(hindi) MOOTH

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डॉक्टर जयपाल ने फर्स्ट क्लास की डिग्री पायी थी, पर इसे किस्मत ही कहिए या काम के उसूलों को न जानना कि उन्हें अपने काम में ज़्यादा तरक्की ना मिली। उनका घर पतली गली में था; पर उनके मन में खुली जगह में घर लेने की इच्छा तक न हुई। दवाइयों की आलमारियाँ, शीशियाँ और डाक्टरी मशीन वगैरह भी साफ-सुथरे न थे। कंजूसी के उसूल का वह अपनी घरेलू बातों में भी बहुत ध्यान रखते थे।

बेटा जवान हो गया था, पर अभी उसकी पढ़ाई का सवाल सामने न आया था। सोचते थे कि इतने दिनों तक किताबों से सर मार कर मैंने ऐसी कौन-सी बड़ी दौलत पा ली, जो उसके पढ़ाने-लिखाने में हजारों रुपये बर्बाद करूँ। उनकी पत्नी अहल्या धीरज वाली औरत थी, पर डॉक्टर साहब ने उसके इस खूबी पर इतना बोझ रख दिया था कि उसकी कमर भी झुक गयी थी। माँ भी जिंदा थी, पर गंगा नहाने के लिए तरस कर रह जाती थी;

दूसरे धार्मिक जगहें घूमने की बात ही क्या ! इस बेरहम कंजूसी का नतीजा यह था कि इस घर में सुख और शांति का नाम न था। अगर कोई अलग चीज थी तो वह बुढ़िया नौकरानी जगिया थी। उसने डॉक्टर साहब को गोद में खिलाया था और उसे इस घर से ऐसा प्यार था कि सब तरह की मुश्किलें झेलती थी, पर टलने का नाम न लेती थी।

डॉक्टर साहब डाक्टरी इनकम की कमी को कपड़े और शक्कर के कारखानों में हिस्से लेकर पूरा करते थे। आज इत्तेफाक से बम्बई के कारखाने ने उनके पास annual प्रॉफिट के साढ़े सात सौ रुपये भेजे। डॉक्टर साहब ने बीमा खोला, नोट गिने, डाकिये को विदा किया, पर डाकिये के पास रुपये ज्यादा थे, बोझ से दबा जाता था। बोला- “हुजूर रुपये ले लें और मुझे नोट दे दें तो बड़ा अहसान हो, बोझ हलका हो जाय।” डॉक्टर साहब डाकियों को खुश रखा करते थे, उन्हें मुफ्त दवाइयाँ दिया करते थे। सोचा कि हाँ, मुझे बैंक जाने के लिए ताँगा मँगाना ही पड़ेगा, क्यों न मुफ्त के एहसान वाले उसूल से काम लूँ। रुपये गिन कर एक थैली में रख दिये और सोच ही रहे थे कि चलूँ उन्हें बैंक में रखता आऊँ कि एक रोगी ने बुला भेजा।

ऐसे मौके यहाँ कम ही आते थे। हलांकि डॉक्टर साहब को बक्से पर भरोसा न था, पर मजबूर हो कर थैली बक्सेे में रखी और रोगी को देखने चले गये। वहाँ से लौटे तो तीन बज चुके थे, बैंक बंद हो चुका था। आज रुपये किसी तरह जमा न हो सकते थे। हर दिन की तरह क्लिनिक में बैठ गये। आठ बजे रात को जब घर के अंदर जाने लगे, तो थैली को घर ले जाने के लिए बक्से से निकाला, थैली कुछ हलकी जान पड़ी, तुरंत उसे दवाइयों के तराजू पर तौला, होश उड़ गये। पूरे पाँच सौ रुपये कम थे। यकीन न हुआ।

थैली खोल कर रुपये गिने। पाँच सौ रुपये कम निकले। पागलों सी हड़बड़ाहट के साथ बक्से के दूसरे खानों को टटोला लेकिन बेकार। निराश होकर एक कुर्सी पर बैठ गये और याददाश्त को इकट्ठा करने के लिए आँखें बँद कर दीं और सोचने लगे, मैंने रुपये कहीं अलग तो नहीं रखे, डाकिये ने रुपये कम तो नहीं दिये, मैंने गिनने में भूल तो नहीं की, मैंने पचीस-पचीस रुपये की गड्डियाँ लगायी थीं, पूरी तीस गड्डियाँ थीं, खूब याद है। मैंने एक-एक गड्डी गिन कर थैली में रखी, याददाश्त मुझे धोखा नहीं दे रही है।

सब मुझे ठीक-ठीक याद है। बक्से का ताला भी बंद कर दिया था, लेकिन ओह, अब समझ में आया , चाबी मेज पर ही छोड़ दी, जल्दी के मारे उसे जेब में रखना भूल गया, वह अभी तक मेज पर पड़ी है। बस यही बात है, चाबी जेब में डालने की याद नहीं रही, लेकिन ले कौन गया, बाहर दरवाजे बंद थे। घर में रखे रुपये-पैसे कोई छूता नहीं, आज तक कभी ऐसा मौका नहीं आया। जरूर यह किसी बाहरी आदमी का काम है। हो सकता है कि कोई दरवाजा खुला रह गया हो, कोई दवा लेने आया हो, चाबी मेज पर पड़ी देखी हो और बक्से खोल कर रुपये निकाल लिये हों।

इसी से मैं रुपये नहीं लिया करता, कौन ठिकाना डाकिये का ही काम हो, मुमकिन है, उसने मुझे बक्से में थैली रखते देखा था। रुपये जमा हो जाते तो मेरे पास पूरे … हजार रुपये हो जाते, ब्याज जोड़ने में आसानी होती। क्या करूँ। पुलिस को खबर दूँ ? बेकार बैठे-बिठाये परेशानी मोल लेनी है। बहुत से आदमियों की दरवाजे पर भीड़ होगी। दस-पाँच आदमियों को गालियाँ खानी पड़ेंगी और नतीजा कुछ नहीं ! तो क्या सब्र से बैठा रहूँ ? कैसे सब्र करूँ ! यह कोई मुफ्त का मिला पैसा तो था नहीं, हराम के पैसे होती तो समझता कि जैसे आया, वैसे गया। यहाँ एक-एक पैसा अपने पसीने का है।

मैं जो इतनी कंजूसी से रहता हूँ, इतने मुश्किल से रहता हूँ, कंजूस के नाम से मशहूर हूँ, घर के जरूरी खर्चे में भी काट-छाँट करता हूँ, क्या इसीलिए कि किसी चोर के लिए मनोरंजन का सामान जुटाऊँ ? मुझे रेशम से घिन नहीं, न मेवे ही नापसंद हैं, न अपच का रोग है कि मलाई खाऊँ और पचे न, न आँखों की रोशनी कम है कि थियेटर और सिनेमा का मजे न उठा सकूँ। मैं सब ओर से अपने मन को मारे रहता हूँ, इसीलिए तो कि मेरे पास चार पैसे हो जायँ, काम पड़ने पर किसी के आगे हाथ फैलाना न पड़े। कुछ जमीन ले सकूँ, और नहीं तो अच्छा घर ही बनवा लूँ। पर इस मन मारने का यह फल ! कड़ी मेहनत के रुपये लुट जायँ। ये गलत है कि मैं यों दिनदहाड़े लुट जाऊँ और उस बदमाश का बाल भी टेढ़ा न हो। उसके घर दीवाली हो रही होगी, खुशी मनाई जा रही होगी, सब-के-सब बगलें बजा रहे होंगे।

डॉक्टर साहब बदला लेने के लिए बेताब हो गये। मैंने कभी किसी फकीर को, किसी साधु को, दरवाजे पर खड़ा होने नहीं दिया। कई बार चाहने पर भी मैंने कभी दोस्तों को अपने यहाँ खाने पर नहीं बुलाया, नाते रिश्तेदारों से हमेशा बचता रहा, क्या इसीलिए ? उसका पता लग जाता तो मैं एक जहरीली सुई से उसके जीवन को खत्म कर देता।

लेकिन कोई उपाय नहीं है। सीक्रेट पुलिस वाले भी बस नाम ही के हैं, पता लगाने की काबिलियत नहीं। इनकी सारी अक्ल राजनीतिक भाषण और झूठी रिपोर्टों के लिखने में खत्म हो जाती है। किसी मेस्मेरिजम जानने वाले के पास चलूँ, वह इस परेशानी को हल निकाल सकता है। सुनता हूँ, यूरोप और अमेरिका में कई बार चोरियों का पता इसी उपाय से लग जाता है। ज्योतिषियों की तरह वे भी अंदाजा लगाते रहते हैं। कुछ लोग नाम भी तो निकालते हैं।

मैंने कभी उन कहानियों पर यकीन नहीं किया, लेकिन कुछ न कुछ इसमें सच्चाई है जरूर, नहीं तो इस मॉडर्न युग में यह सब रहता ही नहीं। आजकल के विद्वान् भी तो मानसिक ताकत का लोहा मानते जाते हैं, पर मान लो किसी ने नाम बतला ही दिया तो मेरे हाथ में बदला चुकाने का कौन-सा तरीका है, intuition  सबूत का काम नहीं दे सकता। एक पल के लिए मेरे मन को शांति मिल जाने के सिवाय और इनसे क्या फ़ायदा है ?

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हाँ, खूब याद आया। नदी की ओर जाते हुए वह जो एक ओझा बैठता है, उसके करतब की कहानियाँ अक्सर सुनने में आती हैं। सुनता हूँ, गये हुए पैसों का पता बतला देता है, रोगियों को बात की बात में ठीक कर देता है, चोरी के माल का पता लगा देता है, मूठ चलाता है। मूठ यानी जादू टोना. मूठ की बड़ी बड़ाई सुनी है, मूठ चली और चोर के मुँह से खून शुरू हुआ, जब तक वह माल न लौटा दे खून बन्द नहीं होता। यह निशाना बैठ जाय तो मेरी मन की इच्छा पूरी हो जाय ! मुँहमाँगा फल पाऊँगा। रुपये भी मिल जायँ, चोर को सीख भी मिल जाय !

उसके यहाँ सदा लोगों की भीड़ लगी रहती है। इसमें कुछ चमत्कार न होता तो इतने लोग क्यों जमा होते ? उसके चहरे से एक प्रतिभा बरसती है। आजकल के पढ़े लिखे लोगों को तो इन बातों पर भरोसा नहीं है, पर नीच और बेवकूफों में उसकी बहुत बात होती है। भूत-प्रेत आदि की कहानियाँ हर दिन ही सुना करता हूँ। क्यों न उसी ओझे के पास चलूँ ? मान लो कोई फायदा न हुआ तो नुकसान ही क्या हो जायगा। जहाँ पाँच सौ गये हैं, दो-चार रुपये का खून और सही। यह समय भी अच्छा है। भीड़ कम होगी, चलना चाहिए।

मन में यह तय करके डॉक्टर साहब उस ओझे के घर की ओर चले, ठंड की रात थी। नौ बज गये थे। रास्ता लगभग बन्द हो गया था। कभी-कभी घरों से रामायण की आवाज कानों में आ जाती थी। कुछ देर के बाद बिलकुल सन्नाटा हो गया। रास्ते के दोनों ओर हरे-भरे खेत थे। सियारों का हुँआना सुनाई पड़ने लगा। जान पड़ता है इनका दल कहीं पास ही है।

डॉक्टर साहब को अक्सर दूर से इनकी सुरीली आवाज सुनने का मौका मिला था। पास से सुनने का नहीं। इस समय इस सन्नाटे में और इतने पास से उनका चीखना सुन कर उन्हें डर लगा। कई बार अपनी छड़ी धरती पर पटकी, पैर धमधमाये। सियार बड़े डरपोक होते हैं, आदमी के पास नहीं आते; पर फिर शक हुआ, कहीं इनमें कोई पागल हो तो उसका काटा तो बचता ही नहीं। यह शक होते ही कीटाणु, बैक्टिरिया, पास्टयार इन्स्टिच्यूट और कसौली की याद उनके दिमाग में चक्कर काटने लगी। वह जल्दी-जल्दी पैर बढ़ाये चले जाते थे। अचानक मन में ख्याल उठा कहीं मेरे ही घर में किसी ने रुपये उठा लिये हों तो।

वे तुरंत रुक गये, पर एक ही पल में उन्होंने इसका भी फैसला कर लिया, क्या हर्ज है घरवालों को तो और भी कड़ी सजा मिलनी चाहिए। चोर की मेरे साथ सहानुभूति नहीं हो सकती, पर घरवालों की सहानुभूति पर तो मेरा हक है। उन्हें जानना चाहिए कि मैं जो कुछ करता हूँ उन्हीं के लिए करता हूँ। रात-दिन मरता हूँ तो उन्हीं के लिए मरता हूँ। अगर इस पर भी वे मुझे यों धोखा देने के लिए तैयार हों तो उनसे ज्यादा एहसान फरामोश, उनसे ज्यादा बेदिल और कौन होगा ? उन्हें और भी कड़ी सजा मिलनी चाहिए। इतनी कड़ी, इतनी शिक्षा देने वाली कि फिर कभी किसी को ऐसा करने का हिम्मत न हो।

आखिर में वे ओझे के घर के पास जा पहुँचे। लोगों की भीड़ न थी। उन्हें बड़ी शांति हुई। हाँ, उनकी चाल कुछ धीमी पड़ गयी। फिर मन में सोचा, कहीं यह सब झूठा नाटक हुआ तो बेकार शर्मिंदा होना पड़े। जो सुने, बेवकूफ बनाये। शायद ओझा ही मुझे छोटे दिमाग का समझे। पर अब तो आ गया, यह तजुर्बा भी हो जाय। और कुछ न होगा तो जाँच ही सही। ओझा का नाम बुद्धू था। लोग चौधरी कहते थे। जाति का चमार था। छोटा-सा घर और वह भी गन्दा। छप्पर इतनी नीची थी कि झुकने पर भी सिर में टक्कर लगने का डर लगता था।

दरवाजे पर एक नीम का पेड़ था। उसके नीचे एक चौरा। नीम के पेड़ पर एक झंडी लहराती थी। चौरा पर मिट्टी के सैकड़ों हाथी सिंदूर से रँगे हुए खड़े थे। कई लोहे के नोकदार त्रिशूल भी गड़े थे, जो मानो इन धीमे चलने वाले हाथियों के लिए अंकुश का काम दे रहे थे। दस बजे थे। बुद्धू चौधरी जो एक काले रंग का तोंद वाला और रोबदार आदमी था, एक फटी हुई दरी पर बैठा नारियल पी रहा था। बोतल और गिलास भी सामने रखे हुए थे ।

बुद्धू ने डॉक्टर साहब को देख कर तुरंत बोतल छिपा दी और नीचे उतर कर सलाम किया। घर से एक बुढ़िया ने छोटी चटाई ला कर उनके लिए रख दिया। डॉक्टर साहब ने कुछ शर्माते हुए सारी घटना कह सुनायी। बुद्धू ने कहा- “हुजूर, यह कौन बड़ा काम है। अभी इसी रविवार को दारोगाजी की घड़ी चोरी गयी थी, बहुत कुछ तहकीकात की, पता न चला। मुझे बुलाया। मैंने बात की बात में पता लगा दिया। पाँच रुपये इनाम दिये। कल की बात है, जमादार साहब की घोड़ी खो गयी थी। चारों तरफ दौड़ते फिरते थे। मैंने ऐसा पता बता दिया कि घोड़ी चरती हुई मिल गयी। इसी विद्या की बदौलत बड़े छोटे सभी मानते हैं।”

डॉक्टर को दारोगा और जमादार की चर्चा न जची। इन सब गँवारों की आँखों में जो कुछ है, वह दारोगा और जमादार ही हैं। बोले मैं सिर्फ चोरी का पता लगाना नहीं चाहता, मैं चोर को सजा देना चाहता हूँ।

बुद्धू ने एक पल के लिए आँखें बंद कीं, जम्हाई लीं, चुटकियाँ बजायीं और फिर कहा- “यह घर ही के किसी आदमी का काम है।”

डॉक्टर- “कुछ परवाह नहीं, कोई भी हो।”

बुढ़िया- “बाद कोई बात बने या बिगड़ेगी तो हजूर हमीं को बुरा कहेंगे।”

डॉक्टर- “इसकी तुम कुछ चिंता न करो, मैंने खूब सोच-विचार लिया है ! बल्कि अगर घर के किसी आदमी की शरारत है तो मैं उसके साथ और भी कड़ाई करना चाहता हूँ। बाहर का आदमी मेरे साथ धोखा करे तो माफ भी कर दूँ, पर घर के आदमी को मैं किसी तरह माफ नहीं कर सकता।”

बुद्धू- “तो हुजूर क्या चाहते हैं ?”

डॉक्टर- “बस यही कि मेरे रुपये मिल जायँ और चोर किसी बड़ी तकलीफ में पड़ जाय।”

बुद्धू- “मूठ चला दूँ ?”

बुढ़िया- “ना बेटा, मूठ के पास न जाना। न जाने कैसी पड़े, कैसी न पड़े।”

डॉक्टर- “तुम मूठ चला दो, इसका जो कुछ मेहनताना और इनाम हो, मैं देने को तैयार हूँ।”

बुढ़िया- “बेटा, मैं फिर कहती हूँ, मूठ के झमेले में मत पड़। कोई खतरे की बात आ पड़ेगी तो वही बाबूजी फिर तेरे सिर होंगे और तेरे बनाये कुछ न बनेगी। क्या जानता नहीं, मूठ का उतार कितना मुश्किल है ?”

बुद्धू- “हाँ बाबू जी ! फिर एक बार अच्छी तरह सोच लीजिए। मूठ तो मैं चला दूँगा, लेकिन उसको उतारने का जिम्मा मैं नहीं ले सकता।”

डॉक्टर- “अभी कह तो दिया, मैं तुमसे उतारने को न कहूँगा, चलाओ भी तो।”

बुद्धू ने जरूरी सामान की एक लम्बी लीस्ट बनायी। डॉक्टर साहब ने सामान की जगह रुपये देना ज्यादा उचित समझा। बुद्धू राजी हो गया। डॉक्टर साहब चलते-चलते बोले- “ऐसा मंतर चलाओ के सबेरा होते-होते चोर मेरे सामने माल लिये हुए आ जाय।”

बुद्धू ने कहा- “आप बेफिक्र रहें।

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