(hindi) Shikar

(hindi) Shikar

फटे कपड़ो  वाली मुनिया ने रानी वसुधा के सुन्दर चेहरे की ओर सम्मान भरी आँखो से देखकर राजकुमार को गोद में उठाते हुए कहा, “हम गरीबों का इस तरह कैसे गुज़ारा हो सकता है महारानी ! मेरी तो अपने आदमी से एक दिन न बने , मैं उसे घर में बैठने  न दूँ। ऐसी-ऐसी गालियाँ सुनाऊँ कि वो परेशान हो  जाय।”

रानी वसुधा ने समझदारी  से कहा, “क्यों, वह कहेगा नहीं, तू मेरे बीच में बोलने वाली कौन है ? मेरी जो मर्जी होगी वह करूँगा। तू अपना रोटी-कपड़ा मुझसे लिया कर। तुझे मेरी दूसरी बातों से क्या मतलब ? मैं तेरा नौकर नहीं हूँ।”

मुनिया तीन दिन पहले ही यहाँ लड़कों को खिलाने के लिए आयी  थी। पहले दो-चार घरों में चौका-बरतन कर चुकी थी; पर रानियों से तमीज के साथ बातें करना अभी न सीख पाई थी। ये सुनकर उसे गुस्सा आया । वो कड़वे शब्दों में बोली,” ज़िस दिन ऐसी बातें मुँह से निकालेगा, मूँछें उखाड़ लूँगी सरकार ! वह मेरा नौकर नहीं है, तो क्या मैं उसकी नौकरानी हूँ ? अगर वह मेरा नौकर है, तो मैं उसकी नौकरानी हूँ। मैं खुद नहीं खाती, पर उसे खिला देती हूँ; क्योंकि वह आदमी है। उसे बहुत बहुत मेहनत करनी पड़ती है।

मैं चाहे फटे पहनूँ; पर उसे फटे-पुराने नहीं पहनने देती। जब मैं उसके लिए इतना करती हूँ, तो मतलब ही नहीं कि वह मुझे आँख दिखाये। अपने घर को आदमी इसलिए तो ढकता  है, कि उससे बारिश में बचाव हो। अगर यह डर लगा रहे, कि घर न जाने कब गिर पड़ेगा, तो ऐसे घर में कौन रहेगा। उससे तो गन्ने की छाँव ही कहीं अच्छी।”
“कल न जाने कहाँ बैठा गाता-बजाता रहा। दस बजे रात को घर आया। मैं रात-भर उससे बोली, ही नहीं।  पैर पड़ने लगा, मनाने लगा , तब मुझे दया आ गयी ! यही मुझमें एक बुराई है। मुझसे उसकी रोनी सूरत नहीं देखी जाती। इसी से वह कभी-कभी गलती कर जाता है; पर अब मैं पक्की हो गई हूँ। फिर किसी दिन झगड़ा किया, तो या वही रहेगा, या मैं ही रहूँगी। क्यों किसी की डांट झेलूँ सरकार ? जो बैठकर खाय, वह  ! डांट झेले यहाँ तो बराबर की कमाई करती हूँ। ”

वसुधा ने उसी गम्भीर भाव से फिर पूछा “अगर वह तुझे बैठाकर खिलाता तब उसकी डांट झेलती?”
मुनिया जैसे लड़ने पर आ  गयी बोली, “बैठाकर कोई क्या खिलायेगा सरकार ? वो  बाहर काम करता है, तो हम भी घर में काम करती हैं, या  घर के काम में कुछ लगता ही नहीं ? बाहर के काम से तो रात को छुट्टी मिल जाती है। घर के काम से तो रात को भी छुट्टी नहीं मिलती। आदमी  यह चाहे कि मुझे घर में बिठाकर वो घूमे, तो मुझसे तो न सहा जाय ” यह कहती हुई मुनिया राजकुमार को लिये हुए बाहर चली गयी।

वसुधा ने थकी हुई, रोती हुई आँखो से खिड़की की ओर देखा। बाहर हरा-भरा बाग था, जिसके रंग-बिरंगे फूल यहाँ से साफ नजर आ रहे थे और पीछे एक बड़ा मंदिर आसमान तक ऊँचा दिखाई देता था। औरते सज धज कर पूजन करने आ रही थीं। मन्दिर के दाएं तरफ तालाब में कमल खिले थे जो कार्तिक कि ठंड में सूरज की गर्मी में मुस्कुरा रहे थे। पर यह सब वसुधा को कोई ख़ुशी न दे सके। उसे लगा ये सब उस उसका मजाक उड़ा रहे है। उसी तालाब के किनारे केवट की टूटी फूटी झोपड़ी  किसी गरीब बुढ़िया कि तरह रो रही थी ।

वसुधा की आँखें भर आयी। फूलो और बगीचे के बीच में खड़ी वो सूनी झोपड़ी   उसके ऐश्वर्य और ऐशो आराम से घिरे हुए मन की जीती जागती तस्वीर थी। उसके जी में आया, जाकर झोपड़े के गले लिपट जाऊँ और खूब रोऊँ ! वसुधा को इस घर में आये पाँच साल हो गये थे । पहले उसे अपनी किस्मत पर ख़ुशी हुई । माता-पिता के छोटे-से कच्चे घर को छोड़कर, वह एक बड़े घर में आयी थी, जहाँ बहुत दौलत और सुविधाएं थी । उस समय पैसा  ही उसकी आँखो में सब कुछ था । पति का प्यार छोटी सी बात थी , पर उसका लालची मन पैसे तक ही टिका न रह सका, पति के प्यार के लिए हाथ फैलाने लगा।

कुछ दिनों में वो माँ बन गयी तो लगा उसे सब कुछ मिल गया है , पर थोड़े ही दिनों में यह वहम भी दूर हो गया । कुँवर गजराज सिंह सुन्दर , दयालु, ताकतवर, पढ़े लिखे, हंसी मजाक करने वाले और प्यार का नाटक भी करना जानते थे; उनके जीवन में प्यार नाम की चीज़ नहीं थी।वसुधा की जवानी और सुंदरता सिर्फ़ दिल बहलाने का सामान थी । घुड़ दौड़ और शिकार, सट्टे और मकार जैसे खेलो में प्यार दबकर पीला और बेजान हो  गया था। और प्यार के बिना  वुसधा अब भाग्य को रोया करती थी। दो बेटे  पाकर भी वह खुश न थी।

कुंवर साहब एक महीने से ज्यादा हुआ, शिकार खेलने गये और अभी तक वापिस नहीं आये और ऐसा, पहली बार नहीं हुआ था। हाँ, अब उसका समय बढ़ गया था। पहले वह एक हफ्ते में वापिस आते थे; फिर दो हफ्ते का नम्बर चला और अब कई बार से एक-एक महीने की खबर लेने लगे। साल में तीन-तीन महीने शिकार में निकल जाते थे। शिकार से आते, तो घुड़ दौड़ शुरू हो जाता। कभी मेरठ, कभी पूना, कभी बम्बई, कभी कलकत्ता। घर पर ही रहते, तो अक्सर अमीर बिगड़ैल  के साथ गप्पें लड़ाया करते। पति के यह रंग-ढंग देखकर वसुधा मन-ही-मन चिढ़ती  और बीमार पड़ती जाती थी। कुछ दिनों से हल्का-हल्का बुखार भी रहने लगा था।

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वसुधा बड़ी देर तक बैठी परेशान सी देखती रही। फिर टेलीफोन पर आकर उसने रियासत के मैनेजर से पूछा,  “कुँवर साहब का कोई ख़त आया ?”
मैनेजर ने जवाब दिया, “ज़ी हाँ, अभी खत आया है। कुँवर साहब ने एक बहुत बड़े शेर को मारा है।”
वसुधा ने जलकर कहा, “मैं यह नहीं पूछती ! आने को कब लिखा है ?”
मैनेजर-''आने के बारे में तो कुछ नहीं लिखा।''
वसुधा- ''यहाँ से  कितनी दूर है ?''

मैनेजर-''यहाँ से ! दो सौ मील से कम न होगा। पीलीभीत के जंगलों में शिकार हो रहा है।''
वसुधा- ''मेरे लिए दो मोटरों का इन्तजाम कर दीजिए। मैं आज वहाँ जाना चाहती हूँ।''
फोन ने कई मिनट बाद जवाब दिया, ” एक मोटर तो वह साथ ले गये हैं। एक हाकिम जिला के बंगले पर भेज दी गयी, तीसरी बैंक के मैनेजर की सवारी में, चौथी की मरम्मत हो रही है।”
वसुधा का चेहरा गुस्से  से लाल हो उठा। बोली, “क़िस से पूछ कर बैंक के मैनेजर और हाकिम जिला को मोटरें भेजी गयीं ? आप दोनों मँगवा लीजिए। मैं आज जरूर जाऊँगी।”

'उन दोनों साहबों के पास हमेशा मोटरें भेजी जाती रही हैं; इसलिए मैंने भेज दीं। अब कह रही हैं, तो मँगवा लूँगा !'
वसुधा ने फोन से आकर सफर का सामान ठीक करना शुरू किया। उसने उसी गुस्से  में आगे के जीवन के बारे में सोच लिया था। वह एक कोने में पड़े रहकर जीवन को खत्म न करना चाहती थी। वह जाकर कुँवर साहब से कहेगी अगर आप समझते हैं कि मैं आपके  घर की नौकरानी बनकर रहूँ, तो यह मुझसे न होगा।ये आप रखो। मेरा अधिकार आपके घर पर नहीं, आपके ऊपर है। अगर आप मुझसे दूर होना चाहते हैं, तो मैं आपसे ज्यादा दूर हो जाऊँगी ! इस तरह की और कितनी ही दुःख -भरी बातें उसके मन में  उठ रही थीं। डाक्टर साहब ने दरवाजे  पर आकर आवाज दी, ” मैं अन्दर आऊँ ?”

वसुधा ने प्यार  से कहा, “आज माफ़  कीजिए, मैं जरा पीलीभीत जा रही हूँ।”
डाक्टर ने हैरानी  से कहा, “आप पीलीभीत जा रही हैं ! आपका बुखार बढ़ जायेगा । इस हालत में मैं आपको जाने की सलाह न दूँगा।”
वसुधा ने दुःख से  कहा, ” बढ़ जायगा, तो बढ़ जाय; मुझे इसकी चिन्ता नहीं है !” बूढ़ा  डाक्टर परदा उठाकर आ गया और वसुधा के चेहरे की ओर देखता  हुआ बोला “लाइए मैं टेम्परेचर ले लूँ। अगर टेम्परेचर बढ़ा होगा, तो मैं आपको बिलकुल  न जाने दूँगा।”

“टेम्परेचर लेने की जरूरत नहीं। मेरा इरादा पक्का हो गया है।” वसुधा बोली।
“सेहत का ध्यान रखना जरुरी है।” डाक्टर ने कहा।
वसुधा ने मुस्कराकर कहा, “आप परेशान न हो , मैं इतनी जल्द मरी नहीं जा रही हूँ ! फिर अगर किसी बीमारी की दवा मौत ही हो, तो आप क्या करेंगे ?”
डाक्टर ने दो-एक बार बोला फिर चले गए  !

रेलगाड़ी से जाने में आखिरी स्टेशन से दस कोस तक जंगली सुनसान रास्ता पड़ता था, इसलिए कुँवर साहब हमेशा  मोटर पर जाते थे। वसुधा ने उसी से जाने का फ़ैसला किया। दस बजते-बजते दोनों मोटरें आयीं। वसुधा ने ड्राइवरो  पर गुस्सा उतारा “अब मेरे हुक्म के बगैर कही मोटर ले गये, तो मोटर का किराया तुम्हारी तनख्वा से काट लूँगी। अच्छी दिल्लगी  है ! हमारी गाडी – मौज कोई और करे  ! हमने अपने आराम के लिए मोटरें रखी हैं, किसी और के लिए नहीं। जिसे मोटर पर सवार होने का शौक हो, मोटर खरीदे। यह नहीं कि हलवाई की दुकान देखी और मांगने बैठ गये !”  वह चली, तो दोनों बच्चे रोने लगे, मगर जब पता चला, कि अम्माँ बड़ी दूर हौआ (बच्चो को डरने का शब्द) को मारने जा रही हैं तो वो उदास हो गए । वसुधा ने आज सुबह से उन्हें प्यार न किया था।

उसने जलन में सोचा मैं ही क्यों इन्हें प्यार करूँ, मैंने ही जिम्मेदारी ली है ! वह तो वहाँ जाकर मौज  करें और मैं यहाँ इन्हें छाती से लगाये बैठी रहूँ। लेकिन चलते समय माँ  का दिल भर उठा। उसने दोनों को बारी-बारी से गोद में लिया, चूमा, प्यार किया और घण्टे भर में लौट आने का कह कर  वह आंसू आँख में लिए वहाँ से निकली। रास्ते में भी उसे बच्चों की याद बार-बार आती रही। रास्ते में कोई गाँव आ जाता और छोटे-छोटे बच्चे मोटर की दौड़ देखने के लिए घरों से निकल आते, और सड़क पर खड़े होकर तालियाँ बजाते हुए मोटर का स्वागत करते, तो वसुधा का जी चाहता, इन्हें गोद में उठाकर प्यार करूं ।

मोटर जितनी तेजी से आगे जा रही थी, उतनी ही तेजी  से उसका मन पीछे की ओर उड़ा जा रहा था। कई बार इच्छा हुई, घर लौट चलूँ। जब उन्हें मेरी परवाह नहीं है, तो मैं ही क्यों उनकी चिंता करू ? जी चाहे आवें या न आवें; लेकिन एक बार पति से मिलकर उनसे खरी-खरी बात करने के लालच को वह न रोक सकी। वह थककर चूर-चूर हो रही थी, बुखार भी था, सिर दर्द से फटा जा रहा था; पर वह हिम्मत से आगे बढ़ती जाती थी। यहाँ तक कि जब वो दस बजे रात को जंगल के उस डाक-बंगले में पहुँची, तो उसे होश नहीं था । जोर का बुखार चढ़ा हुआ था। शोर की आवाज सुनते ही कुँवर साहब निकल आये और पूछा, “तुम यहाँ कैसे आये जी ? कुशल तो है ?”
शोफर ने पास  आकर कहा, “रानी साहब आयी हैं हुजूर ! रास्ते में बुखार हो आया। बेहोश पड़ी हुई हैं।”

कुँवर साहब ने वहीं खड़े कठोर आवाज़ में पूछा, “तो उन्हें वापस क्यों न ले गये ? क्या तुम्हें मालूम नहीं था, यहाँ कोई डॉक्टर नहीं है।”
शोफर ने घबराकर जवाब दिया-” हुजूर, वह किसी तरह मानती ही न थीं, तो मैं क्या करता ?” कुँवर साहब ने डाँटा, “चुप रहो, बातें न बनाओ। तुमने समझा होगा, शिकार देखेंगे और पड़े-पड़े सोयेंगे। तुमने वापस चलने को कहा, ही न होगा।”

शोफर — “वह मुझे डाँटती थीं हुजूर !”
कुँवर साहब -“तुमने कहा, था ?”
शोफर -“मैंने कहा तो नहीं हुजूर !”

कुँवर साहब -“बस तो चुप रहो ! मैं तुम्हें भी पहचानता हूँ। तुम्हें मोटर लेकर इसी वक्त लौटना पड़ेगा। और कौन-कौन साथ हैं ?”
शोफर ने दबी हुई आवाज में कहा,” एक मोटर पर बिस्तर और कपड़े हैं एक पर खुद रानी साहब हैं।”
कुँवर साहब- “यानी और कोई साथ नहीं है ?”
शोफर- “हुजूर ! मैं तो हुक्म का ताबेदार हूँ।”
कुँवर साहब -“बस, चुप रहो !

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