(Hindi) Daroga Jii

(Hindi) Daroga Jii

कल शाम को एक जरूरत से तांगे पर बैठा हुआ जा रहा था कि रास्ते में एक और महाशय तांगे पर आ बैठे। तांगेवाला उन्हें बैठाना तो न चाहता था, पर इनकार भी न कर सकता था। पुलिस के आदमी से झगड़ा कौन मोल ले। यह साहब किसी थाने के दारोगा थे। एक मुकदमे की पैरवी करने सदर आये थे!

मेरी आदत है कि पुलिसवालों से बहुत कम बोलता हूँ। सच पूछिए, तो मुझे उनकी सूरत से नफरत है। उनके हाथों जनता को कितनी तकलीफें उठानी पड़ती हैं, इसका अनुभव इस जीवन में कई बार कर चुका हूँ। मैं जरा एक तरफ खिसक गया और मुँह फेरकर दूसरी ओर देखने लगा कि दारोगाजी बोले- “ज़नाब, यह आम शिकायत है कि पुलिस वाले बहुत रिश्वत लेते हैं;

लेकिन यह कोई नहीं देखता कि पुलिस वाले रिश्वत लेने के लिए कितने मजबूर किये जाते हैं। अगर पुलिस वाले रिश्वत लेना बन्द कर दें तो मैं कसम से कहता हूँ, ये जो बड़े-बड़े ऊँची पगड़ियोंवाले अमीर नजर आते हैं, सब-के-सब जेलखाने के अन्दर बैठे दिखाई दें। अगर हर एक मामले का चालान करने लगें, तो दुनिया पुलिसवालों को और भी बदनाम करे।

आपको यकीन न आयेगा जनाब, रुपये की थैलियाँ गले लगाई जाती हैं। हम हजार इनकार करें, पर चारों तरफ से ऐसे दबाव पड़ते हैं कि मजबूर होकर लेना ही पड़ता है।”

मैंने मजाक से कहा- “ज़ो काम रुपये लेकर किया जाता है, वही काम बिना रुपये लिये भी तो किया जा सकता है।”

दारोगाजी हँसकर बोले- “वह तो गुनाह बेकार होगा, भगवान। पुलिस का आदमी इतना कट्टर भगवान नहीं होता, और मेरा ख्याल है कि शायद कोई इंसान भी इतना सच्चा नहीं हो सकता। और सींगों के लोगों को भी देखता हूँ, मुझे तो कोई सही न मिला …”

मैं अभी इसका कुछ जवाब दे ही रहा था कि एक मियाँ साहब लम्बा कुर्ता पहने, तुर्की टोपी लगाये, तांगे के सामने से निकले। दारोगाजी ने उन्हें देखते ही झुककर सलाम किया और शायद हालचाल पूछना चाहते थे कि उस भले आदमी ने सलाम का जवाब गालियों से देना शुरू किया।

जब तांगा कई कदम आगे निकल आया, तो वह एक पत्थर लेकर तांगे के पीछे दौड़ा। तांगे वाले ने घोड़े को तेज किया। उस भले आदमी ने भी कदम तेज किये और पत्थर फेंका। मेरा सिर बाल-बाल बच गया। उसने दूसरा पत्थर उठाया, वह हमारे सामने आकर गिरा।

तीसरा पत्थर इतनी जोर से आया कि दारोगाजी के घुटने में बड़ी चोट आयी; पर इतनी देर में तांगा इतनी दूर निकल आया था कि हम पत्थरों की मार से दूर हो गये थे। हाँ, गालियों की मार अभी तक जारी थी। जब तक वह आदमी आँखों के सामने से गायब न हो गया, हम उसे एक हाथ में पत्थर उठाये, गालियाँ बकते हुए देखते रहे।

जब जरा मन शान्त हुआ, मैंने दारोगाजी से पूछा- “यह कौन आदमी है, साहब? कोई पागल तो नहीं है?”

दारोगाजी ने घुटने को सहलाते हुए कहा- “पागल नहीं है साहब, मेरा पुराना दुश्मन है। मैंने समझा था, जालिम पिछली बातें भूल गया होगा। वरना मुझे क्या पड़ी थी कि सलाम करने जाता।”

मैंने पूछा- “आपने इसे किसी मुकदमे में सजा दिलाई होगी?”

“बड़ी लम्बी कहानी है जनाब! बस इतना ही समझ लीजिए कि इसका बस चले, तो मुझे जिन्दा ही निगल जाय।”

“आप तो शोक की आग को और भड़का रहे हैं। अब तो वह कहानी सुने बगैर शांति न होगी।

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दारोगाजी ने जगह बदलकर कहा- “अच्छी बात है, सुनिए। कई साल हुए, मैं सदर में ही तैनात था। बेफिक्री के दिन थे, ताजा खून, एक औरत से आँख लड़ गई। मिलना जुलना शुरू हुआ। अब भी जब उस हसीना की याद आती है, तो आँखों से आँसू निकल आते हैं। बाजारू औरतों में इतनी शर्म, इतनी वफा, इतनी अच्छाई मैंने नहीं देखी। दो साल उसके साथ इतने लुत्फ से गुजरे कि आज भी उसकी याद करके रोता हूँ।

मगर किस्से को बढ़ाऊँगा नहीं, वरना अधूरा ही रह जायगा। कुल मिला कर यह कि दो साल के बाद मेरे ट्रांसफर का हुक्म आ गया। उस समय दिल को जितना सदमा पहुँचा, उसके बारे में बताने के लिए दफ्तर चाहिए। बस, यही जी चाहता था कि इस्तीफा दे दूँ। उस हसीना ने यह खबर सुनी, तो उसकी जान-सी निकल गई। सफर की तैयारी के लिए मुझे दो तीन दिन मिले थे। ये तीन दिन हमने इरादे बाँधने में काटे।

उस समय मुझे अनुभव हुआ कि औरतों को अक्ल से खाली समझने में हमने कितनी बड़ी गलती की है। मेरे मंसूबे शेखचिल्ली के-से होते थे। कलकत्ते भाग चलें, वहाँ कोई दूकान खोल दें, या इसी तरह कोई दूसरी तरकीब करता। लेकिन वह यही जवाब देती कि अभी वहाँ जाकर अपना काम करो। जब मकान का बन्दोबस्त हो जाय, तो मुझे बुला लेना। मैं दौड़ी चली आऊँगी। आखिर जुदाई की घड़ी आई।

मुझे मालूम होता था कि अब जान न बचेगी। गाड़ी का समय निकला जाता था और मैं उसके पास से उठने का नाम न लेता था। मगर मैं फिर किस्से को तूल देने लगा। खुलासा यह कि मैं उसे दो-तीन दिन में बुलाने का वादा करके विदा हुआ। पर अफसोस! वे दो-तीन दिन कभी न आये।

पहले दस-पाँच दिन तो अफसरों से मिलने और इलाके की देखभाल में गुजरे। इसके बाद घर से खत आ गया कि तुम्हारी शादी तय हो गई; छुट्टी लेकर चले आओ। शादी की खुशी में उस वफा की देवी की मुझे फिक्र न रही। शादी करके महीने-भर बाद लौटा, तो बीवी साथ थी। रही-सही याद भी जाती रही। उसने एक महीने के बाद एक खत भेजा; पर मैंने उसका जवाब न दिया। डरता रहता था कि कहीं एक दिन वह आकर सिर पर सवार न हो जाय; फिर बीवी को मुँह दिखाने लायक भी न रह जाऊँ।

साल भर के बाद मुझे एक काम से सदर आना पड़ा। उस समय मुझे उस औरत की याद आई; सोचा, जरा चलकर देखना चाहिए, किस हालत में है। फौरन अपने खत न भेजने और इतने दिनों तक न आने का जवाब सोच लिया और उसके दरवाजे पर जा पहुँचा। दरवाजा साफ-सुथरा था, मकान की हालत भी पहले से अच्छी थी।

दिल की खुशी हुई कि इसकी हालत उतनी खराब नहीं है, जितनी मैंने समझी थी। और, क्यों खराब होने लगी। मुझ जैसे दुनिया में क्या और आदमी नहीं हैं। मैंने दरवाजा खटखटाया। अंदर से वह बंद था। आवाज आई- “क़ौन है?”

मैंने कहा- “वाह! इतनी जल्द भूल गईं, मैं हूँ, बशीर …”
कोई जवाब न मिला, आवाज उसी की थी, इसमें शक नहीं, फिर दरवाजा क्यों नहीं खोलती? जरूर मुझसे नाराज है। मैंने फिर दरवाजा खटखटाये और लगा अपनी मुसीबतों का किस्सा सुनाने।

कोई पन्द्रह मिनट के बाद दरवाजा खुला। हसीना ने मुझे इशारे से अन्दर बुलाया और चट दरवाजा बन्द कर लिया। मैंने कहा- “मैं तुमसे माफी माँगने आया हूँ। यहाँ से जाकर मैं बड़ी मुश्किल में फँस गया। इलाका इतना खराब था कि दम लेने का समय नहीं मिलता।”

हसीना ने मेरी तरफ न देखकर जमीन की तरफ ताकते हुए कहा- “माफी किस बात की? तुमसे मेरी शादी तो हुई न थी। दिल कहीं और लग गया, तो मेरी याद क्यों आती। मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं। जैसा और लोग करते हैं, वैसा ही तुमने किया। यही क्या कम है कि इतने दिनों के बाद इधर आ तो गये। रहे तो खैरियत से?”

“किसी तरह जिंदा हूँ।”

“शायद जुदाई में घुलते-घुलते यह तोंद निकल आई है। खुदा झूठ न बुलवाये, तब से दुगने हो गये।”

मैंने झेंपते हुए कहा- “यह सारा कफ का झमेला है। भला मोटा मैं क्या होता। उधर का पानी बहुत ही कफ करने वाला है। तुमने तो मेरी याद ही भुला दी।”

उसने अबकी मेरी ओर तेज नजरों से देखा और बोली- “ख़त का जवाब तक न दिया, उलटे मुझी को इल्जाम देते हो। मैं तुम्हें शुरू से बेवफा समझती थी और तुम वैसे ही निकले। बीवी लाये और मुझे खत तक न लिखा?”

मैंने ताज्जुब से पूछा- “तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि मेरी शादी हो गई?”

उसने रुखाई से कहा- “यह पूछकर क्या करोगे? झूठ तो नहीं कहती। बेवफा बहुत देखे, लेकिन तुम तो सबसे बढ़कर निकले। तुम्हारी आवाज सुनकर जी में तो आया कि फटकार दूँ। लेकिन यह सोचकर दरवाजा खोल दिया कि अपने दरवाजे पर किसी को क्यो जलील करूँ।”

मैंने कोट उतारकर खूँटी पर लटका दिया, जूते भी उतार डाले और खाट पर लेटकर बोला- “लैली, देखो, इतनी बेरहमी से न पेश आओ। मैं तो अपनी गलतियों को खुद मानता हूँ और इसीलिए अब तुमसे माफी माँगने आया हूँ। जरा अपने नाजुक हाथों से एक पान तो खिला दो। सच कहना, तुम्हें मेरी याद काहे को आती होगी। कोई और यार मिल गया होगा।

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