(Hindi) Bhagavad Gita(Chapter 6)
अध्याय 6: आत्म संयम योग
कर्मयोग का विषय और योगारूढ़ के लक्षण, काम-संकल्प-त्याग का महत्व
श्लोक 1:
श्री भगवान बोले- “जो मनुष्य कर्मफल पर आश्रित ना होकर निष्काम कर्म करता है, वही संन्यासी और योगी है, केवल अग्नि या कर्मों का त्याग करने वाला संन्यासी नहीं होता. हे अर्जुन! जिसे संन्यास कहा जाता है उसे तू योग जान क्योंकि कोई भी संकल्पों का त्याग किए बिना योगी नहीं बन सकता. योग में भलीभांति स्थित होने वाले, उनके लिए निष्काम कर्म योग ही साधन है और योगारुड़ हो जाने पर जो सर्व संकल्पों का अभाव है, वही हेतु कहा जाता है. जब कोई इंद्रियों के विषयों में या कर्मों में आसक्त नहीं होता तब सर्व संकल्पों का संयासी मनुष्य योगारुड ( योगयुक्त )कहा जाता है.”
अर्थ: भगवान् यहाँ साफ़-साफ़ बता रहे हैं कि जो भी मनुष्य निष्काम भाव से कर्म करता है यानी ऐसे कर्म जिसमें ना अहंकार हो, ना कर्ता का भाव और ना फल पाने की कामना, वो सभी मनुष्य संयासी ही कहलाते हैं. इसलिए सिर्फ़ हवन-तप आदि करना, घरबार छोड़ देना या गेरुए कपड़े पहन लेने से कोई संयासी नहीं बन जाता क्योंकि अगर मन में कुछ पाने की ज़रा सी भी इच्छा बाकी हो तो वो संन्यास है ही नहीं.
संकल्प का मतलब है जिस इच्छा को मनुष्य हर हाल में पूरा करना चाहता है, कैसे भी पाना चाहता है, वो इच्छा संकल्प में बदल जाती है. जब इच्छा गहरे में बैठ जाए तो उसे संकल्प कहते हैं. संकल्प का इतना गहरा असर होता है कि जब तक वो पूरा ना हो जाए मनुष्य को चैन नहीं आता. अक्सर ये संकल्प ज़िद और अहंकार के रूप में मनुष्य के चित्त में इम्प्रैशन बनकर बैठ जाते हैं. इसमें मनुष्य कुछ करने की ठान लेता है और उससे फल पाने की उम्मीद भी करता है. कोई भी मनुष्य तब तक योगी नहीं बन सकता जब तक उसे कुछ पाने की चाहत रहती है. जब मन में फल पाने का विचार छूट जाता है तो मन स्थिर हो जाता है, नहीं तो फल की इच्छा हमेशा मानसिक अशांति का कारण बनती है. इसलिए संकल्प का त्याग करना भी बेहद ज़रूरी है. संकल्प छोड़कर समर्पण करने से ही योगी बना जा सकता है. सांसारिक वस्तुओं की इच्छाओं का त्याग तो आवश्यक है ही लेकिन आलोकीक प्राप्तियों को पाने की इच्छा भी योगी नाही बनने देती क्योंकि भगवान कहते हैं कि आत्म-भाव मे स्थित होने से कुछ मांगना नही पड़ता बिना इच्छा के भगवान सभी शुभकामनाएं पूरी करता है।
जब कर्म सकाम से निष्काम होते चले जाते हैं तो मनुष्य योगी बनने के रास्ते पर आगे बढ़ता चला जाता है. सकाम कर्म मनुष्य को भोग की ओर ले जाते हैं जबकि निष्काम कर्म योग की ओर. इसलिए सुबह से लेकर रात तक सारे कर्म जो रहे हैं उनमें से अगर सकामता का भाव हट जाए तो समझो निष्काम कर्म योग हो गया. यही कारण है कि मनुष्य को कहा गया है ‘बस कर्म करते रहो, फल की चाह मत करो’. इस रास्ते पर चलते-चलते जब मनुष्य योग की गहराई में चला जाता है तो सारे संकल्प अपने आप ही नष्ट होने लगते हैं. योग में इस अवस्था से ऊँची कोई अवस्था नहीं होती.
मनुष्य के मन के अंदर जो होता है उसके कर्म भी वैसे ही होते हैं. योगारूढ़ का मतलब है जो योग की अवस्था में ठहर गया हो. यहाँ भगवान् कह रहे हैं कि जब कोई बाहरी दुनिया में चीज़ों और कर्मों के प्रति लगाव छोड़ देता है तो उसका मतलब है कि उसने अपने मन को वश में कर लिया है. जब मन वश में हो जाता है तो इच्छा जन्म नहीं लेती जिस वजह से वो गहराई में जाकर संकल्प नहीं बनती. इस तरह वो योगी हर संकल्प से मुक्त हो जाता है और अपने आत्म भाव में ठहर जाता है , उसे ही योगारूढ़ कहते हैं.
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आत्म-उद्धार की प्रेरणा और भगवत्प्राप्त पुरुष के लक्षण एवं एकांत साधना का महत्व
श्लोक 2:
श्री भगवान् बोले, “मनुष्य अपने द्वारा अपना उद्धार करे, अपने द्वारा अपना पतन ना होने दे क्योंकि मनुष्य स्वयं अपना मित्र और स्वयं अपना शत्रु है. जिसने अपने मन, इंद्रियों और शरीर को वश में कर लिया है वो ख़ुद अपना मित्र है और जिसने इन्हें नहीं जीता वो ख़ुद अपना दुश्मन. जिसने स्वयं को जीता है वो शांत और परमात्मा में लीन है, वो सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख, मान-अपमान की स्थिति में सम रहता है, उसके ज्ञान में परमात्मा के सिवा कुछ और नहीं होता. ज्ञान और विज्ञान में जिसकी आत्मा तृप्त है, अविचलित है, जिसने इंद्रियों को जीता है और जिसके लिए मिटटी, पत्थर, सोना सब एक समान है वो योगी युक्त है. स्वार्थ रहित सबकी भलाई चाहने वाला, मित्र, वैरी, पक्षपात रहित, सबकी भलाई चाहने वाला, धर्मात्मा और पापियों में भी समान भाव रखने वाला, अत्यंत श्रेष्ठ है. एक योगी को हमेशा अपने मन और शरीर को क़ाबू में रखकर, इच्छाओं और संग्रह की हुई चीज़ों से मुक्त होकर एकांत में बैठकर चित्त को आत्मा में स्थित कर आत्मा में ही लगातार लगाए रखना चाहिए”।
अर्थ: भगवान् कहते हैं कि मनुष्य ख़ुद अपना उद्धार कर सकता है और ख़ुद अपनी बर्बादी का कारण भी बनता है. असल में होता ये है कि मनुष्य का ध्यान बाहरी चीज़ों में उसकी पसंद नापसंद में लगा रहता है जिस वजह से वो अपने असली स्वरुप यानी कि वो शरीर नहीं बल्कि आत्मा है, इससे अनजान रह जाता है. अगर मनुष्य अपने अंदर की दिव्यता को महसूस करना चाहता है तो उसे इन चीज़ों से दूर रहना होगा. अपने असली स्वरुप को जानकर ही वो ख़ुद को सही कर्म करना सिखा पाएगा और एक ऊँचे स्तर पर ले जा पाएगा, नहीं तो इससे अनजान रह जाने पर वो पाप कर्मों में ही फँसा रहेगा और अपना सर्वनाश कर लेगा. इसलिए कोई और नहीं बल्कि मनुष्य ख़ुद अपना दोस्त और दुश्मन होता है. लोभ, मोह, द्वेष ये सभी मनुष्य के दुश्मन हैं, कोई दूसरा मनुष्य नहीं. इसलिए अगर इन्हें अपने मन से ख़त्म कर लिया जाए तो उसका कोई दुश्मन नहीं रह जाएगा.
जिस मनुष्य ने अपने मन को, इंद्रियों को जीत लिया है, जो ख़ुद में संतुष्ट और शांत है यानी जो अपनी आत्मा या consciousness के साथ जुड़ रहा है वो अपना मित्र होता है. जब मनुष्य ख़ुद को जीत लेता है तो वो शांत हो जाता है. अगर शांति चाहिए तो इस चंचल मन को क़ाबू में करना होगा. जब मनुष्य शांत हो जाता है तो उसके मन में दुविधा कम होने लगती है और सही फ़ैसले लेने की शक्ति बढ़ने लगती है. योगी भी वही बन सकता है जो शांत है और परमात्मा में भी वही लीन हो सकता है जिसके मन में कोई हलचल नहीं है.
जो परमात्मा में लीन हो जाता है वो पूरी तरह से शांति अनुभव करता है इसलिए सुख दुःख की कोई भी परिस्थिति उसे हिला नहीं सकती क्योंकि जब मनुष्य अपने आत्म भाव में ठहर जाता है तो बाहर की कोई स्थिति या हलचल उसे बेचैन नहीं कर पाती. इसका मतलब ये नहीं है कि उसका कोई रिएक्शन नहीं होगा बल्कि मतलब ये है कि वो कोई ना कोई रास्ता निकालकर उस स्थिति को मैनेज कर लेगा लेकिन परेशान नहीं होगा. इसे ही समान रहना कहते हैं.
योग मनुष्य को हर स्तर पर शांत करती चली जाती है जैसे सर्दी-गर्मी शरीर को महसूस होते हैं, सुख-दुःख मन को महसूस होते हैं और मान-अपमान अहंकार के स्तर पर होता है, इस तरह एक योगी हर स्तर पर शांत हो जाता है क्योंकि उसकी एनर्जी बैलेंस हो जाती है.
यहाँ ज्ञान का मतलब है अपने असली स्वरुप यानी आत्मा को जानना और उसे अनुभव कर उसमें टिके रहना. ऐसा ज्ञान योग द्वारा हासिल किया जाता है. योग करने से मनुष्य अपने आत्म भाव में टिक जाता है तब उसका अहंकार प्रेम में बदल जाता है, बुद्धि सम हो जाती है और माइंड स्टेबल हो जाता है. यहाँ एक और बात कही गई है कि आत्मा के ज्ञान के साथ-साथ बाहर का भी ज्ञान होता है, उसे विज्ञान कहते हैं. विज्ञान का मतलब है अपने अनुभव से बाहर किसी चीज़ को जानना या परखना. जो मनुष्य आत्म ज्ञान से इस बात को जान लेता है कि बाहर की हर चीज़ समय के साथ बदल जाती है, नई चीज़ें आती हैं और पुरानी नष्ट हो जाती हैं तो उसमें कुछ और जानने या खोजने की इच्छा बाकी नहीं रहती, इस तरह वो बाहर के विज्ञान में भी सम हो जाता है.
जब तक मनुष्य के मन में बाहर कुछ जानने की इच्छा होगी तो उसके मन में हलचल भी होगी जो उसके अंदर शांति नहीं आने देगी क्योंकि बाहर की ये खोज कभी ख़त्म नहीं होती. इसलिए कहा गया है कि मनुष्य को अंदर और बाहर दोनों में तृप्त होना है. तृप्ति मनुष्य में ठहराव लाती है जिससे वो बेचैन नहीं होता. जब मनुष्य में सम भाव आ जाता है तो वो अलग-अलग चीज़ों को उनकी कीमत के हिसाब से महत्त्व देना बंद कर देता है. फ़िर उसके लिए मिटटी, पत्थर, सोना सब एक मोल के हो जाते हैं. वो जान जाता है कि सब कुछ तो प्रकृति से ही बना है, प्रकृति से आया है तो एक दिन में फ़िर प्रकृति में ही मिल जाएगा, तो वो उसे सम भाव से देखने लगता है. समभाव की भावना चीज़ों के प्रति मनुष्य के आकर्षण और लगाव को ख़त्म करने में मदद करती है. ये लगाव और मोह ही हर फ़साद की जड़ है इसलिए मन में समभाव लाना बहुत ज़रूरी है.
इस श्लोक में श्रेष्ठ मनुष्य उसे कहा गया है जो दोस्त-दुश्मन, धर्मात्मा-पापी सब को सम भाव से देखता है. वो अनेकता में भी उस एक आत्म तत्व को ही देखता है. सम भाव आने से बाहर राग-द्वेष पैदा नहीं होता और इसलिए मन में कोई हलचल पैदा नहीं होती.
इस श्लोक में एकांत का मतलब है दुनिया की हर हलचल आसपास होते हुए भी जब मनुष्य आत्म भाव में टिककर एक परमात्मा के अंत में खो जाये तो उसे एकांत कहते हैं. इसका मतलब ये नहीं है कि मनुष्य को किसी जंगल में या घर के किसी कोने में अकेले बैठ जाना चाहिए बल्कि शोर शराबे के बीच रहते हुए भी जब मनुष्य किसी और को नहीं ढूँढता बल्कि ख़ुद में तृप्त और ख़ुश रहता है तो उसे ही एकांत में रहना कहते हैं. ऐसा मनुष्य अकेला होकर भी अकेला नहीं होता. एकांत का मतलब है अपने अंदर जुड़ने की स्थिति,एक परमात्मा से जुडने की स्थति इसमें मनुष्य body conscious नहीं रहता बल्कि soul conscious हो जाता है. एकांत अर्थात एक के अंत में समा जाना।