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(hindi) Sir C.V. Raman

(hindi) Sir C.V. Raman

“इस किताब के बारे में:

ये कहानी उस पहले भारतीय वैज्ञानिक की है जिन्होंने तब फिजिक्स में नोबेल प्राइज जीता था जब भारत अंग्रेजो का गुलाम था. ये किताब  हमें  सर सी.वी.  रमन  के जीवन की कहानी सुनाती है कि कैसे एक होनहार और तेज़ दिमाग बच्चे ने बड़े होकर भारत के साइंटिफिक रेवोल्यूशन में नींव रखी.
 

ये किताब किस-किसको पढ़नी चाहिए ?

हर उस इन्सान को जो साइंस पढ़ता है और साइंस को लेकर जिनके मन में  पैशन है, उन्हें सर सी. वी.  रमन  की स्टोरी जरूर पढ़नी चाहिए. साइंस की फील्ड में उनके योगदान को कभी भुलाया  नहीं  जा सकता. वो अपने काम से हमारे देश का नाम सारी दुनिया में रौशन कर गए हैं. साथ ही ये किताब हर उस इन्सान के लिए है जो भारत के ऐसे महान सपूतों के बारे में जानना चाहता है .

References:
सी. वी.  रमन : अ बायोग्राफी- उमा परमेश्वरम द्वारा (C.V. Raman: A biography- by Uma Parmeswaram)
द लाइफ एंड टाइम्स ऑफ़ सी.वी.  रमन – तेजन कुमार बासु द्वारा (The Life and Times of C.V. Raman- by Tejen Kumar Basu)
सर सी.वी.  रमन – नीरज द्वारा (Sir C.V. Raman- by Neeraj)
बायोग्राफी ऑफ़ सी.वी.  रमन – आलोक कुमार गुप्ता द्वारा (Biography of C.V. Raman- by Alok Kumar Gupta)
 

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(hindi) Adhikar Chinta

(hindi) Adhikar Chinta

“टॉमी  यों देखने में तो बहुत तगड़ा था। भूँकता तो सुनने वाले के कानों के परदे फट जाते। डील-डौल भी ऐसा कि अँधेरी रात में उस पर गधे का धोखा हो जाता। लेकिन उसकी कुत्तों वाली वीरता किसी लड़ाई के मैदान में साबित न होती थी। दो-चार बार जब बाजार के कुत्तों ने उसे चुनौती दी तो वह उनका घमंड तोड़ने के लिए मैदान में आया और देखने वालों का कहना है कि जब तक लड़ा, हिम्मत से लड़ा। नाखूनों और दाँतों से ज्यादा चोटें उसकी दुम ने की। पक्के रूप से नहीं कहा जा सकता कि मैदान किसके हाथ रहा।

लेकिन जब उस दल को मदद मँगानी पड़ी, तो लड़ाई के नियमों के हिसाब से जीत का यश  टॉमी  ही को देना सही और इंसाफ वाला जान पड़ता है।  टॉमी  ने उस मौके पर दिमाग से काम लिया और दाँत निकाल दिये, जो संधि(ट्रीटी) की प्रार्थना थी। लेकिन तब से उसने इतनी बुरी नीति वाले दुश्मनों के मुँह लगना सही न समझा।

इतना शांति पसंद होने पर भी  टॉमी  के दुश्मनों की संख्या दिनों दिन बढ़ती जाती थी। उसके बराबर वाले उससे इसलिए जलते कि वह इतना मोटा-ताजा हो कर इतना डरपोक क्यों है। बाजारी दल इसलिए जलता कि  टॉमी  के मारे कचरे की हड्डियाँ भी न बचने पाती थीं। वह सुबह होने से पहले उठता और हलवाइयों की दूकानों के सामने के दोने और पत्तल, कसाईखाने के सामने की हड्डियाँ और छीछड़े चबा डालता। इसलिए इतने दुश्मनों के बीच में रह कर  टॉमी  का जीवन खतरे में पड़ जाता था। महीनों बीत जाते और पेट भर खाना न मिलता।

दो-तीन बार उसे मनमाना खाना खाने की ऐसी तेज इच्छा हुई कि उसने संदिग्ध(सस्पिसीयस) तरीकों के द्वारा उसे पूरा करने की कोशिश की, पर जब फल उम्मीद के उल्टा हुआ और स्वादिष्ट खाने के बदले न खाई जा सकने वाली बुरी चीजें भरपेट खाने को मिलीं। जिससे पेट के बदले, कई दिन तक पीठ में बहुत दर्द तक होता रहा। तो उसने मजबूर हो कर फिर सही रास्ते का सहारा लिया। पर डंडों से पेट चाहे भर गया हो वह इच्छा शांत न हुई। वह किसी ऐसी जगह जाना चाहता था जहाँ खूब शिकार मिले, खरगोश, हिरन, भेड़ों के बच्चे मैदानों में घूम रहे हों और उनका कोई मालिक न हो, जहाँ किसी प्रतिद्वंदी की गंध तक न हो, आराम करने को घने पेड़ों की छाया हो, पीने को नदी का साफ पानी।

वहाँ मनमाना शिकार करूँ, खाऊँ और मीठी नींद सोऊँ। वहाँ चारों ओर मेरी धाक बैठ जाय सब पर ऐसा रोब छा जाय कि मुझी को अपना राजा समझने लगें और धीरे-धीरे मेरा ऐसा सिक्का बैठ जाय कि किसी दुश्मन को वहाँ पैर रखने की हिम्मत ही न हो।

इत्तेफाक से एक दिन वह इन्हीं कल्पनाओं के अच्छे सपने देखता हुआ सिर झुकाये सड़क छोड़ कर गलियों से चला जा रहा था कि अचानक एक कुत्ते से उसकी मुठभेड़ हो गयी।  टॉमी  ने चाहा कि बच कर निकल जाऊँ पर वह बदमाश इतना शांति पसंद न था। उसने तुरंत झपट कर  टॉमी  का टेटुआ(गला) पकड़ लिया।  टॉमी  ने बहुत विनती की गिड़गिड़ा कर कहा- “”भगवान के लिए मुझे यहाँ से चले जाने दो, कसम ले लो जो इधर पैर रखूँ। मेरी शामत आयी थी कि तुम्हारे इलाके में चला आया।””

पर उस घमंड में अंधे और बेरहम कुत्ते ने जरा भी रिआयत न की। आखिर में हार कर  टॉमी  ने गधे की आवाज में फरियाद करनी शुरू की। यह कोलाहल सुन कर मोहल्ले के दो-चार नेता लोग इकट्ठा हो गये पर उन्होंने भी बेचारे पर दया करने के बदले, उलटे उसी पर आखिरी वार करना शुरू किया। इस नाइंसाफी भरे व्यवहार ने  टॉमी  का दिल तोड़ दिया। वह जान छुड़ा कर भागा। उन अत्याचारी जानवरो ने बहुत दूर तक उसका पीछा किया यहाँ तक कि रास्ते में एक नदी पड़ गयी और  टॉमी  ने उसमें कूद कर अपनी जान बचायी।

कहते हैं एक दिन सबके दिन फिरते हैं।  टॉमी  के दिन भी नदी में कूदते ही फिर गये। कूदा था जान बचाने के लिए हाथ लग गये मोती। तैरता हुआ उस पार पहुँचा तो वहाँ उसकी बहुत पुरानी इच्छाएँ पूरी हो रही थीं।

Puri Kahaani Sune..

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(hindi) Mandir

(hindi) Mandir

“ममता, तू धन्य है ! दुनिया में और जो भी कुछ है, झूठ है, नीरस है। ममता ही सच है, न बदलने वाला है, न मिटने वाला है। तीन दिन से सुखिया के मुँह में न अनाज का एक दाना गया था, न पानी की एक बूँद। सामने पुआल पर माता का छोटा-सा बेटा पड़ा कराह रहा था। आज तीन दिन से उसने आँखें न खोली थीं। कभी उसे गोद में उठा लेती, कभी पुआल पर सुला देती। हँसते-खेलते बच्चे को अचानक क्या हो गया, यह कोई नहीं बताता।

ऐसी हालत में माता को भूख और प्यास कहाँ ? एक बार पानी का एक घूँट मुँह में लिया था; पर गले के नीचे न ले जा सकी। इस दुखिया की मुसीबत की हद न थी। साल भर के अंदर दो बच्चे गंगा जी की गोद में सौंप चुकी थी(बच्चे मर चुके हैं)। पतिदेव पहले ही मर चुके थे। अब उस बदकिस्मत के जीवन का आधार, सहारा, जो कुछ था, यही बच्चा था। हाय ! क्या भगवान इसे भी इसकी गोद से छीन लेना चाहते हैं ? यह कल्पना करते ही माता की आँखों से झर-झर आँसू बहने लगते थे।

इस बच्चे को वह पल भर के लिए भी अकेला न छोड़ती थी। उसे साथ लेकर घास छीलने जाती। घास बेचने बाजार जाती तो बच्चा गोद में होता। उसके लिए उसने छोटी-सी खुरपी और छोटी-सी खाँची बनवा दी थी।

जियावन माता के साथ घास छीलता और गर्व से कहता- ‘अम्माँ, हमें भी बड़ी-सी खुरपी बनवा दो, हम बहुत-सी घास छीलेंगे,तुम दरवाजे पर माची(स्टूल) पर बैठी रहना, अम्माँ,मैं घास बेच लाऊंगा।’

‘मां पूछती- ‘मेरे लिए क्या-क्या लाओगे, बेटा ?’

जियावन लाल-लाल साड़ियों का वादा करता। अपने लिए बहुत-सा गुड़ लाना चाहता था। वे ही भोली-भोली बातें इस समय याद आ-आकर माता के दिल को भाले के समान छेद रही थीं। जो बच्चे को देखता, यही कहता कि किसी की नजर लगी है। पर किसकी नजर है ? इस विधवा का भी दुनिया में कोई दुश्मन है ? अगर उसका नाम मालूम हो जाता, तो सुखिया जाकर उसके पैरों पर गिर पड़ती और बच्चे को उसकी गोद में रख देती। क्या उसका दिल दया से न पिघल जाता ? पर नाम कोई नहीं बताता।

हाय ! किससे पूछे, क्या करे ? तीन पहर(2-3बजे) रात बीत चुकी थी। सुखिया का चिंता से दुखी चंचल मन घर घर दौड़ रहा था। किस देवी की शरण जाए, किस देवता की मनौती करे, इसी सोच में पड़े-पड़े उसे एक झपकी आ गयी। क्या देखती है कि उसका पति आकर बच्चे के सिरहाने(जिस तरफ सर कर के सोएँ हो) खड़ा हो जाता है और बच्चे के सिर पर हाथ फेर कर कहता है- ‘रो मत, सुखिया ! तेरा बच्चा अच्छा हो जायगा। कल भगवान जी की पूजा कर दे, वही तेरे सहायक होंगे।’

यह कहकर वह चला गया। सुखिया की आँख खुल गयी। जरूर ही उसके पतिदेव आये थे। इसमें सुखिया को ज़रा भी शक न हुआ। उन्हें अब भी मेरी फिक्र है, यह सोच कर उसका दिल उम्मीद से भर उठा। पति के लिए श्रृद्धा और प्यार से उसकी आँखें सजग हो गयीं। उसने बच्चे को गोद में उठा लिया और आकाश की ओर ताकती हुई बोली- ‘भगवान ! मेरा बच्चा अच्छा हो जाए, तो मैं तुम्हारी पूजा करूँगी। अनाथ विधवा पर दया करो।’

उसी समय जियावन की आँखें खुल गयीं। उसने पानी माँगा। माता ने दौड़ कर कटोरे में पानी लिया और बच्चे को पिला दिया। जियावन ने पानी पीकर कहा- ‘अम्माँ रात है कि दिन ?’

सुखिया- ‘‘अभी तो रात है बेटा, तुम्हारा जी कैसा है ?”

जियावन- ‘‘अच्छा है अम्माँ ! अब मैं अच्छा हो गया।”

सुखिया- ‘‘तुम्हारे मुँह में घी-शक्कर, बेटा, भगवान् करे तुम जल्द अच्छे हो जाओ ! कुछ खाने को जी चाहता है ?”

जियावन- ‘हाँ अम्माँ, थोड़ा-सा गुड़ दे दो।’

सुखिया- ‘गुड़ मत खाओ भैया, नुकसान करेगा। कहो तो खिचड़ी बना दूँ।’

जियावन- ‘नहीं मेरी अम्माँ, जरा-सा गुड़ दे दो, तेरे पैर पड़ता हूँ।’

माता इस आग्रह को न टाल सकी। उसने थोड़ा-सा गुड़ निकाल कर जियावन के हाथ में रख दिया और हाँड़ी का ढक्कन लगाने जा रही थी कि किसी ने बाहर से आवाज दी। हाँड़ी वहीं छोड़ कर वह किवाड़ खोलने चली गयी। जियावन ने गुड़ की दो पिंडियाँ निकाल लीं और जल्दी-जल्दी चट कर गया।

Puri Kahaani Sune…

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(hindi) Kazaaki

(hindi) Kazaaki

“मेरी बचपन की यादों में 'कजाकी' एक न मिटने वाला आदमी है। आज चालीस साल गुजर गये; कजाकी की मूर्ति अभी तक आँखों के सामने नाच रही है। मैं उन दिनों अपने पिता के साथ आजमगढ़ की एक तहसील में था। कजाकी जाति का पासी(सूअर पालने वाली एक जाति) था, बड़ा ही हँसमुख, बड़ा ही हिम्मती, बड़ा ही जिंदादिल। वह रोज शाम को डाक का थैला लेकर आता, रात-भर रहता और सबेरे डाक लेकर चला जाता। शाम को फिर उधर से डाक लेकर आ जाता।

मैं दिन भर एक परेशान हालत में उसकी राह देखा करता। जैसे ही चार बजते, बेचैन हो कर, सड़क पर आ कर खड़ा हो जाता, और थोड़ी देर में कजाकी कंधो पर भालि रखे, उसकी झुँझुनी बजाता, दूर से दौड़ता हुआ आता दिखलायी देता। वह साँवले रंग का गठीला, लम्बा जवान था। शरीर साँचे में ऐसा ढला हुआ कि होशियार मूर्ति बनाने वाला भी उसमें कोई दोष न निकाल सकता। उसकी छोटी-छोटी मूँछें, उसके सुडौल चेहरे पर बहुत ही अच्छी मालूम होती थीं।

मुझे देख कर वह और तेज दौड़ने लगता, उसकी झुँझुनी और तेजी से बजने लगती, और मेरे दिल में और जोर से खुशी की धड़कन होने लगती। खुशी में मैं भी दौड़ पड़ता और एक पल में कजाकी का कंधा मेरा सिंहासन बन जाता। वह जगह मेरी इच्छाओं का स्वर्ग था। स्वर्ग में रहने वालों को भी शायद वह आंदोलित खुशी न मिलती होगी जो मुझे कजाकी के बड़े कंधों पर मिलता था। दुनिया मेरी आँखों में छोटी हो जाती और जब कजाकी मुझे कंधो पर लिये हुए दौड़ने लगता, तब तो ऐसा मालूम होता, मानो मैं हवा के घोड़े पर उड़ा जा रहा हूँ।

कजाकी डाकखाने में पहुँचता, तो पसीने से तर रहता; लेकिन आराम करने की आदत न थी। थैला रखते ही वह हम लोगों को ले कर किसी मैदान में निकल जाता, कभी हमारे साथ खेलता, कभी बिरहे(एक तरह का गाना) गा कर सुनाता और कभी कहानियाँ सुनाता। उसे चोरी और डाके, मार-पीट, भूत-प्रेत की सैकड़ों कहानियाँ याद थीं।

मैं ये कहानियाँ सुनकर आश्चर्य भरी खुशी में डूब जाता; उसकी कहानियों के चोर और डाकू सच्चे योद्धा होते थे, जो अमीरों को लूट कर गरीब, दुखी लोगों को पालते थे। मुझे उन पर नफरत के बदले श्रृद्धा होती थी।

एक दिन कजाकी को डाक का थैला ले कर आने में देर हो गयी। सूरज डूब गया और वह दिखलायी न दिया। मैं खोया हुआ-सा सड़क पर दूर तक आँखें फाड़-फाड़ कर देखता था; पर वह परिचित रेखा न दिखलायी पड़ती थी। कान लगा कर सुनता था; 'झुन-झुन' की वह खुश करते वाली आवाज न सुनायी देती थी। रोशनी के साथ मेरी उम्मीद भी बुझती जाती थी। उधर से

किसी को आते देखता, तो पूछता- “”कजाकी आता है?”” पर या तो कोई सुनता ही न था, या सिर्फ सिर हिला देता था। अचानक 'झुन-झुन' की आवाज कानों में आयी। मुझे अँधेरे में चारों ओर भूत ही दिखलायी देते थे। यहाँ तक कि माता जी के कमरे में ताक पर रखी हुई मिठाई भी अँधेरा हो जाने के बाद, मेरे लिए कोई मायने नहीं रखती थी; लेकिन वह आवाज सुनते ही मैं उसकी तरफ जोर से दौड़ा। हाँ, वह कजाकी ही था। उसे देखते ही मेरी बेचैनी गुस्से में बदल गयी। मैं उसे मारने लगा, फिर रूठ करके अलग खड़ा हो गया।

कजाकी ने हँस कर कहा- “”मारोगे, तो मैं एक चीज लाया हूँ, वह न दूँगा।”” 

मैंने हिम्मत करके कहा- “”जाओ, मत देना, मैं लूँगा ही नहीं।”” 

कजाकी- “”अभी दिखा दूँ, तो दौड़ कर गोद में उठा लोगे।””

मैंने पिघल कर कहा- “”अच्छा, दिखा दो।”” 

कजाकी- “”तो आ कर मेरे कंधो पर बैठ जाओ भाग चलूँ। आज बहुत देर हो गयी है। बाबू जी बिगड़ रहे होंगे।”” 

मैंने अकड़ कर कहा- “”पहिले दिखा।”” 

मेरी जीत हुई। अगर कजाकी को देर का डर न होता और वह एक मिनट भी और रुक सकता, तो शायद पाँसा पलट जाता। उसने कोई चीज दिखलायी, जिसे वह एक हाथ से छाती से चिपटाये हुए था; लम्बा मुँह था, और दो आँखें चमक रही थीं।

मैंने उसे दौड़ कर कजाकी की गोद से ले लिया। यह हिरन का बच्चा था। आह! मेरी उस खुशी का कौन अंदाजा लगाएगा? तब से मुश्किल परीक्षाएँ पास कीं, अच्छा पद भी पाया, रायबहादुर भी हुआ; पर वह खुशी फिर न मिली। मैं उसे गोद में लिये, उसके कोमल स्पर्श (टच) का मजा उठाता घर की ओर दौड़ा। कजाकी को आने में क्यों इतनी देर हुई इसका ख्याल ही न रहा।

Puri Kahaani Sune

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(hindi) TEN-DAY MBA- A Step By Step Guide To Mastering The Skills Taught In America’s Top Schools

(hindi) TEN-DAY MBA- A Step By Step Guide To Mastering The Skills Taught In America’s Top Schools

“क्या आप भी ये सोचकर परेशान है कि क्यों अपनी लाइफ के दो साल एमबीए कोर्स करने में लगाए जाए? ये किताब आपको डिसाइड करने में हेल्प करेगी.  स्टीवन न सिल्बिगर ने इस किताब को कुछ तरह से लिखा है कि इस बुक को पढकर एमबीए कोर्स में इंटरेस्ट रखने वाले स्टूडेंट्स को एमबीए कोर्स से  जुड़ी सारी इन्फोर्मेशन मिल जायेगी और उन्हें ये डिसीजन लेने में आसानी होगी कि उन्हें एमबीए करना चाहिए या नहीं. ये बुक काफी सिंपल और ईजी लेंगुएज में लिखी गई है. इसे आप एमबीए के तौर पर स्टेप बाई स्टेप अपना करियर बनाने के लिए एक गाईड की तरह यूज़ कर सकते है. 

ये समरी किस-किसको पढ़नी चाहिए? 
●    एमबीए ग्रेजुएट्स को  
●    वो स्टूडेंट्स जो एमबीए करना चाहते हैं  
●    एमबीए स्टूडेंट्स जो एक्जाम की तैयारी कर रहे हैं  
●    सीनियर मैनेजर्स और एक्जीक्यूटिव्स को 
●    एंटप्रेन्योर्स को  

ऑथर के बारे में 
 स्टीवन सिल्बिगर एक एमबीए और सीपीए हैं. वो प्लाईमाउथ डायरेक्ट में सीनियर डायरेक्टर ऑफ़ मार्केटिंग भी हैं. सिल्बिगर सोफिस्टीकेटेड बिजनेस और फाइनेंशियल इश्यूज को बड़े ही सिंपल और आसान लेंगुएज में समझाने के लिए जाने जाते हैं. उनकी किताब “Ten Day MBA” की अब तक 400,000 से भी ज्यादा कॉपी बिक चुकी है. सिल्बिगर अपने प्रेस्टीजियस बिजेनस स्कूल के टॉप टेन ग्रेजुएट्स में से एक थे. 
 

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(hindi) MEGALIVING! 30 Days to a Perfect Life

(hindi) MEGALIVING! 30 Days to a Perfect Life

“क्या आपने कभी सोचा हैं कि कामयाब लोगों के पास कौन सा राज़ हैं? वे एक ही वक्त में अमीर, हेल्दी और खुश कैसे हो सकते हैं? इस बुक में, आप उन राज़ को जान सकते हैं जिन्हें ज़्यादातर कामयाब लोग अपनाते हैं. आप 30 दिनों के मेगालिविंग प्रोग्राम को फॉलो करके अपने माइंड, बॉडी, और कैरेक्टर को बेहतर बनाना सीखेंगे.

ये समरी किसे पढ़नी चाहिए?
ये समरी उन लोगों के लिए हैं जो अपनी आदतों को बदलना चाहते हैं, ज़्यादा कॉन्फिडेंस पाना चाहते हैं, और अपने सपनों को हासिल करना चाहते हैं.

ऑथर के बारे में
ऑथर बनने से पहले, रॉबिन शर्मा एक वकील थे. कनाडा के ये ऑथर अपने सबसे फेमस बुक 'The Monk who sold his Ferrari'  के लिए जाने जाते हैं और उन्होंने अभी तक 12 किताबें पब्लिश की हैं. एक ऑथर के तौर पर सक्सेस पाने के बाद, उन्होंने अपनी खुद की कंपनी की शुरुवात की जिसका नाम उन्होंने “शर्मा लीडरशिप इंटरनेशनल” रखा. उन्होंने फेमस रॉक स्टार्स, अरबपतियों और बहुत से सक्सेसफुल सी.ई.ओ की ज़िन्दगी को बदलने में हेल्प की है.

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(hindi) Rajya Bhakt

(hindi) Rajya Bhakt

“शाम का समय था। लखनऊ के बादशाह नासिरुद्दीन अपने दरबारियों के साथ बगीचे की सैर कर रहे थे। उनके सिर पर रत्न जड़ा हुए मुकुट की जगह अँग्रेजी टोपी थी। कपड़े भी अँग्रेजी ही थे। दरबारियों में पाँच अँग्रेज थे। उनमें से एक के कन्धे पर सिर रख कर बादशाह चल रहे थे। तीन-चार हिंदुस्तानी भी थे। उनमें से एक राजा बख्तावर सिंह थे। वह बादशाही सेना के अध्यक्ष थे। उन्हें सब लोग जेनरल कहा करते थे। वह अधेड़(35-55 की उम्र) आदमी थे। शरीर खूब गठा हुआ था।

लखनवी पहनावा उन पर बहुत सजता था। चहरे से समझदारी झलक रही थी। दूसरे महाशय का नाम रोशनुद्दौला था। यह राज्य के प्रधानमंत्री थे। बड़ी-बड़ी मूँछें और नाटा कद था जिसे ऊँचा करने के लिए वह तन कर चलते थे। आँखों से गर्व टपक रहा था। बाकी लोगों में एक कोतवाल था और दो बादशाह के रक्षक। हालांकि अभी 19वीं शताब्दी की शुरुआत ही थी पर बादशाह ने अँग्रेजी रहन-सहन अपना लिया था। खाना भी अक्सर अँग्रेजी ही खाते थे। अँग्रेजों पर उनका बहुत भरोसा था। वह हमेशा उनका पक्ष लिया करते थे। मजाल न थी कि कोई बड़े-से-बड़ा राजा या राजकर्मचारी किसी अँग्रेज से बराबरी करने की हिम्मत कर सके।

अगर किसी में यह हिम्मत थी तो वह राजा बख्तावर सिंह थे। उनसे कंपनी का बढ़ता हुआ हक न देखा जाता था कंपनी की उस सेना की संख्या जो उसने अवध के राज्य की रक्षा के लिए लखनऊ में तैनात की थी दिन-दिन बढ़ती जाती थी। उसी के आरण सेना का खर्च भी बढ़ रहा था। राजदरबार उसे चुका न सकने के कारण कंपनी का कर्जदार होता जाता था। बादशाही सेना की हालत बद से बदतर होती जाती थी। उसमें न एकता थी न ताकत। सालों तक सिपाहियों को तनख्वाह न मिलती थी।

हथियार सभी पुराने थे। वर्दी फटी हुई। कवायद(ड्रिल) का नाम नहीं। कोई उनका पूछनेवाला न था। अगर राजा बख्तावर सिंह तनख्वाह बढ़ाने या नये हथियारों के बारे में कोई कोशिश करते तो कम्पनी का रेजीडेंट उसका पूरा विरोध और राज्य पर विद्रोह करने के इरादे से ताकत को बढ़ाने का इल्जाम लगाता था। उधर से डाँट पड़ती तो बादशाह अपना गुस्सा राजा साहब पर उतारते। बादशाह के सभी अँग्रेज दरबारी राजासाहब पर शक करते रहते और उनकी जड़ खोदने का कोशिश किया करते थे।

पर वह राज्य का सेवक एक ओर अवहेलना और दूसरी ओर से घोर विरोध सहते हुए भी अपने फर्ज का पालन करता जाता था। मजा यह कि सेना भी उनसे खुश न थी। सेना में ज्यादातर लखनऊ के बदमाश और गुंडे भरे हुए थे। राजासाहब जब उन्हें हटा कर अच्छे-अच्छे जवानों की भरती करने की कोशिश करते तो सारी सेना में हाहाकार मच जाता। लोगों को शक होता कि यह राजपूतों की सेना बना कर कहीं राज्य ही पर तो हाथ नहीं बढ़ाना चाहते इसलिए मुसलमान भी उन पर शक करते थे। राजा साहब के मन में बार-बार इच्छा होती कि इस पद को छोड़ कर चले जायँ। पर यह डर उन्हें रोकता था कि मेरे हटते ही अँग्रेजों की बन आयेगी और बादशाह उनके हाथों में कठपुतली बन जायँगे। रही-सही सेना के साथ अवध-राज्य का अस्तित्व भी मिट जायगा।

इसलिए इतनी कठिनाइयों के होते हुए भी चारों ओर से दुश्मनी और विरोध से घिरे होने पर भी वह अपने पद से हटने का तय न कर सकते थे। सबसे कठिन समस्या यह थी कि रोशनुद्दौला भी राजा साहब से चिढ़ता था। उसे हमेशा शक रहता कि यह मराठों से दोस्ती करके अवध-राज्य को मिटाना चाहते हैं। इसलिए वह राजा साहब के हर काम में रुकावट डालता रहता था। उसे अब भी उम्मीद थी कि अवध का मुसलमानी राज्य अगर जीवित रह सकता है तो अँग्रेजों की छत्र छाया में वरना वह जरूर हिंदुओं की बढ़ती हुई ताकत का शिकार बन जायगा।

असल में बख्तावरसिंह की हालत बहुत खराब थी। वह अपनी चालाकी से जीभ की तरह दाँतों के बीच में पड़े हुए अपना काम किये जाते थे। वैसे तो वह स्वभाव के अक्खड़ थे, अपना काम निकालने के लिए मिठास और नरमी, शील और विनय का इस्तेमाल करते रहते थे। इससे उनके व्यवहार में बनावटीपन आ जाती थी और वह दुश्मनों को उन पर और भी शक करती थी।

Puri Kahaani Sune…

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(hindi) Aadhar

(hindi) Aadhar

“सारे गाँव  में  मथुरा जैसा गठीला जवान न था। उसकी उम्र कोई बीस साल थी । वो गाएँ चराता, दूध पीता, कसरत करता, कुश्ती लडता और पूरा  दिन बांसुरी बजाता बाज़ार  में  घूमता रहता था। उसकी शादी हो गई थी, पर अभी कोई बाल-बच्चा न था। घर में कई हल की खेती थी, कई छोटे-बडे भाई थे। वे सब मिलजुलकर  खेती-बाड़ी  करते थे। मथुरा पर सारे गाँव को गर्व था, जब उसे जॉँघिये-लंगोटे, नाल या मुग्दर के लिए रूपये-पैसे की जरूरत पडती तो तुरन्त दे दिये जाते थे।

सारे घर की यही इच्छा थी कि मथुरा पहलवान हो जाय और अखाडे  में  अपने से ताकतवर पहलवान  को पछाडे। इस लाड – प्यार से मथुरा जरा बिगड़ गया था। गायें किसी के खेत में पड़ी हैं और ख़ुद  अखाडे  में  दंड लगा रहा है। कोई शिकायत करता तो उसके तेवर  बदल जाते । गरज कर कहता, “जो मन  में  आये कर लो, मथुरा तो अखाडा छोडकर हांकने न जायेंगे !” पर उसका डील-डौल देखकर किसी को उससे उलझने की हिम्मत न पडती । लोग मन मसोस कर रह  जाते.

गर्मियो के दिन थे, ताल-तलैया सूखे पड़े । जोरों की लू चलने लगी थी। गाँव में कहीं से एक सांड आ निकला और गायों के साथ हो लिया। सारे दिन गायों के साथ रहता, रात को बस्ती में घुस आता और खूंटो से बंधे बैलो को सींगों से मारता। कभी-किसी की गीली दीवार को सींगो से खोद डालता, घर का कूड़ा सींगो से उड़ाता। कई किसानो ने साग-भाजी लगा रखी थी, सारे दिन सींचते-सींचते थक जाते  थे। यह सांड रात को उन हरे-भरे खेतों में पहुंच जाता और खेत का खेत तबाह कर देता ।

लोग उसे डंडों से मारते, गाँव के बाहर भगा आते, लेकिन थोड़ी देर में गायों में पहुंच जाता। किसी की अक्ल काम न करती थी कि इस मुसीबत को कैसे टाला जाय। मथुरा का घर गांव के बीच  में  था, इसलिए उसके खेतो को सांड से कोई नुक्सान न होता था । गांव में बवाल  मचा हुआ था और मथुरा को जरा भी चिन्ता न थी।
आखिर जब धैर्य का अंतिम बंधन टूट गया तो एक दिन लोगों ने जाकर मथुरा को घेरा और बोले —“भाई, कहो तो गांव में रहें, कहीं तो निकल जाएं । जब खेती ही न बचेगी तो रहकर क्या करेगें? तुम्हारी गायों के पीछे हमारा सत्यानाश हुआ जा रहा है और तुम अपने रंग में मस्त हो।

अगर भगवान ने तुम्हें ताकत दी है तो इससे दूसरो की रक्षा करनी चाहिए, यह  नहीं  कि सबको पीस कर पी जाओ । सांड तुम्हारी गायों के कारण आता है और उसे भगाना तुम्हारा काम है ; लेकिन तुम कानो में तेल डाले बैठे हो, मानो तुमसे कुछ मतलब ही  नहीं ”।
मथुरा को उनकी हालत पर दया आयी। ताकतवर आदमी अक्सर दयालु होता है। बोला—“अच्छा जाओ, हम आज सांड को भगा देंगे”।
एक आदमी ने कहा—“दूर तक भगाना,  नहीं  तो फिर लौट आयेगा”।
मथुरा ने कंधे पर लाठी रखते हुए जवाब दिया—“अब लौटकर न आयेगा”।

चिलचिलाती दोपहर थी। मथुरा सांड को भगाये जा रहा था। दोंनो पसीने से तर थे। सांड बार-बार गांव की ओर घूमने की कोशिश करता, लेकिन मथुरा उसका इरादा ताडकर दूर से ही उसका रास्ता रोक लेता। सांड गुस्से  से पागल होकर कभी-कभी पीछे मुडकर मथुरा पर वार  करना चाहता लेकिन उस समय मथुरा बचकर बगल से ताबड-तोड इतनी लाठियां जमाता कि सांड को फिर भागना पडता. कभी दोनों अरहर के खेतो में दौडते, कभी झाडियों में ।

अरहर की खूटियों से मथुरा के पांव लहू-लुहान हो रहे थे, झाडियों में धोती फट गई थी, पर उसे इस समय सांड का पीछा करने के सिवा और कोई सुध न थी। गांव पर गांव आते और निकल जाते। मथुरा ने ठान लिया कि इसे नदी पार भगाये बिना दम न लूंगा। उसका गला  सूख गया था और आंखें लाल हो गयी थी, रोम-रोम से चिनगारियां सी निकल रही थी, दम निकल  गया था ; लेकिन वह एक पल  के लिए भी दम न लेता था। दो ढाई घंटो के बाद जाकर नदी आयी।

यही हार-जीत का फैसला होने वाला था, यही से दोनों खिलाडियों को अपने दांव-पेंच के जौहर दिखाने थे। सांड सोच रहा था, अगर नदी में उतर गया तो यह मार ही डालेगा, एक बार जान लडाकर लौटने की कोशिश करनी चाहिए। मथुरा सोच रहा  था, अगर वह लौट पडा तो इतनी  मेंहनत बेकार हो जाएगी और गांव के लोग  मेंरी हंसी उडायेगें। दोनों अपने – अपने घात में थे। सांड ने बहुत चाहा कि तेज दौडकर आगे निकल जाऊं और वहां से पीछे को मुड़ जाऊं , पर मथुरा ने उसे मुडने का मौका न दिया।

उसकी जान इस वक्त सुई की नोक पर थी, एक हाथ भी चूका और जान गई, जरा पैर फिसला और फिर उठना नशीब न होगा। आखिर इंसान ने जानवर  पर जीत पायी और सांड को नदी में घुसने के सिवाय और कोई उपाय न सूझा। मथुरा भी उसके पीछे नदी  में  उतर  गया और इतने डंडे लगाये कि उसकी लाठी टूट गयी।

Puri Kahaani Sune….

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(hindi) Hinsa param Dharm

(hindi) Hinsa param Dharm

“दुनिया में कुछ ऐसे लोग होते हैं, जो किसी के नौकर न होते हुए सबके नौकर होते हैं, जिन्हें कुछ अपना काम न होने पर भी सिर उठाने की फ़ुर्सत नहीं होती। जामिद इसी तरह के इंसानों में था। बिल्कुल बेफ़िक्र, न किसी से दोस्ती, न किसी से दुश्मनी। जो ज़रा हँसकर बोला, उसका फोकट का गुलाम हो गया। बेकार का काम करने में उसे मज़ा आता था।

गाँव में कोई बीमार पड़े, वह रोगी की देखभाल करने के लिए हाज़िर है। कहिए तो आधी रात हकीम के घर चला जाए, किसी जड़ी-बूटी की तलाश में जंगलों की ख़ाक छान आए। मुमकिन न था कि किसी ग़रीब पर अत्याचार होते देखे और चुप रह जाए। फिर चाहे कोई उसे मार ही डाले, वह तरफदारी करने से बाज न आता था। ऐसे सैकड़ों ही मौके उसके सामने आ चुके थे। कांस्टेबल से आए दिन ही उसकी छेड़-छाड़ होती रहती थी। इसलिए लोग उसे पागल समझते थे। और बात भी यही थी। जो आदमी किसी का बोझ भारी देखकर उससे छीन कर, अपने सिर ले ले, किसी का छप्पर उठाने या आग बुझाने के लिए कोसों दौड़ा चला जाए , उसे समझदार कौन कहेगा।

सौ बात की एक बात यह है कि उसकी जात से दूसरों को चाहे कितना ही फ़ायदा पहुँचे, उसका कोई फायदा न होता था, यहाँ तक कि वह रोटियों तक के लिए भी दूसरों के सहारे था। दीवाना तो वह था और उसका गम दूसरे खाते थे। 

आख़िर जब लोगों ने बहुत धिक्कारा- “”’क्यों अपना जीवन बर्बाद कर रहे हो, तुम दूसरों के लिए मरते हो, कोई तुम्हारा भी पूछने वाला है? अगर एक दिन बीमार पड़ जाओ, तो कोई चुल्लू भर पानी न दे, जब तक दूसरों की सेवा करते हो, लोग खैरात समझकर खाने को दे देते हैं, जिस दिन आ पड़ेगी, कोई सीधे मुँह बात भी न करेगा, तब जामिद की आँखें खुलीं। बरतन-भांडा कुछ था ही नहीं।

एक दिन उठा और एक तरफ़ की राह ली। दो दिन के बाद शहर में पहुँचा। शहर बहुत बड़ा था। महल आसमान से बातें करने वाले। सड़कें चौड़ी और साफ़, बाज़ार गुलज़ार, मसजिदों और मन्दिरों की संख्या अगर मकानों से ज्यादा न थी, तो कम भी नहीं। देहात में न तो कोई मस्जिद थी, न कोई मन्दिर। मुसलमान लोग एक चबूतरे पर नमाज़ पढ़ लेते थे। हिन्दू एक पेड़ के नीचे पानी चढ़ा दिया करते थे।

नगर में धर्म का यह माहात्म्य देखकर देखकर जामिद को बड़ा आश्चर्य और खुशी हुई। उसकी नजरों में धर्म की जितनी इज्जत थी उतनी और दुनिया की किसी चीज का नहीं। वह सोचने लगा- ‘ये लोग कितने ईमान के पक्के, कितने सच बोलने वाले हैं। इनमें कितनी दया, कितना विवेक , कितनी सहानुभूति होगी, तभी तो भगवान ने इतना इन्हें माना है। वह हर आने-जाने वाले को श्रद्धा की नजरों से देखता और उसके सामने विनय से सिर झुकाता था। यहाँ के सभी लोग उसे भगवान से मालूम होते थे।

घूमते-घूमते शाम हो गई। वह थक कर मंदिर के चबूतरे पर जा बैठा। मंदिर बहुत बड़ा था, ऊपर सुनहला कलश चमक रहा था। जगमोहन पर संगमरमर के चौके जड़े हुए थे, मगर आंगन में जगह-जगह गोबर और कूड़ा पड़ा था। जामिद को गंदगी से चिढ़ थी, मंदिर की यह हालत देखकर उससे न रहा गया, इधर-उधर नजरें दौड़ाई कि कहीं झाड़ू मिल जाए, तो साफ़ कर दे, पर झाड़ू कहीं नजर न आई। मजबूर होकर उसने गमछे से चबूतरे को साफ़ करना शुरू कर दिया।

ज़रा देर में भक्तों का जमाव होने लगा। उन्होंने जामिद को चबूतरा साफ़ करते देखा , तो आपस में बातें करने लगे- “”

– “”है तो मुसलमान?””

– “”मेहतर होगा।””

– “”नहीं, मेहतर अपने दामन से सफ़ाई नहीं करता। कोई पागल मालूम होता है।””

– “”उधर का भेदिया(स्पाय) न हो।””

– “”नहीं, चेहरे से बड़ा ग़रीब मालूम होता है।””

– “”हसन निज़ामी का कोई चेला होगा।””

– “”अजी गोबर के लालच से सफ़ाई कर रहा है। (जामिद से) गोबर न ले जाना बे, समझा? कहाँ रहता है?””

– “”परदेशी मुसाफ़िर हूँ, साहब, मुझे गोबर लेकर क्या करना है? ठाकुर जी का मन्दिर देखा तो आकर बैठ गया। कूड़ा पड़ा हुआ था। मैने सोचा, धर्मात्मा लोग आते होंगे, सफ़ाई करने लगा।””

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(hindi) Sujaan Bhagat

(hindi) Sujaan Bhagat

“सीधे सादे किसान पैसा हाथ आते ही धर्म और कीर्ति की ओर झुकते हैं। दूसरे समाज की तरह वे पहले अपने भोग-विलास की ओर नहीं दौड़ते। सुजान की खेती में कई साल से सोना बरस रहा था। मेहनत तो गाँव के सभी किसान करते थे, पर सुजान की किस्मत अच्छी थी, बंजर में भी दाना छींट आता तो कुछ न कुछ पैदा हो जाता था।

तीन साल लगातार गन्ना लगता गया। उधर गुड़ का भाव तेज था। कोई दो-ढाई हजार हाथ में आ गये। बस मन धर्म की ओर झुक पड़ा। साधु-संतों का आदर-सत्कार होने लगा, दरवाजे पर धूनी जलने लगी, अधिकारी इलाके में आते, तो सुजान महतो के चौपाल में ठहरते। हल्के के हेड कांस्टेबल, थानेदार, शिक्षा-विभाग के अफसर, एक न एक उस चौपाल में पड़ा ही रहता। महतो मारे खुशी के फूले न समाते।

वाह किस्मत! उसके दरवाजे पर अब इतने बड़े-बड़े अधिकारी आ कर ठहरते हैं।

जिन अधिकारियों के सामने उसका मुँह न खुलता था, उन्हीं की अब 'महतो-महतो' करते जबान सूखती थी। कभी-कभी भजन-भाव हो जाता। एक महात्मा ने हाल अच्छा देखा तो गाँव में आसन जमा दिया। गाँजे और चरस की बहार उड़ने लगी। एक ढोलक आयी, मजीरे मँगाये गये, सत्संग होने लगा। यह सब सुजान के दम का जलूस था। घर में सेरों दूध होता, मगर सुजान के गले के निचे एक बूँद भी न जाने की कसम थी। कभी अधिकारी लोग चखते, कभी महात्मा लोग। किसान को दूध-घी से क्या मतलब, उसे रोटी और साग चाहिए।

सुजान की नम्रता की अब हद न थी। सबके सामने सिर झुकाये रहता, कहीं लोग यह न कहने लगें कि पैसा पा कर उसे घमंड हो गया है। गाँव में कुल तीन कुएँ थे, बहुत-से खेतों में पानी न पहुँचता था, खेती मारी जाती थी। सुजान ने एक पक्का कुआँ बनवा दिया। कुएँ की शादी हुई, यज्ञ हुआ, ब्रह्मभोज हुआ। जिस दिन पहली बार पुर (चमड़े का एक तरह का बड़ा थैला जिससे सिंचाई के लिए कुएँ से पानी निकाला जाता है) चला, सुजान को मानो चारों पदार्थ (धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष) मिल गये। जो काम गाँव में किसी ने न किया था, वह बाप-दादा के पुण्य-प्रताप से सुजान ने कर दिखाया।

एक दिन गाँव में गया के यात्री आ कर ठहरे। सुजान ही के दरवाजे पर उनका खाना बना। सुजान के मन में भी गया करने की बहुत दिनों से इच्छा थी। यह अच्छा मौका देख कर वह भी चलने को तैयार हो गया।

उसकी पत्नी बुलाकी ने कहा- “”अभी रहने दो, अगले साल चलेंगे।””

सुजान ने गंभीर भाव से कहा- “”अगले साल क्या होगा, कौन जानता है। धर्म के काम में मीनमेख निकालना अच्छा नहीं। जिंदगानी का क्या भरोसा?””

बुलाकी- “”हाथ खाली हो जायगा।””

सुजान- “”भगवान् की इच्छा होगी, तो फिर रुपये हो जाएँगे। उनके यहाँ किस बात की कमी है।””

बुलाकी इसका क्या जवाब देती? अच्छे काम में बाधा डाल कर अपनी मुक्ति क्यों बिगाड़ती? सुबह पति पत्नी गया करने चले। वहाँ से लौटे तो, यज्ञ और ब्रह्मभोज की ठहरी। सारी बिरादरी निमंत्रित हुई, ग्यारह गाँवों में सुपारी बँटी। इस धूमधाम से काम हुआ कि चारों ओर वाह-वाह मच गयी। सब यही कहते थे कि भगवान् पैसा दे, तो दिल भी ऐसा दे। घमंड तो छू नहीं गया, अपने हाथ से पत्तल उठाता फिरता था, कुल का नाम जगा दिया। बेटा हो, तो ऐसा हो। बाप मरा, तो घर में एक पैसा भी नहीं था। अब लक्ष्मी हमेशा के लिए आ बैठी हैं।

एक दुश्मन ने कहा- “”कहीं गड़ा हुआ पैसा पा गया है।””

इस पर चारों ओर से उस पर बौछारें पड़ने लगीं- “”हाँ, तुम्हारे बाप-दादा जो खजाना छोड़ गये थे, यही उसके हाथ लग गया है। अरे भैया, यह धर्म की कमाई है। तुम भी तो छाती फाड़ कर काम करते हो, क्यों ऐसे गन्ने नहीं लगते? क्यों ऐसी फसल नहीं होती? भगवान आदमी का दिल देखते हैं। जो खर्च करता है, उसी को देते हैं।””

सुजान महतो सुजान भगत हो गये। भगतों के आचार-विचार कुछ और होते हैं। वह बिना नहाए कुछ नहीं खाता। गंगा जी अगर घर से दूर हों और वह रोज नहाना करके दोपहर तक घर न लौट सकता हो, तो पर्वों के दिन तो उसे जरूर ही नहाना चाहिए। भजन-भाव उसके घर जरूर होना चाहिए। पूजा-अर्चना उसके लिए जरूरी है। खान-पान में भी उसे बहुत ख्याल रखना पड़ता है।

सबसे बड़ी बात यह है कि झूठ को छोड़ना पड़ता है। भगत झूठ नहीं बोल सकता। साधारण इंसान को अगर झूठ की सजा एक मिले, तो भगत को एक लाख से कम नहीं मिल सकती। नासमझी के हालत में कितने ही अपराध माफ हो जाते हैं। समझदार के लिए माफी नहीं है, पछतावा नहीं है, अगर है तो बहुत ही कठिन। सुजान को भी अब भगतों की मर्यादा को निभाना पड़ा। अब तक उसका जीवन मजदूर का जीवन था।

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(hindi) Bahishkaar

(hindi) Bahishkaar

“पण्डित ज्ञानचंद्र ने गोविंदी की ओर प्यासी आँखों से देख कर कहा- “”मुझे ऐसे बेरहम लोगों से जरा भी सहानुभूति नहीं है। इस बर्बरता की भी कोई हद है कि जिसके साथ तीन साल तक जीवन के सुख भोगे, उसे एक जरा-सी बात पर घर से निकाल दिया।””

गोविंदी ने आँखें नीची करके पूछा- “”आखिर क्या बात हुई थी?

ज्ञान.- “”कुछ भी नहीं। ऐसी बातों में कोई बात होती है? शिकायत है कि कालिंदी जबान की तेज है। तीन साल तक जबान तेज न थी, आज जबान की तेज हो गयी। कुछ नहीं, कोई दूसरी चिड़िया नजर आयी होगी। उसके लिए पिंजरे को खाली करना जरूरी था। बस यह शिकायत निकल आयी। मेरा बस चले, तो ऐसे बदमाशों को गोली मार दूँ। मुझे कई बार कालिंदी से बातचीत करने का मौका मिला है। मैंने ऐसी हँसमुख दूसरी नहीं ही देखी।””

गोविंदी- “”तुमने सोमदत्त को समझाया नहीं?””

ज्ञान.- “”ऐसे लोग समझाने से नहीं मानते। यह लात का आदमी है, बातों की उसे क्या परवाह? मेरा तो यह ख्याल है कि जिससे एक बार रिश्ता हो गया, फिर चाहे वह अच्छी हो या बुरी, उसके साथ जीवन भर गुजारा करना चाहिए! मैं तो कहता हूँ, अगर पत्नी के कुल में कोई दोष भी निकल आये, तो माफी से काम लेना चाहिए।”” 

गोविंदी ने कातर आँखों से देखकर कहा- “”ऐसे आदमी तो बहुत कम होते।””

ज्ञान.- “”समझ ही में नहीं आता कि जिसके साथ इतने दिन हँसे-बोले, जिसके प्यार की यादें दिल के एक-एक कोने में समायी हुई हैं, उसे दर-दर ठोकरें खाने को कैसे छोड़ दिया। कम से कम इतना तो करना चाहिए था कि उसे किसी सुरक्षित जगह पर पहुँचा देते और उसके गुजारा का कोई इंतजाम कर देते। बेरहम ने इस तरह घर से निकाला, जैसे कोई कुत्ते को निकालता है।

बेचारी गाँव के बाहर बैठी रो रही है। कौन कह सकता है, कहाँ जायगी। शायद मायके भी नहीं रहा। सोमदत्त के डर के मारे गाँव का कोई आदमी उसके पास भी नहीं आता। ऐसे सरफ़िरे का क्या ठिकाना! जो आदमी पत्नी का न हुआ, वह दूसरे का क्या होगा। उसकी हालत देख कर मेरी आँखों में तो आँसू भर आये। जी में तो आया, कहूँ, ‘बहन, तुम मेरे घर चलो’। मगर तब तो सोमदत्त मेरी जान का दुश्मन हो जाता।””

गोविंदी- “”तुम जरा जा कर एक बार फिर समझाओ। अगर वह किसी तरह न माने, तो कालिंदी को लेते आना।””

ज्ञान.- “”जाऊँ?””

गोविंदी- “”हाँ, जरूर जाओ; मगर सोमदत्त कुछ खरी-खोटी भी कहे, तो सुन लेना।””

ज्ञानचंद्र ने गोविंदी को गले लगा कर कहा- “”तुम्हारे दिल में बड़ी दया है, गोविंदी! लो जाता हूँ, अगर सोमदत्त ने न माना तो कालिंदी ही को लेता आऊँगा। अभी बहुत दूर न गयी होगी।””

तीन साल बीत गये। गोविंदी एक बच्चे की माँ हो गयी। कालिंदी अभी तक इसी घर में है। उसके पति ने दूसरी शादी कर ली है। गोविंदी और कालिंदी में बहनों का-सा प्यार है। गोविंदी हमेशा उसे दिलासा देती रहती है। वह इसकी कल्पना भी नहीं करती कि यह कोई गैर है और मेरी रोटियों पर पड़ी हुई है; लेकिन सोमदत्त को कालिंदी का यहाँ रहना एक आँख नहीं भाता। वह कोई कानूनी कार्रवाई करने की तो हिम्मत नहीं रखता। और इस हालात में कर ही क्या सकता है; लेकिन ज्ञानचंद्र का सिर नीचा करने के लिए मौका खोजता रहता है।

शाम का समय था। गरमी की गरम हवा अभी तक बिलकुल शांत नहीं हुई थी। गोविंदी गंगा-जल भरने गयी थी। और पानी के किनारे की ठंड में अकेलेपन का मजा उठा रही थी। अचानक उसे सोमदत्त आता हुआ दिखायी दिया। गोविंदी ने आँचल से मुँह छिपा लिया और मटका ले कर चलने ही को थी कि सोमदत्त ने सामने आ कर कहा- “”जरा ठहरो, गोविंदी, तुमसे एक बात कहना है। तुमसे यह पूछना चाहता हूँ कि तुमसे कहूँ या ज्ञानू से?””

गोविंदी ने धीरे से कहा- “”उन्हीं से कह दीजिए।””

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(hindi) Chori

(hindi) Chori

“हाय बचपन! तेरी याद नहीं भूलती! वह कच्चा, टूटा घर, वह पुवाल का बिस्तर; वह नंगे बदन, नंगे पाँव खेतों में घूमना; आम के पेड़ों पर चढ़ना, सारी बातें आँखों के सामने फिर रही हैं। चमड़े जूते पहन कर उस समय कितनी खुशी होती थी, अब 'फ्लेक्स' के बूटों से भी नहीं होती। आम पन्ने के  रस में जो मजा था, वह अब गुलाब के शर्बत में भी नहीं; चबेने और कच्चे बेरों में जो रस था, वह अब अंगूर और खीरमोहन में भी नहीं मिलता। मैं अपने चचेरे भाई हलधर के साथ दूसरे गाँव में एक मौलवी साहब के यहाँ पढ़ने जाया करता था।

मेरी उम्र साठ साल थी, हलधर (वह अब नहीं रहे) मुझसे दो साल बड़े थे। हम दोनों सुबह बासी रोटियाँ खा, दोपहर के लिए मटर और जौ का चबेना ले कर चल देते थे। फिर तो सारा दिन अपना था। मौलवी साहब के यहाँ कोई हाजिरी का रजिस्टर तो था नहीं, और न गैरहाजिरी का जुर्माना ही देना पड़ता था। फिर डर किस बात का! कभी तो थाने के सामने खड़े सिपाहियों की परेड देखते, कभी किसी भालू या बन्दर नचानेवाले मदारी के पीछे-पीछे घूमने में दिन काट देते, कभी रेलवे स्टेशन की ओर निकल जाते और गाड़ियों की बहार देखते। गाड़ियों के समय की जितनी जानकारी हमको थी, उतनी शायद टाइम-टेबिल को भी न थी।

रास्ते में शहर के एक महाजन ने एक बाग लगवाना शुरू किया था। वहाँ एक कुआँ खुद रहा था। वह भी हमारे लिए एक दिलचस्प तमाशा था। बूढ़ा माली हमें अपनी झोपड़ी में बड़े प्यार से बैठाता था। हम उससे झगड़-झगड़ कर उसका काम करते! कहीं बाल्टी लिये पौधों को सींच रहे हैं, कहीं खुरपी से क्यारियाँ गोड़ रहे हैं, कहीं कैंची से बेलों की पत्तियाँ छाँट रहे हैं। उन कामों में कितना मजा था! माली बच्चों को बहलाने में पंडित था। हमसे काम लेता, पर इस तरह मानो हमारे ऊपर कोई एहसान कर रहा है।

जितना काम वह दिन भर में करता, हम घंटे भर में निबटा देते थे। अब वह माली नहीं है; लेकिन बाग हरा-भरा है। उसके पास से हो कर गुजरता हूँ, तो जी चाहता है; उन पेड़ों के गले मिल कर रोऊँ, और कहूँ, प्यारे, तुम मुझे भूल गये लेकिन मैं तुम्हें नहीं भूला; मेरे दिल में तुम्हारी याद अभी तक हरी है, उतनी ही हरी, जितने तुम्हारे पत्ते। बिना स्वार्थ के प्यार के तुम जीते-जागते रूप हो। कभी-कभी हम हफ्तों गैरहाजिर रहते; पर मौलवी साहब से ऐसा बहाना कर देते कि उनकी बढ़ी हुई त्योरियाँ उतर जातीं।

उतना दिमाग आज दौड़ता तो ऐसा उपन्यास लिख मारता कि लोग चकित रह जाते। अब तो यह हाल है कि बहुत सिर खपाने के बाद कोई कहानी सूझती है। खैर हमारे मौलवी साहब दर्जी थे। मौलवीगीरी सिर्फ शौक से करते थे। हम दोनों भाई अपने गाँव के कुरमी-कुम्हारों से उनकी खूब बड़ाई करते थे। ये कहिए कि हम मौलवी साहब के काम ढूंढने वाले एजेंट थे।

हमारी कोशिशों से जब मौलवी साहब को कुछ काम मिल जाता, तो हम फूले न समाते! जिस दिन कोई अच्छा बहाना न सूझता, मौलवी साहब के लिए कोई-न-कोई तौहफा ले जाते। कभी सेर-आधा-सेर फलियाँ तोड़ लीं, तो कभी दस-पाँच गन्ने; कभी जौ या गेहूँ की हरी-हरी बालें ले लीं, उन सौगातों को देखते ही मौलवी साहब का गुस्सा शांत हो जाता। जब इन चीजों की फसल न होती, तो हम सजा से बचने का कोई और ही उपाय सोचते। मौलवी साहब को चिड़ियों का शौक था। मदरसे में श्याम, बुलबुल, दहियल और चंडूलों के पिंजरे लटकते रहते थे।

हमें सबक याद हो या न हो पर चिड़ियों को याद हो जाते थे। हमारे साथ ही वे पढ़ा करती थीं। इन चिड़ियों के लिए बेसन पीसने में हम लोग खूब उत्साह दिखाते थे। मौलवी साहब सब लड़कों को पतंगे पकड़ लाने को कहते रहते थे। इन चिड़ियों को पतंगे खास पसंद थे। कभी-कभी हमारी बला पतंगों ही के सिर चली जाती थी। उनका बलिदान करके हम मौलवी साहब के गुस्से को शांत कर लिया करते थे।

Puri Kahaani Sune…

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(hindi) Kamna Taru

(hindi) Kamna Taru

“राजा इन्द्रनाथ की मौत हो जाने के बाद कुँवर राजनाथ को दुश्मनों ने चारों ओर से ऐसा दबाया कि उन्हें अपनी जान बचाने के लिए एक पुराने नौकर की शरण में जाना पड़ा, जो एक छोटे-से गाँव का जागीरदार था। कुँवर स्वभाव से ही शांति पसंद, मजाकिया, हँस-खेल कर समय काटने वाले नौजवान  थे। लड़ाई के मैदान की जगह कविता के मैदान में अपना चमत्कार दिखाना उन्हें ज़्यादा  पसंद था। हंसी मजाक करने वाले लोगों के साथ, किसी पेड़ के नीचे बैठे हुए, कविताओं के बारे में बातें करने में उन्हें जो खुशी मिलती  , वह शिकार या राज-दरबार में नहीं मिलती थी।

पहाड़ों से घिरे हुए गाँव में आ कर उन्हें जिस शांति और खुशी का अनुभव हुआ, उसके बदले में वह ऐसे कई राज्य-त्याग सकते थे। पहाड़ों की सुंदर छटा,  आँखो को लुभाने वाली हरियाली, पानी की लहरों की मीठी वाणी, चिड़ियों की मीठी बोलियाँ, हिरण के बच्चों की छलाँगें, बछड़ों के खेलकूद, गांव वालों की बच्चों सी सरलता, औरतों की शर्म भरी चंचलता ! ये सभी बातें उनके लिए नयी थीं, पर इन सब से बढ़ कर जो चीज उनको आकर्षित करती थी, वह जागीरदार की जवान बेटी चंदा थी। चंदा घर का सारा काम-काज खुद करती थी। उसे माँ की गोद में खेलना नसीब ही न हुआ था।

पिता की सेवा में ही लगी रहती थी। उसकी शादी इसी साल होने वाली थी, कि इसी बीच कुँवर जी ने आ कर उसके जीवन में नई भावनाओं और उम्मीदों को पैदा कर दिया। उसने अपने पति का जो चित्र मन में खींच रखा था, वही मानो रूप धारण करके उसके सामने आ गया हो । कुँवर की आदर्श पत्नी भी चंदा के ही रूप में आ गयी; लेकिन कुँवर समझते थे , मेरी ऐसी किस्मत कहाँ? चंदा भी समझती थी, कहाँ यह और कहाँ मैं !

दोपहर का समय था और जेठ का महीना। खपरैल का घर भट्ठी की तरह तपने लगा। खस की स्क्रीन और तहखानों में रहने वाले राजकुमार का मन गरमी से इतना बेचैन हुआ कि वह बाहर निकल आये और सामने के बाग में जा कर एक घने पेड़ की छाँव में बैठ गये। अचानक उन्होंने देखा , चंदा नदी से पानी की मटका लिये चली आ रही है। नीचे जलती हुई रेत थी, ऊपर जलता हुआ सूरज । लू से शरीर झुलसा जाता था।

शायद इस समय प्यास से तड़पते हुए आदमी की भी नदी तक जाने की हिम्मत न पड़ती। चंदा क्यों पानी लेने गयी थी? घर में पानी भरा हुआ है। फिर इस समय वह क्यों पानी लेने निकली? कुँवर दौड़कर उसके पास पहुँचे और उसके हाथ से मटका छीनने की कोशिश करते हुए बोले – “”मुझे दे दो और भाग कर छाँव में चली जाओ। इस समय पानी का क्या काम था?””

चंदा ने मटका न छोड़ा। सिर से खिसका हुआ आँचल सँभालकर बोली – “”तुम इस समय कैसे आ गये? शायद मारे गरमी के अंदर न रह सके?””

कुँवर – “”मुझे दे दो, नहीं तो मैं छीन लूँगा।””

चंदा ने मुस्करा कर कहा – “”राजकुमारों को मटका ले कर चलना शोभा नहीं देता।””

कुँवर ने मटका का मुँह पकड़ कर कहा – “”इस अपराध की बहुत सजा सह चुका हूँ। चंदा, अब तो अपने को राजकुमार कहने में भी शर्म आती है।””

चंदा – “”देखो, धूप में खुद हैरान होते हो और मुझे भी हैरान करते हो। मटका छोड़ दो। सच कहती हूँ, पूजा का पानी है।””

कुँवर – “”क्या मेरे ले जाने से पूजा का पानी अपवित्र हो जाएगा?””

चंदा – “”अच्छा भाई, नहीं मानते, तो तुम्हीं ले चलो। हाँ, नहीं तो।””

कुँवर मटका ले कर आगे-आगे चले। चंदा पीछे हो ली। बगीचे में पहुँचे, तो चंदा एक छोटे-से पौधे  के पास रुक कर बोली – “”इसी देवता की पूजा करनी है, मटका रख दो।”” 

कुँवर ने आश्चर्य से पूछा- “”यहाँ कौन सा देवता है, चंदा? मुझे तो नहीं नजर आता।””

चंदा ने पौधो को सींचते हुए कहा – “”यही तो मेरा देवता है।””

पानी पी कर पौधो की मुरझायी हुई पत्तियाँ हरी हो गयीं, मानो उनकी आँखें खुल गयी हों।

कुँवर ने पूछा- “”यह पौधा क्या तुमने लगाया है, चंदा?””

चंदा ने पौधों को एक सीधी लकड़ी से बाँधते हुए कहा – “”हाँ, उसी दिन तो, जब तुम यहाँ आये थे । यहाँ पहले मेरी गुड़ियों का घर था। मैंने गुड़ियों पर छाँव करने के लिए अमोला लगा दिया था। फिर मुझे इसकी याद नहीं रही। घर के काम-धन्धो में भूल गयी। जिस दिन तुम यहाँ आये, मुझे न-जाने क्यों इस   पौधे  की याद आ गयी। मैंने आ कर देखा, तो वह सूख गया था। मैंने तुरन्त पानी ला कर इसे सींचा, तो कुछ-कुछ ताजा होने लगा। तब से इसे सींचती हूँ। देखो, कितना हरा-भरा हो गया है।””

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(hindi) Invisible Influence: The Hidden Forces that Shape Behavior

(hindi) Invisible Influence: The Hidden Forces that Shape Behavior

“इस किताब में आप सोशल साईंकोलोज़ी के बारे में पढ़ा कि किस तरह लोग आपकी ओपिनियन को अफेक्ट करते है. इस किताब में आप ऐसी कई इंट्रेस्टिंग  रिसर्च  स्टडी के बारे में पढ़ेंगे जिससे आप हैरान रह जायेंगे. क्या आपने कभी गोल्डीलॉक्स इफ़ेक्ट के बारे में सुना है? या फिर क्या आपको पता है कि कॉकरोच रेस करते है? क्या आप अपने बच्चे का नाम किसी हरिकेन पर रख सकते है? अगर आपको ये सवाल कुछ अजीब लग रहे है तो चलिए इस तरह के टॉपिक पर और चर्चा करने के लिए इस किताब को पढ़ते है. 

ये समरी किस-किसको पढ़नी चाहिए 
•    जो भी साईंकोलोजी में इंटरेस्ट रखता है. 
•    साइकोलोजी के स्टूडेंट्स को 

ऑथर के बारे में 
जोनाह  बर्गर यूनीवरसिटी ऑफ़ पेंसिलवेनिया में व्हार्टन स्कूल के मार्केटिंग प्रोफेसर हैं. इसके साथ-साथ  वो तीन इंटरनेशनल बेस्ट सेलिंग किताबों के ऑथर भी हैं. जोनाह  वर्ड ऑफ़ माउथ, कंज्यूमर बिहेवियर और वायरल मार्केटिंग के एक्सपर्ट हैं. उनके कई आर्टिकल न्यू यॉर्क टाइम्स, हार्वर्ड बिजनेस रिव्यु और वॉल स्ट्रीट जर्नल में पब्लिश हो चुके हैं. 

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(hindi) Amawasya ki Raat

(hindi) Amawasya ki Raat

“दिवाली की शाम थी। श्रीनगर के घूरों और खँडहरों की भी किस्मत चमक उठी थी। कस्बे के लड़के और लड़कियाँ साफ थालियों में दीपक लिये मंदिर की ओर जा रही थीं। दीपों से उनके चहरे रोशन थे। हर घर रोशनी से जगमगा रहा था। सिर्फ पंडित देवदत्त का ऊँचा भवन काले बादल के अंधेरे में गंभीर और भयानक रूप में खड़ा था। गंभीर इसलिए कि उसे अपनी उन्नति के दिन भूले न थे, भयानक इसलिए कि यह जगमगाहट मानो उसे चिढ़ा रही थी।

 
एक समय वह था जबकि जलन भी उसे देख-देखकर हाथ मलती थी और एक समय यह है जबकि नफरत भी उसे ताने मारती है। दरवाजे पर पहरेदार की जगह अब मदार और एरंड के पेड़ खड़े थे। दीवानखाने में एक मतंग साँड़ अकड़ता था। ऊपर के घरों में जहाँ सुन्दर औरतें मनोहर गाने गाती थीं, वहाँ आज जंगली कबूतरों की मीठी आवाज सुनायी देते थे। किसी अँग्रेजी मदरसे के विद्यार्थी के चाल चलन की तरह उसकी जड़ें हिल गयी थीं। और उसकी दीवारें किसी विधवा औरत के दिल की तरह टूटी हुई थीं, पर समय को हम कुछ नहीं कह सकते। समय पर इल्जाम लगाना बेकार और गलत है यह बेवकूफी और दूर की ना सोचने का नतीजा था।

अमावस्या की रात थी। रोशनी से हार कर मानो अंधेरे ने उसी विशाल भवन में शरण ली थी। पंडित देवदत्त अपने आधे अंधेरे वाले कमरे में चुप, लेकिन चिंता में डूबे थे। आज एक महीने से उनकी पत्नी गिरिजा की जिंदगी को बेरहम काल ने खिलवाड़ बना लिया है। पंडित जी गरीबी और दुःख को भुगतने के लिए तैयार थे। किस्मत का भरोसा उन्हें उम्मीद बँधाता था, लेकिन यह नयी मुसीबत सहन से बाहर थी। बेचारे दिन के दिन गिरिजा के सिरहाने बैठे हुए उसके मुरझाये हुए चहरे को देख कर कुढ़ते और रोते थे। गिरिजा जब अपने जीवन से निराश हो कर रोती तो वह उसे समझाते- “”गिरिजा रोओ मत, जल्दी ही अच्छी हो जाओगी।””

पंडित देवदत्त के पूर्वजों का कारोबार बहुत बड़ा था। वे लेन-देन किया करते थे। ज्यादातर उनके व्यवहार बड़े-बड़े चकलेदारों और रजवाड़ों के साथ थे। उस समय ईमान इतना सस्ता नहीं बिकता था। सफेद कागजों पर लाखों की बातें हो जाती थीं। मगर सन् 57 ईस्वी के बलवे ने कितनी ही रियासतों और राज्यों को मिटा दिया और उनके साथ तिवारियों का यह अमीर परिवार भी मिट्टी में मिल गया। खजाना लुट गया, बही-खाते बनियों के काम आये। जब कुछ शांति हुई, रियासतें फिर सँभलीं तो समय पलट चुका था। बातों के लिए अब कागजों की जरूरत थी और कागज में भी सादे और रंगीन का अंतर होने लगा था।

जब देवदत्त ने होश सँभाला तब उनके पास इस खँडहर के अलावा और कोई दौलत न थी। अब गुजारे के लिए कोई उपाय न था। किसानी में मेहनत और तकलीफ थी। व्यापार के लिए पैसे और दिमाग की जरूरत थी। पढ़ाई भी ऐसी नहीं थी कि कहीं नौकरी करते, परिवार की इज्जत दान लेने में रुकावट थी। आखिर में साल में दो-तीन बार अपने पुराने व्यवहारियों के घर बिना बुलाये मेहमान की तरह जाते और कुछ विदाई और रास्ते का खर्च पाते उसी पर गुजारा करते। खानदानी प्रतिष्ठा की निशानी अगर कुछ बाकी थी तो वह पुरानी चिट्ठी-पत्रियों का ढेर और हुंडियों(पैसे का करारनामा) का पुलिंदा जिनकी स्याही भी उनके मंद किस्मत की तरह फीकी पड़ गयी थी। 

पंडित देवदत्त उन्हें जान से भी ज्यादा प्यारे समझते। द्वितीया(हिन्दी महिने का दूसरा दिन) के दिन जब घर-घर लक्ष्मी की पूजा होती है पंडित जी ठाट-बाट से इन पुलिंदों की पूजा करते। लक्ष्मी न सही लक्ष्मी के होने की निशानी ही सही। दूज का दिन पंडित जी के प्रतिष्ठा के श्रद्धा का दिन था। इसे चाहे मजाक कहो, चाहे बेवकूफी लेकिन श्रीमान् पंडित महाशय को उन पत्रों पर बड़ा घमंड था। जब गाँव में कोई बहस छिड़ जाती तो यह सड़े-गले कागजों की सेना ही बहुत काम कर जाती और दुश्मन को हार माननी पड़ती। अगर सत्तर पीढ़ियों से हथियार की सूरत न देखने पर भी लोग क्षत्रिय होने का अभिमान करते हैं, तो पंडित देवदत्त का उन लेखों पर अभिमान करना गलत नहीं कहा जा सकता, जिसमें सत्तर लाख रुपयों की रकम छिपी हुई थी।

Puri Kahaani Sune…

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