(hindi) Nimantran
पंडित मोटेराम शास्त्री ने अंदर जा कर अपने बड़े से पेट पर हाथ फेरते हुए यह पद(कविता का भाग) ऊँची आवाज में गाया,
“अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम, दास मलूका कह गये, सबके दाता राम!”
सोना ने खुश हो कर पूछा- “कोई मीठी ताजी खबर है क्या?”
शास्त्री जी ने पैंतरे बदल कर कहा- “मार लिया आज। ऐसा घात कर मारा कि चारों खाने चित्त। सारे घर का नेवता(निमंत्रण)! सारे घर का। वह बढ़-बढ़कर हाथ मारूँगा कि देखने वाले दंग रह जाएँगे। पेट महाराज अभी से बेचैन हो रहे हैं।”
सोना – “कहीं पहले की तरह अब की भी धोखा न हो। पक्का कर लिया है न?”
मोटेराम ने मूँछें ऐंठते हुए कहा- “ऐसा अपशगुन मुँह से न निकालो। बड़े जप-तप के बाद यह शुभ दिन आया है। जो तैयारियाँ करनी हों, कर लो।”
सोना – “वह तो करूँगी ही। क्या इतना भी नहीं जानती? जन्म भर घास थोड़े ही खोदती रही हूँ; मगर है घर भर का न?”
मोटेराम – “अब और कैसे कहूँ; पूरे घर भर का है। इसका मतलब समझ में न आया हो, तो मुझसे पूछो। अक्लमंदों की बात समझना सबका काम नहीं। मगर उनकी बात सभी समझ लें, तो उनकी अक्लमंदी का महत्त्व ही क्या रहे; बताओ, क्या समझीं? मैं इस समय बहुत ही सरल भाषा में बोल रहा हूँ; मगर तुम नहीं समझ सकीं। बताओ, अक्लमंदी किसे कहते हैं? महत्त्व ही का महत्व बताओ।
घर भर का निमंत्रण देना क्या मजाक है? हाँ, ऐसे मौके पर अक्लमंद लोग राजनीति से काम लेते हैं और उसका वही मतलब निकालते हैं, जो अपने फायदे में हो। मुरादापुर की रानी साहब सात ब्राह्मणों को इच्छापूर्ण खाना कराना चाहती हैं। कौन-कौन महाशय मेरे साथ जाएँगे, यह तय करना मेरा काम है। अलगूराम शास्त्री, बेनीराम शास्त्री, छेदीराम शास्त्री, भवानीराम शास्त्री, फेकूराम शास्त्री, मोटेराम शास्त्री आदि जब इतने आदमी अपने घर ही में हैं, तब बाहर कौन ब्राह्मणों को खोजने जाए।”
सोना – “और सातवाँ कौन है?”
मोटे.- “सोचो।”
सोना – “एक पत्तल घर लेते आना।”
मोटे.- “फिर वही बात कही, जिसमें बदनामी हो। छि: छि:! पत्तल घर लाऊँ। उस पत्तल में वह स्वाद कहाँ जो यजमान के घर पर बैठ कर खाना करने में है। सुनो, सातवें महाशय हैं, पंडित सोनाराम शास्त्री।”
सोना – “चलो, दिल्लगी करते हो। भला, कैसे जाऊँगी?”
मोटे.- “ऐसे ही मुश्किल मौकों पर तो विद्या की जरूरत पड़ती है। अक्लमंद आदमी मौके को अपना सेवक बना लेता है, बेवकूफ अपनी किस्मत को रोता है। सोनादेवी और सोनाराम शास्त्री में क्या अंतर है, जानती हो? सिर्फ कपड़े का। कपड़े का मतलब समझती हो? कपड़े “पहनाव” को कहते हैं। इसी साड़ी को मेरी तरह बाँध लो, मेरा कुर्ता पहन लो, ऊपर से चादर ओढ़ लो। पगड़ी मैं बाँधा दूँगा। फिर कौन पहचान सकता है?”
सोना ने हँसकर कहा- “मुझे तो शर्म आएगी।”
मोटे.- “तुम्हें करना ही क्या है? बातें तो हम करेंगे।”
सोना ने मन ही मन आने वाले खाने का मजा ले कर कहा- “बड़ा मजा होगा!”
मोटे.- “बस, अब देर न करो। तैयारी करो, चलो।”
सोना – “कितनी चूरन बना लूँ?”
मोटे.- “यह मैं नहीं जानता। बस, यही नमुना सामने रखो कि ज्यादा से ज्यादा फायदा हो।”
अचानक सोनादेवी को एक बात याद आ गयी। बोली- “अच्छा, इन बिछुओं(पैर की उँगलियों मे पहने जाने वाला अंगुठी जैसा गहना) का क्या करूँगी?”
मोटेराम ने त्योरी चढ़ा कर कहा- “इन्हें उठाकर रख देना, और क्या करोगी?”
सोना – “हाँ जी, क्यों नहीं। उतार कर रख क्यों न दूँगी?
मोटे.- “तो क्या तुम्हारे बिछुए पहने ही से मैं जी रहा हूँ? जीता हूँ पौष्टिक खाना के खाने से। तुम्हारे बिछुओं के पुण्य से नहीं जीता।”
सोना – “नहीं भाई, मैं बिछुए न उतारूँगी।”
मोटेराम ने सोच कर कहा- “अच्छा, पहने चलो, कोई नुकसान नहीं। भगवान यह बाधा भी दूर कर देंगे। बस, पाँव में बहुत-से कपड़े लपेट लेना। मैं कह दूँगा, इन पंडित जी को फीलपाँव हो गया। क्यों, कैसी सूझी?”
पंडिताइन ने पतिदेव को तारीफ भरी नजरों से देख कर कहा- “जन्म भर पढ़ा नहीं है?”
शाम-समय पंडित जी ने पाँचों बेटों को बुलाया और उपदेश देने लगे- “बेटों, कोई काम करने के पहले खूब सोच-समझ लेना चाहिए कि कैसा क्या होगा। मान लो, रानी साहब ने तुम लोगों का पता-ठिकाना पूछना शुरू किया, तो तुम लोग क्या जवाब दोगे? यह तो बड़ी बेवकूफी होगी कि तुम सब मेरा नाम लो। सोचो, कितने कलंक और शर्म की बात होगी कि मुझ-जैसा अक्लमंद सिर्फ खाना के लिए इतनी बड़ी चाल चले। इसलिए तुम सब थोड़ी देर के लिए भूल जाओ कि मेरे बेट हो। कोई मेरा नाम न बतलाये। दुनिया में नामों की कमी नहीं, कोई अच्छा-सा नाम चुन कर बता देना। पिता का नाम बदल देने से कोई गाली नहीं लगती। यह कोई अपराध नहीं।”
पंडित मोटेराम शास्त्री ने अंदर जा कर अपने बड़े से पेट पर हाथ फेरते हुए यह पद(कविता का भाग) ऊँची आवाज में गाया,
“अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम, दास मलूका कह गये, सबके दाता राम!”
सोना ने खुश हो कर पूछा- “कोई मीठी ताजी खबर है क्या?”
शास्त्री जी ने पैंतरे बदल कर कहा- “मार लिया आज। ऐसा घात कर मारा कि चारों खाने चित्त। सारे घर का नेवता(निमंत्रण)! सारे घर का। वह बढ़-बढ़कर हाथ मारूँगा कि देखने वाले दंग रह जाएँगे। पेट महाराज अभी से बेचैन हो रहे हैं।”
सोना – “कहीं पहले की तरह अब की भी धोखा न हो। पक्का कर लिया है न?”
मोटेराम ने मूँछें ऐंठते हुए कहा- “ऐसा अपशगुन मुँह से न निकालो। बड़े जप-तप के बाद यह शुभ दिन आया है। जो तैयारियाँ करनी हों, कर लो।”
सोना – “वह तो करूँगी ही। क्या इतना भी नहीं जानती? जन्म भर घास थोड़े ही खोदती रही हूँ; मगर है घर भर का न?”
मोटेराम – “अब और कैसे कहूँ; पूरे घर भर का है। इसका मतलब समझ में न आया हो, तो मुझसे पूछो। अक्लमंदों की बात समझना सबका काम नहीं। मगर उनकी बात सभी समझ लें, तो उनकी अक्लमंदी का महत्त्व ही क्या रहे; बताओ, क्या समझीं? मैं इस समय बहुत ही सरल भाषा में बोल रहा हूँ; मगर तुम नहीं समझ सकीं। बताओ, अक्लमंदी किसे कहते हैं? महत्त्व ही का महत्व बताओ।
घर भर का निमंत्रण देना क्या मजाक है? हाँ, ऐसे मौके पर अक्लमंद लोग राजनीति से काम लेते हैं और उसका वही मतलब निकालते हैं, जो अपने फायदे में हो। मुरादापुर की रानी साहब सात ब्राह्मणों को इच्छापूर्ण खाना कराना चाहती हैं। कौन-कौन महाशय मेरे साथ जाएँगे, यह तय करना मेरा काम है। अलगूराम शास्त्री, बेनीराम शास्त्री, छेदीराम शास्त्री, भवानीराम शास्त्री, फेकूराम शास्त्री, मोटेराम शास्त्री आदि जब इतने आदमी अपने घर ही में हैं, तब बाहर कौन ब्राह्मणों को खोजने जाए।”
सोना – “और सातवाँ कौन है?”
मोटे.- “सोचो।”
सोना – “एक पत्तल घर लेते आना।”
मोटे.- “फिर वही बात कही, जिसमें बदनामी हो। छि: छि:! पत्तल घर लाऊँ। उस पत्तल में वह स्वाद कहाँ जो यजमान के घर पर बैठ कर खाना करने में है। सुनो, सातवें महाशय हैं, पंडित सोनाराम शास्त्री।”
सोना – “चलो, दिल्लगी करते हो। भला, कैसे जाऊँगी?”
मोटे.- “ऐसे ही मुश्किल मौकों पर तो विद्या की जरूरत पड़ती है। अक्लमंद आदमी मौके को अपना सेवक बना लेता है, बेवकूफ अपनी किस्मत को रोता है। सोनादेवी और सोनाराम शास्त्री में क्या अंतर है, जानती हो? सिर्फ कपड़े का। कपड़े का मतलब समझती हो? कपड़े “पहनाव” को कहते हैं। इसी साड़ी को मेरी तरह बाँध लो, मेरा कुर्ता पहन लो, ऊपर से चादर ओढ़ लो। पगड़ी मैं बाँधा दूँगा। फिर कौन पहचान सकता है?”
सोना ने हँसकर कहा- “मुझे तो शर्म आएगी।”
मोटे.- “तुम्हें करना ही क्या है? बातें तो हम करेंगे।”
सोना ने मन ही मन आने वाले खाने का मजा ले कर कहा- “बड़ा मजा होगा!”
मोटे.- “बस, अब देर न करो। तैयारी करो, चलो।”
सोना – “कितनी चूरन बना लूँ?”
मोटे.- “यह मैं नहीं जानता। बस, यही नमुना सामने रखो कि ज्यादा से ज्यादा फायदा हो।”
अचानक सोनादेवी को एक बात याद आ गयी। बोली- “अच्छा, इन बिछुओं(पैर की उँगलियों मे पहने जाने वाला अंगुठी जैसा गहना) का क्या करूँगी?”
मोटेराम ने त्योरी चढ़ा कर कहा- “इन्हें उठाकर रख देना, और क्या करोगी?”
सोना – “हाँ जी, क्यों नहीं। उतार कर रख क्यों न दूँगी?
मोटे.- “तो क्या तुम्हारे बिछुए पहने ही से मैं जी रहा हूँ? जीता हूँ पौष्टिक खाना के खाने से। तुम्हारे बिछुओं के पुण्य से नहीं जीता।”
सोना – “नहीं भाई, मैं बिछुए न उतारूँगी।”
मोटेराम ने सोच कर कहा- “अच्छा, पहने चलो, कोई नुकसान नहीं। भगवान यह बाधा भी दूर कर देंगे। बस, पाँव में बहुत-से कपड़े लपेट लेना। मैं कह दूँगा, इन पंडित जी को फीलपाँव हो गया। क्यों, कैसी सूझी?”
पंडिताइन ने पतिदेव को तारीफ भरी नजरों से देख कर कहा- “जन्म भर पढ़ा नहीं है?”
शाम-समय पंडित जी ने पाँचों बेटों को बुलाया और उपदेश देने लगे- “बेटों, कोई काम करने के पहले खूब सोच-समझ लेना चाहिए कि कैसा क्या होगा। मान लो, रानी साहब ने तुम लोगों का पता-ठिकाना पूछना शुरू किया, तो तुम लोग क्या जवाब दोगे? यह तो बड़ी बेवकूफी होगी कि तुम सब मेरा नाम लो। सोचो, कितने कलंक और शर्म की बात होगी कि मुझ-जैसा अक्लमंद सिर्फ खाना के लिए इतनी बड़ी चाल चले। इसलिए तुम सब थोड़ी देर के लिए भूल जाओ कि मेरे बेट हो। कोई मेरा नाम न बतलाये। दुनिया में नामों की कमी नहीं, कोई अच्छा-सा नाम चुन कर बता देना। पिता का नाम बदल देने से कोई गाली नहीं लगती। यह कोई अपराध नहीं।”