(Hindi) Bahishkaar
पण्डित ज्ञानचंद्र ने गोविंदी की ओर प्यासी आँखों से देख कर कहा- “मुझे ऐसे बेरहम लोगों से जरा भी सहानुभूति नहीं है। इस बर्बरता की भी कोई हद है कि जिसके साथ तीन साल तक जीवन के सुख भोगे, उसे एक जरा-सी बात पर घर से निकाल दिया।”
गोविंदी ने आँखें नीची करके पूछा- “आखिर क्या बात हुई थी?
ज्ञान.- “कुछ भी नहीं। ऐसी बातों में कोई बात होती है? शिकायत है कि कालिंदी जबान की तेज है। तीन साल तक जबान तेज न थी, आज जबान की तेज हो गयी। कुछ नहीं, कोई दूसरी चिड़िया नजर आयी होगी। उसके लिए पिंजरे को खाली करना जरूरी था। बस यह शिकायत निकल आयी। मेरा बस चले, तो ऐसे बदमाशों को गोली मार दूँ। मुझे कई बार कालिंदी से बातचीत करने का मौका मिला है। मैंने ऐसी हँसमुख दूसरी नहीं ही देखी।”
गोविंदी- “तुमने सोमदत्त को समझाया नहीं?”
ज्ञान.- “ऐसे लोग समझाने से नहीं मानते। यह लात का आदमी है, बातों की उसे क्या परवाह? मेरा तो यह ख्याल है कि जिससे एक बार रिश्ता हो गया, फिर चाहे वह अच्छी हो या बुरी, उसके साथ जीवन भर गुजारा करना चाहिए! मैं तो कहता हूँ, अगर पत्नी के कुल में कोई दोष भी निकल आये, तो माफी से काम लेना चाहिए।”
गोविंदी ने कातर आँखों से देखकर कहा- “ऐसे आदमी तो बहुत कम होते।”
ज्ञान.- “समझ ही में नहीं आता कि जिसके साथ इतने दिन हँसे-बोले, जिसके प्यार की यादें दिल के एक-एक कोने में समायी हुई हैं, उसे दर-दर ठोकरें खाने को कैसे छोड़ दिया। कम से कम इतना तो करना चाहिए था कि उसे किसी सुरक्षित जगह पर पहुँचा देते और उसके गुजारा का कोई इंतजाम कर देते। बेरहम ने इस तरह घर से निकाला, जैसे कोई कुत्ते को निकालता है।
बेचारी गाँव के बाहर बैठी रो रही है। कौन कह सकता है, कहाँ जायगी। शायद मायके भी नहीं रहा। सोमदत्त के डर के मारे गाँव का कोई आदमी उसके पास भी नहीं आता। ऐसे सरफ़िरे का क्या ठिकाना! जो आदमी पत्नी का न हुआ, वह दूसरे का क्या होगा। उसकी हालत देख कर मेरी आँखों में तो आँसू भर आये। जी में तो आया, कहूँ, ‘बहन, तुम मेरे घर चलो’। मगर तब तो सोमदत्त मेरी जान का दुश्मन हो जाता।”
गोविंदी- “तुम जरा जा कर एक बार फिर समझाओ। अगर वह किसी तरह न माने, तो कालिंदी को लेते आना।”
ज्ञान.- “जाऊँ?”
गोविंदी- “हाँ, जरूर जाओ; मगर सोमदत्त कुछ खरी-खोटी भी कहे, तो सुन लेना।”
ज्ञानचंद्र ने गोविंदी को गले लगा कर कहा- “तुम्हारे दिल में बड़ी दया है, गोविंदी! लो जाता हूँ, अगर सोमदत्त ने न माना तो कालिंदी ही को लेता आऊँगा। अभी बहुत दूर न गयी होगी।”
तीन साल बीत गये। गोविंदी एक बच्चे की माँ हो गयी। कालिंदी अभी तक इसी घर में है। उसके पति ने दूसरी शादी कर ली है। गोविंदी और कालिंदी में बहनों का-सा प्यार है। गोविंदी हमेशा उसे दिलासा देती रहती है। वह इसकी कल्पना भी नहीं करती कि यह कोई गैर है और मेरी रोटियों पर पड़ी हुई है; लेकिन सोमदत्त को कालिंदी का यहाँ रहना एक आँख नहीं भाता। वह कोई कानूनी कार्रवाई करने की तो हिम्मत नहीं रखता। और इस हालात में कर ही क्या सकता है; लेकिन ज्ञानचंद्र का सिर नीचा करने के लिए मौका खोजता रहता है।
शाम का समय था। गरमी की गरम हवा अभी तक बिलकुल शांत नहीं हुई थी। गोविंदी गंगा-जल भरने गयी थी। और पानी के किनारे की ठंड में अकेलेपन का मजा उठा रही थी। अचानक उसे सोमदत्त आता हुआ दिखायी दिया। गोविंदी ने आँचल से मुँह छिपा लिया और मटका ले कर चलने ही को थी कि सोमदत्त ने सामने आ कर कहा- “जरा ठहरो, गोविंदी, तुमसे एक बात कहना है। तुमसे यह पूछना चाहता हूँ कि तुमसे कहूँ या ज्ञानू से?”
गोविंदी ने धीरे से कहा- “उन्हीं से कह दीजिए।”
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सोम.- “जी तो मेरा भी यही चाहता है; लेकिन तुम्हारी बेचारगी पर दया आती है। जिस दिन मैं ज्ञानचंद से यह बात कह दूँगा, तुम्हें इस घर से निकलना पड़ेगा। मैंने सारी बातों का पता लगा लिया है। तुम्हारा बाप कौन था; तुम्हारी माँ की क्या हालत हुई, यह सारी कहानी जानता हूँ। क्या तुम समझती हो कि ज्ञानचंद्र यह कहानी सुन कर तुम्हें अपने घर में रखेगा? उसके ख्याल कितने ही आजाद हों; पर जीती मक्खी नहीं निगल सकता।”
गोविंदी ने थर-थर काँपते हुए कहा- “जब आप सारी बातें जानते हैं, तो मैं क्या कहूँ? आप जैसा सही समझें करें; लेकिन मैंने तो आपके साथ कभी कोई बुराई नहीं की।”
सोम.- “तुम लोगों ने गाँव में मुझे कहीं मुँह दिखाने के लायक नहीं रखा। उस पर कहती हो, मैंने तुम्हारे साथ कोई बुराई नहीं की! तीन साल से कालिंदी को सहारा दे कर मेरी आत्मा को जो तकलीफ पहुँचाई है, वह मैं ही जानता हूँ। तीन साल से मैं इस फिक्र में था कि कैसे इस बेइज्जती की सजा दूँ। अब वह मौका पा कर उसे किसी तरह नहीं छोड़ सकता।”
गोविंदी- “अगर आपकी यही इच्छा है कि मैं यहाँ न रहूँ, तो मैं चली जाऊँगी, आज ही चली जाऊँगी; लेकिन उनसे आप कुछ न कहिए। आपके पैर पड़ती हूँ।”
सोम.- “कहाँ चली जाओगी?”
गोविंदी- “और कहीं ठिकाना नहीं है, तो गंगा जी तो हैं।”
सोम.- “नहीं गोविंदी, मैं इतना बेरहम नहीं हूँ। मैं सिर्फ इतना चाहता हूँ कि तुम कालिंदी को अपने घर से निकाल दो और मैं कुछ नहीं चाहता। तीन दिन का समय देता हूँ, खूब सोच लो। अगर कालिंदी तीसरे दिन तुम्हारे घर से न निकली, तो तुम जानोगी।”
सोमदत्त वहाँ से चला गया। गोविंदी मटका लिये मूर्ति की तरह खड़ी रह गयी। उसके सामने बड़ी मुश्किल आ खड़ी हुई थी, वह थी कालिंदी! घर में एक ही रह सकती थी। दोनों के लिए उस घर में जगह न थी। क्या कालिंदी के लिए वह अपना घर, अपना स्वर्ग छोड़ देगी? कालिंदी अकेली है, पति ने उसे पहले ही छोड़ दिया है, वह जहाँ चाहे जा सकती है, पर वह अपने पति और प्यारे बच्चे को छोड़ कर कहाँ जायगी? लेकिन कालिंदी से वह क्या कहेगी? जिसके साथ इतने दिनों तक बहनों की तरह रही, उसे क्या वह अपने घर से निकाल देगी? उसका बच्चा कालिंदी से कितना हिला हुआ था, कालिंदी उसे कितना चाहती थी?
क्या उस बेचारी छोड़ी हुई को वह अपने घर से निकाल देगी? इसके सिवा और उपाय ही क्या था? उसका जीवन अब एक स्वार्थी, घमंडी आदमी की दया पर टिका था। क्या अपने पति के प्यार पर वह भरोसा कर सकती थी! ज्ञानचंद्र अच्छे दिल के थे, दयालु थे, समझदार थे, मजबूत सोच के थे, पर क्या उनका प्यार बेइज्जती, तानो और बहिष्कार जैसे चोटों को सहन कर सकता था! उसी दिन से गोविंदी और कालिंदी में कुछ अलगाव सा दिखायी देने लगा।
दोनों अब बहुत कम साथ बैठतीं। कालिंदी पुकारती- “बहन, आ कर खाना खा लो।”
गोविंदी कहती- “तुम खा लो, मैं फिर खा लूँगी।”
पहले कालिंदी बच्चे को सारे दिन खिलाया करती थी, माँ के पास सिर्फ दूध पीने जाता था। मगर अब गोविंदी हर दम उसे अपने ही पास रखती है। दोनों के बीच में कोई दीवार खड़ी हो गयी है। कालिंदी बार-बार सोचती है, आजकल मुझसे यह क्यों रूठी हुई है? पर उसे कोई कारण नहीं दिखायी देता। उसे डर हो रहा है कि शायद यह अब मुझे यहाँ नहीं रखना चाहती। इसी चिंता में वह गोते खाया करती है; लेकिन गोविंदी भी उससे कम चिंतित नहीं है। कालिंदी से वह प्यार तोड़ना चाहती है; पर उसका दुखी चहरा देख कर उसके दिल के टुकड़े हो जाते हैं। उससे कुछ कह नहीं सकती। अपमान के शब्द मुँह से नहीं निकलते। शायद उसे घर से जाते देख कर वह रो पड़ेगी और जबरदस्ती रोक लेगी।
इसी खींचतान में तीन दिन गुजर गये। कालिंदी घर से न निकली। तीसरे दिन शाम-समय सोमदत्त नदी के किनारे पर बड़ी देर तक खड़ा रहा। आखिर में चारों ओर अँधेरा छा गया। फिर भी पीछे फिर-फिर कर नदी के किनारे की ओर देखता जाता था! रात के दस बज गये हैं। अभी ज्ञानचंद्र घर नहीं आये। गोविंदी घबरा रही है। उन्हें इतनी देर तो कभी नहीं होती थी। आज इतनी देर कहाँ लगा रहे हैं? शक से उसका दिल काँप रहा है।
अचानक आदमियों के कमरे का दरवाजा खुलने की आवाज आयी! गोविंदी दौड़ी हुई बैठक में आयी; लेकिन पति का चहरा देखते ही उसका सारा शरीर ठंडा पड़ गया, उस चहरे पर हंसी थी; पर उस हंसी में किस्मत की बेइज्जती झलक रही थी। किस्मत के खेल ने ऐसे सीधे-सादे मनुष्य को भी अपने खे का सामान बना लिया। क्या वह राज रोने के लायक था? राज रोने की चीज नहीं, हँसने की चीज है।