(hindi) Dharm Sankat

(hindi) Dharm Sankat

'आदमियों और औरतों में बड़ा अन्तर है, तुम लोगों का दिल काँच की तरह कड़ा होता है और हमारा दिल नरम, वह जुदाई का दर्द नहीं सह सकता।'

काँच चोट लगते ही टूट जाता है। नरम चीजों में लचक होती है।'

'चलो, बातें न बनाओ। दिन-भर तुम्हारा रास्ता देखूँ, रात-भर घड़ी की सुइयाँ, तब कहीं आपके दर्शन होते हैं।'

'मैं तो हमेशा तुम्हें अपने दिल में छिपाए रखता हूँ।'

'ठीक बतलाओ, कब आओगे?'

'ग्यारह बजे, लेकिन पिछला दरवाजा खुला रखना।'

'उसे मेरी आँखें समझो।'

'अच्छा, तो अब चलता हुँ।'

पंडित कैलाशनाथ लखनऊ के जाने माने बैरिस्टरों में से थे कई सभाओं के मंत्री, कई समितियों के सभापति, पत्रों में अच्छे-अच्छे लेख लिखते, प्लेटफार्म पर शिक्षा देने वाला भाषण देते। पहले-पहले जब वह यूरोप से लौटे थे, तो यह उत्साह अपनी पूरी मौज पर था; लेकिन जैसे-जैसे बैरिस्टरी चमकने लगी, इस उत्साह में कमी आने लगी और यह ठीक भी था, क्योंकि अब बेकार न थे जो समय बर्बाद करते। हाँ, क्रिकेट का शौक अब जैसे का तैसा बना था। वह कैसर क्लब के संस्थापक और क्रिकेट के मशहूर खिलाड़ी थे।

अगर मि. कैलाश को क्रिकेट की धुन थी, तो उनकी बहन कामिनी को टेनिस का शौक था। इन्हें रोज नए मन बहलाने की चीजों की चाह रहती थी। शहर में कहीं नाटक हो, कोई थियेटर आये, कोई सर्कस, कोई बायसकोप हो, कामिनी उनमें न शामिल हो, यह नामुमकिन बात थी। मन बहलाने की कोई चीज उसके लिए उतनी ही जरूरी थी, जितना हवा और रोशनी।

मि. कैलाश पश्चिमी सभ्यता (कल्चर) के असर में बहने वाले अपने दूसरे साथियों की तरह हिंदू जाति, हिंदू सभ्यता, हिंदी भाषा और हिंदुस्तान के बहुत बड़े विरोधी थे। हिंदू सभ्यता मे उन्हें ख़ामियां दिखाई देती थी ! अपनी इस सोच को वे अपने तक ही सीमित न रखते थे, बल्कि बड़ी ही प्रभावशाली भाषा में इस बारे मे लिखते और बोलते थे। हिंदू सभ्यता के समझदार भक्त उनकी इस नासमझ सोच पर हँसते थे; लेकिन मजाक और विरोध तो सुधारने वाले का इनाम हैं। मि. कैलाश उनकी कुछ परवाह न करते। वे सिर्फ बातें ही नही करते थे, कर्मवीर भी पूरे थे। कामिनी की आजादी उनकी सोच का जीता जागता सबूत थी। अच्छा तो यह था कि कामिनी के पति गोपालनारायण भी इसी सोच में रँगे हुए थे। वे साल भर से अमेरिका में पढ़ाई कर रहे थे। कामिनी भाई और पति के सोच का पूरा फायदा उठाने में कमी न करती थी।

लखनऊ में अल्फ्रेड थिएटर कम्पनी आयी हुई थी। शहर में जहाँ देखिए, उसी तमाशे की चर्चा थी। कामनी की रातें बड़े मजे से कटती थीं रात भर थियेटर देखती, दिन को सोती और कुछ देर वही थियेटर के गीत गाती, सुंदरता और प्यार की नई आकर्षक दुनिया में घूमती थी जहाँ का दुख और परेशानी भी इस दुनिया के सुख और मजे से बढ़कर खुशी देने वाला है। यहाँ तक कि तीन महीने बीत गए, रोज़ प्यार की नई मन मोहने वाली शिक्षा और प्यार के मन बहलाने वाली बातों का दिल पर कुछ-न-कुछ असर होना चाहिए था, सो भी इस चढ़ती जवानी में। वह असर हुआ। इसकी शुरुआत उसी तरह हुई, जैसे कि अक्सर हुआ करती है।

थियेटर हाल में एक सुंदर और आकर्षक लड़के की आँखें कामिनी की ओर उठने लगीं। वह सुंदर और चंचल थी, इसलिए पहले उसे दिल में किसी राज का पता न चला। आँखों का सुन्दरता से बड़ा गहरा रिश्ता है। घूरना आदमी का और शर्माना औरत का स्वभाव है। कुछ दिनों के बाद कामिनी को इन आँखों में कुछ छुपे हुए भाव झलकने लगे। मंत्र अपना काम करने लगा। फिर आँखों में आपस मे बातें होने लगीं। आँखें मिल गई। प्यार बढ़ गया। कामिनी एक दिन के लिए भी अगर किसी दूसरे आयोजन में चली जाती, तो वहाँ उसका मन न लगता। मन उचटने लगता। आँखें किसी को ढूँढ़ा करतीं।

आखिर में शर्म का बाँध टूट गया। दिल में बहार आ गई। होंठों का ताला टूटा। प्यार भरी बातें होने लगी ! कविताओं के बाद कहानियों की बारी आयी और फिर दोनों एक दूसरे के करीब आ गए। इसके बाद जो कुछ हुआ, उसकी झलक हम पहले ही देख चुके हैं।

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इस लड़के का नाम रूपचन्द था। पंजाब का रहने वाला, संस्कृत का शास्त्री, हिन्दी साहित्य का पूरा पण्डित, अंग्रेज़ी का एम.ए., लखनऊ के एक बड़े लोहे के कारखाने का मैनेजर था. घर में सुंदर बीवी, दो प्यारे बच्चे थे। अपने साथियों में अच्छे चाल चलन के लिए मशहूर था। न कोई खराबी न कोई ऐब।। घर-गृहस्थी में जकड़ा हुआ था. मालूम नहीं, वह कौन-सा आकर्षण था, जिसने उसे इस जादू में फँसा लिया, जहाँ की जमीन आग और आकाश अंगार है, जहाँ नफरत और पाप है और बदकिस्मत कामिनी को क्या कहा जाय, जिसके प्यार की बाढ़ ने धीरज और समझ का बाँध तोड़कर अपने अंदर में नियम और इज्ज़त की टूटी-फूटी झोपड़ी को डुबा दिया। यह पिछले जन्म के संस्कार थे :

रात के दस बज गए थे। कामिनी लैम्प के सामने बैठी हुई चिट्ठियाँ लिख रही थी। पहली चिट्ठी रूपचन्द के नाम थी :

कैलाश भवन, लखनऊ

प्रियतम !

तुम्हारी चिट्ठी पढ़कर जान निकल गई। उफ ! अभी एक महीना लगेगा। इतने दिनों में शायद तुम्हें यहाँ मेरी राख भी न मिलेगी। तुमसे अपने दुख क्या रोऊँ ! बनावट के इल्जामों से डरती हूँ। जो कुछ बीत रही है, वह मैं ही जानती हूँ लेकिन बिना जुदाई की कहानी सुनाए दिल की जलन कैसे जाएगी ? यह आग कैसे ठंडी होगी ? अब मुझे मालूम हुआ कि अगर प्यार में दहकती हुई आग है, तो जुदाई उसके लिए घी है। थिएटर अब भी जाती हूँ, पर खुशी के लिए नहीं, रोने और भुलने के लिए। रोने में ही मन को कुछ शांति मिलती है, आँसू उमड़े चले आते हैं। मेरा जीवन सूखा और फीका हो गया है। न किसी से मिलने को जी चाहता है, न मनोरंजन में मन लगता है। परसों डाक्टर केलकर का भाषण था, भाई साहब ने बहुत कहा, पर मैं न जा सकी। प्यारे! मौत से पहले मत मारो। खुशी के गिने-गिनाए पलों में जुदाई का दुख मत दो। आओ, जितनी जल्दी हो सके आओ, और गले लगकर मेरे दिल का ताप बुझाओ, वरना आश्चर्य नहीं की जुदाई का यह गहरा सागर मुझे निगल जाय।

तुम्हारी कामिनी

इसके बाद कामिनी ने दूसरी चिट्ठी पति को लिखी :

माई डियर गोपाल !

अब तक तुम्हारी दो चिट्ठी आई। लेकिन दुख है, मैं उनका जवाब न दे सकी। दो हफ्ते से सिर में दर्द से तकलीफ सह रही हूँ, किसी तरह मन को शांति नहीं मिलती है। पर अब कुछ ठीक हूँ। कुछ चिन्ता मत करना। तुमने जो नाटक भेजे, उनके लिए बहुत धन्यवाद देती हूँ। ठीक हो जाने पर पढ़ना शुरू करूँगी। तुम वहाँ के सुंदर नजारों के बारे में मत बताया करो। मुझे तुम से जलन होती है। अगर मैं कहुँ तो भाई साहब वहाँ तक पहुँचा तो देंगे, लेकिन इनके खर्च इतने ज्यादा हैं कि इन्हें बार बार देखना मुमकिन नहीं है और इस समय तुम पर भार देना भी मुश्किल है। भगवान चाहेंगे तो वह दिन जल्दी देखने में आएगा, जब मैं तुम्हारे साथ खुशी से वहां की सैर करूँगी। मैं इस समय तुम्हें कोई तकलीफ देना नहीं चाहती। आशा है, तुम अच्छे से होगे।

तुम्हारी कामिनी

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