(Hindi) Bhagavad Gita (Chapter 2)

(Hindi) Bhagavad Gita (Chapter 2)

अध्याय 2: ज्ञान योग या सांख्य योग

श्लोक 1:
वासुदेव श्रीकृष्ण कहते हैं– “हे अर्जुन ! युद्ध की इस विषम स्थिति में तू कैसे अज्ञान और मोह में घिर गया? ये ज्ञानी और महान पुरुषों का आचरण नहीं हैं. इसलिए हे पार्थ! अपने मन की कमज़ोरी का त्याग कर, अपने कर्म का नहीं. जो इंसान अपने कर्म से मुहं मोड़ लेता है उसे केवल अपमान का सामना करना पड़ता है. तू जिन चीज़ों के लिए शोक कर रहा है वो इसके योग्य है ही नहीं.

ज्ञानी जन जिंदा या मरे हुए लोगों के लिए शोक नहीं करते. ये जान ले कि ऐसा कोई काल नहीं था जब मैं नहीं था, तू नहीं था या यहाँ मौजूद लोग नहीं थे और ना ही कभी ऐसा समय आएगा जब हम सभी नहीं रहेंगे. बदलाव तो इस प्रकृति का नियम है. पंच तत्वों से बना ये शरीर भी एक समान नहीं रहता, समय के साथ इसमें बदलाव होता रहता है और मृत्यु के बाद एक नए शरीर का जन्म होता है. इसलिए धीर पुरुष ना शोक करते हैं और ना ही इससे मोहित होते हैं. ”

अर्थ :
इस श्लोक में अर्जुन के माध्यम से इंसान के मन की स्थिति को दिखाया गया है कि जब उसका सामना किसी चुनौती या मुश्किल परिस्थिति से होता है तो वो किस तरह घबरा जाता है, किस तरह मोह में आ जाता है और अपना कर्म करने के बजाय उससे भागने की कोशिश करता है. जब तक इंसान सच से अनजान रहेगा तब तक उसके मन में तरह-तरह के डर और संशय जन्म लेते रहेंगे. सच को जानकर उसे स्वीकार करने के बाद ना ही उसके मन में किसी तरह का भय शेष रहेगा और ना ही वो किसी मोह में अटका रहेगा.

यहाँ ज्ञानी का मतलब है इस शरीर, आत्मा और भगवान् के तत्व को समझना. ज्ञानी मतलब  समझदार।  यहाँ श्रीकृष्ण अर्जुन से सवाल कर रहे हैं कि तू किसका शोक कर रहा है उसका जिसका एक दिन मिट जाना तय है या उसका जिसका नाश कभी हो ही नहीं सकता? अगर नाश होना तय है तो दुःख कैसा और जिसका नाश हो ही नहीं सकता उसके लिए दुःख कैसा. इस सृष्टि में कोई भी चीज़ शोक करने लायक है ही नहीं क्योंकि हर चीज़ का अस्तित्व बस कुछ समय के लिए ही है.

यहाँ मनुष्य को ये बताया गया है कि असल में हम शरीर, विचार, इच्छाएं ये सब नहीं हैं. यहाँ उस  पराभौतिक  तत्व का ज़िक्र किया गया है जिसका कभी नाश नहीं हो सकता यानी  आत्मा. हम तो वो हैं जिसने पांच तत्वों से बने इस शरीर को धारण किया है, उसे ही आत्मा कहते हैं. ये आत्मा पूरी सृष्टि में समाई हुई है या ये कहा जा सकता है कि उसने अपने अंदर पूरे ब्रह्मांड को समेट रखा है. कहने का मतलब यह है कि आत्मा में ब्रह्मांड नहीं बल्कि ब्रह्मांड और इस पूरे संसार का ज्ञान समाया हुआ रहता है क्योंकि आत्मा में ही मन-बुद्धि और संस्कार हैं और यह शरीर इतनी विशाल पाँच तत्वों से बनी प्रकृति का ही तो प्रतीक है।

इंसान का स्वभाव होता है कि जो चीज़, जो लोग उससे जुड़ जाते हैं उसे उनसे लगाव हो जाता है और वो उसे पकड़ कर रख लेता है , इस लगाव की highest degree को ही  मोह कहा गया है. जब उसे लगता है कि उससे कोई अपना छूट जाएगा तब वो  परेशान हो जाता है, दुखी हो जाता है और ये हर समस्या का कारण बनता है. जब इंसान का मन और बुद्धि लगाव में कहीं अटक जाए, सीमित हो जाए तो उसे मोह कहा जाता है.

इंसान को दुःख तब होता है जब वो अपनी इन्द्रियों द्वारा नज़र आने वाली चीज़ों के मिट जाने के बारे में सोचता है. इंसान को बाहरी चीज़ों का आभास उसकी इन्द्रियों जैसे त्वचा, आँख, नाक, जीभ, कान के माध्यम से होता है. जब ये इन्द्रीयाँ बाहरी चीज़ों के संपर्क में आती हैं तो अलग-अलग भावनाओं को जन्म देती हैं जैसे सुख, दुःख, सर्दी गर्मी जो पल पल बदलते रहते हैं इसलिए इंसान को हर भावना को धीरज के साथ सहन करना चाहिए. इस तरह उसके मन की स्थिति में एक संतुलन का विकास होने लगता है. ये भावनाएं सिर्फ़ हमारे मन की प्रतिक्रिया (response) हैं.

इनके गुलाम बनने के बजाय इन्हें observe करना सीखें. रियेक्ट नहीं बल्कि इसके बारे में सोचना(reflect) सीखें. जितना ज़्यादा इंसान ख़ुद को body conscious वाले “मैं” और “मेरा” शब्द के साथ जोड़ेगा उतना ही वह जीवन में समस्याओं और भ्रमों का सामना करेगा। जबकि यह सत्य ज्ञान कि “मैं आत्मा”  “मेरा शरीर” समझकर जिस पल वह अपने सोचने का दायरा और नज़रिए को बढ़ाता है और हकीकत को समझकर खुद को ( आत्मा ) पहचानता है उसके भ्रम गायब होने लगते हैं.

इंसान का शरीर अग्नि, जल, आकाश, वायु और पृथ्वी इन पांच तत्वों से मिलकर बना है. जब ये पाँचों तत्व मिलकर एक साथ आ जाते हैं तब एक नए शरीर का निर्माण होता है. समय के साथ शरीर में बदलाव होता है ,पहले बचपन, फ़िर जवानी आती है और बुढ़ापे के साथ ये शरीर ढलने लगता है. जब शरीर काफ़ी कमज़ोर हो जाता है या रहने लायक नहीं रहता तब मृत्यु की स्थिति आती है. जब ये आत्मा शरीर को छोड़ देती है तो उस इंसान को मृत कहा जाता है. मृत्यु के बाद पाँचों तत्व वापस प्रकृति में अपने अपने मूल तत्व में मिल जाते हैं इसलिए असल में यहाँ ख़त्म तो कुछ भी नहीं हुआ.

प्रकृति से बना हुआ ये शरीर कभी ख़त्म नहीं होता, वो बस बिखर जाता है और फ़िर एक साथ एक नए स्वरुप में वापस आ जाता है. आत्मा कभी मरती नहीं, उसका अस्तित्व सदैव था और सदैव बना रहेगा. जो भी बदलाव होता है वो प्रकृति के स्तर पर होता है यानी जो भी इस प्रकृति से बना है, उसमें बदलाव होता है. आत्मा के स्तर पर कभी कुछ भी नहीं बदलता. आत्मा तो प्रकृति से परे है इसलिए वो अविनाशी है.

तो जिसका नाश ही नहीं हो सकता उसके लिए शोक कैसा ?  इस सृष्टि में कभी कुछ भी ख़त्म नहीं होता, बस उसका स्वरुप बदल जाता है.

जब हम सच को जानकार उसे स्वीकार कर लेते हैं तो दुःख करने का कोई कारण ही नहीं रह जाता. हमें दुःख तब होता है जब हम चाहते हैं कि जिसे हम देख रहे हैं वो हमेशा वैसे का वैसा बना रहे लेकिन ये तो नामुमकिन है क्योंकि बदलाव ही प्रकृति की प्रवृत्ति है, वो तो होना ही है. ये आत्मा लगातार अनंत समय से चली आ रही है इसलिए दुःख करने का तो कोई सवाल ही नहीं उठाना चाहिए.

जो चीज़ प्रकृति से बनती है वो काल और कालचक्र से बंध जाती है, उसका एक साकार रूप होता है इसलिए एक ना एक दिन उसका नाश होना भी निश्चित होता है. लेकिन जो निराकार है वो काल से परे हो जाता है इसलिए आत्मा का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता.

हमारा शरीर, हमारी इच्छाएँ लगातार हर दिन बदलती रहती हैं इसलिए बदलाव तो हर पल हो रहा है तो दुःख किस बात का. जब इस बदलाव तो तुम रोक नहीं सकते, बदल नहीं सकते तो दुःख क्यों करते हो. इस सच को समझकर इस नियम को स्वीकार करो.

मोह का त्याग करना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि जब मनुष्य मोह में आ जाता है तो उसके सोचने की शक्ति ख़त्म हो जाती है और वो या तो फ़ैसला लेने की क्षमता खो देता है या गलत क़दम उठाता है जिसका परिणाम  बुरा ही होता है.

इस श्लोक में ये भी समझाया गया है कि इंसान कमज़ोर नहीं होता, उसका डर और मोह भ्रम पैदा करता है, confusion create करता है, जिस वजह से उसका मन कमज़ोर पड़ जाता है. ज्ञानी और महान लोग कभी अपने कर्तव्य से पीछे नहीं हटते और एक क्षत्रीय होने के नाते अर्जुन को भी अपने शस्त्र संभाल कर युद्ध लड़ना ही होगा. यहाँ श्रीकृष्ण समझाना चाहते हैं कि इंसान को अपना समय और मेहनत उन चीज़ों पर बर्बाद नहीं करनी चाहिए जो इस दुनिया तक ही सीमित रहती हैं.

इसके बजाय हमें उन चीज़ों पर ध्यान देना चाहिए जो आत्मा के लिए ज़रूरी है, इस शरीर के लिए नहीं. अगर इस शरीर का जन्म हुआ है तो इसका एक दिन मिट जाना भी तय है इसलिए किसी चीज़ से मोह मत करो बस अपना कर्म पूरी निष्ठा और इमानदारी से करते जाओ. अगर जीवन के संघर्ष से भागोगे तो कायर के अलावा कुछ नहीं कहलाओगे और जीवन में कभी आगे नहीं बढ़ पाओगे. इस तरह यहाँ साफ़ बताया गया है कि प्रेम ज़रूरी है और मोह त्याग देने यानि छोड़ने योग्य है। मोह के कारण ही परिवारों में कलह और संसार में भ्रष्ट आचरण फैलता है।

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श्लोक 2 :

श्रीकृष्ण कहते हैं, “हे कुंती पुत्र ! सुख दुःख कभी सदा के लिए नहीं रहते. मौसम की तरह ये भी बदलते रहते हैं इसलिए इससे बेचैन मत हो क्योंकि जो सुख दुःख को समान समझता है वो किसी भी परिस्थिति में व्याकुल नहीं होता, उसके मन में हलचल नहीं होती और असल में वही मुक्ति पाने के योग्य होता है. यही बात भावनाओं पर भी लागू होती है. सत और असत्य के फ़र्क को समझना ही हमें सही फ़ैसले लेने में मदद करता है. सत का कभी नाश नहीं हो सकता और असत कभी हमेशा के लिए टिका नहीं रह सकता. ये शरीर असत्य है, इसका विनाश होना तो तय है, तू उसकी चिंता कर जो अनंत और शाश्वत है, सत्य है, जिसे आत्मा कहते हैं, जो इस शरीर के अंदर वास करती है. इसलिए तू निर्भय होकर बस अपना कर्म कर”.

अर्थ :
यहाँ ये समझाया गया है कि जीवन में सुख दुःख का आना जाना लगातार बना रहता है. कभी सुख आता है, कभी दुःख आता है, ये एक अंतहीन सिलसिला है और अगर इंसान इसी में फँसा रहेगा तो उसका जीवन यूहीं निकल जाएगा. असल में परिस्थिति सुख और दुःख पैदा नहीं करते बल्कि हम उसे किस नज़रिए से देखते हैं वो सुख या दुःख का कारण बनता है. सुख दुःख हमारी इन्द्रियों के कारण पैदा होती हैं. जो चीज़ हमें अच्छी लगती है, हमारे अनुसार होती है हम उसे सुख का नाम दे देते हैं और जो चीज़ हमें पसंद ना आए या जिसके लिए संघर्ष करना पड़े हम उसे दुःख का नाम दे देते हैं.

ये सिर्फ़ हमारी इन्द्रियों का खेल है और अक्सर हम इन इन्द्रियों की पसंद नापसंद में फंस कर अटक जाते हैं.  अगर हम सुख से मिलने वाली ख़ुशी और अहंकार या दुःख से मिलने वाली तकलीफ़ में ही फंसें रहेंगे तो जीवन में आगे नहीं बढ़ पाएँगे. इसलिए सुख और दुःख दोनों को स्वीकार करो. चाहे सुख हो या दुःख मन की स्थिति को हमेशा समान बनाए रखो, ना ख़ुद में अहंकार आने दो ना दुःख से मन को भारी और निराश होने दो.

परिवर्तन तो प्रकृति का नियम है इसे स्वीकार करो क्योंकि हम ख़ुद को अपनी इच्छाओं, डर और विकारों से तभी मुक्त कर सकते हैं जब हम सुख और दुःख दोनों को समान समझने लगें. जिस मनुष्य को कोई परिस्थिति विचलित नहीं कर सकती वही जीवन के सफ़र में सही फ़ैसले ले सकता है. सुख दुःख को समान समझने के बाद ही हम में ठहराव आता है, हमारा मन शांत होता है और एक शांत मन ही इंसान को सही रास्ता दिखा सकता है.

यहाँ सत और असत के बीच का फ़र्क भी समझाया गया है. जिस चीज़ में भी बदलाव आ जाए उसे असत कहा गया है यानी प्रकृति से बनी हर चीज़ जिसे हम देख सकते हैं, छू सकते हैं, या जिसका कोई आकार है वो सब एक ना एक दिन मिट जाएँगे. हमारे ख़याल, इच्छाएं, ये शरीर इन सब में भी लगातार बदलाव होते रहते हैं. यही सत्य ज्ञान है। ज्ञान को सत्य भी कहा गया है और आत्मा को भी सत्य कहा गया है। जब आत्मा को इस सत्य का परिचय होता है तब वह अपने सच्चे स्वरूप को अनुभव यानि experience करती है और शरीर और इंद्रियों की गुलामी ( बंधन ) से ख़ुद  को मुक्त करती है।

हम बंधन में तब आते हैं, बेचैन तब होते हैं जब हम इन नाश होने वाली चीज़ों से लगाव करने लगते हैं. मुक्ति का असली मतलब है सत को जानना यानी आत्मा के सच्चे स्वरुप को जानना. वो सत जिसका अस्तित्व है, जो निराकार है, जो सब कुछ अपने में समेटे हुए है. उस भाव में टिक जाना कि हम आत्मा हैं और इसका कभी नाश नहीं हो सकता, इसे ही आत्म अनुभूति या self realization कहते हैं.

इस अनुभूति के बिना इंसान खुद को शरीर यानि मर जाने वाला ही समझता रहता है और सब कुछ इस शरीर के लिए ही करता रहता है। मौत से डरता है, डर में जीता है। लगाव और मोह में फँसा  रहता है, इसी शरीर के लिए चीजें,रुपया-पैसा इकठ्ठा करने के लोभ -लालच में जकड़ा रहता है और शरीर को मिले रंग-रूप, पद – position के चलते या तो अभिमान या हीन भावना में जीता  रहता है। जबकि सच यह है कि इंसान हाड़-माँस का पुतला शरीर नहीं है बल्कि आत्मा है। शरीर तो कर्म करने का एक साधन है। जैसे एक रोबोट बिना सॉफ्टवेयर के नहीं चल सकता वैसे ही यह शरीर बिना एनर्जी यानि आत्मा के नहीं चल सकता।

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