(hindi) Poorav Sanskar

(hindi) Poorav Sanskar

अच्छे लोगों के हिस्से में भौतिक उन्नति कभी भूल कर ही आती है। रामटहल विलासी, बुरी आदतों वाला, बुरे चाल चलन के आदमी थे, पर लोगों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए इसमें बड़े चालाक थे , सूद-ब्याज के मामले में बढ़िया और मुकदमे-अदालत के काम में भी माहिर थे। उनका पैसा बढ़टा जा रहा था। सभी के साथ उनका लेनदेन था। उधर उन्हीं के छोटे भाई शिवटहल साधु-भक्त, धर्म पालन करने वाले और दूसरों की मदद करने वाले इंसान थे। उनका पैसा घटता जा रहा था।

उनके दरवाजे पर दो-चार मेहमान बने ही रहते थे। बड़े भाई का सारे मुहल्ले पर दबाव था। जितने नीचे तकबे के आदमी थे, उनका हुक्म पाते ही फौरन उनका काम करते थे। उनके घर की मरम्मत मुफ्त में हो जाती। कर्जदार सब्जी वाले साग-भाजी तोहफे में दे जाते। कर्जदार दूध वाला उन्हें दूसरों से ज्यादा दूध देता। छोटे भाई का किसी पर रोब न था। साधु-संत आते और मन भर के खाना खा के अपने रास्ते चले जाते। दो-चार आदमियों को रुपये उधार दिये भी तो ब्याज के लालच से नहीं, बल्कि मुसीबत से बचाने के लिए। कभी जोर दे कर तगादा न करते कि कहीं उन्हें दुख न हो।

इस तरह कई साल गुजर गये। यहाँ तक कि शिवटहल की सारी दौलत दूसरों की मदद में उड़ गयी। बहुत रुपये डूब भी गये ! उधर रामटहल ने नया मकान बनवा लिया। सोने-चाँदी की दुकान खोल ली। थोड़ी जमीन भी खरीदी और खेती-बारी करने लगे।

शिवटहल को अब चिंता हुई। गुजारा कैसे होगा ? पैसा न था कि कोई काम करते। वह लोगों को बहलाने का तरीका भी न आता था, जो बिना पैसा के भी अपना काम निकाल लेते। किसी से उधार लेने की हिम्मत न पड़ती थी। काम में घाटा हुआ तो देंगे कहाँ से ? किसी दूसरे आदमी की नौकरी भी न कर सकते थे। कुल-मर्यादा भंग हो जाती। दो-चार महीने तो जैसे तैसे करके काटे, अंत में चारों ओर से निराश हो कर बड़े भाई के पास गये और कहा- “भैया, अब मेरे और मेरे परिवार के पालन का भार आपके ऊपर है। आपके सिवा अब किसकी शरण लूँ ?”

रामटहल ने कहा- “इसकी कोई चिन्ता नहीं। तुमने कुकर्म में तो पैसा उड़ाया नहीं। जो कुछ किया, उससे कुल की कीर्ति ही फैली है। मैं धूर्त हूँ; दुनिया को ठगना जानता हूँ। तुम सीधे-सादे आदमी हो। दूसरों ने तुम्हें ठग लिया। यह तुम्हारा ही घर है। मैंने जो जमीन ली है, उसका  किराया वसूल करो, खेती-बारी का काम सँभालो। महीने में तुम्हें जितना खर्च पड़े, मुझसे ले जाओ। हाँ, एक बात मुझसे न होगी। मैं साधु-संतों का सत्कार करने के लिए एक पैसा भी न दूँगा और न तुम्हारे मुँह से अपनी बुराई सुनूँगा।”

शिवटहल ने खुशी से कहा- “भैया, मुझसे इतनी भूल जरूर हुई कि मैं सबसे आपकी बुराई करता रहा हूँ, उसे माफ़ करें। अब से मुझे अपनी बुराई करते सुनना तो जो चाहे सजा देना। हाँ, आपसे मेरी एक विनती है, मैंने अब तक अच्छा किया या बुरा, पर भाभी जी को मना कर देना कि उसके लिए मेरी बेइज्जती न करें।”

रामटहल- “अगर वह कभी तुम्हें ताना देंगी, तो मैं उनकी जीभ खींच लूँगा।”

रामटहल की जमीन शहर से दस-बारह कोस दूरी पर थी। वहाँ एक कच्चा मकान भी था। बैल, गाड़ी, खेती के दूसरे सामान वहीं रहते थे। शिवटहल ने अपना घर भाई को सौंपा और अपने बाल-बच्चों को ले कर गाँव चले गये। वहाँ ख़ुशी-ख़ुशी काम करने लगे। नौकरों ने काम में ज्यादा ध्यान दिया। मेहनत का फल मिला। पहले ही साल उपज डेढ़ गुना हो गया और खेती का खर्च आधा रह गया।

पर स्वभाव को कैसे बदलें ? पहले की तरह तो नहीं, पर अब भी दो-चार साधु शिवटहल का नाम सुनकर आ ही जाते थे और शिवटहल को मजबूर हो कर उनकी सेवा और सत्कार करना ही पड़ता था। हाँ, अपने भाई से यह बात छिपाते थे कि कहीं वह नाखुश हो कर जीविका का यह सहारा भी न छीन लें। फल यह होता कि उन्हें भाई से छिपा कर अनाज, भूसा, खली आदि बेचना पड़ता। इस कमी को पूरी करने के लिए वह मजदूरों से और भी कड़ी मेहनत लेते थे और खुद भी कड़ी मेहनत करते।

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धूप-ठंड, पानी-बूँदी की बिलकुल परवाह न करते थे। मगर कभी इतनी मेहनत तो की न थी। शरीर कमजोर होने लगा। खाना भी रूखा-सूखा मिलता था। उस पर कोई ठीक समय नहीं। कभी दोपहर को खाया, कभी तीसरे पहर। कभी प्यास लगी, तो तालाब का पानी पी लिया। कमजोरी बीमारी का पहला लक्षण है। बीमार पड़ गये। देहात में दवा-दारू का सुविधा न थी। खाना में भी कमी करनी पड़ती थी। बीमारी ने जड़ पकड़ ली। बुखार ने प्लीहा का रूप ले लिया  और प्लीहा ने छह महीने में काम तमाम कर दिया।

रामटहल ने यह बुरी खबर सुनी, तो उन्हें बड़ा दुख हुआ। इन तीन सालों में उन्हें एक पैसे का अनाज नहीं लेना पड़ा। गुड़, घी, भूसा-चारा, उपले-ईंधन सब गाँव से चला आता था। बहुत रोये, पछतावा हुआ कि मैंने भाई की दवा-दारू की कोई फिक्र नहीं की; अपने स्वार्थ की चिंता में उसे भूल गया। लेकिन मैं क्या जानता था कि मलेरिया का बुखार जानलेवा होगा ! नहीं तो जितना हो सके इलाज जरूर करता। भगवान की यही इच्छा थी, फिर मेरा क्या वश !

अब कोई खेती को सँभालने वाला न था। इधर रामटहल को खेती का मजा मिल गया था ! उस पर आरामदेह जिंदगी ने उनका स्वास्थ्य भी खराब कर डाला था। अब वह देहात के साफ हवा पानी  में रहना चाहते थे। तय किया कि खुद ही गाँव में जाकर खेती-बारी करूँ। लड़का जवान हो गया था। शहर का लेन-देन उसे सौंपा और देहात चले आये।

यहाँ उनका समय और मन खासतौर पर गायों की देखभाल में लगता था। उनके पास एक जमुनापारी बड़ी रास की गाय थी। उसे कई साल हुए बड़े शौक से खरीदा था। दूध खूब देती थी, और सीधी वह इतनी कि बच्चा भी सींग पकड़ ले, तो न बोलती। वह इन दिनों माँ बनने वाली थी। उसे बहुत प्यार करते थे। शाम-सबेरे उसकी पीठ सुहलाते, अपने हाथों से अनाज खिलाते। कई आदमी उसके डेढ़ गुना दाम देते थे, पर रामटहल ने न बेची। जब समय पर गाय ने बच्चा दिया, तो रामटहल ने धूमधाम से उसके पैदा होने की खुशी मनाया, कितने ही ब्राह्मणों को खाना कराया। कई दिन तक गाना-बजाना होता रहा। इस बछड़े का नाम रखा गया 'जवाहिर'। एक ज्योतिषी से उसका जन्म कुंडली भी बनवाई गई। उसके हिसाब से बछड़ा बड़ा होनहार, बड़ा भाग्यशाली, वफादार निकला। सिर्फ छठे साल उस पर एक मुसीबत का डर था। उससे बच गया तो फिर जीवन भर सुख से रहेगा।

बछड़ा सफेद था। उसके माथे पर एक लाल तिलक था। आँखें काली थीं। देखने में सुंदर और हाथ-पाँव का मजबूत थे। दिन भर उछल कूद किया करता। रामटहल का मन उसे छलाँगें भरते देख कर खुश हो जाता था। वह उनसे इतना हिल-मिल गया कि उनके पीछे-पीछे कुत्ते की तरह दौड़ा करता था। जब वह शाम और सुबह को अपनी खाट पर बैठ कर लेनदेन वालों से बातचीत करने लगते, तो जवाहिर उनके पास खड़ा हो कर उनके हाथ या पाँव को चाटता था। वह प्यार से उसकी पीठ पर हाथ फेरने लगते, तो उसकी पूँछ खड़ी हो जाती और आँखें दिल की खुशी से चमकने लगतीं।

रामटहल को भी उससे इतना लगाव था कि जब तक वह उनके सामने चौके में न बैठा हो, खाना में स्वाद न मिलता। वह उसे अक्सर गोद में बैठा लिया करते। उसके लिए चाँदी का हार, रेशमी फूल, चाँदी की करताल बनवायीं। एक आदमी उसे रोज नहलाता और झाड़ता-पोंछता रहता था। जब कभी वह किसी काम से दूसरे गाँव में चले जाते तो उन्हें घोड़े पर आते देख कर जवाहिर कुलेलें मारता हुआ उसके पास पहुँच जाता और उनके पैरों को चाटने लगता। जानवर और इंसान में यह बाप और बेटे सा प्यार देख कर लोग चौंक जाते।

जवाहिर की उम्र ढाई साल की हुई। रामटहल ने उसे अपनी सवारी की बैलगाड़ी के लिए निकालने का फ़ैसला किया। वह अब बछड़े से बैल हो गया था। उसका ऊँचा कद, गठे हुए अंग, मजबूत मांसपेशियाँ, गर्दन के ऊपर ऊँचा कद, चौड़ी छाती और मस्तानी चाल थी। ऐसा देखने लायक बैल सारे इलाके में न था। बड़ी मुश्किल से उसका साथी मिला। पर देखने वाले साफ कहते थे कि जोड़ नहीं मिला। रुपये आपने बहुत खर्च किये हैं, पर कहाँ जवाहिर और कहाँ यह ! कहाँ लैंप और कहाँ दीपक !

पर आश्चर्य की बात यह थी कि जवाहिर को कोई गाड़ी वाला हाँकता तो वह आगे पैर न उठाता। गर्दन हिला-हिला कर रह जाता। मगर जब रामटहल लगाम अपने हाथ में ले लेते और एक बार चमका कर कहते चलो बेटा, तो जवाहिर दिवाना होकर गाड़ी को ले उड़ता। दो-दो कोस तक बिना रुके, एक ही साँस में दौड़ता चला जाता। घोड़े भी उसका मुकाबला न कर सकते।

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