर दिया। उस समय जाने कैसे मुझे कैसे ये सब सूझा ।
मैजिस्ट्रेट ने थानेदार को दो-तीन बार फटकार भी लगाई । वह मेरे सवालों का ऊल-जलूल जवाब देता था, तो मैजिस्ट्रेट बोल उठता, “वह जो कुछ पूछती हैं, उसका जवाब दो, फजूल की बातें क्यों करते हो”। तब मियाँ जी का मुँह जरा-सा हो जाता था । मैंने सभी का मुँह बंद कर दिया। अभी साहब ने फैसला तो नहीं सुनाया, लेकिन मुझे यकीन है, बरी हो जाऊँगी । मैं जेल से नहीं डरती; लेकिन बेवकूफ भी नहीं बनना चाहती । वहाँ हमारे मंत्री जी भी थे और बहुत-सी बहनें थीं। सब यही कहती थीं, तुम छूट जाओगी।””
औरतें उसे नफरत भरी आँखों से देखती हुई चली गयीं। उनमें से किसी की सजा साल-भर की थी, किसी की छह महिने की। उन्होंने अदालत के सामने जबान ही न खोली थी। उनके हिसाब से यह अधर्म से कम न था। मृदुला पुलिस से बहस करके उनकी नजरों में गिर गयी थी। सजा हो जाने पर उसका व्यवहार माफ किया जा सकता था; लेकिन बरी हो जाने में तो उसका कुछ प्रायश्चित ही न था।
दूर जाकर एक औरत ने कहा- “”इस तरह तो हम लोग भी छूट जाते। हमें तो यह दिखाना है, अंग्रेजों से हमें इंसाफ की कोई उम्मीद ही नहीं है ।””
दूसरी औरत बोली- “”यह तो माफी माँग लेने के बराबर है। गयी तो थीं धरना देने, नहीं तो दुकान पर जाने का काम ही क्या था। वालंटियर गिरफ्तार हुए थे आपकी बला से। आप वहाँ क्यों गयीं; मगर अब कहती हैं, मैं धरना देने गयी ही नहीं। यह माफ़ी माँगना हुआ, साफ-साफ़ !””
तीसरी औरत मुँह बनाकर बोलीं- “”जेल में रहने के लिए बड़ा कलेजा चाहिए। उस समय तो वाह-वाह लूटने के लिए आ गयीं, अब रोना आ रहा है। ऐसी औरतों को तो देश के काम के पास ही न आना चाहिए। आंदोलन को बदनाम करने से क्या फायदा।””
सिर्फ क्षमादेवी अब तक मृदुला के पास चिंता में डूबी खड़ी थीं। उन्होंने एक हिम्मती भाषण देने के जुर्म में साल-भर की सजा पायी थी। दूसरे जिले से एक महीना हुआ यहाँ आयी थीं। अभी सज़ा पूरी होने में आठ महीने बाकी थे। यहाँ की पंद्रह कैदिनों में किसी से उनका दिल न मिलता था। जरा-जरा सी बात के लिए उनका आपस में झगड़ना, बनाव-सिंगार की चीजों के लिए लेडी वार्डरों की खुशामद करना, घरवालों से मिलने के लिए बेचैनी दिखलाना उसे पसंद न था। वही बुराई और कानाफूसी जेल के अंदर भी थीं। वह स्वाभिमान , जो उसके हिसाब में एक पोलिटिकल कैदी में होनी चाहिए, किसी में भी न थी ।
क्षमा उन सभी से दूर रहती थी। उसके जाति के लिए प्यार की हद न थी। इस रंग में रंगी हुई थी; पर दूसरी औरतें उसे घमंडी समझती थीं और रुखाई का जवाब रुखाई से देती थीं। मृदुला को हिरासत में आये आठ दिन हुए थे। इतने ही दिनों में क्षमा को उससे खास लगाव हो गया था। मृदुला में वह छोटापन और जलन न थी, न किसी की बुराई करने की आदत, न शृंगार की धुन, न भद्दी दिल्लगी का शौक। उसके दिल में दया थी, सेवा का भाव था, देश के लिए प्यार था। क्षमा ने सोचा था, इसके साथ छह महीने खुशी से कट जायँगे; लेकिन बदकिस्मती यहाँ भी उसके पीछे पड़ी हुई थी । कल मृदुला यहाँ से चली जायगी। वह फिर अकेली हो जायगी। यहाँ ऐसा कौन है जिसके साथ पल भर बैठ कर अपना दुख-दर्द सुनायेगी, देश की बात करेगी; यहाँ तो सभी के घमंड आसमान पर हैं।
मृदुला ने पूछा- “”तुम्हें तो अभी आठ महीने बाकी हैं, बहन !””
क्षमा ने दुख के साथ कहा- “”किसी-न-किसी तरह कट ही जायँगे बहन ! पर तुम्हारी याद बराबर सताती रहेगी। इसी एक हफ्ते के अन्दर तुमने मुझ पर न जाने क्या जादू कर दिया। जब से तुम आयी हो, मुझे जेल जेल जैसा नहीं लगता। कभी-कभी मिलती रहना।””
मृदुला ने देखा, क्षमा की आँखें भरी हुई थीं। वो उसे हौसला देती हुई बोली- “”जरूर मिलूँगी दीदी ! मुझसे तो खुद न रहा जायगा। भान को भी लाऊँगी। कहूँगी, 'चल, तेरी मौसी आयी है, तुझे बुला रही है।' दौड़ा हुआ आयेगा। अब तुमसे आज कहती हूँ बहन, मुझे यहाँ किसी की याद आती थी, तो भान की। बेचारा रोता होगा। मुझे देख कर रूठ जायगा। 'तुम कहाँ चली गयीं ? मुझे छोड़ कर क्यों चली गयीं ? जाओ, मैं तुमसे नहीं बोलता, तुम मेरे घर से निकल जाओ।' बड़ा शैतान है बहन ! पल-भर शांत नहीं बैठता, सबेरे उठते ही गाता है-‘झन्ना ऊँता लये अमाला’ (झंडा ऊंचा रहे हमारा) ‘छोलाज का मन्दिर देल में है।’
स्वराज का मंदिर जेल में है) जब एक झंडी कन्धे पर रख कर कहता है-‘ताली-छलाब पीनी हलाम है’ (ताड़ी-शराब पीनी हराम है) तो देखते ही बनता है। बाप को तो कहता है, 'तुम गुलाम हो।' वह एक अंग्रेज़ी कम्पनी में हैं, बार-बार नौकरी छ़ोडने का सोच के रह जाते हैं। लेकिन गुजर-बसर के लिए कोई काम करना ही पडे़गा। कैसे छोड़ें। वह तो छोड़ बैठे होते। तुमसे सच कहती हूँ, गुलामी से उन्हें नफरत है, लेकिन मैं ही समझाती रहती हूँ। बेचारे कैसे दफ़्तर जाते होंगे, कैसे भान को सँभालते होंगे। सास जी के पास तो रहता ही नहीं। वह बेचारी बूढ़ी, उसके साथ कहाँ-कहाँ दौड़ें ! चाहती हैं कि मेरी गोद में दुबक कर बैठा रहे और भान को गोद से चिढ़ है। अम्माँ मुझ पर बहुत बिगडे़ंगी, बस यही डर लग रहा है।
मुझे देखने एक बार भी नहीं आयीं। कल अदालत में बाबू जी मुझसे कहते थे, तुमसे बहुत नाराज हैं। तीन दिन तक तो दाना-पानी छोड़े रहीं। इस लड़की ने खानदखन का नाम डुबा दिया, खानदान में दाग लगा दिया, कलमुँही, कुलच्छनी न जाने क्या-क्या बकती रहीं। मैं उनकी बातों का बुरा नहीं मानती ! पुराने जमाने की हैं। उन्हें कोई चाहे कि आकर हम लोगों में मिल जायँ, तो यह उसका अन्याय है। चल कर मनाना पड़ेगा। बड़ी मिन्नतों से मानेंगी। कल ही कथा होगी, देख लेना। ब्राह्मण खायेंगे। बिरादरी जमा होगी। जेल का प्रायश्चित्त तो करना ही पड़ेगा। तुम हमारे घर दो-चार दिन रह कर तब जाना बहन ! मैं आ कर तुम्हें ले जाऊँगी।””
Puri Kahaani Sune…
“