(Hindi) Hinsa param Dharm
दुनिया में कुछ ऐसे लोग होते हैं, जो किसी के नौकर न होते हुए सबके नौकर होते हैं, जिन्हें कुछ अपना काम न होने पर भी सिर उठाने की फ़ुर्सत नहीं होती। जामिद इसी तरह के इंसानों में था। बिल्कुल बेफ़िक्र, न किसी से दोस्ती, न किसी से दुश्मनी। जो ज़रा हँसकर बोला, उसका फोकट का गुलाम हो गया। बेकार का काम करने में उसे मज़ा आता था।
गाँव में कोई बीमार पड़े, वह रोगी की देखभाल करने के लिए हाज़िर है। कहिए तो आधी रात हकीम के घर चला जाए, किसी जड़ी-बूटी की तलाश में जंगलों की ख़ाक छान आए। मुमकिन न था कि किसी ग़रीब पर अत्याचार होते देखे और चुप रह जाए। फिर चाहे कोई उसे मार ही डाले, वह तरफदारी करने से बाज न आता था। ऐसे सैकड़ों ही मौके उसके सामने आ चुके थे। कांस्टेबल से आए दिन ही उसकी छेड़-छाड़ होती रहती थी। इसलिए लोग उसे पागल समझते थे। और बात भी यही थी। जो आदमी किसी का बोझ भारी देखकर उससे छीन कर, अपने सिर ले ले, किसी का छप्पर उठाने या आग बुझाने के लिए कोसों दौड़ा चला जाए , उसे समझदार कौन कहेगा।
सौ बात की एक बात यह है कि उसकी जात से दूसरों को चाहे कितना ही फ़ायदा पहुँचे, उसका कोई फायदा न होता था, यहाँ तक कि वह रोटियों तक के लिए भी दूसरों के सहारे था। दीवाना तो वह था और उसका गम दूसरे खाते थे।
आख़िर जब लोगों ने बहुत धिक्कारा- “’क्यों अपना जीवन बर्बाद कर रहे हो, तुम दूसरों के लिए मरते हो, कोई तुम्हारा भी पूछने वाला है? अगर एक दिन बीमार पड़ जाओ, तो कोई चुल्लू भर पानी न दे, जब तक दूसरों की सेवा करते हो, लोग खैरात समझकर खाने को दे देते हैं, जिस दिन आ पड़ेगी, कोई सीधे मुँह बात भी न करेगा, तब जामिद की आँखें खुलीं। बरतन-भांडा कुछ था ही नहीं।
एक दिन उठा और एक तरफ़ की राह ली। दो दिन के बाद शहर में पहुँचा। शहर बहुत बड़ा था। महल आसमान से बातें करने वाले। सड़कें चौड़ी और साफ़, बाज़ार गुलज़ार, मसजिदों और मन्दिरों की संख्या अगर मकानों से ज्यादा न थी, तो कम भी नहीं। देहात में न तो कोई मस्जिद थी, न कोई मन्दिर। मुसलमान लोग एक चबूतरे पर नमाज़ पढ़ लेते थे। हिन्दू एक पेड़ के नीचे पानी चढ़ा दिया करते थे।
नगर में धर्म का यह माहात्म्य देखकर देखकर जामिद को बड़ा आश्चर्य और खुशी हुई। उसकी नजरों में धर्म की जितनी इज्जत थी उतनी और दुनिया की किसी चीज का नहीं। वह सोचने लगा- ‘ये लोग कितने ईमान के पक्के, कितने सच बोलने वाले हैं। इनमें कितनी दया, कितना विवेक , कितनी सहानुभूति होगी, तभी तो भगवान ने इतना इन्हें माना है। वह हर आने-जाने वाले को श्रद्धा की नजरों से देखता और उसके सामने विनय से सिर झुकाता था। यहाँ के सभी लोग उसे भगवान से मालूम होते थे।
घूमते-घूमते शाम हो गई। वह थक कर मंदिर के चबूतरे पर जा बैठा। मंदिर बहुत बड़ा था, ऊपर सुनहला कलश चमक रहा था। जगमोहन पर संगमरमर के चौके जड़े हुए थे, मगर आंगन में जगह-जगह गोबर और कूड़ा पड़ा था। जामिद को गंदगी से चिढ़ थी, मंदिर की यह हालत देखकर उससे न रहा गया, इधर-उधर नजरें दौड़ाई कि कहीं झाड़ू मिल जाए, तो साफ़ कर दे, पर झाड़ू कहीं नजर न आई। मजबूर होकर उसने गमछे से चबूतरे को साफ़ करना शुरू कर दिया।
ज़रा देर में भक्तों का जमाव होने लगा। उन्होंने जामिद को चबूतरा साफ़ करते देखा , तो आपस में बातें करने लगे- ”
– “है तो मुसलमान?”
– “मेहतर होगा।”
– “नहीं, मेहतर अपने दामन से सफ़ाई नहीं करता। कोई पागल मालूम होता है।”
– “उधर का भेदिया(स्पाय) न हो।”
– “नहीं, चेहरे से बड़ा ग़रीब मालूम होता है।”
– “हसन निज़ामी का कोई चेला होगा।”
– “अजी गोबर के लालच से सफ़ाई कर रहा है। (जामिद से) गोबर न ले जाना बे, समझा? कहाँ रहता है?”
– “परदेशी मुसाफ़िर हूँ, साहब, मुझे गोबर लेकर क्या करना है? ठाकुर जी का मन्दिर देखा तो आकर बैठ गया। कूड़ा पड़ा हुआ था। मैने सोचा, धर्मात्मा लोग आते होंगे, सफ़ाई करने लगा।”
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– “तुम तो मुसलमान हो न?”
– “ठाकुर जी तो सबके ठाकुर हैं…क्या हिन्दु, क्या मुसलमान।”
– “तुम ठाकुर जी को मानते हो?”
– “ठाकुर जी को कौन न मानेगा साहब? जिसने पैदा किया, उसे न मानूंगा तो किसे मानूंगा।”
भक्तों में यह सलाह होने लगी–
– “देहाती है।”
– “फाँस लेना चाहिए, जाने न पाए।”
जामिद फाँस लिया गया। उसका आदर-सत्कार होने लगा। एक हवादार मकान रहने को मिला। दोनों समय अच्छा खाना खाने को मिलने लगे। दो चार आदमी हरदम उसे घेरे रहते। जामिद को भजन खूब याद थे। गला भी अच्छा था। वह रोज़ मन्दिर में जाकर कीर्तन करता। भक्ति के साथ आवाज मिठास भी हो, तो फिर क्या पूछना। लोगों पर उसके कीर्तन का बड़ा असर पड़ता। कितने ही लोग संगीत के लालच से ही मंदिर में आने लगे। सबको यकीन हो गया कि भगवान ने यह शिकार चुनकर भेजा है।
एक दिन मंदिर में बहुत-से आदमी जमा हुए। आंगन में फ़र्श बिछाया गया। जामिद का सर मुड़ा दिया गया। नए कपड़े पहनाए। हवन हुआ। जामिद के हाथों से मिठाई बाँटी गई। वह अपने सहारा देने वालों की दयालुता और धर्मनिष्ठा का और भी कायल हो गया। ये लोग कितने अच्छे हैं, मुझ जैसे फटेहाल परदेशी की इतनी खातिर। इसी को सच्चा धर्म कहते हैं। जामिद को जीवन में कभी इतना सम्मान न मिला था। यहाँ वही जामिद जिसे लोग पागल कहते थे, भक्तों का सिरमौर बना हुआ था। सैकड़ों ही आदमी सिर्फ उसे देखने को आते थे।
उसकी बड़े तेज दिमाग की कितनी ही कहानीएँ प्रचिलित(पॉपुलर) हो गईं। अखबारों में यह खबर निकला कि एक बड़े मौलवी साहब की शुद्धि हुई है। सीधा-सादा जामिद इस सम्मान का राज कुछ न समझता था। ऐसे धर्म पालन करने वाले अच्छे दिल के लोगों के लिए वह क्या कुछ न करता? वह रोज पूजा करता, भजन गाता था। उसके लिए यह कोई नई बात न थी। अपने गाँव में भी वह बराबर सत्यनारायण की कहानी में बैठा करता था। भजन कीर्तन किया करता था। अंतर यही था कि देहात में उसकी कदर न थी। यहाँ सब उसके भक्त थे।
एक दिन जामिद कई भक्तों के साथ बैठा हुआ कोई पुराण पढ़ रहा था तो क्या देखता है कि सामने सड़क पर एक ताकतवर युवक, माथे पर तिलक लगाए, जनेऊ पहने, एक बूढ़े, कमजोर इंसान को मार रहा है। बुढ्ढा रोता है, गिड़गिड़ाता है और पैरों पड़-पड़ के कहता है कि महाराज, मेरा कसूर माफ़ करो, लेकिन तिलक वाला युवक को उस पर ज़रा भी दया नहीं आती। जामिद का खून खौल उठा। ऐसे नजारे देखकर वह शांत न बैठ सकता था। तुरंत कूदकर बाहर निकला और युवक के सामने आकर बोला- “बुड्ढे को क्यों मारते हो, भाई? तुम्हें इस पर ज़रा भी दया नहीं आती?”
युवक- “मैं मारते-मारते इसकी हड्डियाँ तोड़ दूंगा।”
जामिद- “आख़िर इसने क्या कसूर किया है? कुछ मालूम भी तो हो।”
युवक- “इसकी मुर्गी हमारे घर में घुस गई थी और सारा घर गंदा कर आई।”
जामिद- “तो क्या इसने मुर्गी को सिखा दिया था कि तुम्हारा घर गंदा कर आए?”
बुड्ढा- “मालिक मैं उसे बराबर खाँचे में ढाँके रहता हूँ। आज लापरवाही हो गई। कहता हूँ, महाराज, कुसूर माफ़ करो, मगर नहीं मानते। हुजूर, मारते-मारते अधमरा कर दिया।”
युवक- “अभी नहीं मारा है, अब मारूंगा, खोद कर गाड़ दूंगा।”
जामिद- “खोद कर गाड़ दोगे, भाई साहब, तो तुम भी यों खड़े न रहोगे। समझ गए? अगर फिर हाथ उठाया, तो अच्छा न होगा।”
ज़वान को अपनी ताकत का नशा था। उसने फिर बुड्ढे को चाँटा लगाया, पर चाँटा पड़ने के पहले ही जामिद ने उसकी गरदन पकड़ ली। दोनों में लड़ाई होने लगी। जामिद तेज जवान था। युवक को पटकनी दी, तो वह चारों खाने चित्त गिर गया। उसका गिरना था कि भक्तों का समुदाय, जो अब तक मंदिर में बैठा तमाशा देख रहा था, लपक पड़ा और जामिद पर चारों तरफ से चोटें पड़ने लगीं। जामिद की समझ में न आता था कि लोग मुझे क्यों मार रहे हैं। कोई कुछ न पूछता। तिलकधारी जवान को कोई कुछ नहीं कहता। बस, जो आता है, मुझ ही पर हाथ साफ़ करता है। आखिर वह बेदम होकर गिर पड़ा। तब लोगों में बातें होने लगीं।
– “धोखा दे गया।”
– “धत् तेरी की! कभी म्लेच्छों से भलाई की उम्मीद न रखनी चाहिए। कौआ कौओं के साथ मिलेगा। कमीना जब करेगा कमीनापन, इसे कोई पूछता न था, मंदिर में झाड़ू लगा रहा था। शरीर पर कपड़े का तार भी न था, हमने इसका सम्मान किया, जिनावर से आदमी बना दिया, फिर भी अपना न हुआ।”
– “इनके धर्म का तो मूल ही यही है।”
जामिद रात भर सड़क के किनारे पड़ा दर्द से कराहता रहा, उसे मार खाने का दुख न था। ऐसी यातनाएँ वह कितनी बार भोग चुका था। उसे दुख और आश्चर्य सिर्फ इस बात का था कि इन लोगों ने क्यों एक दिन मेरा इतना सम्मान किया और क्यों आज बिना कारण ही मेरी इतनी बुरी हालत की? इनकी वह अच्छाई आज कहाँ गई? मैं तो वही हूँ। मैने कोई कसूर भी नहीं किया। मैने तो वही किया, जो ऐसी हालत में सभी को करना चाहिए, फिर इन लोगों ने मुझ पर क्यों इतना अत्याचार किया? भगवान क्यों राक्षस बन गए?