(hindi) Durga Ka Mandir

(hindi) Durga Ka Mandir

बाबू ब्रजनाथ कानून पढ़ने में लगे थे, और उनके दोनों बच्चे लड़ाई करने में। श्यामा चिल्लाती, कि मुन्नू मेरी गुड़िया नहीं देता और मुन्नू रोता कि श्यामा ने मेरी मिठाई खा ली।

ब्रजनाथ ने गुस्सा हो कर भामा से कहा- “तुम इन बदमाशों को यहाँ से हटाती हो कि नहीं ? नहीं तो मैं एक-एक की खबर लेता हूँ।”

भामा चूल्हे में आग जला रही थी, बोली- “अरे तो अब क्या शाम को भी पढ़ते ही रहोगे ? जरा दम तो ले लो।”

ब्रज.- “उठा तो न जायेगा; बैठी-बैठी वहीं से कानून बघारोगी। अभी एक-आध को पटक दूँगा, तो वहीं से गरजती हुई आओगी कि हाय-हाय बच्चे को मार डाला!”

भामा- “मैं कोई बैठी या सोयी तो नहीं हूँ। जरा एक घड़ी तुम्हीं लड़कों को बहला लोगे , तो क्या हो जाएगा ! मैंने तो उनकी नौकरी नहीं लिखायी !

ब्रजनाथ से कोई जवाब न देते बन पड़ा। गुस्सा पानी की तरह निकलने का रास्ता न पा कर और भी तेज हो जाता है। हालांकि ब्रजनाथ नैतिक सिद्धांतों को जानते थे, लेकिन उनका पालन करना इस समय सही न लगा। उन्होंने दोनों बच्चों को एक ही लाठी मारा, और दोनों को रोते-चिल्लाते छोड़ कानून की किताब बगल में दबा कर कालेज-पार्क की राह निकल पड़े ।

सावन का महीना था। आज कई दिन के बाद बादल हटे थे। हरे-भरे पेड़ सुनहरी चादर ओढ़े खड़े थे। हल्की हवा चल रही थी और बगुले डालियों पर बैठे झूले झूल रहे थे। ब्रजनाथ एक बेंच पर आ बैठे और किताब खोली। लेकिन किताब को पढ़ने से ज्यादा प्रकृति के नजारों को देखना उन्हें ज्यादा अच्छा लगा। वो कभी आसमान को देखते, कभी पत्तियों को, कभी दिल को सुकून देने वाली हरियाली को और कभी सामने मैदान में खेलते हुए लड़कों को।

अचानक उन्हें सामने घास पर कागज़ की एक पुड़िया दिखायी दी। लालच ने जिज्ञासा की आड़ में कहा – “चलो, देखें इसमें क्या है।”

बुद्धि ने कहा- “तुमसे मतलब ? वहीँ पड़े रहने दो।”

लेकिन जिज्ञासा के रूप में लालच की जीत हुई। ब्रजनाथ ने उठकर पुड़िया उठा ली। शायद किसी के पैसे पुड़िया में लिपटे गिर पड़े हैं। खोल कर देखा; मुहरें थे। गिना, पूरे आठ निकले। उनके आश्चर्य की सीमा न रही।

ब्रजनाथ का दिल धड़कने लगा । वो आठों मुहरें हाथ में लिये सोचने लगे, ‘इनका क्या करूँ ? अगर यहीं रख दूँ, तो न जाने किसकी नजर पड़े; न मालूम कौन उठा ले जाय ! नहीं, यहाँ रखना सही नहीं। चलूँ थाने में खबर कर दूँ और ये मुहरें थानेदार को दे दूँ। जिसके होंगे वह खुद ले जायगा या अगर उसे न भी मिलें, तो मुझ पर कोई दोष न रहेगा, मैं तो अपनी जिम्मेदारी से आजाद हो जाऊँगा।’

लालच ने परदे की आड़ से मंत्र मारना शुरू किया। वह थाने नहीं गये, सोचा- ‘चलूँ, भामा से एक मजाक करूँ। खाना तैयार होगा। कल आराम से थाने जाऊँगा।’

भामा ने मुहरें देखे, तो दिल में एक गुदगुदी-सी हुई। उसने पूछा- “किसके हैं ?”

ब्रज.- “मेरे ।”

भामा- “चलो, कहीं हो न !”

ब्रज.- “पड़ी मिली है।”

भामा- “झूठ बात। ऐसे ही किस्मत के अमीर हो, तो सच बताओ कहाँ मिली ? किसकी है ?”

ब्रज.- “सच कहता हूँ, पड़ी मिली है।”

भामा- “मेरी कसम ?”

ब्रज.- “तुम्हारी कसम।”

भामा मुहरों को पति के हाथ से छीनने की चेष्टा करने लगी।

ब्रजनाथ ने कहा- “क्यों छीनती हो ?”

भामा- “लाओ, मैं अपने पास रख लूँ ?”

ब्रज.- “रहने दो, मैं इसकी खबर करने थाने जाता हूँ।”

भामा का मुहँ बिगड़ गया। बोली- “पड़े हुए धन की क्या खबर ?”

ब्रज.- “हाँ, और क्या, इन आठ मुहरों के लिए ईमान बिगाड़ूँगा ?”

भामा- “अच्छा तो सबेरे चले जाना। इस समय जाओगे, तो आने में देर होगी।”

ब्रजनाथ ने भी सोचा, यही ठीक है । थानेवाले रात को तो कोई कार्रवाई करेंगे नहीं। जब मुहरों को पड़ा ही रहना है, तब जैसे थाना वैसे मेरा घर।

मुहरें बक्से में रख दीं। खा-पी कर लेटे, तो भामा ने हँस कर कहा- “आया हुआ धन क्यों छोड़ते हो ? लाओ, मैं अपने लिए गले का हार बनवा लूँ, बहुत दिनों से जी तरस रहा है।”

लालच ने इस समय मजाक का रूप ले लिया।

ब्रजनाथ ने चिढ़ कर कहा- “गहने  के लालच में गले में फाँसी लगाना चाहती हो क्या ?”

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सुबह ब्रजनाथ थाना जाने के लिए तैयार हुए। इसमें कानून का एक लेक्चर छूट जायेगा लेकिन कोई हर्ज नहीं। वह इलाहाबाद के हाईकोर्ट में ट्रांसलेटर थे। नौकरी में उन्नति की उम्मीद न देख कर साल भर से वकालत की तैयारी में लगे थे, लेकिन अभी कपड़े पहन ही रहे थे कि उनके एक दोस्त मुंशी गोरेलाल आ कर बैठ गये, और अपने घर की परेशानियों की राम कहानी सुना कर बहुत विनीत भाव से बोले- “भाई साहब, इस समय मैं इन झंझटों में ऐसा फँस गया हूँ कि दिमाग कुछ काम नहीं करता। तुम बड़े आदमी हो। इस समय कुछ मदद करो। ज्यादा नहीं तो तीस रुपये दे दो। किसी न किसी तरह काम चला लूँगा, आज तीस तारीख है। कल शाम को तुम्हें रुपये मिल जायेंगे।

ब्रजनाथ बड़े आदमी तो न थे; लेकिन उन्होंने बड़प्पन की हवा बाँध रखी थी। यह झूठा अभिमान उनके स्वभाव की एक कमजोरी थी। सिर्फ अपना  नाम ऊँचा रखने के लिए ही वह अक्सर दोस्तों की छोटी-मोटी जरूरतों पर अपनी जरूरतों को कुर्बान कर दिया करते थे, लेकिन भामा को इस बारे में उनसे सहानुभूति न थी; इसीलिए जब ब्रजनाथ पर इस तरह की मुसीबत आ पड़ती, तब थोड़ी देर के लिए उनके घर की शांति जरूर खत्म हो जाती। उनमें ना कहने की या टालने की हिम्मत न थी।

वह हिचकिचाते हुए भामा के पास गये और बोले- “तुम्हारे पास तीस रुपये तो न होंगे ? मुंशी गोरेलाल माँग रहे हैं।”

भामा ने रुखाई से कहा- “मेरे पास तो रुपये नहीं हैं ।”

ब्रज.- “होंगे तो जरूर, बहाना करती हो।”

भामा- “अच्छा, बहाना ही सही।”

ब्रज.- “तो मैं उनसे क्या कहूँ ।”

भामा- “कह दो घर में रुपये नहीं हैं, तुमसे न कहते बने, तो मैं पर्दे की आड़ से कह दूँ।”

ब्रज.- “कहने को तो मैं कह दूँ, लेकिन उन्हें यकीन न आयेगा। समझेंगे, बहाना कर रहे हैं।”

भामा- “समझेंगे तो समझा करें।”

ब्रज.- “मुझसे ऐसी कठोरता नहीं हो सकती। रात-दिन का साथ ठहरा, कैसे इनकार करूँ ?”

भामा- “अच्छा, तो जो मन में आए, सो करो। मैं कह चुकी, मेरे पास रुपये नहीं हैं ।”

ब्रजनाथ मन में बहुत दुखी हुए। उन्हें भरोसा था कि भामा के पास रुपये हैं। लेकिन सिर्फ मुझे शर्मिंदा करने के लिए इनकार कर रही है। जिद ने मन को मजबूत कर दिया था । उन्होंने बक्से में से दो मुहरें निकालीं और गोरेलाल को दे कर बोले- “भाई, कल शाम को अदालत से आते ही रुपये दे जाना। ये एक आदमी की अमानत है, मैं अभी उसे देने ही जा रहा था। अगर कल रुपये न पहुँचे तो मुझे बहुत शर्मिंदा होना पड़ेगा; कहीं मुँह दिखाने योग्य न रहूँगा।”

गोरेलाल ने मन में कहा- ‘अमानत बीवी के सिवा और किसकी होगी’, और मुहरें जेब में रख कर घर चला गया।

आज पहली तारीख की शाम है। ब्रजनाथ दरवाजे पर बैठे गोरेलाल का इंतजार कर रहे हैं।

पाँच बज गये गोरेलाल अभी तक नहीं आये। ब्रजनाथ की आँखें रास्ते की तरफ लगी हुई थीं। हाथ में एक चिट्ठी थी; लेकिन पढ़ने में मन नहीं लगता था। हर तीसरे मिनट रास्ते की ओर देखने लगते थे। लेकिन सोचते थे, आज तनख्वाह मिलने का दिन है। इसी कारण आने में देर हो रही है। आते ही होंगे। छः बज गए लेकिन  गोरेलाल का कोई अता पता नहीं था । अदालत के कर्मचारी एक-एक करके चले आ रहे थे। ब्रजनाथ को कई बार धोखा हुआ। वह आ रहे हैं। जरूर वही हैं। वैसा  ही कोट है। वैसी ही टोपी है। चाल भी वही है। हाँ, वही हैं, इसी तरफ आ रहे हैं। उन्हें अपने दिल से एक बोझ-सा उतरता हुआ मालूम हुआ; लेकिन पास  आने पर मालूम  हुआ कि कोई और है। उम्मीद नाउम्मीदी में बदल गयी।

ब्रजनाथ का मन खराब होने लगा। वह एक बार कुर्सी से उठे। बरामदे की चौखट पर खड़े होकर , सड़क पर दोनों तरफ नज़र दौड़ायी। लेकिन कहीं पता नहीं। दो-तीन बार दूर से आते हुए घोड़ा गाड़ी को देख कर गोरेलाल को धोखा हुआ।

सात बजे; दिये जल गये। सड़क पर अँधेरा छाने लगा। ब्रजनाथ सड़क पर परेशान भाव से टहलने लगे। इरादा हुआ, गोरेलाल के घर चलूँ। उधर कदम बढ़ाया; लेकिन दिल काँप रहा था कि कहीं वह रास्ते में आते हुए न मिल जायँ, तो समझें कि थोड़े-से रुपयों के लिए इतने बेचैन हो गये। थोड़ी ही दूर गये कि किसी को आते देखा। धोखा हुआ, गोरेलाल हैं, मुड़े और सीधे बरामदे में आकर दम लिया, लेकिन फिर वही धोखा। फिर वही भूल। तब सोचने लगे कि इतनी देर क्यों हो रही है ? क्या अभी तक वह अदालत से न आये होंगे ! ऐसा कभी नहीं हो सकता।

उनके दफ्तर वाले बहुत देर हुई, कब के निकल गये। बस दो बातें हो सकती हैं, या तो उन्होंने कल आने का तय कर लिया होगा , समझे होंगे, रात को कौन जाय, या जान-बूझ कर बैठे होंगे, देना न चाहते होंगे. उस समय उन्हें गरज थी, इस समय मुझे गरज है। मैं ही किसी को क्यों न भेज दूँ ? लेकिन किसे भेजूँ ? मुन्नू जा सकता है। सड़क पर ही मकान है। यह सोच कर कमरे में गये, लैंप जलाया और चिट्ठी लिखने बैठे, मगर आँखें दरवाजे की ओर लगी हुई थीं। अचानक किसी के पैरों की आहट सुनाई दी। उन्होंने चिट्ठी को एक किताब के नीचे दबा लिया और बरामदे में चले आये। देखा, पड़ोस का एक किसान चिट्ठी पढ़ाने आया है। उससे बोले- “भाई, इस समय फुरसत नहीं है; थोड़ी देर में आना।”

उसने कहा- “बाबू जी, घर भर के आदमी घबराये हुए हैं, जरा एक नजर देख लीजिए।”

आखिर ब्रजनाथ ने झुँझला कर उसके हाथ से चिट्ठी ले ली, और सरसरी नजर से देख कर बोले- “कलकत्ते से आया है। माल नहीं पहुँचा।”

किसान ने डरते-डरते कहा- “बाबूजी इतना और देख लीजिए, किसने भेजा है।”

इस पर ब्रजनाथ ने तार फेंक दिया और बोले- “मुझे इस समय फुरसत नहीं है।”

आठ बज गये। ब्रजनाथ को निराशा होने लगी, मुन्नू इतनी रात बीते नहीं जा सकता। मन में तय किया, आज ही जाना चाहिए, मेरी बला से बुरा मानें तो मानें । मैं इसकी कहाँ तक चिंता करूँ। साफ कह दूँगा मेरे रुपये दो दो। अच्छाई अच्छों से निभाई जा सकती है। ऐसे बदमाशों के साथ अच्छाई करना बेवकूफी है। उन्होंने कोट पहना; घर में जा कर भामा से कहा- “जरा एक काम से बाहर जाता हूँ, दरवाजा बंद कर लो।”

वो चलने को तो चल दिए ; लेकिन कदम कदम पर रुकते जाते थे। गोरेलाल का घर दूर से दिखायी दिया; वहाँ लैंप जल रही थी । वो ठिठक गये और सोचने लगे, ‘चल कर क्या कहूँगा ? कहीं उन्होंने जाते-जाते रुपये निकाल कर दे दिये, और देर के लिए माफी माँगी तो मुझे बड़ी शर्मिंदगी होगी। वह मुझे छोटा आदमी और  बेसब्र समझेंगे। नहीं, रुपयों की बातचीत करूँ ही क्यों ? कहूँगा- ‘भाई घर में बड़ी देर से पेट दर्द कर रहा है। तुम्हारे पास पुराना तेज सिरका तो नहीं है !’ मगर नहीं, यह बहाना थोड़ा खराब लगता है। सच्चाई बाहर आ जायेगी। ऊँह ! इस झंझट की जरूरत ही क्या है। वह मुझे देख कर ख़ुद  ही समझ जायेंगे। इस बारे में बातचीत का मौका ही न आएगा। ब्रजनाथ इसी उधेड़बुन में आगे बढ़ते चले जाते थे, जैसे नदी में लहरें चाहे किसी भी ओर चले, धारा अपना रास्ता नहीं छोड़ती।

गोरेलाल का घर आ गया। उसका दरवाजा बंद था। ब्रजनाथ को  उन्हें पुकारने की हिम्मत न हुई, समझे खाना खा रहे होंगे। दरवाजे के सामने से निकले, और धीरे-धीरे टहलते हुए एक मील तक चले गये। नौ बजने की आवाज़ कान में आयी। गोरेलाल खाना खा चुके होंगे, यह सोचकर लौट पड़े; लेकिन दरवाजे पर पहुँचे, तो अँधेरा था। वह उम्मीद का दिया बुझ गया। वो एक मिनट तक उलझन में खड़े रहे। क्या करूँ। अभी बहुत सबेरा है। इतनी जल्दी थोड़े ही सो गये होंगे ? वो दबे पाँव बरामदे पर चढ़े। दरवाजे पर कान लगा कर सुना, चारों ओर ताक रहे थे कि कहीं कोई देख न ले। कुछ बातचीत की भनक कान में पड़ी। ध्यान से सुना। उसकी पत्नी कह रही थी- “रुपये तो सब उठ गये, ब्रजनाथ को कहाँ से दोगे ?”

गोरेलाल ने जवाब दिया- “ऐसी कौन सी जल्दी है, फिर दे देंगे और निवेदन दे दिया है, कल मंजूर हो ही जायेगी। तीन महीने के बाद लौटेंगे तब देखा जायेगा।”

ब्रजनाथ को ऐसा जान पड़ा मानो मुँह पर किसी ने तमाचा मार दिया हो ।

गुस्से और निराशा से भरे हुए बरामदे से उतर आये। घर चले तो सीधे कदम न पड़ते थे, जैसे कोई दिन-भर का थका-माँदा राही हो।

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