(Hindi) Ishwariya Nyaay
कानपुर जिले में पंडित भृगुदत्त नामक एक बड़े जमींदार थे। मुंशी सत्यनारायण उनके कर्मचारी थे। वह बड़े वफादार और अच्छे स्वभाव के इंसान थे। लाखों रुपये की तहसील और हजारों मन अनाज का लेन-देन उनके हाथ में था; पर कभी उनकी नीयत न बिगड़ती। उनके अच्छे इंतजाम से रियासत दिनोंदिन उन्नति करती जाती थी। ऐसे फर्ज निभाने वाले सेवक का जितना सम्मान होना चाहिए, उससे ज्यादा ही होता था। दुख-सुख के हर मौके पर पंडित जी उनके साथ बड़ी दयालुता से पेश आते।
धीरे-धीरे मुंशी जी का भरोसा इतना बढ़ा कि पंडित जी ने हिसाब-किताब को समझना भी छोड़ दिया। मुमकिन है, उनसे पूरा जीवन इसी तरह निभ जाती, पर होनी ताकतवर है। प्रयाग में कुम्भ लगा, तो पंडित जी भी नहाने गये। वहाँ से लौटकर फिर वे घर न आये। मालूम नहीं, किसी गड्ढे में फिसल पड़े या कोई जानवर उन्हें खींच ले गया, उनका फिर कुछ पता ही न चला। अब मुंशी सत्यनाराण के अधिकार और भी बढ़े। एक बदकिस्मत विधवा और दो छोटे-छोटे बच्चों के सिवा पंडित जी के घर में और कोई न था।
अंतिम संस्कार से निपट कर एक दिन दुखी पंडिताइन ने उन्हें बुलाया और रोकर कहा- “लाला, पंडित जी हमें मँझधार में छोड़कर स्वर्ग चले गये, अब यह नाव तुम्ही पार लगाओगे तो लग सकती है। यह सब खेती तुम्हारी लगायी हुई है, इसे तुम्हारे ही ऊपर छोड़ती हूँ। ये तुम्हारे बच्चे हैं, इन्हें अपनाओ। जब तक मालिक जिये, तुम्हें अपना भाई समझते रहे। मुझे भरोसा है कि तुम उसी तरह इस भार को सँभाले रहोगे।”
सत्यनाराण ने रोते हुए जवाब दिया- “भाभी, भैया क्या उठ गये, मेरी तो किस्मत ही फूट गई, नहीं तो मुझे आदमी बना देते। मैं उन्हीं का नमक खाकर जिया हूँ और उन्हीं की चाकरी में मरुँगा भी। आप धीरज रखें। किसी तरह की चिंता न करें। मैं जीते-जी आपकी सेवा से मुँह न मोडूँगा। आप सिर्फ इतना कीजिएगा कि मैं जिस किसी की शिकायत करुँ, उसे डाँट दीजिएगा; नहीं तो ये लोग सिर चढ़ जाएँगे।”
इस घटना के बाद कई सालो तक मुंशीजी ने रियासत को सँभाला। वह अपने काम में बड़े अच्छे थे। कभी एक पैसे की भी गड़बड़ नहीं हुई। सारे जिले में उनका सम्मान होने लगा। लोग पंडित जी को भूल- सा गये। दरबारों और कमेटियों में वे शामिल होते, जिले के अधिकारी उन्हीं को जमींदार समझते। दूसरे अमीरों में उनका आदर था; पर इज्जत बढ़ने की महँगी चीज है। और भानुकुँवरि, दूसरी औरतों की तरह पैसे को खूब पकड़ती। वह इंसान की मन के भावों से परिचित न थी।
पंडित जी हमेशा लाला जी को इनाम देते रहते थे। वे जानते थे कि ज्ञान के बाद, नीयत का दूसरा आधार अपनी अच्छी हालत है। इसके सिवा वे खुद भी कभी कागजों की जाँच कर लिया करते थे। नाम के लिए ही सही, पर इस निगरानी का डर जरुर बना रहता था; क्योंकि नीयत का सबसे बड़ा दुश्मन मौका है। भानुकुँवरि इन बातों को जानती न थी। इसलिए मौके और पैसे की कमी-जैसे ताकतवर दुश्मनों के पंजे में पड़ कर मुंशीजी की नीयत कैसे न बिगड़ती?
कानपुर शहर से मिला हुआ, ठीक गंगा के किनारे, एक बहुत आजाद और उपजाऊ गाँव था। पंडित जी इस गाँव को लेकर नदी-किनारे पक्का घाट, मंदिर, बाग, मकान आदि बनवाना चाहते थे; पर उनकी यह इच्छा पूरी न हो सकी। इत्तेफाक से अब यह गाँव बिकने लगा। उनके जमींदार एक ठाकुर साहब थे। किसी फौजदारी के मामले में फँसे हुए थे। मुकदमा लड़ने के लिए रुपये की चाह थी। मुंशीजी ने कचहरी में यह समाचार सुना। चटपट मोल-तोल हुआ। दोनों तरफ गरज थी।
सौदा पटने में देर न लगी, बैनामा(अग्रीमेंट) लिखा गया। रजिस्ट्री हुई। रुपये मौजूद न थे, पर शहर में साख थी। एक महाजन के यहाँ से तीस हजार रुपये मँगवाये गये और ठाकुर साहब को नजर किये गये। हाँ, काम-काज की आसानी के ख्याल से यह सब लिखा-पढ़ी मुंशीजी ने अपने ही नाम की; क्योंकि मालिक के लड़के अभी नाबालिग थे। उनके नाम से लेने में बहुत झंझट होती और देर होने से शिकार हाथ से निकल जाता। मुंशीजी बैनामा लिये बहुत खुश हो कर भानुकुँवरि के पास आये। पर्दा कराया और यह अच्छी खबर सुनाई। भानुकुँवरि ने भरी आँखों से उनको धन्यवाद दिया। पंडित जी के नाम पर मन्दिर और घाट बनवाने का इरादा पक्का हो गया।
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मुँशी जी दूसरे ही दिन उस गाँव में आये। आसामी नजराने लेकर नये मालिक के स्वागत को हाजिर हुए। शहर के अमीरों की दावत हुई। लोगों ने नावों पर बैठ कर गंगा की खूब सैर की। मन्दिर आदि बनवाने के लिए आबादी से हट कर सुंदर जगह चुनी गई।
हालांकि इस गाँव को अपने नाम लेते समय मुंशी जी के मन में गलत का भाव न था, फिर भी दो-चार दिन में ही उनका बीज पड़ गया और धीरे-धीरे बढ़ने लगा। मुंशी जी इस गाँव के लेनदेन का हिसाब अलग रखते और अपने मालकिन को उसका ब्योरा(डिटेल्स) समझाने की जरुरत न समझते। भानुकुँवरि इन बातों में दखल देना सही न समझती थी; पर दूसरे कर्मचारियों से बातें सुन-सुन कर उसे शक होता था कि कहीं मुंशी जी धोखा तो न देंगे। अपने मन का भाव मुंशी से छिपाती थी, इस ख्याल से कि कहीं कर्मचारियों ने उन्हें नुकसान पहुँचाने के लिए यह चाल न चली हो।
इस तरह कई साल गुजर गये। अब उस लालच के बीज ने पेड़ का रुप ले लिया। भानुकुँवरि को मुंशी जी के उस रास्ते के लक्षण दिखायी देने लगे। उधर मुंशी जी के मन ने कानून से नीति पर जीत पायी, उन्होंने अपने मन में फैसला किया कि गाँव मेरा है। हाँ, मैं भानुकुँवरि का तीस हजार का उधारी जरूर हूँ। वे बहुत करेंगी तो अपने रुपये ले लेंगी और क्या कर सकती हैं? मगर दोनों तरफ यह आग अन्दर ही अन्दर सुलगती रही। मुंशी जी बचाव का सामान लेकर हमले के इंतजार में थे और भानुकुँवरि इसके लिए मौका ढूँढ़ रही थी। एक दिन उसने हिम्मत करके मुंशी जी को अन्दर बुलाया और कहा- “लाला जी ‘बरगदा’ के मन्दिर का काम कब से लगवाइएगा? उसे लिये आठ साल हो गये, अब काम लग जाए तो अच्छा हो। जिंदगी का कौन ठिकाना है, जो काम करना है; उसे कर ही डालना चाहिए।”
इस ढंग से इस बात को उठा कर भानुकुँवरि ने अपनी होशियारी का अच्छा परिचय दिया। मुंशी जी भी दिल में इसके कायल हो गये। जरा सोच कर बोले- “इरादा तो मेरा कई बार हुआ, पर मौके की जमीन नहीं मिलती। गंगातट की जमीन असामियों के जोत में है और वे किसी तरह छोड़ने पर राजी नहीं।”
भानुकुँवरि- “यह बात तो आज मुझे मालूम हुई। आठ साल हुए, इस गाँव के बारे में आपने कभी भूल कर भी दी तो बात नहीं की। मालूम नहीं, कितनी तहसील है, क्या मुनाफा है, कैसा गाँव है, कुछ कमाई होती है या नहीं। जो कुछ करते हैं, आप ही करते हैं और करेंगे। पर मुझे भी तो मालूम होना चाहिए?”
मुंशी जी सँभल उठे। उन्हें मालूम हो गया कि इस चालाक औरत से बाजी ले जाना मुश्किल है। गाँव लेना ही है तो अब क्या डर। खुल कर बोले- “आपको इससे कोई मतलब न था, इसलिए मैंने बेकार तकलीफ देना सही न समझा।”
भानुकुँवरि के दिल में कटार सी लगी। पर्दे से निकल आयी और मुंशी जी की तरफ तेज आँखों से देख कर बोली- “आप क्या कहते हैं! आपने गाँव मेरे लिये लिया था या अपने लिए! रुपये मैंने दिये या आपने? उस पर जो खर्च पड़ा, वह मेरा था या आपका? मेरी समझ में नहीं आता कि आप कैसी बातें करते हैं।”
मुंशी जी ने सावधानी से जवाब दिया- “यह तो आप जानती हैं कि गाँव हमारे नाम से बसा हुआ है। रुपया जरुर आपका लगा, पर मैं उसका देनदार हूँ। रहा तहसील-वसूल करने का खर्च, यह सब मैंने अपने पास से दिया है। उसका हिसाब-किताब, लेनदेन सब रखता आया हूँ।”
भानुकुँवरि ने गुस्से से काँपते हुए कहा- “इस धोखे का फल आपको जरूर मिलेगा। आप इस बेरहमी से मेरे बच्चों का गला नहीं काट सकते। मुझे नहीं मालूम था कि आपने दिल में छुरी छिपा रखी है, नहीं तो यह नौबत ही क्यों आती। खैर, अब से मेरी हिसाब और बही खाता आप कुछ न छुऍं। मेरा जो कुछ होगा, ले लूँगी। जाइए, अकेले में बैठ कर सोचिए। पाप से किसी का भला नहीं होता। तुम समझते होगे कि बच्चे अनाथ हैं, इनकी दौलत हजम कर लूँगा। इस भूल में न रहना, मैं तुम्हारे घर की ईट तक बिकवा लूँगी।”
यह कहकर भानुकुँवरि फिर पर्दे के पीछे आ बैठी और रोने लगी। औरतें गुस्से के बाद किसी न किसी बहाने रोया करती हैं। लाला साहब को कोई जवाब न सूझा। यहाँ से उठ आये और दफ्तर जाकर कागज उलट-पलट करने लगे, पर भानुकुँवरि भी उनके पीछे-पीछे दफ्तर में पहुँची और डाँट कर बोली- “मेरा कोई कागज मत छूना। नहीं तो बुरा होगा। तुम जहरीले साँप हो, मैं तुम्हारा मुँह नहीं देखना चाहती।”
मुंशी जी कागजों में कुछ काट-छाँट करना चाहते थे, पर मजबूर हो गये। खजाने की चाबी निकाल कर फेंक दी, बही-खाते पटक दिये, दरवाजे धड़ाके-से बंद किये और हवा की तरह सन्न-से निकल गये। धोखे में हाथ तो डाला, पर धोखे का मन्त्र न जाना।
दूसरें कर्मचारियों ने यह हाल सुना, तो फूले न समाये। मुंशी जी के सामने उनकी दाल न गलने पाती। भानुकुँवरि के पास आकर वे आग पर तेल छिड़कने लगे। सब लोग इस बारे में सहमत थे कि मुंशी सत्यनारायण ने धोखा किया है। मालिक का नमक उनकी हड्डियों से फूट-फूट कर निकलेगा।