(hindi) MRITYU KE PEECHE

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बाबू ईश्वरचंद्र को अखबारों में लेख लिखने का शौक उन्हीं दिनों पड़ा जब वे पढ़ रहे थे। रोज नये विषयों की चिंता में लगे रहते। अखबारों में अपना नाम देख कर उन्हें उससे कहीं ज्यादा खुशी होती थी जितनी परीक्षाओं में सफल होने या कक्षा में ज्यादा नंबर मिलने से हो सकती थी। वह अपने  कॉलेज के गरम-दल के नेता थे।

अखबारों में परीक्षापत्रों (एग्जाम पेपर) की कठिनाई या शिक्षकों के गलत व्यवहार की शिकायत का भार उन्हीं के सिर था। इससे उन्हें  कॉलेज में representative  का काम मिल गया। विरोध के हर मौके पर उन्हीं के नाम नेता बनने की गोटी पड़ जाती थी। उन्हें यकीन हो गया कि मैं इस छोटी जगह से निकल कर दुनिया की बड़ी जगह में ज्यादा सफल हो सकता हूँ। सार्वजनिक जीवन को वह अपनी किस्मत समझ बैठे थे।

कुछ ऐसा इत्तेफाक हुआ कि अभी एम.ए. परीक्षार्थियों(एग्जामिनी) में उनका नाम निकलने भी न पाया था कि गौरव के सम्पादक महोदय ने सन्यास लेने की ठानी और पत्रिका का भार ईश्वरचंद्र दत्त के सिर पर रखने का तय किया। बाबू जी को यह खबर मिला तो उछल पड़े। वाह रे किस्मत कि मैं इस इज्जतदार पद के लायक समझा गया !

इसमें शक नहीं कि वह इस जिम्मेदारी के महत्व को अच्छी तरह जानते थे लेकिन नाम कमाने के लालच ने उन्हें मुश्किल हालातों का सामना करने पर तैयार कर दिया। वह इस व्यवसाय में आजादी, स्वाभिमान और जिम्मेदारी की मात्रा को बढ़ाना चाहते थे। भारतीय अखबारों को पश्चिम के आदर्श पर चलाने की इच्छा रखते थे। इन इरादों के पूरा करने का अच्छा मौका हाथ आया। वे खुशी से उत्तेजित हो कर नाली में कूद पड़े।

ईश्वरचंद्र की पत्नी एक ऊँचे और अमीर घर की लड़की थी और वह ऐसे घरों की मर्यादा से प्यार और झूठे मान से प्यार को जानती थी। यह खबर पा कर डरी की पति महाशय कहीं इस झंझट में फँस कर कानून से मुँह न मोड़ लें। लेकिन जब बाबू साहब ने भरोसा दिलाया कि यह काम उनके कानून के अभ्यास में रुकावट न होगा तो कुछ न बोली।

लेकिन ईश्वरचंद्र को बहुत जल्द मालूम हो गया कि अखबार सम्पादन एक बहुत ही जलन वाला काम है जो मन की पूरी शांति को चुरा लेता है। उन्होंने इसे मनोरंजन का एक जरिया और नाम कमाने का एक मशीन समझा था। उसके द्वारा जाति की कुछ सेवा करना चाहते थे। उससे पैसे कमाने का सोचा तक न था। लेकिन नाव में बैठ कर उन्हें अनुभव हुआ कि सफर उतनी मजेदार नहीं है जितनी समझा था।

लेखों(आर्टिकल्स) को ठीक करना, सुधारना और बदलना, लेखकों से चिट्ठियों के जरिये बातचीत और ध्यान खींचने वाले विषयों की खोज और साथियों के आगे बढ़ जाने की चिंता, में उन्हें कानून पढ़ने का समय ही न मिलता था। सुबह को किताबें खोल कर बैठते कि 100 पन्ने पूरे किये बिना बिल्कुल न उठूँगा लेकिन जैसे ही डाक का पुलिंदा आ जाता वे बेचैन हो कर उस पर टूट पड़ते किताब खुली की खुली रह जाती थी।

बार-बार संकल्प करते कि अब नियमित रूप से किताब पढ़ा करूँगा और एक तय समय से ज्यादा सम्पादन के काम में न लगाऊँगा। लेकिन मैगज़ीन का बंडल सामने आते ही दिल काबू के बाहर हो जाता। अखबारों के नोक-झोंक, पत्रिकाओं के डिबेट, आलोचना-प्रत्यालोचना(क्रिटिसिज्म और काउंटरब्लास्ट) कवियों के कविताओं का चमत्कार, लेखकों का लिखने का हुनर, और भी सभी बातें उन पर जादू का काम करतीं। इस पर छपाई की मुश्किलें, ग्राहक-संख्या बढ़ाने की चिंता और पत्रिका को हर तरह से सुंदर बनाने की इच्छा और भी जानों को मुश्किल में डाले रहती थी।

कभी-कभी उन्हें दुख होता कि बेकार ही इस झमेले में पड़ा, यहाँ तक कि परीक्षा के दिन सिर पर आ गये और वे इसके लिए बिलकुल तैयार न थे। वे उसमें शामिल न हुए। मन को समझाया कि अभी इस काम की शुरुआत है इसी कारण यह सब मुश्किलें आ रही हैं। अगले साल यह काम एक व्यवस्थित (आर्गनाइज्ड) रूप में आ जायगा और तब मैं बेफिक्र हो कर परीक्षा में बैठूँगा ! पास कर लेना क्या मुश्किल है। ऐसे बुद्धू पास हो जाते हैं जो एक सीधा-सा लेख भी नहीं लिख सकते तो क्या मैं ही रह जाऊँगा?

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मानकी ने उनकी यह बातें सुनीं तो खूब दिल का गुस्सा बाहर निकाला- “मैं तो जानती थी कि यह धुन तुम्हें बर्बाद कर देगी। इसलिए बार-बार रोकती थी लेकिन तुमने मेरी एक न सुनी। आप तो डूबे ही मुझे भी ले डूबे।”

उनके पूज्य पिता भी बिगड़े।

भला चाहने वालों ने भी समझाया- “अभी इस काम को कुछ दिनों के लिए रोक दो। कानून में पास हो कर बिना रुकावट देश के काम में लग जाना। लेकिन ईश्वरचंद्र एक बार मैदान में आ कर भागना, शर्मनाक समझते थे। हाँ उन्होंने कसम खाई कि दूसरे साल परीक्षा के लिए तन-मन से तैयारी करूँगा। इसलिए नये साल के आते ही उन्होंने कानून की पुस्तकें इकट्ठा कीं, पाठ्यक्रम(करीक्यूलम) तय किया, डायरी लिखने लगे और अपने मनचले और बहानेबाज मन को चारों ओर से जकड़ा मगर चटपटा खाने के बाद सधारण खाना कब अच्छा लगता है !

कानून में वे दाँव पेच कहाँ? वह पागलपन कहाँ? वो चोटें कहाँ? वह उत्तेजना कहाँ? वह हलचल कहाँ ? बाबू साहब अब रोज एक खोयी हुई हालत में रहते। जब तक अपने इच्छानुकूल काम करते थे चौबीस घंटों में घंटे-दो घंटे कानून भी देख लिया करते थे। इस नशे ने मानसिक ताकतों को कमजोर कर दिया। नसें  बेजान हो गईं। उन्हें लगने लगा कि अब तो कानून के लायक नहीं रहा और इस ज्ञान ने कानून के प्रति उदासी का रूप ले लिया। मन में संतोष आया। किस्मत और पिछले जन्म के संस्कार के सिद्धांतों का सहारा लेने लगे।

एक दिन मानकी ने कहा- “यह क्या बात है क्या कानून से फिर मन ऊब गया?”

ईश्वरचंद्र ने दुस्साहस भरे भाव से जवाब दिया- “हाँ भई मेरा जी उससे भागता है।”

मानकी ने ताना मारते हुए कहा- “बहुत मुश्किल है?”

ईश्वरचंद्र- “कठिन नहीं है और कठिन भी होता तो मैं उससे डरने वाला न था। लेकिन मुझे वकालत का पेशा ही गिरा हुआ लगता है। जैसे-जैसे वकीलों की अंदर के हालत का पता चलता है मुझे उस पेशे से नफरत होती जाती है। इसी शहर में सैकड़ों वकील और बैरिस्टर पड़े हुए हैं लेकिन एक आदमी भी ऐसा नहीं जिसके दिल में दया हो, जो खुदगर्जी के हाथों बिक न गया हो। धोखा और बदमाशी इस पेशे का मुख्य हिस्सा है।

इसके बिना किसी तरह गुजारा नहीं। अगर कोई महाशय जातीय आंदोलन में शरीक भी होता हैं तो स्वार्थ पूरा करने के लिए, अपना ढोल पीटने के लिए। हम लोगों का पूरा जीवन वासना-भक्ति में लग जाता है। बदकिस्मती से हमारे देश का पढ़ा लिखा समुदाय इसी दरगाह का फकीर है। और यही कारण है कि हमारी जातीय संस्थाओं की उन्नति नहीं होती। जिस काम में हमारा दिल न हो, हम सिर्फ मशहूर होने और स्वार्थ पूरा करने के लिए उसके सहारा बने हुए हों, वह कभी नहीं हो सकता।

वर्तमान सामाजिक व्यवस्था की नाइंसाफी है जिसने इस पेशे को इतनी ऊँची जगह दी है। यह विदेशी सभ्यता का सबसे गिरा हुआ रूप है कि देश की दिमागी ताकत खुद पैसा न कमा कर, दूसरों की पैदा की हुई दौलत पर चैन करता। मधुमक्खी न बन कर चींटी बनना अपने जीवन का लक्ष्य समझता है।”

मानकी चिढ़ कर बोली- “पहले तुम वकीलों की इतनी बुराई न करते थे !”

ईश्वरचंद्र ने जवाब दिया- “तब अनुभव न था। बाहरी टीमटाम ने जादू कर दिया था।”

मानकी- “क्या जाने तुम्हें अखबारों से क्यों इतना प्यार है मैं जिसे देखती हूँ अपनी परेशानियों का रोना रोते हुए पाती हूँ। कोई अपने ग्राहकों से नये ग्राहक बनाने का अनुरोध करता है कोई चंदा न वसूल होने की शिकायत करता है। बता दो कि कोई ज्यादा पढ़ा लिखा इंसान कभी इस पेशे में आया है। जिसे कुछ नहीं सूझती जिसके पास न कोई डिप्लोमा हो न कोई डिग्री वही अखबार निकाल बैठता है। और भूखों मरने की बदले रूखी रोटियों पर ही संतोष करता है।

लोग विलायत जाते हैं वहाँ कोई डाक्टरी पढ़ता है, कोई इंजीनियरी, कोई सिविल सर्विस, लेकिन आज तक न सुना कि कोई एडीटरी का काम सीखने गया। क्यों सीखे किसी को क्या पड़ी है कि जीवन की महत्त्वाकांक्षाओं(एम्बिशन) को खाक में मिला कर, त्याग और वैराग में उम्र काटे? हाँ जिनको पागलपन सवार हो गया हो उनकी बात निराली है।”

ईश्वरचंद्र- “जीवन का उद्देश्य सिर्फ धन-संचय करना ही नहीं है।”

मानकी- “अभी तुमने वकीलों की बुराई करते हुए कहा यह लोग दूसरों की कमाई खा कर मोटे होते हैं। अखबार चलाने वाले भी तो दूसरों की ही कमाई खाते हैं।”

ईश्वरचंद्र ने बगलें झाँकते हुए कहा- “हम लोग दूसरों की कमाई खाते हैं तो दूसरों पर जान भी देते हैं। वकीलों की तरह किसी को लूटते नहीं।”

मानकी- “यह तुम्हारी जिद है। वकील भी तो अपने मुवक्किलों के लिए जान लड़ा देते हैं। उनकी कमाई भी उतनी ही है जितनी अखबार वालों की। अंतर सिर्फ इतना है कि एक की कमाई पहाड़ी होता है दूसरे की बरसाती नाला। एक में रोज जलप्रवाह होता है दूसरे में रोज धूल उड़ा करती है। बहुत हुआ तो बरसात में थोड़ी देर के लिए पानी आ गया।”

ईश्वर.- “पहले तो मैं यही नहीं मानता कि वकीलों की कमाई हलाल है और यह मान भी लूँ तो यह किसी तरह नहीं मान सकता कि सभी वकील फूलों की सेज पर सोते हैं। अपनी-अपनी किस्मत सभी जगह है। कितने ही वकील हैं जो झूठी गवाहियाँ दे कर पेट पालते हैं। इस देश में अखबारों का प्रचार अभी बहुत कम है इसी कारण अखबार चलाने वालों की आर्थिक हालत अच्छी नहीं है। यूरोप और अमरीका में अखबार चला कर लोग करोड़पति हो गये हैं। इस समय दुनिया के सभी विकसित (developed) देशों के सूत्रधार या तो अखबारों के सम्पादक और लेखक हैं या अखबारों के मालिक। ऐसे कितने ही अरबपति हैं जिन्होंने अपनी सम्पत्ति की नींव अखबारों पर ही खड़ी की थी…”

ईश्वरचंद्र साबित करना चाहते थे कि पैसा, नाम और सम्मान पाने का अखबार चलाने से बढ़िया और कोई तरीका नहीं है और सबसे बड़ी बात तो यह है कि इस जीवन में सच्चाई और इंसाफ की रक्षा करने के सच्चे मौके मिलते हैं। लेकिन मानकी पर इस  का जरा भी असर न हुआ। मोटी आँख को दूर की चीजें साफ नहीं दीखतीं। मानकी के सामने सफल सम्पादक का कोई उदाहरण न था।

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