(Hindi) Smrti Ka Pujari
“महाशय होरीलाल की पत्नी जब से मर गई हैं वह एक तरह से दुनिया से दूर हो गये हैं। यों रोज अदालत जाते हैं अब भी उनकी वकालत बुरी नहीं है। दोस्तों से राह-रस्म भी रखते हैं, मेलों-तमाशों में भी जाते हैं; पर इसलिए कि वे भी इंसान हैं और इंसान एक सामाजिक जीव है। जब उनकी पत्नी जिन्दा थी, तब कुछ और ही बात थी। किसी-न-किसी बहाने से आये-दिन दोस्तों की दावतें होती रहती थीं। कभी गार्डन-पार्टी है, कभी संगीत है, कभी जन्माष्टमी, कभी होली। दोस्तों का सत्कार करने में जैसे उन्हें मजा आता था।
लखनऊ से सुफेदे आये हैं। अब, जब तक दोस्तों को खिला न लें, उन्हें चैन नहीं। कोई अच्छी चीज खरीदकर उन्हें यही धुन हो जाती थी कि उसे किसी को तोहफे में दे दें। जैसे और लोग अपने स्वार्थ के लिए तरह-तरह के चालें चलते हैं, वह सेवा के लिए चाल चलते थे। आपसे मामूली जान-पहचान है, लेकिन उनके घर चले जाइए तो चाय और फलों से आपका सत्कार किये बिना न रहेंगे। दोस्तों के फायदे के लिए जान देने को तैयार और बड़े ही खुशमिजाज। उनकी बातें ग्रामोफोन में भरने लायक होते थे।
कोई बच्चे न थे, लेकिन किसी ने उन्हें दुखी या निराश नहीं देखा। मुहल्ले के सारे बच्चे उनके बच्चे थे। और पत्नी भी उसी रंग में रंगी हुई। आप कितने ही परेशान हों, उस देवी से मुलाकात होते ही आप फूल की तरह खिल जायँगे। न जाने इतनी कहावतें कहाँ से याद कर ली थीं। बात-बात पर कहावतें कहती थी। और जब किसी को बनाने पर आ जाती, तो रुलाकर छोड़ती थीं। घर सम्भालने में तो उसका जोड़ न था, दोनों एक-दूसरे के आशिक थे, और उनका प्यार पौधों के कलम की तरह दिनों के साथ और भी गहरा होता जाता था। समय की गति उस पर जैसे आशीर्वाद का काम कर रही थी।
अदालत से छुट्टी पाते ही वह प्यार का राही दीवानों की तरह घर भागता था। आप कितनी ही विनती करें पर उस समय रास्ते में एक मिनट के लिए भी न रुकता था और अगर कभी महाशयजी के आने में देर हो जाती थी तो वह प्यार- की पूजारन छत पर खड़ी होकर उनकी राह देखा करती थी। और पच्चीस साल के साथ ने उनकी आत्माओं में इतनी समानता पैदा कर दी थी कि जो बात एक के दिल में आती थी, वही दूसरे के दिल में बोल उठती थी।
यह बात नहीं कि उनमें मतभेद न होता हो। बहुत-सी चीजों में उनके ख्याल में आकाश-पाताल का अन्तर था और अपनी बात के समर्थन और दूसरे की बात को काटने में उनमें खूब झाँव-झाँव होती थी। कोई बाहर का आदमी सुने तो समझे कि दोनों लड़ रहे हैं और अब हाथापाई की नौबत आने वाली है; मगर उनकी बहस दिमागी होती थी। दिल दोनों के एक, दोनों अच्छे दिल के, दोनों खुशमिजाज, साफ कहने वाले, निस्वार्थ। मानो देवलोक के रहने वाले हों; इसलिए पत्नी मर गई, तो कई महीने तक हम लोगों को यह लगता रहा कि यह महाशय आत्महत्या न कर बैठें। हम लोग हमेशा उनका मन बहलाते रहते, कभी अकेले में न बैठने देते। रात को भी कोई-न-कोई उनके साथ लेटता था। ऐसे आदमीयों पर दूसरों को दया आती ही है।
दोस्तों की पत्नियाँ तो इन पर जान देती थीं। इनकी नजरों में वह देवताओं के भी देवता थे। उनकी मिसाल दे-देकर अपने पतियों से कहतीं- “”इसे कहते हैं प्यार! ऐसा पति हो, तो क्यों न पत्नी उसकी गुलामी करे। जब से बीवी मरी है गरीब ने कभी भरपेट खाया नहीं किया, कभी नींद-भर नहीं सोया। नहीं तो तुम लोग दिल में मनाते रहते हो कि यह मर जाय, तो नई शादी करें। दिल में खुश होगे कि अच्छा हुआ मर गयी, रोग टला, अब नयी-नवेली पत्नी लायेंगे।
और अब महाशयजी का पैंतालीसवाँ साल था, सुगठित शरीर था, स्वास्थ्य अच्छा, सुंदर, खुशमिजाज, सम्पन्न। चाहते तो तुरन्त दूसरी शादी कर लेते। उनके हाँ करने की देर थी। अच्छा पति चाहने वाले बेटी वालों ने सन्देश भेजे, दोस्तों ने भी उजड़ा घर बसाना चाहा; पर इस स्मृति के पुजारी ने प्यार के नाम को दाग न लगाया।””
अब हफ्तों बाल नहीं बनते; कपड़े नहीं बदले जाते। घास काटने वालों सी सूरत बनी हुई है, कुछ परवाह नहीं। कहाँ तो सुबह होने से पहले उठते थे और चार मील का चक्कर लगा आते थे, कभी आलस करते थे तो देवीजी घुड़कियाँ जमातीं और उन्हें बाहर ढकेल कर दरवाजा बन्द कर लेतीं। कहाँ अब आठ बजे तक चारपाई पर पड़े करवटें बदल रहे हैं। उठने का जी नहीं चाहता। नौकर ने हुक्का लाकर रख दिया, दो-चार कश लगा लिये। न लाये, तो गम नहीं। चाय आयी पी ली, न आये तो परवाह नहीं। दोस्तों ने बहुत गला दबाया, तो सिनेमा देखने चले गये; लेकिन क्या देखा और क्या सुना, इसकी खबर नहीं।
कहाँ तो अच्छे-अच्छे सूटों का शौक था, कोई खुशनुमा डिजाइन का कपड़ा आ जाय, आप एक सूट जरूर बनवायेंगे। वह क्या बनवायेंगे, उनके लिए देवीजी बनवायेंगी। कहाँ अब पुराने-धुराने बदरंग, सिकुड़े-सिकुड़ाये, ढीले-ढाले कपड़े लटकाये चले जा रहे हैं, जो अब दुबलेपन के कारण उतारे-से लगते हैं और जिन्हें अब किसी तरह सूट नहीं कहा जा सकता।
Puri Kahaani Sune..
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