(Hindi) THE DREAM OF SWARAJYA PART 2

(Hindi) THE DREAM OF SWARAJYA PART 2

पिछले पार्ट में आपने सुना की शिवाजी ने इन किलों पर कब्ज़ा कर लिया, आदिल शाह के सबसे जाँबाज़ सेनापति अफज़ल शाह को अपनी दूरदर्शिता से मार गिराया और अब आगे….

स्वराज पाने का निश्चय तो हो चुका  था पर अभी करने को बहुत काम बाकि था.  शिवाजी महाराज अपने वफादार सरदारों के साथ मिलकर अपने सपने को सच का जामा पहनाने में जुट गये. पर सबसे पहले उन्हें जाकर माता जीजाबाई का आशीर्वाद लेना था. इससे पहले कि वो लोग किसी से अपने ईरादे ज़ाहिर करते, उन्हें कुछ जरूरी कदम उठाने थे.

रास्ता एकदम साफ नज़र आ रहा था, सबका एक ही लक्ष्य था, गुलामी की ज़ंजीरो को तोड़ फेंकना. लेकिन उन्हें ये  नहीं  पता था कि उनका पहला कदम क्या होगा. इसलिए सब लोग इसी बात पर विचार-विमर्श करने के लिए रोहिदेश्वर के मन्दिर में जमा हुए थे.

अब हालात कुछ इस तरह थे कि पुणे की जागीर शिवाजी राजे के नाम थी क्योंकि ये जागीर उनके पिता शाहजी राजे की थी, जो उन्होंने अपने प्यारे पुत्र शिवाजी को विरासत में दी थी. हालाँकि आस-पास के जितने भी किले और गढ़ थे, उन पर आदिलशाह का कब्ज़ा था. इन किलों पर फतह पाने से पहले वहाँ के ईलाको पर अपनी पैठ बनाने की जरूरत थी. शिवाजी और उनके सिपहसालारों इस बात पर सहमत हुए कि अगर उन्हें अपनी स्तिथि मजबूत बनानी है तो सबसे पहले इन सभी किलों को फतह करना होगा.

इसलिए एक चीज़ साफ थी, स्वराज की लड़ाई में पहला कदम था किसी एक किले को आदिलशाह के कब्जे से छुड़ाना, पर सवाल ये था कि सबसे पहले वो किस किले पर कब्जा करे? तो इस समस्या को हल किया शिवाजी के सबसे भरोसेमंद सरदार तानाजी ने. उनके दिमाग में एक शानदार योजना थी. उन्होंने सुझाव दिया कि जिस किले पर वो लोग अभी बैठे है, क्यों ना पहले उसी पर कब्ज़ा किया जाए! रोहिदेश्वर का किला आदिलशाही की हुकूमत के अंदर आता था और उस किले पर ज्यादा पहरेदारी भी  नहीं  थी, इसलिए इस पर हमला करके आसानी से अपने कब्जे में लिया जा सकता था.

शिवाजी राजे ने किले पर फतह पाने की योजना बनानी शुरू की. किलेदार, जिस पर किले की रखवाली का जिम्मा था, बिल्कुल भी चौकन्ना  नहीं  था. हालांकि इन मज़बूत किलो को जीतना कोई हंसी-खेल भी नहीं था. इसलिए आदिलशाह किसी भी हमले की शंका से पूरी तरह से निश्चिन्त था. उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि कोई इन किलों पर हमला भी कर सकता है. रोहिदेश्वर का किला एकदम खंडहर हो चुका था.

इसकी हिफाजत करने वाले सिपाही एकदम ढीले-ढाले थे. वर्षो पुरानी दीवारे जगह-जगह से टूट रही थी. अगर ये किला शिवाजी के कब्जे में आता तो वो इसकी मरम्मत करवाके इसकी हालत सुधारते पर उससे पहले तो इसे जीतना था.

शिवाजी के पास अभी एक छोटी सी सिपाहियों की टुकड़ी थी. करीब पन्द्रह सौ मावलास उनके साथ थे. और सबसे बड़ी बात, उनके पास पर्याप्त हथियार और गोला-बारूद भी नहीं थे. उन्हें अभी अपनी सेना के लिए तलवार, भाले और ढाल का इंतजाम करना था. इन सब चीजों का इंतजाम करने के साथ-साथ शिवाजी अपने सैनिको के साथ हर रोज़ युद्ध का अभ्यास भी किया करते थे. उन्हें आने वाले युद्धों की तैयारी करनी थी. वो अपने सिपाहियों के साथ जाकर ईलाके के चप्पे-चप्पे की जानकारी लेते. वहां लाल महल में किसी को समझ  नहीं  आ रहा था इन सब तैयारियों के पीछे क्या वजह है.

हमले की पूरी तैयारी के बाद शिवाजी ने फैसला किया कि वो लोग पौं फटने के साथ ही रोहिदेश्वर के किले की तरफ कूच करेंगे. वो जानते थे कि उस वक्त सिपाही या तो सोये होंगे या हमले के खतरे से बिल्कुल बेखबर होंगे. शिवाजी राजे और उनके सैनिको ने  मिलकर किले के पहरेदारो और किलेदार पर धावा बोल दिया. किलेदार को बंदी बना लिया गया. रोहिदेश्वर का किला अब शिवाजी और उनकी सेना के कब्ज़े में था और ये था स्वराज की दिशा में उठाया गया उनका पहला कदम.

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किले पर आदिलशाही झंडा लगा था जिसे उतार कर शिवाजी ने हिन्दुत्व का प्रतीक भगवा झंडा लहरा दिया. ये था स्वराज के झंडे के अंदर का पहला किला. फिर जल्द ही आग की तरह ये खबार  चारों  तरफ फ़ैल गई. इस पराक्रम की यशगाथा लाल महल तक भी पहुंची.  चारों  तरफ ख़ुशी का माहौल छा गया. बड़े धूम-धाम से शिवाजी राजे का स्वागत किया गया. अपनी पहली कोशिश में ही उन्हें सफलता मिल गई थी इसलिए वो राजमाता जीजाबाई का आशीर्वाद लेने पहुंचे. बेटे की बहादुरी पर माँ जितनी खुश थी, उससे कहीं ज्यादा उन्हें शिवाजी की माँ होने गर्व था. आखिरकार उनका स्वराज का सपना पूरा जो होने जा रहा था.

शिवाजी अपने पिता शाहजी राजे की भी रजामंदी लेना चाहते थे इसलिए उन्होंने उनके पास बंगलौर संदेश भिजवाया. जिस पर शाहजी राजे ने अपनी रजामंदी दे दी और जवाब में उनके लिए एक  मोहर भी भिजवाई. उन दिनों मोहरें ज़्यादातर पर्शियन में बनती थी पर स्वराज की  मोहर संस्कृत में लिखी गई थी.

पिता की सहमती पाकर शिवाजी राजे का आत्मविशवास और भी बढ़ गया था. अब अगला कदम था रोहिदेशवर के किले की मरम्मत करवाने का जिसकें  लिए उन्हें काफी धन चाहिए था. शिवाजी चिंता में पड़ गए कि उन्हें आर्थिक मदद कहाँ से मिल सकती है. वो जागीर से मिलने वाली आय को खर्च  नहीं  करना चाहते थे क्योंकि उस पैसे पर आदिलशाह का हक था और तब उनकी माता जीजाबाई ने मदद का हाथ बढ़ाया. उन्होंने अपनी निजी बचत से जमा किया हुआ शिवाजी के सपने भेंट चढ़ा दिया. शिवाजी ने ऐसी महान जननी के चरणों में सिर झुकाकर उनका आशीर्वाद लिया और किले की मरम्मत का काम शुरू हुआ.

शिवाजी जानते थे कि उनकी इस गुस्ताखी पर आदिलशाह बौखला उठेगा. किला हाथ से निकल जाने का बदला वो शिवाजी से जरूर लेगा. सिर्फ इतना ही  नहीं  शाहजी राजे आदिलशाह के दरबार में एक सरदार भी थे तो ज़ाहिर है आदिलशाह के सामने उन्हें अपने बेटे की इस गुस्ताखी पर सफाई देनी पड़ सकती है. पर शाहजी ने ये कहकर बात को संभाल लिया कि शिवाजी अब पुणे की जागीर संभाल रहे है तो उन्होंने जो भी किया पुणे की भलाई के लिए ही किया है. शाहजी ने आदिलशाह को एक पत्र लिखकर भेजा  जिसमें  उन्होंने लिखा था कि” किलों की सुरक्षा का कोई पुख्ता इंतजाम नहीं था इसलिए शिवाजी उन्हें अपने कब्ज़े में लेकर उनकी उचित देखभाल कर सकते है”

इस तरह समझाने-बुझाने पर आदिलशाह का गुस्सा ठंडा हुआ, वो कुछ समय तक शांत रहा. हालाँकि शिवाजी राजे जानते थे कि उन्हें अपनी नींव को और मजबूत बनाने के लिए जल्द से जल्द अब अगला कदम उठाना पड़ेगा, इससे पहले कि आदिलशाह को शक हो, उन्हें  कोई फैसला लेंना था. तो अब शिवाजी ने अपने अगले वार की तैयारी करनी शूरू कर दी.
इस बार उनके निशाने पर तोरणा का किला था. ये किला बेहद मजबूत था और इसमें कई सारे माची बने हुए थे. इस किले को जीतना मानो लोहे के चने चबाने जैसा था. यही वजह थी कि यहाँ का किलेदार एकदम बेफिक्र होकर ऐशो-आराम से जी रहा था. शिवाजी ने अपने मावलास के साथ मिलकर तोरणा के किले पर हमला बोल दिया और देखते ही देखते वहां पर भगवा झंडा लहराने लगा.

तोरणा के साथ ही उन्होंने पास के एक और किले दुर्गादेवी को भी अपने कब्जे में ले लिया था. अब तीनों किलों की मरम्मत का काम एकसाथ शुरू हुआ. मरम्मत के काम में पानी की तरह पैसा बह रहा था. शिवाजी राजे को डर था कि कहीं तीनो किलों की मरम्मत करवाने में पैसे कम ना पड़ जाए. एक बार तो उन्हें ये भी लगा कि उन्हें मरम्मत का काम रुकवा देना चाहिए. मुसीबत की इस घड़ी में एक बार फिर से माँ जीजाबाई ने उन्हें हौसला बंधाया.  उन्होंने शिवाजी से कहा” तुम्हे चिंता करने की जरूरत  नहीं  है क्योंकि भगवान का आशीर्वाद तुम्हारे साथ है. भगवान की ईच्छा से ही ये काम आरंभ हुआ है तो वही कोई रास्ता भी दिखायेगें”

मानो भगवान ख़ुद उनकी  बातें  सुन रहे थे, क्योंकि जल्दी ही पैसों की किल्लत का हल मिल गया था. तोरणा के किले की मरम्मत के दौरान शिवाजी राजे के आदमियों को किले के अंदर जमीन में गढ़े सोने के घड़े मिले.  चारों  तरफ ख़ुशी का माहौल छा गया. हर कोई यही कह रहा था कि ये तोरणाजाई देवी का आशीर्वाद है जिनके नाम पर ये किला बनाया गया था. ऐसा लगा मानो स्वयं भगवान भी स्वराज का सपना साकार होता देखना चाहते थे.

तीनो किलों की मरम्मत का काम पूरे जोशो-खरोश से चल रहा था. शिवाजी की नज़र अब कोंदना के किले पर लगी थी. वो आदिलशाह को खबर होने से पहले ही ज्यादा से ज्यादा किलो पर कब्ज़ा कर लेना चाहते थे. पर इस बार उन्हे एक बड़ा खतरा उठाना पड़ा. कोंदना का किला जिस जगह पर बना था वो जगह आदिलशाह के कब्ज़े वाले ईलाके के बीचो-बीच थी. किले पर हमला करने के घातक नतीजे हो सकते थे पर शिवाजी हर खतरे का सामना करने को तैयार था.

इस किले को कब्ज़े में लेना बेहद जरूरी था और शिवाजी पूरी तैयारी किए  बैठे थे. वो ये भी जानते थे कि सिर्फ ताकत के दम पर हर लड़ाई  नहीं  जीती जाती. उन्हें पता था कि इस समय जोर-ज़बर्दस्ती करके किले पर धावा बोलना ठीक  नहीं  रहेगा. लेकिन जहाँ ताकत काम  नहीं  आती, वहां दोस्ती और रिश्ते काम आते है. कोंदना के किले का किलेदार सिद्दी अंबर और शिवाजी के एक सिपहसालार पक्के दोस्त थे तो सिद्दी अम्बर ने ख़ुशी-ख़ुशी कोंदना का किले शिवाजी को सौंप दिया और खुद भी उनकी स्वराज सेना में भर्ती हो गया.

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