(hindi) Salt Sugar Fat: How the Food Giants Hooked Us

(hindi) Salt Sugar Fat: How the Food Giants Hooked Us

इंट्रोडक्शन

क्या आपके घर में बहुत सारे जंक फूड और मिठाइयाँ हैं? ये सब आपकी  सेहत के लिए खराब हैं फिर भी आप इन्हें खरीदते रहते हैं? क्या आपको लगता हैं कि आपको ये सब खाने की लत लग गई हैं?

फ़ूड कंपनियों ने प्रोसेस्ड फ़ूड के खतरों के बारे में सालों पहले ही जान लिया था फिर भी, वे इन प्रोडक्ट्स को हमें ज़्यादा खरीदने में मज़बूर कर के हमें गुमराह करना जारी रखते हैं. आप जानते हैं क्यों? क्योंकि ये इन कंपनियों के लिए प्रॉफिट लाता  है. इसका सबूत इस बुक में हैं.

आप जानेंगे कि कैसे ये कंपनियाँ अपने प्रोडक्ट्स के रिसर्च को कैसे बहुत आकर्षक बनाते हैं. वे हमारे तलब का फायदा उठाते हैं. आपको पता चल जाएगा कि कैसे इन सालों में कंपनियों ने हमारे खाने-पीने की आदतों पर कितना असर डाला हैं.

फ़ूड इंडस्ट्री का हमारे ऊपर जो पावर चलता हैं क्या आप उस पावर के बारे में जानने के लिए तैयार हैं?

बच्चों की बायोलॉजी को एक्सप्लॉइट करना

क्या आपको कभी मिठा खाने की इतनी तलब लगती हैं कि आप इसके बारे में सोचना बंद नहीं कर सकते?

नहीं, आप बिना किसी कंट्रोल के खाने वाले शख्स नहीं हैं. इस सब के पीछे एक सिंपल कारण हैं. इंसान मीठे को तरसता हैं. हम सब बने ही इस तरह से हैं. मीठा खाने से हमारी ज़बान कंट्रोल से बाहर हो जाती हैं. इस बात को भूल जाओ कि जीभ के अलग-अलग हिस्से अलग-अलग स्वाद के लिए बने होते हैं. एग्जाम्पल के लिए, आपकी जीभ की नोक मीठी चीज के लिए हैं. सच्चाई ये हैं कि मीठे स्वाद के रिसेप्टर आपके पूरे जीभ पर फैले होते हैं.

ये taste रिसेप्टर हमारे ब्रेन के उस हिस्से से जुड़े होते हैं जो मस्ती-मज़ा को पहचानते हैं. कुछ मीठा खाना या पीना हमें बहुत मज़ा देता हैं. यहां तक कि आपके पेट में taste रिसेप्टर होते हैं जो मीठा खाने से जाग उठते हैं.

एवरेज देखें तो एक आदमी हर दिन 22 चम्मच चीनी खाता हैं. ये चौंकाने वाला डेटा है, लेकिन हम इस पर ध्यान नहीं देते हैं. इसका कारण ये हैं कि हम जिस तरह का खाना रोज़ खाते हैं, उसमें बहुत ज़्यादा शुगर होता हैं.

प्रोसेस्ड फूड हमारे खाने का एक बहुत बड़ा हिस्सा हैं. हम इसके बिना अपने लाइफ के बारे में सोच भी सकते. फ़ूड कंपनियों को हमारी शुगर की ज़रूरत के बारे में पता हैं और वे इसका फायदा उठाते हैं. वो हमारे प्रोडक्ट्स में और भी ज़्यादा शुगर डालकर हमारे तलब को और भी बढ़ाते हैं . ये कंपनियाँ साइंटिफिक रिसर्च पर पैसे लगाकर हमें और भी ज़्यादा इस ओर खींचते हैं और हमें एक्सप्लॉइट करते हैं.

मोनेल केमिकल सेंसेस सेंटर (Monell Chemical Senses Center ) इसका एक एग्जाम्पल हैं. कोका-कोला, नेस्ले और क्राफ्ट जैसी कंपनियों ने मोनेल को स्पोंसर किया हैं.
मोनेल की एक बायोसाइकोलॉजिस्ट हैं जूली मेनेला, उन्होंने शुगर के लिए ” bliss points” के बारे में बताया. ये ब्लिस पॉइंट उस हिसाब के बारे में बताता हैं जितनी मिठास खाने से आपको सबसे ज़्यादा मज़ा आता हैं. फ़ूड इंडस्ट्री को इस बात से प्रॉफिट मिलती हैं. वे ज़रूरत के हिसाब से मीठे का लेवल  एडजस्ट करते हैं. कस्टमर का ब्लिस पॉइंट जितना ज़्यादा होगा, वे उतना ही ज़्यादा मीठा डालेंगे.

और, अगर ब्लिस पॉइंट कम भी हों तो फ़ूड इंडस्ट्रीज को चिंता नहीं होती. हम आखिर में taste के आधार पर अपने खाने को चूज़ करते हैं. नुट्रिशन यानि पोषण को अपने ध्यान में सबसे ऊपर रखकर हम अपने खाने की चीज़ें नहीं खरीदते हैं. taste और फ्लेवर जैसी बातें हमारे लिए ज़्यादा ज़रूरी होते हैं.

Froot Loops और चूहों पर किए गए एक स्टडी से पता चलता है कि मीठा खाने की हमारी तलब में कितनी ज़्यादा ताकत होती हैं. एक ग्रेजुएट स्टूडेंट  एंथनी  स्कलाफनी, लैब के कुछ चूहों की देखभाल कर रहा था. उसने चूहों को कुछ फ्रूट लूप खिलाने का फैसला किया. फ्रूट लूप्स बहुत ही मीठा सीरियल है. एंथनी इस बात से  हैंरान था कि चूहों ने कितनी जल्दी इसे खाकर खत्म किया.

ये देखने के लिए कि चूहों को इस मीठे की कितनी तलब थी, एंथनी  ने थोड़ा एक्सपेरिमेंट किया. चूहों को खुली जगह पसंद नहीं. जब उन्हें एक खुली जगह में रखा जाता  हैं, तो वे फ़ौरन एक कोने की तलाश करने की कोशिश करते हैं. यही उनके नेचर का हिस्सा हैं. एंथनी  ने कुछ फ्रूट लूप्स को पिंजरों के बीच में रखा. वो ये देखना चाहते थे कि चूहों की मीठा खाने की चाहत उनकी कोने में छुपने की आदत को हरा सकती हैं या नहीं.

एंथनी का अंदाज़ा सही निकला. फ्रूट लूप्स खाने के लिए चूहे फ़ौरन से पिंजरे के बीच में आए. मीठा चूहों को इतना पसंद आ रहा था कि उन्होंने अपनी आदत को भी नजरअंदाज कर दिया था. अगर शुगर चूहों पर इतना असर कर सकती हैं तो इंसानों में कितना ज़्यादा करती होगी हैं न?

आइए मोनेल केमिकल सेंसस सेंटर के आंकड़ों पर नजर डालते हैं. 1975 में एक स्टडी से पता चला कि बच्चों ने बड़ों के मुकाबले में ज़्यादा शुगर लिया है. ये  हैरानी की बात नहीं हो सकती हैं, लेकिन ये बहुत ही चिंता की बात हैं. ये क्लियर किया जाना चाहिए कि शुगर का स्वाद बायोलॉजिकल है.

लॉरेंस ग्रीन, एक साइंटिस्ट ने कुछ गड़बड़ी नोटिस की. ग्रीन ने पाया कि बहुत सारा शुगर खाना बच्चे जन्म से नहीं सीखते हैं . बहुत सारे मीठे से बच्चों को इसलिए प्यार था क्योंकि उन्हें ज़्यादा शुगर खिलाकर बड़ा किया गया था. ये ऐसी आदत हैं जिन्हें बच्चे सीखते हैं. इसे learned behaviour कहा जाता है.

एक एवरेज अमेरिकी खाने में बड़ी मात्रा में शुगर होता हैं. फ़ूड इंडस्ट्री इन प्रोडक्ट्स में ज़्यादा शुगर डालते रहेंगे. इसके रिजल्ट में बच्चे और भी ज़्यादा मीठे के लिए तरसेंगे. उन्हें डायबिटीज और मोटापे जैसी बीमारियों का खतरा होगा.

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लोगों को तलब के लिए कैसे तैयार करते हैं ?

हॉवर्ड मॉस्कोविट्ज़ एक साइकोलॉजिकल एक्सपर्ट हैं. वो कंपनियों को उनकी sale  बढ़ाने में मदद करते हैं. मॉस्कोविट्ज़ अपना रिसर्च करते हैं और लोगों से सवाल पूछते हैं.

एक प्रोडक्ट में, कोई भी ingredient बहुत कम या बहुत ज़्यादा हो तो बहुत बड़ी गड़बड़ी हो जाती हैं. इससे sales में नुकसान होता हैं. लोगों को जॉब से निकाल दिया जाता हैं.  मॉस्कोविट्ज़ इन प्रोडक्ट में सबसे सही पॉइंट ढूंढ़ते हैं यानी कि ब्लिस पॉइंट.

मॉस्कोविट्ज़ स्टेटिस्टिक्स को यूज़ करके सबसे ज़्यादा बिकने वाले प्रोडक्ट के बारे में predict करते हैं. उन्हें पता चला कि लोग सिर्फ भूख लगने पर नहीं खाते हैं. खाने के साथ लोगों के इमोशन और भावनाएं जुड़ी होती हैं. इन्हीं इमोशंस की ज़रूरत के कारण भी लोग खाते हैं.

खाने में स्टेटिस्टिक्स का यूज़ बहुत सिंपल होता हैं. मान लीजिए कि एक आलू चिप्स बनाने वाली कंपनी उनकी हेल्प मांगते हैं. मॉस्कोविट्ज़ आलू के चिप्स की अलग-अलग वैरायटी बनाएंगे. वे अलग-अलग ingredients के साथ खेलेंगे. एक में कम नमक और थोड़ी सी चीनी होगी. दूसरे में ज़्यादा नमक और कम आलू होगा.

मॉस्कोविट्ज़ तब पार्टिसिपेंट्स से इन अलग-अलग वैरायटी के चिप्स को taste करने के लिए कहेंगे. पार्टिसिपेंट्स की राय को कंप्यूटर में टाइप किया जाएगा. फिर इन स्टेटिस्टिक्स के एनालिसिस से मॉस्कोविट्ज़ को अपना जवाब मिलेगा.

डेटा दिखाएगा कि प्रोडक्ट की कौन सी वैरायटी सबसे ज़्यादा अच्छी हैं. जैसे ही कंपनी को ये पता चलता हैं, वे काम पर लग जाते हैं. वे इस नई किस्म को लॉन्च करते हैं, और कस्टमर जल्दी से इसे खरीद लेते हैं.
यहाँ एक और सबूत हैं.

यू एस आर्मी से मॉस्कोविट्ज़ ने ब्लिस पॉइंट्स के बारे में सीखा और एक्सपर्ट बने. मिलिट्री एक बार बहुत बड़ी प्रॉब्लम में फंस गई थी. वे चाहते थे कि उनके सैनिक ज़्यादा खाना खाए. जब आपकी लाइफ खतरे में हो तो आपको बिल्कुल भूख नहीं लगती.

इसके अलावा,खाना भी टेस्टी नहीं होता था. सैनिक ऐसे डिहाइड्रेटेड खाना खाने को मज़बूर थे जिसमें पानी की मात्रा कम होती थी ताकि वो खाना सालों साल ख़राब न हो. टेस्टी न होने  के कारण वे ज्यादा नहीं खाते थे लेकिन सैनिकों को मजबूत और हेल्दी होने की जरूरत होती हैं.

रिसर्चर्स ने इस प्रॉब्लम को सुलझाने की कोशिश की. उन्होंने वैसे खाने का इंतज़ाम किया जो सैनिक अपने घरों में खाते थे. शुरू में ये बहुत अच्छा चला. सैनिकों ने इस खाने को ज़रूरत से ज़्यादा खाया और वे जल्दी से इससे ऊब गए. वो प्रॉब्लम नहीं सुलझी. यहीं पर मॉस्कोविट्ज़ ने कदम रखा.

मॉस्कोविट्ज़ ने सैनिकों से पूछा कि उनके पसंदीदा  खाने की चीज़ क्या हैं. उन्होंने स्वादिष्ट भोजन जैसे टर्की का नाम लिया. लेकिन सैनिकों ने ये भी कहा कि वे इसे भी खाकर आखिर में थक जाएंगे.

ब्लैंड फूड यानि फीका खाना ठीक है. ब्रेड जैसे बोरिंग खाने से वो खुश नज़र नहीं आए लेकिन सैनिक इसे खाकर थकते नहीं थे. इसे sensory-specific satiety कहते हैं. ये तब होता हैं जब आप फ़ौरन भरा -भरा महसूस करते हैं क्योंकि खाने में एक मजबूत स्वाद होता हैं. जैसे कि आइसक्रीम तुरंत आपको भरा हुआ महसूस कराती हैं दूसरी ओर, सूप ऐसा नहीं करता.

Sensory-specific satiety हर जगह फ़ूड इंडस्ट्री के लिए एक गाइड बन गई. वे जानते हैं कि सही बैलेंस कैसे रखा जाए. वे taste-बड को ज़्यादा छेड़े बिना अपने खाने को अच्छा बनाते हैं.

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