(hindi) Rajya Bhakt
शाम का समय था। लखनऊ के बादशाह नासिरुद्दीन अपने दरबारियों के साथ बगीचे की सैर कर रहे थे। उनके सिर पर रत्न जड़ा हुए मुकुट की जगह अँग्रेजी टोपी थी। कपड़े भी अँग्रेजी ही थे। दरबारियों में पाँच अँग्रेज थे। उनमें से एक के कन्धे पर सिर रख कर बादशाह चल रहे थे। तीन-चार हिंदुस्तानी भी थे। उनमें से एक राजा बख्तावर सिंह थे। वह बादशाही सेना के अध्यक्ष थे। उन्हें सब लोग जेनरल कहा करते थे। वह अधेड़(35-55 की उम्र) आदमी थे। शरीर खूब गठा हुआ था।
लखनवी पहनावा उन पर बहुत सजता था। चहरे से समझदारी झलक रही थी। दूसरे महाशय का नाम रोशनुद्दौला था। यह राज्य के प्रधानमंत्री थे। बड़ी-बड़ी मूँछें और नाटा कद था जिसे ऊँचा करने के लिए वह तन कर चलते थे। आँखों से गर्व टपक रहा था। बाकी लोगों में एक कोतवाल था और दो बादशाह के रक्षक। हालांकि अभी 19वीं शताब्दी की शुरुआत ही थी पर बादशाह ने अँग्रेजी रहन-सहन अपना लिया था। खाना भी अक्सर अँग्रेजी ही खाते थे। अँग्रेजों पर उनका बहुत भरोसा था। वह हमेशा उनका पक्ष लिया करते थे। मजाल न थी कि कोई बड़े-से-बड़ा राजा या राजकर्मचारी किसी अँग्रेज से बराबरी करने की हिम्मत कर सके।
अगर किसी में यह हिम्मत थी तो वह राजा बख्तावर सिंह थे। उनसे कंपनी का बढ़ता हुआ हक न देखा जाता था कंपनी की उस सेना की संख्या जो उसने अवध के राज्य की रक्षा के लिए लखनऊ में तैनात की थी दिन-दिन बढ़ती जाती थी। उसी के आरण सेना का खर्च भी बढ़ रहा था। राजदरबार उसे चुका न सकने के कारण कंपनी का कर्जदार होता जाता था। बादशाही सेना की हालत बद से बदतर होती जाती थी। उसमें न एकता थी न ताकत। सालों तक सिपाहियों को तनख्वाह न मिलती थी।
हथियार सभी पुराने थे। वर्दी फटी हुई। कवायद(ड्रिल) का नाम नहीं। कोई उनका पूछनेवाला न था। अगर राजा बख्तावर सिंह तनख्वाह बढ़ाने या नये हथियारों के बारे में कोई कोशिश करते तो कम्पनी का रेजीडेंट उसका पूरा विरोध और राज्य पर विद्रोह करने के इरादे से ताकत को बढ़ाने का इल्जाम लगाता था। उधर से डाँट पड़ती तो बादशाह अपना गुस्सा राजा साहब पर उतारते। बादशाह के सभी अँग्रेज दरबारी राजासाहब पर शक करते रहते और उनकी जड़ खोदने का कोशिश किया करते थे।
पर वह राज्य का सेवक एक ओर अवहेलना और दूसरी ओर से घोर विरोध सहते हुए भी अपने फर्ज का पालन करता जाता था। मजा यह कि सेना भी उनसे खुश न थी। सेना में ज्यादातर लखनऊ के बदमाश और गुंडे भरे हुए थे। राजासाहब जब उन्हें हटा कर अच्छे-अच्छे जवानों की भरती करने की कोशिश करते तो सारी सेना में हाहाकार मच जाता। लोगों को शक होता कि यह राजपूतों की सेना बना कर कहीं राज्य ही पर तो हाथ नहीं बढ़ाना चाहते इसलिए मुसलमान भी उन पर शक करते थे। राजा साहब के मन में बार-बार इच्छा होती कि इस पद को छोड़ कर चले जायँ। पर यह डर उन्हें रोकता था कि मेरे हटते ही अँग्रेजों की बन आयेगी और बादशाह उनके हाथों में कठपुतली बन जायँगे। रही-सही सेना के साथ अवध-राज्य का अस्तित्व भी मिट जायगा।
इसलिए इतनी कठिनाइयों के होते हुए भी चारों ओर से दुश्मनी और विरोध से घिरे होने पर भी वह अपने पद से हटने का तय न कर सकते थे। सबसे कठिन समस्या यह थी कि रोशनुद्दौला भी राजा साहब से चिढ़ता था। उसे हमेशा शक रहता कि यह मराठों से दोस्ती करके अवध-राज्य को मिटाना चाहते हैं। इसलिए वह राजा साहब के हर काम में रुकावट डालता रहता था। उसे अब भी उम्मीद थी कि अवध का मुसलमानी राज्य अगर जीवित रह सकता है तो अँग्रेजों की छत्र छाया में वरना वह जरूर हिंदुओं की बढ़ती हुई ताकत का शिकार बन जायगा।
असल में बख्तावरसिंह की हालत बहुत खराब थी। वह अपनी चालाकी से जीभ की तरह दाँतों के बीच में पड़े हुए अपना काम किये जाते थे। वैसे तो वह स्वभाव के अक्खड़ थे, अपना काम निकालने के लिए मिठास और नरमी, शील और विनय का इस्तेमाल करते रहते थे। इससे उनके व्यवहार में बनावटीपन आ जाती थी और वह दुश्मनों को उन पर और भी शक करती थी।
बादशाह ने एक अँग्रेज दरबारी से पूछा- “तुमको मालूम है मैं तुम्हारी कितनी खातिर करता हूँ? मेरी राज्य में किसी की मजाल नहीं कि वह किसी अँग्रेज को कड़ी नजरों से देख सके।”
अँग्रेज दरबारी ने सिर झुका कर कहा- “हम हुजूर की इस मेहरबानी को कभी नहीं भूल सकते।”
बा.- “इमाम हुसैन की कसम अगर यहाँ कोई आदमी तुम्हें तकलीफ दे तो मैं उसे फौरन जिंदा दीवार में चुनवा दूँ।'
बादशाह की आदत थी कि वह अक्सर अपनी अँग्रेजी टोपी हाथ में ले कर उसे उँगली पर नचाने लगते थे। रोज-रोज नचाते-नचाते टोपी में उँगली का घर हो गया था। इस समय जो उन्होंने टोपी उठा कर उँगली पर रखी तो टोपी में छेद हो गया। बादशाह का ध्यान अँग्रेजों की तरफ था। बख्तावर सिंह बादशाह के मुँह से ऐसी बात सुन कर गरम हुए जाते थे। इस बात में कितनी खुशामद, कितनी नीचता और अवध की जनता और राजों का कितना अपमान था ! और लोग तो टोपी का छेद देख कर हँसने लगे पर राजा बख्तावरसिंह के मुँह से अचानक निकल गया- “हुजूर ताज में सुराख हो गया।”
राजा साहब के दुश्मनों ने तुरंत कानों पर उँगलियाँ रख लीं। बादशाह को भी ऐसा मालूम हुआ कि राजा ने मेरी हंसी उड़ाई है। उनके तेवर बदल गये। अँग्रेजों और बाकी दरबारियों ने इस तरह कानाफूसी शुरू की जैसे कोई महान अनर्थ हो गया। राजा साहब के मुँह से मनमाने शब्द जरूर निकले। इसमें कोई शक नहीं था। मुमकिन है उन्होंने जान-बूझ कर हंसी न उड़ाई हो उनके दुखी दिल ने साधारण चेतावनी को यह तेज रूप दे दिया पर बात बिगड़ जरूर गयी थी। अब उनके दुश्मन उन्हें कुचलने के ऐसे अच्छे मौके को हाथ से क्यों जाने देते
राजा साहब ने सभा का यह रंग देखा तो खून ठंडा हो गया। समझ गये आज दुश्मनों के पंजे में फँस गया और ऐसा बुरा फँसा कि भगवान् ही निकालें तो निकल सकता हूँ।
बादशाह ने कोतवाल से लाल आँखें करके कहा- “इस नमक हराम को कैद कर लो और इसी समय इसका सिर उड़ा दो। इसे मालूम हो जाय कि बादशाहों से बदतमीजी करने का क्या नतीजा होता है।”
कोतवाल को अचानक जेनरल पर हाथ बढ़ाने की हिम्मत न पड़ी। रोशनुद्दौला ने उससे इशारे से कहा- “खड़े सोचते क्या हो? पकड़ लो नहीं तो तुम भी इसी आग में जल जाओगे।”
तब कोतवाल ने आगे बढ़ कर बख्तावर सिंह को गिरफ्तार कर लिया। एक पल में उनकी हाथ कस दिए गए। लोग उन्हें चारों ओर से घेर कर कत्ल करने ले चले।
बादशाह ने दरबारियों से कहा- “मैं भी वहीं चलता हूँ। जरा देखूँगा कि नमक हरामों की लाश कैसे तड़पती है।”
कितनी घोर जानवरपन था ! यही जान जरा देर पहले बादशाह का भरोसेमंद था !
अचानक बादशाह ने कहा- “पहले इस नमक हराम की खिलअत(एक तरह से युनिफोर्म) उतार लो। मैं नहीं चाहता कि मेरी खिलअत की बेइज्जती हो।”
किसकी मजाल थी जो जरा भी जबान हिला सके। सिपाहियों ने राजा साहब के कपड़े उतारने शुरू किये। बदकिस्मती उनके एक जेब से पिस्तौल निकल आयी। उसकी दोनों नालियाँ भरी हुई थीं। पिस्तौल देखते ही बादशाह की आँखों से चिनगारियाँ निकलने लगीं। बोले- “कसम है हजरत इमामहुसैन की अब इसकी जान नहीं बख्शुँगा। मेरे साथ भरी हुई पिस्तौल की क्या जरूरत ! जरूर इसका इरादा गलत था। अब मैं इसे कुत्तों से नुचवाऊँगा। (दरबारियों की तरफ देख कर) देखा तुम लोगों ने इसके इरादे ! मैं अपनी आस्तीन में साँप पाले हुए था। आप लोगों के ख्याल में, इसके पास भरी हुई पिस्तौल का निकलना क्या माने रखता है?”
अँग्रेजों को सिर्फ राजा साहब को नीचा दिखाना मंजूर था। वे उन्हें अपना दोस्त बना कर जितना काम निकाल सकते थे उतना उनके मारे जाने से नहीं। इसी से एक अँग्रेज दरबारी ने कहा- “मुझे तो इसमें कोई गलत बात नहीं मालूम होती। जेनरल आपका बाडीगार्ड (रक्षक) है। उसे हमेशा हथियारबन्द रहना चाहिए। खासकर जब आपकी खिदमत में हो। नहीं मालूम किस समय इसकी जरूरत आ पड़े।”
दूसरे अंग्रेज दरबारियों ने भी इस बात का साथ दिया। बादशाह के गुस्से की आग कुछ शांत हुई। अगर ये ही बातें किसी हिंदुस्तानी दरबारी की जबान से निकली होतीं तो उसकी जान की खैरियत न थी। शायद अँग्रेजों को अपने इंसाफ का नमूना दिखाने ही के लिए उन्होंने यह सवाल किया था। बोले- “कसम हजरत इमाम की तुम सबके सब शेर के मुँह से उसका शिकार छीनना चाहते हो ! पर मैं एक न मानूँगा, बुलाओ कप्तान साहब को। मैं उनसे यही सवाल करता हूँ। अगर उन्होंने भी तुम लोगों के ख्याल का साथ दिया तो इसकी जान न लूँगा। और अगर उनकी राय इसके खिलाफ हुई तो इस मक्कार को इसी समय मार दूँगा। मगर खबरदार कोई उनकी तरफ किसी तरह का इशारा न करे। वरना मैं जरा भी नरमी न करूँगा। सबके सब सिर झुकाये बैठे रहें।”
कप्तान साहब थे तो राजा साहब के ख़ास पर इन दिनों बादशाहों की उन पर खास दया थी। वह उन सच्चे राजभक्तों में थे जो अपने को राजा का नहीं राज्य का सेवक समझते हैं। वह दरबार से अलग रहते थे। बादशाह उनके कामों से बहुत संतुष्ट थे। एक आदमी तुरन्त कप्तान साहब को बुला लाया। राजा साहब की जान उनकी मुट्ठी में थी। रोशनुद्दौला को छोड़ कर ऐसा शायद एक आदमी भी न था जिसका दिल उम्मीद और निराशा से न धड़क रहा हो। सब मन में भगवान से यही प्रार्थना कर रहे थे कि कप्तान साहब किसी तरह से इस समस्या को समझ जायँ। कप्तान साहब आये और उड़ती हुई नजर से सभा की ओर देखा। सभी की आँखें नीचे झुकी हुई थीं। वह कुछ अनिश्चित(हेज़िटन्ट) भाव से सिर झुका कर खड़े हो गये।