(hindi) Vismruti

(hindi) Vismruti

चित्रकूट के सन्निकट धनगढ़ नामक एक गाँव है। कुछ दिन हुए वहाँ शानसिंह और गुमानसिंह दो भाई रहते थे। ये जाति के ठाकुर (क्षत्रिय) थे। लड़ाई में बहादुरी के कारण उनके पूर्वजों को जमीन का एक भाग मुफ्त मिला था। खेती करते थे, भैंसें पाल रखी थीं, घी बेचते थे, मट्ठा खाते थे और खुशी से समय काट रहे थे। उनकी एक बहन थी, जिसका नाम दूजी था। जैसा नाम वैसा गुण। दोनों भाई मेहनती और बहुत ही हिम्मती थे। बहन बहुत ही कोमल, नाजुक, सिर पर घड़ा रख कर चलती तो उसकी कमर बल खाती थी; लेकिन तीनों अभी तक कुँवारे थे। साफ था कि उन्हें शादी की चिंता न थी। बड़े भाई शानसिंह सोचते, छोटे भाई के रहते हुए अब मैं अपना शादी कैसे करूँ। छोटे भाई गुमानसिंह शर्म के कारण अपनी इच्छा बता न पाते थे कि बड़े भाई से पहले मैं अपनी शादी कर लूँ ? वे लोगों से कहा करते थे कि- “भाई, हम बड़े खुशी से हैं, खुशी से खाना खाकर मीठी नींद सोते हैं। कौन यह झंझट सिर पर ले?”

लेकिन शादी के महीनों में कोई नाई या ब्राह्मण गाँव में दुल्हा ढूँढ़ने आ जाता तो उसकी सेवा-सत्कार में कोई कमी न रखते थे। पुराने चावल निकाले जाते, पालतू बकरे देवी को बलि करते, और दूध की नदियाँ बहने लगती थीं। यहाँ तक कि कभी-कभी उसके भाई का प्यार मुकाबले और दुश्मनी-के भाव के रूप में बदल जाता था। इन दिनों में इनकी दयालुता बढ़ जाती थी, और इसमें फ़ायदा उठाने वालों की भी कमी न थी। कितने ही नाई और ब्राह्मण शादी की  झूठी खबर ले कर उनके यहाँ आते, और दो-चार दिन पूड़ी-कचौड़ी खाकर  कुछ विदाई ले कर वरक्षा (फलदान) भेजने का वादा करके अपने घर का रास्ता लेते। लेकिन दूसरे लग्न तक वह दिखाई तक न देते थे। किसी न किसी कारण भाइयों की यह मेहनत बेकार हो जाती थी। अब कुछ उम्मीद थी, तो दूजी से थी । भाइयों ने यह तय कर लिया था कि इसकी शादी वहीं पर की जाये, जहाँ से एक बहू मिल सके।

इसी बीच गाँव का बूढ़ा कारिन्दा मर गया। उसकी जगह  एक नवयुवक ललनसिंह आया जो अँगरेज़ी में पढ़ा लिखा हुआ शौकीन, रंगीन और रसीला आदमी था। दो-चार दिनों में ही उसने पनघटों, तालाबों और झरोखों की देखभाल अच्छी तरह कर ली थी । आखिर में उसकी रसभरी नजर दूजी पर पड़ी। उसकी कोमलता और सुंदरता पर वो मुग्ध हो गया। भाइयों से प्यार और आपसी मेल-जोल पैदा किया।

कुछ शादी के बारे में बातचीत छेड़ दी। यहाँ तक कि हुक्का-पानी भी साथ-साथ होने लगा। सुबह शाम इनके घर पर आया करता। भाइयों ने भी उसके आदर-सम्मान की चीजें जमा कीं। पानदान ख़रीद लाये, कालीन खरीदी। वह दरवाजे पर आता तो दूजी तुरंत पान के बीड़े बनाकर भेजती। बड़े भाई कालीन बिछा देते और छोटे भाई तश्तरी में मिठाइयाँ रख लाते। एक दिन श्रीमान ने कहा- “भैया शानसिंह, भगवान की दया हुई तो अब की लग्न में भाभीजी आ जायेंगी। मैंने सब बातें ठीक कर ली हैं।”

शानसिंह की बाछें खिल गयीं। गुजारिश भरी नजरों से देख कर कहा- “मैं अब इस हालात में क्या करूँगा। हाँ, गुमानसिंह की बातचीत कहीं ठीक हो जाती, तो पाप कट जाता।”

गुमानसिंह ने ताड़ का पंखा उठा लिया और झलते हुए बोले- “वाह भैया ! कैसी बात कहते हो ?”

ललनसिंह ने अकड़कर शानसिंह की ओर देखते हुए कहा- “भाई साहब, क्या कहते हो, अबकी लग्न में दोनों भाभियाँ छमाछम करती हुई घर में आवें तो बात है ! मैं ऐसा कच्चा मामला नहीं रखता। तुम तो अभी से बुड्ढों की तरह बातें करने लगे। तुम्हारी उम्र हालांकि पचास से भी ज्यादा हो गयी, पर देखने में चालीस साल से भी कम मालूम होती है। अब दोनों की शादी होगी , बीच खेत होगी । यह तो बताओ, कपड़ों गहनों का पूरा इंतजाम है न ?”

शानसिंह ने उनके जूतों को सीधा करते हुए कहा- “भाई साहब ! आप की अगर ऐसी दया है, तो सब कुछ हो जायेगा। आखिर इतने दिन कमा-कमा कर क्या किया है।”

गुमानसिंह घर में गये, हुक्का ताजा किया, तम्बाकू में दो-तीन बूँद इत्र के डाले, चिलम भरी, दूजी से कहा, कि शरबत घोल दे और हुक्का ला कर ललनसिंह के सामने रख दिया।

ललनसिंह ने दो-चार दम लगाये और बोले- “नाई दो-चार दिन में आने वाला है। ऐसा घर चुना है कि मन खुश हो जाये. एक विधवा है, दो बेटियाँ, एक से एक सुंदर। विधवा दो-एक साल में गुजर जाएगी और तुम पूरे गाँव में दो आने के हिस्सेदार बन जाओगे। गाँव वाले जो अभी हँसी करते हैं, पीछे जल-जल कर मर जाएँगे । हाँ, डर इतना ही है कि कोई बुढ़िया के कान न भर दे कि सारा बना-बनाया खेल बिगड़ जाये।”

शानसिंह के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। गुमानसिंह के चहरे की चमक  कम हो गयी। कुछ देर बाद शानसिंह बोले- “अब तो आपकी ही आशा है, आपकी जैसी राय हो, किया जाय।”

जब कोई आदमी हमारे साथ बिना किसी कारण के दोस्ती करने लगे तो हमें सोचना चाहिए कि इसमें उसका कोई स्वार्थ तो नहीं छिपा है। अगर हम अपने सीधेपन से इस धोखे में पड़ जायँ कि कोई इंसान हमें सिर्फ एहसानमंद बनाने के लिए हमारी मदद करने लिए तैयार है तो हमें धोखा खाना पड़ेगा। लेकिन अपने स्वार्थ की धुन में ये मोटी-मोटी बातें भी हमारी नजरों से छिप जाती हैं और धोखा अपने रँगे हुए भेष में आकर हमें हमेशा के लिए आपसी व्यवहार का उपदेश देता है।

शानसिंह और गुमानसिंह ने सोच समझ कर कुछ भी काम न लिया और ललनसिंह के फंदे में फंसते चले गये। दोस्ती ने यहाँ तक पाँव पसारे कि भाइयों के न होने पर भी वह बेधड़क घर में घुस जाते और आँगन में खड़े हो कर छोटी बहन से पान-हुक्का माँगते। दूजी उन्हें देखते ही बड़ी खुशी से पान बनाती। फिर दोनों की आँखें मिलतीं, एक प्यार की उम्मीद से बेचैन, दूसरी शर्म से छुपी हुई। फिर मुस्कराहट की झलक होंठों पर आती। आँखों की ठंडक कलियों को खिला देती। दिल आँखों से बातें कर लेते।

इस तरह प्यार और इच्छा बढ़ती गयी। उस तरह नजर मिलने में, जो भावनाओं का बाहरी रूप था, परेशानी और बेचैनी की हालत पैदा हुई। वह दूजी, जिसे कभी सामान बेचने वाले की आवाज भी दरवाजे से बाहर न निकाल सकती थी, अब प्यार में पड़ कर इंतजार की मूर्ति बनी हुई घंटों दरवाज़े पर खड़ी रहती। उन दोहे और गीतों में, जिन्हें वह कभी मजाक में गाया करती थी, उसे खास लगाव और बिछड़ने का सा दर्द महसूस होने लगा था । मतलब यह कि प्यार का रंग गाढ़ा हो गया था ।

धीरे-धीरे गाँव में बात होने लगी। घास और कास खुद उगते हैं। उखाड़ने से भी नहीं जाते। अच्छे पौधे बड़ी देख-रेख से उगते हैं। इसी तरह बुरी खबर खुद फैलती  हैं, छिपाने से भी नहीं छिपती । पनघटों और तालाबों के किनारे इस बारे में कानाफूसी होने लगी। गाँव की बनियाइन, जो अपनी तराजू पर दिलों को तोलती थी और ग्वालिन जो पानी में प्यार का रंग देकर दूध का दाम लेती थी और तम्बोलिन जो पान के बीड़ों से दिलों पर रंग जमाती थी, बैठ कर दूजी के उतावलेपन और बेशर्मी की बातें करने लगीं। बेचारी दूजी का घर से निकलना मुश्किल हो गया। सखी-सहेलियाँ और बड़े-बूढ़े  सभी उसे ताने मारते। सखी-सहेलियाँ हँसी से छेड़तीं और बूढ़ी औरतें दिल दुखाने वाले तानो से।

आदमियों तक बातें फैलीं। ठाकुरों का गाँव था। उनके गुस्से की आग भड़की। आपस में सम्मति हुई कि ललनसिंह को इस बदमाशी की सजा देना सही होगा। दोनों भाइयों को बुलाया और बोले- “भैया, क्या अपनी इज्जत को बर्बाद करके शादी करोगे ?”

दोनों भाई चौंक पड़े। उन्हें शादी की उम्मीद में यह होश ही न था कि घर में क्या हो रहा है। शानसिंह ने कहा- “तुम्हारी बात मेरी समझ में नहीं आयी। साफ-साफ क्यों नहीं कहते।”

एक ठाकुर ने जवाब दिया- “साफ-साफ क्या कहलाते हो। इस बदमाश ललनसिंह का अपने यहाँ आना-जाना बंद कर दो, तुम तो अपनी आँखों पर पट्टी बाँधे ही हो, पर उसकी जान की खैर नहीं। हमने अभी तक इसीलिए कुछ नहीं कहा कि शायद तुम्हारी आँखें खुल जाएँ, लेकिन लगता है कि तुम्हारे ऊपर उसने कोई जादू कर दिया है। शादी क्या अपनी इज्जत बेच कर करोगे ? तुम लोग खेत में रहते हो और हम लोग अपनी आँखों से देखते हैं कि वह बदमाश अपना बनाव-सँवार किये आता है और तुम्हारे घर में घंटों घुसा रहता है। तुम उसे अपना भाई समझते हो तो समझा करो, हम तो ऐसे भाई का गला काट लें जो धोखा करे।”

भाइयों की आँखें खुलीं। दूजी के बुखार के बारे में जो शक था, वह प्यार का बुखार निकला। उनके खून में उबाल आया। आँखों में चिनगारियाँ उमड़ी । तेवर बदले। दोनों भाइयों ने एक दूसरे की ओर गुस्से भरी नजर से देखा। मन के भाव जुबान तक न आ सके। अपने घर आये; लेकिन दरवाजे पर पाँव रखा ही था कि ललनसिंह से मुठभेड़ हो गयी।

ललनसिंह ने हँस कर कहा- “वाह भैया ! वाह ! हम तुम्हारी खोज में बार-बार आते हैं, लेकिन तुम दिखाई तक नहीं देते। मैंने समझा, आखिर रात में तो कुछ काम न होगा। लेकिन देखता हूँ, आपको इस समय भी छुट्टी नहीं है।”

शानसिंह ने दिल के अंदर गुस्से की आग को दबा कर कहा- “हाँ, इस समय सच में छुट्टी नहीं है।”

ललनसिंह- “आखिर क्या काम है ? मैं भी सुनूँ।”

शानसिंह- “बहुत बड़ा काम है, आपसे छिपा न रहेगा।”

ललनसिंह- “कुछ कपड़े गहने का भी इंतजाम कर रहे हो ? अब लग्न सिर पर आ गया है।”

शानसिंह- “अब बड़ा लग्न सिर पर आ पहुँचा है, पहले इसका इंतजाम करना है।”

ललनसिंह- “क्या किसी से ठन गयी ?”

शानसिंह- “अच्छी-तरह।”

ललनसिंह- “किससे ?”

शानसिंह- “इस समय जाइये, सुबह बतलाऊँगा।”

दूजी भी ललनसिंह के साथ दरवाजे की चौखट तक आयी थी। भाइयों की आहट पाते ही ठिठक गयी और यह बातें सुनीं। उसका माथा ठनका कि आज क्या मामला है। ललनसिंह का कुछ आदर-सत्कार नहीं हुआ। न हुक्का, न पान। क्या भाइयों के कानों में कुछ भनक तो नहीं पड़ी। किसी ने कुछ लगा तो नहीं दिया। अगर ऐसा हुआ तो ठीक नहीं हुआ ।

इसी उधेड़बुन में पड़ी थी कि भाइयों ने खाना परोसने को कहा। जब वह खाना खाने बैठे तो दूजी ने अपनी बेगुनाही और पवित्रता साबित करने के लिए और अपने भाइयों के दिल की बात जानने के लिए कुछ कहना चाहा। बात बनाने में अभी ज्यादा अच्छी न थी। बोली- “भैया, ललनसिंह से कह दो, घर में न आया करें। आप घर में रहिए तो कोई बात नहीं, लेकिन कभी-कभी आप नहीं रहते तो मुझे बहुत ही शर्म आती है। आज ही वह आपको पूछते हुए चले आये, अब मैं उनसे क्या कहूँ। आपको नहीं देखा तो लौट गये !”

शानसिंह ने बहन की तरफ ताने-भरी नजरों से देख कर कहा- “अब वह घर में न आयेंगे।”

गुमानसिंह बोले- “हम इसी समय जा कर उन्हें समझा देंगे।”

भाइयों ने खाना खा लिया। दूजी को कुछ और कहने की हिम्मत न हुई। उसे उनके तेवर आज कुछ बदले हुए मालूम होते थे। खाने के बाद दोनों भाई दीपक ले कर भंडारे के कमरे में गये। गैर जरूरी बर्तन, पुराने सामान, पुरुखों के समय के हथियार आदि इसी कमरे में रखे हुए थे। गाँव में जब कोई बकरा देवी जी को भेंट दिया जाता तो यह कमरा खुलता था। आज तो कोई ऐसी बात नहीं है। इतनी रात गये यह कमरा क्यों खोला जाता है ? दूजी को किसी आने वाली दुर्घटना का शक हुआ। वह दबे पाँव दरवाजे पर गयी तो देखती क्या है कि गुमानसिंह एक कटार लिये पत्थर पर रगड़ रहा है। उसका कलेजा धक्-धक् करने लगा और पाँव थर्राने लगे।

वह उल्टे पाँव लौटना चाहती थी कि शानसिंह की आवाज़ सुनायी दी-‘‘इसी समय एक घड़ी में चलना ठीक है। पहली नींद बड़ी गहरी होती है। बेधड़क सोता होगा।’’

गुमानसिंह बोले-‘‘अच्छी बात है, देखो, कटार की धार। एक हाथ में काम तमाम हो जायेगा।’’

दूजी को ऐसा लगा मानो किसी ने पहाड़ से ढकेल दिया हो । सारी बातें उसकी समझ में आ गयीं। वह डर की हालत में घर से निकली और ललनसिंह के चौपाल की ओर चली। लेकिन वह अँधेरी रात प्यार की घाटी थी और वह रास्ता प्यार का कठिन रास्ता। वह इस सुनसान अँधेरी रात में चौकन्ने नजरों से इधर-उधर देखती, बेचैनी की हालत में जल्दी जल्दी चली जाती थी। लेकिन हाय निराशा !

एक-एक पल उसे प्यार के घर से दूर लिये जाता था। उस अँधेरी भयानक रात में भटकती, न जाने वह कहाँ चली जा रही थी, किससे पूछे। शर्म के कारण किसी से कुछ न पूछ सकती थी। कहीं चूड़ियों का झनझनाना राज न खोल दे। क्या इन बदकिस्मत गहनों को आज ही झनझनाना है? आखिर में एक पेड़ के नीचे वह बैठ गयी। सब चूड़ियाँ चूर-चूर कर दीं, गहने उतार कर आँचल में बाँध लिये। लेकिन हाय ! यह चूड़ियाँ सुहाग की चूड़ियाँ थीं और यह गहने सुहाग के गहने थे जो एक बार उतार कर फिर न पहने गये।

उसी पेड़ के नीचे पयस्विनी नदी पत्थर के टुकड़ों से टकराती हुई बहती थी। यहाँ नावों का गुजारा मुश्किल था। दूजी बैठी हुई सोचती, क्या मेरे जीवन की नदी में प्यार की नाव दुख के पत्थरों से टकराकर डूब जायेगी !

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