(hindi) Raja Hardaul

(hindi) Raja Hardaul

बुंदेलखंड में ओरछा पुराना राज्य है। इसके राजा बुंदेले हैं। इन बुंदेलों ने पहाड़ों की घाटियों में अपना जीवन बिताया है। एक समय ओरछे के राजा जुझार सिंह थे। ये बड़े हिम्मती और बुद्धिमान थे। शाहजहाँ उस समय दिल्ली के बादशाह थे। जब शाहजहाँ लोदी ने बगावत की और वह शाही मुल्क को लूटता-पाटता ओरछे की ओर आ निकला, तब राजा जुझार सिंह ने उससे मोर्चा लिया। राजा के इस काम से शाहजहाँ बहुत खुश हुए। उन्होंने तुरंत ही राजा को दक्षिण के शासन की जिम्मेदारी सौंपी। उस दिन ओरछे में जश्न मनाया गया । शाही दूत खिलअत(सम्मान में दिया जाने वाला कपड़ा) और प्रमाण पत्र ले कर राजा के पास आया। जुझार सिंह को बड़े-बड़े काम करने का मौका मिला।

सफ़र की तैयारियाँ होने लगीं, तब राजा ने अपने छोटे भाई हरदौल सिंह को बुला कर कहा,

“भैया, मैं तो जाता हूँ। अब यह राज-पाट तुम्हारे हवाले है। तुम भी इसे दिल से प्यार करना! इंसाफ ही राजा का सबसे बड़ा सहायक है। इंसाफ के किले में कोई दुश्मन नहीं घुस सकता, चाहे वह रावण की सेना या इंद्र की ताकत लेकर आए, पर इंसाफ वही सच्चा है, जिसे जनता भी इंसाफ समझे। तुम्हारा काम सिर्फ इंसाफ करना ही न होगा, बल्कि जनता को अपने इंसाफ का भरोसा भी दिलाना होगा और मैं तुम्हें क्या समझाऊँ, तुम खुद समझदार हो।”

यह कह कर उन्होंने अपनी पगड़ी उतारी और हरदौल सिंह के सिर पर रख दीं। हरदौल रोता हुआ उनके पैरों से लिपट गया। इसके बाद राजा अपनी रानी से विदा होने के लिए रनिवास(राजा के परिवार की औरतों के रहने की जगह या महल) आए। रानी दरवाज़े पर खड़ी रो रही थी। उन्हें देखते ही पैरों पर पड़ी। जुझार सिंह ने उठा कर उसे गले से लगाया और कहा, “प्यारी, यह रोने का समय नहीं है। बुंदेलों की पत्नियां ऐसे मौका पर रोया नहीं करतीं। भगवान ने चाहा, तो हम-तुम जल्द मिलेंगे। मुझ से ऐसे ही प्यार करना। मैंने राज-पाट हरदौल को सौंपा है, वह अभी बच्चा है। उसने अभी दुनिया नहीं देखी है। अपनी सलाह से उसकी मदद करती रहना।”

रानी की ज़बान बंद हो गई। वह अपने मन में कहने लगी, “हाय यह कहते हैं, बुंदेलों की पत्नियां ऐसे मौकों पर रोया नहीं करतीं। शायद उनके दिल नहीं होता, या अगर होता है तो उसमें प्यार नहीं होता!” रानी कलेजे पर पत्थर रख कर आँसू पी गई और हाथ जोड़ कर राजा की ओर मुस्कराती हुई देखने लगी; पर क्या वह मुस्कराहट थी। जिस तरह अंधेरे मैदान में मशाल की रोशनी अंधेरे को और भी बढ़ा देती है, उसी तरह रानी की मुस्कराहट उसके मन के असीमित दुख को और भी दिखा रही थी।

जुझार सिंह के चले जाने के बाद हरदौल सिंह राज करने लगा। थोड़े ही दिनों में उसके इंसाफ और जनता के लिए प्यार ने जनता का मन जीत लिया। लोग जुझार सिंह को भूल गए। जुझार सिंह के दुश्मन भी थे और दोस्त भी; पर हरदौल सिंह का कोई दुश्मन न था, सब दोस्त ही थे। वह इतना हँसमुख और मीठा बोलने वाला था कि उससे जो बातें कर लेता, वही जीवन भर उसका भक्त बना रहता। राज्य भर में ऐसा कोई न था जो उसके पास तक न पहुँच सकता हो। रात-दिन उसके दरबार का दरवाजा सबके लिए खुला रहता था। ओरछे को कभी ऐसा सब को पसंद आने वाला राजा नसीब न हुआ था। वह दयालु था, भरोसेमंद था, विद्या और गुण पसंद करने वाला था, पर सबसे बड़ा गुण जो उसमें था, वह उसकी वीरता थी। उसका वह गुण हर दर्जे को पहुँच गया था। जिस जाति के जीवन का आधार तलवार पर है, वह अपने राजा के किसी गुण को इतना पसंद नहीं करती जितना उसकी वीरता को। हरदौल अपने गुणों से अपनी जनता के मन का भी राजा हो गया, जो देश और दौलत पर राज करने से भी मुश्किल है। इस तरह एक साल बीत गया। उधर दक्षिण में जुझार सिंह ने अपने शासन से चारों ओर शाही दबदबा जमा दिया, इधर ओरछे में हरदौल ने जनता पर मोहन-मंत्र फूँक दिया।

फाल्गुन का महीना था, रंग और गुलाल से ज़मीन लाल हो रही थी। कामदेव का प्रभाव लोगों को भड़का रहा था। रबी(एक तरह की फसल) ने खेतों में सुनहरा फ़र्श बिछा रखा था और खेतों में सुनहरे महल उठा दिए थे। संतोष इस सुनहरे फ़र्श पर इठलाता फिरता था और बेफिक्री उस सुनहरे महल में गाने गा रही थी। इन्हीं दिनों दिल्ली का मशहूर फेकैती(भाला चलाने वाला योद्धा) कादिर खाँ ओरछे आया। बड़े-बड़े पहलवान उसका लोहा मान गए थे। दिल्ली से ओरछे तक सैंकड़ों मर्दानगी(शरीर की ताकत) के घमंड में  मतवाले उसके सामने आए, पर कोई उससे जीत न सका।

उससे लड़ना किस्मत से नहीं, बल्कि मौत से लड़ना था। वह किसी इनाम का भूखा न था। जैसा ही दिल का दिलेर था, वैसा ही मन का राजा था। ठीक होली के दिन उसने धूम-धाम से ओरछे में खबर दी कि “खुदा का शेर दिल्ली का कादिर खाँ ओरछे आ पहुँचा है। जिसे अपनी जान भारी हो, आ कर अपनी किस्मत का निपटारा कर ले।” ओरछे के बड़े-बड़े बुंदेले सूरमा वह घमंड-भरी बातें सुन कर गरम हो उठे। फाग और डफ के गानों के बदले ढोल की आवाज सुनाई देने लगी। हरदौल का अखाड़ा ओरछे के पहलवानों और फेकैतों का सबसे बड़ा अड्डा था। शाम को यहाँ सारे शहर के सूरमा जमा हुए। कालदेव और भालदेव बुंदेलों की नाक थे, सैंकड़ों मैदान मारे हुए। ये दोनों पहलवान कादिर खाँ का घमंड चूर करने के लिए गए।

दूसरे दिन क़िले के सामने तालाब के किनारे बड़े मैदान में ओरछे के छोटे-बड़े सभी जमा हुए। कैसे-कैसे सजीले, अलबेले जवान थे, सिर पर खुशरंग बांकी पगड़ी, माथे पर चंदन का तिलक, आँखों में मर्दानगी का नशा, कमर में तलवार। और कैसे-कैसे बूढ़े थे, तनी हुईं मूँछें, सफेद पर तिरछी पगड़ी, कानों में बँधी हुई दाढ़ियाँ, देखने में तो बूढ़े, पर काम में जवान, किसी को कुछ न समझने वाले। उनकी आदमियों वाली चाल-ढाल नौजवानों को शर्मिंदा करती थी। हर एक के मुँह से वीरता की बातें निकल रही थीं। नौजवान कहते थे, “देखें आज ओरछे की इज्जत रहती है या नहीं।” पर बूढ़े कहते- “ओरछे की हार कभी नहीं हुई, न होगी।” वीरों का यह जोश देख कर राजा हरदौल ने बड़े ज़ोर से कहा , “खबरदार, बुंदेलों की इज्जत रहे या न रहे; पर उनके नाम में आंच न आए। अगर किसी ने औरों को यह कहने का मौका दिया कि ओरछे वाले तलवार से न जीत सके तो धांधली कर बैठे, वह अपने को जाति का दुश्मन समझे।”

सूरज निकल आया था। अचानक नगाड़े पर चोट पड़ी और उम्मीद तथा डर ने लोगों के दिल को उछाल कर मुँह तक पहुँचा दिया। कालदेव और कादिर खाँ दोनों लँगोट कसे शेरों की तरह अखाड़े में उतरे और गले मिल गए। तब दोनों तरफ़ से तलवारें निकलीं और दोनों के बगलों में चली गईं। फिर बादल के दो टुकड़ों से बिजलियाँ निकलने लगीं। पूरे तीन घंटे तक यही मालूम होता रहा कि दो अंगारे हैं। हज़ारों आदमी खड़े तमाशा देख रहे थे और मैदान में आधी रात का-सा सन्नाटा छाया था। हाँ, जब कभी कालदेव पेंचीदा हाथ चलाता या कोई पेंचदार वार बचा जाता, तो लोगों की गर्दन आप ही आप उठ जाती; पर किसी के मुँह से एक शब्द भी नहीं निकलता था। अखाड़े के अंदर तलवारों की खींचतान थी; पर देखनेवालों के लिए अखाड़े से बाहर मैदान में इससे भी बढ़ कर तमाशा था। बार-बार जातीय इज्जत की सोच से मन के भावों को रोकना और खुशी या दुख का शब्द मुँह से बाहर न निकलने देना तलवारों के वार बचाने से ज्यादा मुश्किल काम था। अचानक कादिर खाँ 'अल्लाहो-अकबर' चिल्लाया, मानो बादल गरज उठा और उसके गरजते ही कालदेव के सिर पर बिजली गिर पड़ी।

कालदेव के गिरते ही बुंदेलों को सब्र न रहा। हर एक के चेहरे पर कमजोर गुस्सा और कुचले हुए घमंड की तस्वीर खिंच गई। हज़ारों आदमी जोश में आ कर अखाड़े पर दौड़े, पर हरदौल ने कहा, “खबरदार! अब कोई आगे न बढ़े।” इस आवाज़ ने पैरों के साथ जंजीर का काम किया। देखने वालों को रोक कर जब वे अखाड़े में गए और कालदेव को देखा, तो आँखों में आँसू भर आए। जख्मी शेर ज़मीन पर पड़ा तड़प रहा था। उसके जीवन की तरह उसकी तलवार के दो टुकड़े हो गए थे।

आज का दिन बीता, रात आई; पर बुंदेलों की आँखों में नींद कहाँ। लोगों ने करवटें बदल कर रात काटी जैसे दुखी इंसान बेचैनी से सुबह का इंतजार करता है, उसी तरह बुंदेले रह-रह कर आकाश की तरफ़ देखते और उसकी धीमी चाल पर झुँझलाते थे। उनके जातीय घमंड पर गहरा घाव लगा था। दूसरे दिन जैसे ही सूरज निकला, तीन लाख बुंदेले तालाब के किनारे पहुँचे। जिस समय भालदेव शेर की तरह अखाड़े की तरफ़ चला, दिलों में धड़कन-सी होने लगी। कल जब कालदेव अखाड़े में उतरा था, बुंदेलों के हौसले बढ़े हुए थे, पर आज वह बात न थी।

दिल में उम्मीद की जगह डर घुसा हुआ था। कादिर खाँ कोई चुटीला वार करता तो लोगों के दिल उछल कर होंठों तक आ जाते। सूरज सिर पर चढ़ा जाता था और लोगों के दिल बैठ जाते थे। इसमें कोई शक नहीं कि भालदेव अपने भाई से फुर्तीला और तेज़ था। उसने कई बार कादिर ख़ाँ को नीचा दिखलाया, पर दिल्ली का काबिल पहलवान हर बार सँभल जाता था। पूरे तीन घंटे तक दोनों बहादुरों में तलवारें चलती रहीं। अचानक खटाके की आवाज़ हुई और भालदेव की तलवार के दो टुकड़े हो गए। राजा हरदौल अखाड़े के सामने खड़े थे। उन्होंने भालदेव की तरफ़ तेज़ी से अपनी तलवार फेंकी। भालदेव तलवार लेने के लिए झुका ही था कि कादिर खाँ की तलवार उसकी गर्दन पर आ पड़ी। घाव गहरा न था, सिर्फ एक 'खरोंच' थी; पर उसने लड़ाई का फैसला कर दिया।

हताश बुंदेले अपने-अपने घरों को लौटे। हालांकि भालदेव अब भी लड़ने को तैयार था; पर हरदौल ने समझा कर कहा कि 'भाइयों, हमारी हार उसी समय हो गई जब हमारी तलवार ने जवाब दे दिया। अगर हम कादिर ख़ाँ की जगह होते तो निहत्थे आदमी पर वार न करते और जब तक हमारे दुश्मन के हाथ में तलवार न आ जाती, हम उस पर हाथ न उठाते; पर कादिर ख़ाँ में यह दयालुता कहाँ? बलवान दुश्मन का सामना करने में दयालुता को ताक पर रख देना पड़ता है। तो भी हमने दिखा दिया है कि तलवार की लड़ाई में हम उसके बराबर हैं अब हमको यह दिखाना रहा है कि हमारी तलवार में भी वैसा ही काबिलियत है!” इसी तरह लोगों को तसल्ली दे कर राजा हरदौल रनिवास को गए।

कुलीना ने पूछा, “लाला, आज दंगल का क्या रंग रहा?”

हरदौल ने सिर झुका कर जवाब दिया, “आज भी वही कल का-सा हाल रहा।”

कुलीना- “क्या भालदेव मारा गया?”

हरदौल- “नहीं, जान से तो नहीं पर हार हो गई।”

कुलीना- “तो अब क्या करना होगा?”

हरदौल- “मैं खुद इसी सोच में हूँ। आज तक ओरछे को कभी नीचा न देखना पड़ा था। हमारे पास पैसा न था, पर अपनी वीरता के सामने हम राज और पैसे कोई चीज़ न समझते थे। अब हम किस मुँह से अपनी वीरता का घमंड करेंगे? ओरछे की और बुंदेलों की इज्जत अब जाती है।

कुलीना- “क्या अब कोई आस नहीं है?”

हरदौल- “हमारे पहलवानों में वैसा कोई नहीं है जो उससे बाजी ले जाए। भालदेव की हार ने बुंदेलों की हिम्मत तोड़ दी है। आज सारे शहर में दुख छाया हुआ है। सैंकड़ों घरों में आग नहीं जली। चिराग रोशन नहीं हुआ। हमारे देश और जाति की वह चीज़ जिससे हमारा मान था, अब आखिरी सांस ले रही है। भालदेव हमारा उस्ताद था। उसके हार चुकने के बाद मेरा मैदान में आना बेवकूफी है; पर बुंदेलों की साख जाती है, तो मेरा सिर भी उसके साथ जाएगा। कादिर खाँ बेशक अपने हुनर में एक ही है, पर हमारा भालदेव कभी उससे कम नहीं। उसकी तलवार अगर भालदेव के हाथ में होती तो मैदान ज़रूर उसके हाथ रहता। ओरछे में सिर्फ एक तलवार है जो कादिर ख़ाँ की तलवार का मुँह मोड़ सकती है। वह भैया की तलवार है। अगर तुम ओरछे की नाक रखना चाहती हो तो उसे मुझे दे दो। यह हमारी आखिरी कोशिश होगी। अगर इस बार भी हार हुई तो ओरछे का नाम हमेशा के लिए डूब जाएगा।”

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