(Hindi) Chori
हाय बचपन! तेरी याद नहीं भूलती! वह कच्चा, टूटा घर, वह पुवाल का बिस्तर; वह नंगे बदन, नंगे पाँव खेतों में घूमना; आम के पेड़ों पर चढ़ना, सारी बातें आँखों के सामने फिर रही हैं। चमड़े जूते पहन कर उस समय कितनी खुशी होती थी, अब 'फ्लेक्स' के बूटों से भी नहीं होती। आम पन्ने के रस में जो मजा था, वह अब गुलाब के शर्बत में भी नहीं; चबेने और कच्चे बेरों में जो रस था, वह अब अंगूर और खीरमोहन में भी नहीं मिलता। मैं अपने चचेरे भाई हलधर के साथ दूसरे गाँव में एक मौलवी साहब के यहाँ पढ़ने जाया करता था।
मेरी उम्र साठ साल थी, हलधर (वह अब नहीं रहे) मुझसे दो साल बड़े थे। हम दोनों सुबह बासी रोटियाँ खा, दोपहर के लिए मटर और जौ का चबेना ले कर चल देते थे। फिर तो सारा दिन अपना था। मौलवी साहब के यहाँ कोई हाजिरी का रजिस्टर तो था नहीं, और न गैरहाजिरी का जुर्माना ही देना पड़ता था। फिर डर किस बात का! कभी तो थाने के सामने खड़े सिपाहियों की परेड देखते, कभी किसी भालू या बन्दर नचानेवाले मदारी के पीछे-पीछे घूमने में दिन काट देते, कभी रेलवे स्टेशन की ओर निकल जाते और गाड़ियों की बहार देखते। गाड़ियों के समय की जितनी जानकारी हमको थी, उतनी शायद टाइम-टेबिल को भी न थी।
रास्ते में शहर के एक महाजन ने एक बाग लगवाना शुरू किया था। वहाँ एक कुआँ खुद रहा था। वह भी हमारे लिए एक दिलचस्प तमाशा था। बूढ़ा माली हमें अपनी झोपड़ी में बड़े प्यार से बैठाता था। हम उससे झगड़-झगड़ कर उसका काम करते! कहीं बाल्टी लिये पौधों को सींच रहे हैं, कहीं खुरपी से क्यारियाँ गोड़ रहे हैं, कहीं कैंची से बेलों की पत्तियाँ छाँट रहे हैं। उन कामों में कितना मजा था! माली बच्चों को बहलाने में पंडित था। हमसे काम लेता, पर इस तरह मानो हमारे ऊपर कोई एहसान कर रहा है।
जितना काम वह दिन भर में करता, हम घंटे भर में निबटा देते थे। अब वह माली नहीं है; लेकिन बाग हरा-भरा है। उसके पास से हो कर गुजरता हूँ, तो जी चाहता है; उन पेड़ों के गले मिल कर रोऊँ, और कहूँ, प्यारे, तुम मुझे भूल गये लेकिन मैं तुम्हें नहीं भूला; मेरे दिल में तुम्हारी याद अभी तक हरी है, उतनी ही हरी, जितने तुम्हारे पत्ते। बिना स्वार्थ के प्यार के तुम जीते-जागते रूप हो। कभी-कभी हम हफ्तों गैरहाजिर रहते; पर मौलवी साहब से ऐसा बहाना कर देते कि उनकी बढ़ी हुई त्योरियाँ उतर जातीं।
उतना दिमाग आज दौड़ता तो ऐसा उपन्यास लिख मारता कि लोग चकित रह जाते। अब तो यह हाल है कि बहुत सिर खपाने के बाद कोई कहानी सूझती है। खैर हमारे मौलवी साहब दर्जी थे। मौलवीगीरी सिर्फ शौक से करते थे। हम दोनों भाई अपने गाँव के कुरमी-कुम्हारों से उनकी खूब बड़ाई करते थे। ये कहिए कि हम मौलवी साहब के काम ढूंढने वाले एजेंट थे।
हमारी कोशिशों से जब मौलवी साहब को कुछ काम मिल जाता, तो हम फूले न समाते! जिस दिन कोई अच्छा बहाना न सूझता, मौलवी साहब के लिए कोई-न-कोई तौहफा ले जाते। कभी सेर-आधा-सेर फलियाँ तोड़ लीं, तो कभी दस-पाँच गन्ने; कभी जौ या गेहूँ की हरी-हरी बालें ले लीं, उन सौगातों को देखते ही मौलवी साहब का गुस्सा शांत हो जाता। जब इन चीजों की फसल न होती, तो हम सजा से बचने का कोई और ही उपाय सोचते। मौलवी साहब को चिड़ियों का शौक था। मदरसे में श्याम, बुलबुल, दहियल और चंडूलों के पिंजरे लटकते रहते थे।
हमें सबक याद हो या न हो पर चिड़ियों को याद हो जाते थे। हमारे साथ ही वे पढ़ा करती थीं। इन चिड़ियों के लिए बेसन पीसने में हम लोग खूब उत्साह दिखाते थे। मौलवी साहब सब लड़कों को पतंगे पकड़ लाने को कहते रहते थे। इन चिड़ियों को पतंगे खास पसंद थे। कभी-कभी हमारी बला पतंगों ही के सिर चली जाती थी। उनका बलिदान करके हम मौलवी साहब के गुस्से को शांत कर लिया करते थे।
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एक दिन सबेरे हम दोनों भाई तालाब में मुँह धोने गये, हलधर ने कोई सफेद-सी चीज मुट्ठी में ले कर दिखायी। मैंने लपक कर मुट्ठी खोली; तो उसमें एक रुपया था। चौंक कर पूछा- “यह रुपया तुम्हें कहाँ मिला?”
हलधर- “अम्माँ ने ताक(दीवार में बनी सामान रखने की जगह) पर रखा था; खाट खड़ी करके निकाल लाया।”
घर में कोई बक्सा या आलमारी तो थी नहीं; रुपये-पैसे एक ऊँचे ताक पर रख दिये जाते थे। एक दिन पहले चाचा जी ने सन बेचा था। उसी के रुपये जमींदार को देने के लिए रखे हुए थे। हलधर को न-जाने कैसे पता लग गया। जब घर के सब लोग काम-धंधो में लग गये, तो अपनी खाट खड़ी की और उस पर चढ़ कर एक रुपया निकाल लिया। उस समय तक हमने कभी रुपया छुआ तक न था। वह रुपया देख कर खुशी और डर की जो तरंगें दिल में उठी थीं, वे अभी तक याद हैं; हमारे लिए रुपया एक अनमोल चीज थी। मौलवी साहब को हमारे यहाँ से सिर्फ बारह आने मिला करते थे।
महीने के आखिर में चाचा जी खुद जाकर पैसे दे आते थे। भला, कौन हमारे गर्व का अनुमान कर सकता है! लेकिन मार का डर खुशी में खलद डाल रहा था। रुपये बिना गीने हुए तो थे नहीं। चोरी खुल जाना मानी हुई बात थी। चाचा जी के गुस्सा का भी, मुझे तो नहीं, हलधर को सीधे अनुभव हो चुका था। ऐसे उनसे ज्यादा सीधा-सादा आदमी दुनिया में न था। चाचा ने उनकी रक्षा का भार सिर पर न रख लिया होता, तो कोई बनिया उन्हें बाजार में बेच सकता था; पर जब गुस्सा आ जाता, तो फिर उन्हें कुछ न सूझता। और तो और, चाची भी उनके गुस्सा का सामना करते डरती थीं।
हम दोनों ने कई मिनट तक इन्हीं बातों को सोचा, और आखिर यही तय हुआ कि आयी हुई लक्ष्मी को न जाने देना चाहिए। एक तो हमारे ऊपर शक होगा ही नहीं, अगर हुआ भी तो हम साफ इनकार कर जाएँगे। कहेंगे, हम रुपया लेकर क्या करते। थोड़ा सोच-विचार करते, तो यह फैसला पलट जाता, और वह भयानक खेल न होता, जो आगे चलकर हुआ; पर उस समय हम में शांति से सोचने की काबिलियत ही न थी।
मुँह-हाथ धो कर हम दोनों घर आये और डरते-डरते अंदर कदम रखा। अगर कहीं इस समय तलाशी की नौबत आयी, तो फिर भगवान् ही मालिक हैं। लेकिन सब लोग अपना-अपना काम कर रहे थे। कोई हमसे न बोला।
हमने नाश्ता भी न किया, चबेना भी न लिया; किताब बगल में दबायी और मदरसे का रास्ता लिया। बरसात के दिन थे। आकाश पर बादल छाये हुए थे। हम दोनों खुश-खुश मदरसे चले जा रहे थे। आज काउन्सिल की मिनिस्ट्री पा कर भी शायद उतनी खुशी न होता। हजारों मंसूबे बाँधते थे, हजारों ख्याली किले बनाते थे। यह मौका बड़ी किस्मत से मिला था। जीवन में फिर शायद ही वह मौका मिले। इसलिए रुपये को इस तरह खर्च करना चाहते थे कि ज्यादा से ज्यादा दिनों तक चल सके।
हालांकि उन दिनों पाँच आने सेर बहुत अच्छी मिठाई मिलती थी और शायद आधा सेर मिठाई में हम दोनों फूल जाते; लेकिन यह ख्याल हुआ कि मिठाई खायेंगे तो रुपया आज ही गायब हो जायगा। कोई सस्ती चीज खानी चाहिए, जिसमें मजा भी आये, पेट भी भरे और पैसे भी कम खर्च हों। आखिर अमरूदों पर हमारी नजर गयी। हम दोनों राजी हो गये। दो पैसे के अमरूद लिये। सस्ता समय था, बड़े-बड़े बारह अमरूद मिले। हम दोनों के कुर्तों के आँचल भर गये। जब हलधर ने सब्जी वाली के हाथ में रुपया रखा, तो उसने शक से देख कर पूछा- “रुपया कहाँ पाया, लाला? चुरा तो नहीं लाये?”
जवाब हमारे पास तैयार था। ज्यादा नहीं तो दो-तीन किताबें पढ़ ही चुके थे। विद्या का कुछ-कुछ असर हो चला था। मैंने झट से कहा- “मौलवी साहब की फीस देनी है। घर में पैसे न थे, तो चाचा जी ने रुपया दे दिया।
इस जवाब ने सब्जी वाले का शक दूर कर दिया। हम दोनों ने एक पुलिया पर बैठ कर खूब अमरूद खाये। मगर अब साढ़े पन्द्रह आने पैसे कहाँ ले जाएँ। एक रुपया छिपा लेना तो इतना मुश्किल काम न था। पैसों का ढेर कहाँ छिपता। न कमर में इतनी जगह थी और न जेब में इतनी गुंजाइश। उन्हें अपने पास रखना चोरी का ढिंढोरा पीटना था। बहुत सोचने के बाद यह तय किया कि बारह आने तो मौलवी साहब को दे दिये जाएँ, शेष साढ़े तीन आने की मिठाई उड़े। यह फैसला करके हम लोग मदरसे पहुँचे। आज कई दिन के बाद गये थे। मौलवी साहब ने बिगड़ कर पूछा- “इतने दिन कहाँ रहे?
मैंने कहा- “मौलवी साहब, घर में गमी हो गयी।”
यह कहते-कहते बारह आने उनके सामने रख दिये। फिर क्या पूछना था? पैसे देखते ही मौलवी साहब का चेहरा खिल गया। महीना खत्म होने में अभी कई दिन बाकी थे। साधारणत: महीना चढ़ जाने और बार-बार तकाजे करने पर कहीं पैसे मिलते थे। अबकी इतनी जल्दी पैसे पा कर उनका खुश होना कोई अजीब बात न थी। हमने अन्य लड़कों की ओर गर्व भरी नजरों से देखा, मानो कह रहे हों, एक तुम हो कि माँगने पर भी पैसे नहीं देते, एक हम हैं कि पहले ही देते हैं।