(Hindi) Sawa Ser Gehun

(Hindi) Sawa Ser Gehun

किसी गाँव में शंकर नाम का एक किसान रहता था। सीधा-सादा गरीब आदमी था, अपने काम-से-काम, न किसी के लेने में, न किसी के देने में। जुआ न जानता था, धोखाधड़ी की उसे छूत भी न लगी थी, ठगे जाने की चिन्ता न थी, ठगना न जानता था, खाना मिला, खा लिया, न मिला, चबेने पर काट दी, चबैना भी न मिला, तो पानी पी लिया और राम का नाम लेकर सो रहा।

लेकिन जब कोई मेहमान दरवाजे पर आ जाता था तो उसे इस बेफिक्री को छोड़ना पड़ता था। खासकर जब साधु-महात्मा आते थे, तो उसे जरूर तौर पर दुनियादारी का सहारा लेना पड़ता था। खुद भूखा सो सकता था, पर साधु को कैसे भूखा सुलाता, भगवान् के भक्त जो ठहरे!

एक दिन शाम के समय एक महात्मा ने आकर उसके दरवाजे पर डेरा जमाया। तेजस्वी मूर्ति थी, पीताम्बर गले में, जटा सिर पर, पीतल का कमंडल हाथ में, खड़ाऊँ पैर में, चश्मा आँखों पर, पूरा पहनावा उन महात्माओं का-सा था जो अमीरों के बंगलों में तपस्या, हवा गाड़ियों पर मंदिरों की परिक्रमा और योग-सिध्दि पाने के लिए अच्छा खाना खाते हैं। घर में जौ का आटा था, वह उन्हें कैसे खिलाता। पुराने समय में जौ का चाहे जो कुछ महत्त्व रहा हो, पर अभी युग में जौ का खाना सिद्ध आदमियों के लिए अच्छा नहीं होता है। बड़ी चिन्ता हुई, महात्माजी को क्या खिलाऊँ।

आखिर तय किया कि कहीं से गेहूँ का आटा उधार लाऊँ, पर गाँव-भर में गेहूँ का आटा न मिला। गाँव में सब इंसान ही इंसान थे, देवता एक भी न था, इसलिए देवताओं के खाने का सामान कैसे मिलता। किस्मत से गाँव के पाँडे महाराज के यहाँ से थोड़ा-सा मिल गए। उनसे सवा सेर गेहूँ उधार लिया और पत्नी से कहा, कि पीस दे। महात्मा ने खाना खाया, लम्बी तानकर सोये। सुबह आशीर्वाद देकर अपनी राह ली।

पाँडे महाराज साल में दो बार खलिहानी लिया करते थे। शंकर ने दिल में कहा, 'सवा सेर गेहूँ इन्हें क्या लौटाऊँ, पाँच सेर के बदले कुछ ज्यादा खलिहानी दे दूँगा, यह भी समझ जायँगे, मैं भी समझ जाऊँगा।'

चैत में जब पाँडेजी पहुँचे तो उन्हें साढ़े सात सेर के लगभग गेहूँ दे दिया और उधार उतर गया समझकर उसकी कोई बात न की। पाँडेजी ने फिर कभी न माँगा। सरल शंकर को क्या मालूम था कि यह सवा सेर गेहूँ चुकाने के लिए मुझे दूसरा जन्म लेना पड़ेगा।
सात साल गुजर गये। पाँडेजी पंडित से महाजन हुए, शंकर किसान से मजदूर हो गया। उसका छोटा भाई मंगल उससे अलग हो गया था। एक साथ रहकर दोनों किसान थे, अलग होकर मजदूर हो गये थे। शंकर ने चाहा कि दुश्मनी की आग भड़कने न पाये, लेकिन हालात ने उसे मजबूर कर दिया।

जिस दिन अलग-अलग चूल्हे जले, वह फूट-फूटकर रोया। आज से भाई-भाई दुश्मन हो जायँगे, एक रोयेगा, दूसरा हँसेगा, एक के घर मातम होगा तो दूसरे के घर गुलगुले पकेंगे, प्यार का बंधन, खून का बंधन, दूध का बंधन आज टूटा जाता है। उसने भगीरथ की मेहनत से घर की इज्जत का पेड़ लगाया था, उसे अपने खून से सींचा था, उसको जड़ से उखड़ता देखकर उसके दिल के टुकड़े हुए जाते थे।

सात दिनों तक उसने खाने की सूरत तक न देखी। दिन-भर जेठ की धूप में काम करता और रात को मुँह लपेटकर सोया रहता। इस गहरे दुख और बड़ी तकलीफ ने खून को जला दिया, मांस और हड्डी को घुला दिया। बीमार पड़ा तो महीनों खाट से न उठा। अब गुजर-बसर कैसे हो?

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पाँच बीघे के आधे रह गये, एक बैल रह गया, खेती क्या खाक होती! आखिर में यहाँ तक नौबत पहुँची कि खेती सिर्फ इज्जत बचाने का बहाना बस रह गयी, जीविका का भार मजदूरी पर आ पड़ा। सात साल बीत गये, एक दिन शंकर मजदूरी करके लौटा, तो राह में पाँडेजी ने टोककर कहा- “शंकर, कल आकर के अपने बीज-बेंग का हिसाब कर ले। तेरे यहाँ साढ़े पाँच मन गेहूँ कबके बाकी पड़े हुए हैं और तू देने का नाम नहीं लेता, हजम करने का मन है क्या?”

शंकर ने चौंक कर कहा- “मैंने तुमसे कब गेहूँ लिए थे जो साढ़े पाँच मन हो गये? तुम भूलते हो, मेरे यहाँ किसी का छटाँक-भर न अनाज है, न एक पैसा उधार।”

पाँडे- “इसी नीयत का तो यह फल भोग रहे हो कि खाने को नहीं जुड़ता।”

यह कहकर पाँडेजी ने उस सवा सेर गेहूँ का जिक्र किया, जो आज के सात साल पहले शंकर को दिये थे। शंकर सुनकर चौंक गया। भगवान मैंने इन्हें कितनी बार खलिहानी दी, इन्होंने मेरा कौन-सा काम किया? जब पोथी-पत्र देखने, साइत-सगुन विचारने दरवाजे पर आते थे, कुछ-न-कुछ 'दक्षिणा' ले ही जाते थे। इतना स्वार्थ! सवा सेर अनाज को अंडे की तरह सेकर आज यह पिशाच खड़ा कर दिया, जो मुझे निगल जायगा। इतने दिनों में एक बार भी कह देते तो मैं गेहूँ तौलकर दे देता, क्या इसी नीयत से चुप्पी लगाए बैठे रहे? बोला- “महाराज, नाम लेकर तो मैंने उतना अनाज नहीं दिया, पर कई बार खलिहानों में सेर-सेर, दो-दो सेर दिया है। अब आप आज साढ़े पाँच मन माँगते हैं, मैं कहाँ से दूँगा?”

पाँडे- “लेखा जौ-जौ, बखसीस सौ-सौ, तुमने जो कुछ दिया होगा, उसका कोई हिसाब नहीं, चाहे एक की जगह चार पसेरी दे दो। तुम्हारे नाम बही में साढ़े पाँच मन लिखा हुआ है; जिससे चाहे हिसाब लगवा लो। दे दो तो तुम्हारा नाम काट दूँ, नहीं तो और भी बढ़ता रहेगा।”

शंकर- “पाँडे, क्यों एक गरीब को सताते हो, मेरे खाने का ठिकाना नहीं, इतना गेहूँ किसके घर से लाऊँगा?”

पाँडे- “ज़िसके घर से चाहे लाओ, मैं छटाँक-भर भी न छोडूँगा, यहाँ न दोगे, भगवान् के घर तो दोगे।”

शंकर काँप उठा। हम पढ़े-लिखे आदमी होते तो कह देते, 'अच्छी बात है, भगवान के घर ही दे देंगे; वहाँ की तौल यहाँ से कुछ बड़ी तो न होगी। कम-से-कम इसका कोई सबूत हमारे पास नहीं, फिर उसकी क्या चिन्ता।'

लेकिन शंकर इतना तर्क समझने वाला, इतना व्यवहार में चालाक न था। एक तो उधार वह भी ब्राह्मण का बही में नाम रह गया तो सीधे नरक में जाऊँगा, इस ख्याल ही से उसे आश्चर्य हो गया। बोला- “महाराज, तुम्हारा जितना होगा यहीं दूँगा, भगवान के यहाँ क्यों दूँ, इस जन्म में तो ठोकर खा ही रहा हूँ, उस जन्म के लिए क्यों काँटे बोऊँ? मगर यह कोई नियाव नहीं है। तुमने राई का पहाड़ बना दिया, ब्राह्मण हो के तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था। उसी घड़ी तगादा करके ले लिया होता, तो आज मेरे सिर पर इतना बड़ा बोझ क्यों पड़ता। मैं तो दे दूँगा, लेकिन तुम्हें भगवान के यहाँ जवाब देना पड़ेगा।”

पाँडे- “वहाँ का डर तुम्हें होगा, मुझे क्यों होने लगा। वहाँ तो सब अपने ही भाई-बन्धु हैं। ऋषि-मुनि, सब तो ब्राह्मण ही हैं; देवता ब्राह्मण हैं, जो कुछ बने-बिगड़ेगी, सँभाल लेंगे। तो कब देते हो?”

शंकर- “मेरे पास रक्खा तो है नहीं, किसी से माँग कर लाऊँगा तभी न दूँगा!”

पाँडे- “मैं यह न मानूँगा। सात साल हो गये, अब एक दिन की भी मुहलत न दुँगा। गेहूँ नहीं दे सकते, तो कागजात लिख दो।”

शंकर- “मुझे तो देना है, चाहे गेहूँ लो चाहे कागजात लिखाओ; किस हिसाब से दाम रक्खोगे?”

पाँडे- “बाजार-भाव पाँच सेर का है, तुम्हें सवा पाँच सेर का काट दूँगा।”

शंकर- “ज़ब दे ही रहा हूँ तो बाजार-भाव काटूँगा, पाव-भर छुड़ाकर क्यों दोषी बनूँ।”

हिसाब लगाया तो गेहूँ के दाम 60 रुपये हुए। 60 रुपये का दस्तावेज लिखा गया, 3 रुपये सैकड़े सूद। साल-भर में न देने पर सूद की दर ढाई रुपये सैकड़े। आठ आने का स्टाम्प, चार आने दस्तावेज की लिखाई के पैसे शंकर को ऊपर से देने पड़े।

गाँव भर ने पाँडेजी की बुराई की, लेकिन मुँह पर नहीं। महाजन से सभी का काम पड़ता है, उसके मुँह कौन आये। शंकर ने साल भर तक कड़ी मेहनत की। समय के पहले रुपये अदा करने की उसने कसम खा ली। दोपहर को पहले भी चूल्हा न जलता था, चबैने पर बसर होती थी, अब वह भी बंद हुआ। सिर्फ लड़के के लिए रात को रोटियाँ रख दी जातीं! पैसे रोज का तंबाकू पी जाता था, यही एक व्यसन था जिसका वह कभी न त्याग कर सका था।

अब वह व्यसन भी इस कसम के कारण छुट गया। उसने चिलम पटक दी, हुक्का तोड़ दिया और तमाखू की हाँड़ी चूर-चूर कर डाली। कपड़े पहले भी छोड़ने की चरम सीमा तक पहुँच चुके थे, अब वह कम से कम जितना पहनना चाहिए उस पर पहुंच गये। ठंड की हड्डी जमा देने वाली ठंडी को उसने आग तापकर काट दिया। इस कसम का फल उम्मीद से बढ़कर निकला। साल के होते होते उसके पास 60 रु. जमा हो गये। उसने समझा पाँडेजी को इतने रुपये दे दूँगा और कहूँगा महाराज, बाकी रुपये भी जल्द ही आपके सामने हाजिर करूँगा। 15 रु. की तो और बात है, क्या पाँडेजी इतना भी न मानेंगे! उसने रुपये लिये और ले जाकर पाँडेजी के चरण-कमलों पर अर्पण कर दिये।

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