(hindi) SUKHDEV

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आज हम आजाद भारत में रहते हैं।  पर पहले ऐसा नहीं था। कई सालों तक भारत गुलाम बना रहा। हमारी मातृभूमि पर एक जुल्मी शासन का राज हुआ करता था जिसे लोगों की बिल्कुल भी परवाह नहीं थी। उन सभी ने हमारे देश का शोषण किया और हमारे देशवासियों को अपने सुख और आराम के लिए परेशान किया।

लेकिन हम चुपचाप सहने वालो में नहीं थे। इस धरती को जिसे गुलाम बना कर मजबूर किया गया था, कई देशभक्त पैदा हुए जिन्होंने अपने देश के लिए और जो सही था उसके लिए अपने जान की बाज़ी लगा दी। उन्होंने अपनी मातृभूमि को आजाद कराने के लिए अपना खून-पसीना तक बहा दिया। हालांकि बहुत से लोग हमें याद हैं, जिन्होंने आजादी के संग्राम में हिस्सा लिया , लेकिन कईयों को हम वक्त के साथ भूल गए हैं। तो चलिए हम ऐसे ही एक वीर योद्धा सुखदेव को याद करें, उनके बारे में जानें और उनकी बहादुरी को नमन करें।

बात 15 मई 1907 की है। नौगढ़ लुधियाना में रामलाल और रल्ली देवी थापर के घर सुखदेव ने जन्म लिया। जब सुखदेव पैदा हुए तब भारत पर अंग्रेजो का राज था, और इसका असर हर तरफ दिखाई दे रहा था। सभी अंग्रेजो से दुखी थे। बचपन से ही उनके माता पिता ने उन्हें सीख दी कि कभी  “ज़ुल्म नहीं सहना और अत्याचार के सामने घुटने नहीं टेकना “। उन्हें  अन्याय से लड़ना सिखाया गया। यह वह जरुरी सीख थी जो उन्होंने बचपन में सीखी। जिसने उनके  भविष्य को बनाया और भारत की आजादी का रास्ता दिखाया।

माता-पिता के गुज़रने के बाद, सुखदेव को उनके चाचा लाला अचिंतराम ने पाला, जो बिलकुल उनके माता पिता जैसे सोच विचार रखते थे। सुखदेव HSRA (Hindustan Socialist Republican Association) के ख़ास सदस्य बन गए जो देश की आजादी के लिए लड़ रहे थे । यह आर्गेनाइजेशन पंजाब और उत्तर भारत में घटने वाली क्रांतिकारी घटनाओं के लिए जिम्मेदार था।

सुखदेव ने लाहौर के कॉलेज में एडमिशन लिया। जब वह वहां पढ़ रहे थे तो उन्होंने महसूस किया कि उनके साथ पढ़ने वाले साथी अपने आस पास की घटनाओं से बिलकुल बेखबर थे, उन्हें पता ही नहीं था कि उनके देश में क्या हो रहा है। वे भारत के शानदार इतिहास से अनजान थे।सुखदेव ऐसे घर में पले-बढ़े थे जहाँ देशभक्ति को सबसे ऊँचा स्थान दिया जाता था  जिस वजह से देश के लिए कुछ करने और उसके सम्मान को बनाये रखने की आग उनके अंदर पैदा होने लगी थी। पर वह जानते थे कि अगर वही आग अपने दोस्तों के अंदर नहीं जगा सकते तो इस जुनून  का कोई फायदा नहीं होगा।

उन्हें लगा कि इस समय भारत के नौजवानों को भारत के बीते हुए समय के बारे में बताने की जरुरत है और अच्छे भविष्य के लिए उनमें लड़ने की हिम्मत जगाने की ज़रुरत है। इसलिए, उन्होंने अपने कॉलेज में भाषण देना शुरू कर दिया। उन्होंने भारत के सुनहरे इतिहास के बारे में उस कॉलेज के लोगों को याद दिलाना शुरू किया। उन्होंने उनमें  अपनी मातृभूमि के लिए खड़े होने का ज़ज्बा जगाना शुरू किया । उनकी बातों ने कई नौजवानों में जोश भरा जो बाद में अपने देश की लड़ाई में शामिल हुए।

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जब भारत आजादी के लिए लड़ रहा था, तब लोगों का एक समूह था और ये सभी लोग अपने तरीके से लड़ रहे थे। कुछ लोग सोच रहे थे कि वे बिना लड़ाई-झगड़े के देश को आजाद करा सकते हैं और वे महात्मा गांधी के बताये रास्ते पर चल पड़े और बड़े प्यार से उनकी बातो को माना। फिर रवींद्रनाथ टैगोर, बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय और काजी नजरूल इस्लाम जैसे कवि और लेखक आए, जो अपने लिखे हुए विचारो से लोगों को समझाने की कोशिश करते थे। तब सरोजिनी नायडू ने औरतों को पढ़ाने और उनकी हालत में सुधार लाने के लिए काम किया।

उसके बाद, बाबासाहेब अम्बेडकर जैसे महान लोग थे जो दलितों के हालात सुधारने के लिए कोशिश कर रहे थे। और फिर वहाँ राष्ट्रवादियों की सोच थी कि ब्रिटिश शासन सिर्फ़ ताकत के दम पर ही झुक सकता है। इस सोच के साथ आगे आने वाले सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह, और बहुत से लोग थे।

तरीके अलग जरूर थे, पर सभी का लक्ष्य एक था “अपना-शासन” यानी “स्वराज्य”। इन सभी ने भारत में ब्रिटिश साम्राज्य को खत्म करने का डर पैदा कर दिया था।

सुखदेव का मानना था कि वह लड़ाई में विश्वास रखने वाले देशभक्तों के जैसे हैं। उनका मानना था कि आजादी के लिए उन्हें ताकत इस्तेमाल करने की ज़रुरत होगी। अब, ज्यादातर लोगो की सोच गलत होती है कि ताकत से लड़ने वाले लोग जंगली और क्रूर होते हैं । जबकि यह सच से बिलकुल परे है।

सच कहे तो सुखदेव बहुत समझदार थे और उन्होंने world literature पढ़ा था। उन्होंने खासतौर पर रूसी क्रांति के चारों ओर घूमने वाले साहित्य पर बहुत ध्यान दिया। इन क्रांतियों से उन्हें कुछ उमीदें थी कि अपने देश को आजाद कैसे कर सकते हैं।

सुखदेव ने देखा कि देश को एक ऐसे आर्गेनाइजेशन की जरूरत है, जिससे लोग उनके आस-पास होने वाली घटनाओं के बारे में जान सकें, इससे अत्याचारों के खिलाफ लड़ने के लिए वो उन्हें रास्ता दिखा पाएँगे । इसलिए, उन्होंने भगत सिंह, रामचंद्र और भगवती वोहरा के साथ लाहौर में “नौजवान भारत सभा” की शुरुआत की। इस आर्गेनाइजेशन  को शुरू करने का पहला लक्ष्य नौजवानों  को देश के लिए मर मिटने के लिए तैयार करना था। हालाँकि, बस एक यही लक्ष्य नहीं था।

उन्होंने  देखा कि उनके  आस-पास के लोग पढ़े-लिखे नहीं थे और वे अंधविश्वासी थे। इसलिए, उन्होंने लोगों को साइंस के बारे में बताने की सोची। उन्होंने देखा कि धर्म की अलग-अलग सोच के कारण बंटवारा और शासन नीति को लागू करके झगड़े हो रहे थे, इसलिए उनका अगला मकसद जाती के नाम पर हो रही लड़ाई के खिलाफ आवाज़ उठाना था। उनके ध्यान में यह भी आया कि भारत के लोग एक दूसरे के साथ भेदभाव कर रहे थे, इसलिए उनका   आखिरी लक्ष्य था “छुआ-छूत के बुरे रिवाज को खत्म करना”।

इतना ही नहीं, Hindustan Socialist Republican Association के एक ख़ास क्रांतिकारी के रूप में, वह भगत सिंह और शिवराम राजगुरु के साथ ब्रिटिश सरकार के खिलाफ कई आंदोलन चला रहे थे।

उनकी लगातार क्रांतियां ब्रिटिश सरकार के लिए बहुत बड़ी मुसीबत बन गई थी। बस ये तीन लोग ही उनकी समस्या का कारण नहीं थे, बल्कि और भी कई क्रांतिकारी इस समय आगे आने लगे थे ।

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