(hindi) Jhanki

(hindi) Jhanki

कई दिनों से घर में लड़ाई-झगड़ा  हो रहा  था। माँ अलग नाराज  बैठी थी, पत्नी  अलग। घर की हवा में  जैसे जहर घुला  हुआ था। रात को खाना  नहीं बना, दिन में मैंने स्टोव पर खिचड़ी बनाई थी ; पर खाया किसी ने नहीं। बच्चों को भी आज भूख न थी। छोटी लड़की कभी मेरे पास आकर खड़ी हो जाती, कभी माता के पास, कभी दादी के पास; पर कहीं उसके लिए प्यार की बातें न थीं। कोई उसे गोद में न उठाता  मानों उसने भी कोई गलती  की हो।

लड़का शाम को स्कूल से आया। किसी ने उसे कुछ खाने को न दिया, न उससे बोला, न कुछ पूछा। दोनों बरामदे में उदास  बैठे हुए थे और शायद सोच रहे थे- घर में आज  क्या हुआ है । भाई-बहन दिन में कितनी बार लड़ते हैं, रोना-पीटना भी कई बार हो जाता है; पर ऐसा कभी नहीं होता कि घर में खाना न बने  या कोई किसी से बोले नहीं। यह कैसा झगड़ा है कि चौबीस घंटे बीत जाने पर भी शांत नहीं होता, यह शायद उनकी समझ में न आता था।

झगड़े की वजह  कुछ न थी। अम्माँ ने मेरी बहन के घर तीज का सामान  भेजन के लिए जिन सामानों की लिस्ट लिखायी, वह पत्नी जी को घर की हालत देखते हुए जयादा लगी। अम्माँ खुद समझदार हैं। उन्होंने थोड़ी-बहुत काट-छाँट कर दी थी; लेकिन पत्नी के मन में और काट-छाँट होनी चाहिए थी। पाँच साड़ियों की जगह तीन रहें, तो क्या बुराई है। खिलौने इतने होंगे, इतनी मिठाई की क्या जरुरत! उनका कहना था- जब काम  भी नही चल रहा ; तो घर खर्च थोड़ा कम करना चाहिए,

दूध-घी के बजट में कमी हो गयी, तो फिर तीज में क्यों इतना  खर्च किया जाय? पहले घर में देखना चाहिए फिर बाहर का देखना चाहिए नहीं तो घर मे कुछ नहीं बचेगा । इसी बात पर सास-बहू में झगड़ा  हो गया, फिर पुरानी बाते बाहर निकलने लगी।फिर  बात कहाँ से कहाँ जा पहुँची, बीती  बाते उठ गयी। पता नहीं कौन-कौन सी बाते और ताने शुरू हुए और इसके बाद  सन्नाटा हो गया ।

मैं बड़ी मुसीबत में था। अगर अम्माँ की तरफ से कुछ कहता हूँ, तो पत्नी रोना-धोना शुरु करती हैं, अपने नसीब को कोसने लगती हैं; पत्नी की-सी कहता हूँ तो पत्नी का गुलाम सुनने को मिलता है। इसलिए बारी-बारी से दोनों का साथ देता था; पर सच मे, मै अपनी  पत्नी के साथ ही था । खुलकर अम्माँ से कुछ न कह सकता था; पर गलती तो इन्ही की है। दुकान का यह हाल है कि कभी-कभी बोहनी भी नहीं होती। ग्राहक पैसे नहीं देते,  तो इन पुरानी बातो को लेकर  क्यों लड़ा जाए !

बार-बार इस बात पर गुस्सा आता था । घर में तीन तो लोग  हैं और उनमें भी प्यार नहीं! ऐसी गृहस्थी में तो आग लगा देनी चाहिए। कभी-कभी ऐसी सनक सवार हो जाती थी कि सबको छोड़-छाड़कर कहीं भाग जाऊँ। जब अपने सिर पड़ेगा, तब इन्हें होश आयेगा; तब मालूम होगा कि घर कैसे चलता  है। क्या जानता था कि यह मुसीबत झेलनी पड़ेगी, नहीं तो शादी का नाम ही न लेता। तरह-तरह के बुरे विचार मन में आ रहे थे। कोई बात नहीं, अम्माँ मुझे परेशान करना चाहती हैं। बहू उनके पाँव नहीं दबाती, उनके सिर में तेल नहीं डालती, तो इसमें मेरी क्या गलती ?

मैंने उसे मना तो नहीं कर दिया है! मुझे तो ख़ुशी होगी , अगर सास-बहू में इतना प्यार हो जाय; लेकिन यह मेरे वश की बात नहीं कि दोनों में प्यार डाल दूँ। अगर अम्माँ ने अपनी सास की साड़ी धोयी है, उनके पाँव दबाये हैं, उनकी डांट खायी हैं, तो आज वह पुराना हिसाब बहू से क्यों निकालना  चाहती हैं? उन्हें क्यों नहीं दिखाई देता कि अब समय बदल गया है? बहुएँ अब डर से  सास की गुलामी नहीं करतीं। प्यार  से चाहे उनके सिर के बाल नोच लो, लेकिन जो रौब दिखाकर उन पर राज  करना चाहो, तो वह दिन चले गये।

सारे शहर में जन्माष्टमी का उत्सव हो रहा था। मेरे घर में लड़ाई हो रही थी। शाम  हो गयी थी पर घर में  अंधेरा था। मनहूसियत छायी हुई थी। मुझे अपनी पत्नी पर गुस्सा  आया। लड़ती हो, लड़ो; लेकिन घर में अंधेरा क्यों रखा है? मैंने जाकर कहा- “क्या आज घर में दीये न जलेंगे?”

पत्नी ने मुँह फुलाकर कहा- “जला क्यों नहीं लेते। तुम्हारे हाथ नहीं हैं?”
मुझे गुस्सा आ गया। बोला- “तो क्या जब तुम नहीं थी तो, तब घर में दीये न जलते थे?”
अम्माँ ने बात को बढ़ाया- “नहीं, तब सब लोग अंधेरे ही में पड़े रहते थे।”
पत्नी अम्माँ की बात पर भड़क कर बोली- “जलाते होंगे मिट्टी की कुप्पी! लालटेन तो मैंने नहीं देखी। मुझे इस घर में आये दस साल हो गये।”
मैंने डाँटा- “अच्छा चुप रहो, बहुत बढ़ो नहीं।”

पत्नी-“ओहो! तुम तो ऐसा डाँट रहे हो, जैसे मुझे ख़रीदकर  लाये हो?”
मैं भड़क गया -“मैं कहता हूँ, चुप रहो!”
पत्नी-“क्यों चुप रहूँ? अगर एक कहोगे, तो दो सुनोगे।”
मैंने गुस्से से कहा -“यही है पति की इज्जत ?”
पत्नी-“जैसा मुँह होता है ,वैसे ही जवाब मिलते हैं !”

मैं हार कर बाहर चला आया, और अंधेरी कोठरी में बैठा हुआ, उस मनहूस घड़ी को कोसने लगा जब इस से मेरी शादी हुई थी । इस अँधेरे  में भी दस साल का जीवन फिल्मो की तरह मेरी आँखों के सामने दौड़ गया। उसमें कहीं कुछ भी अच्छा नहीं था, कहीं प्यार नहीं था।

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अचानक  मेरे दोस्त  पंडित जयदेव ने दरवाजे  पर बुलाया – “अरे, आज यह अंधेरा क्यों कर रखा है? कुछ पता है । कहाँ हो?”
मैंने कुछ न बोला। सोचा, यह आज कहाँ से टपक पड़े ।
जयदेव ने फिर बुलाया – “अरे, कहाँ हो भाई? बोलते क्यों नहीं? कोई घर में है या नहीं?”
कहीं से कोई जवाब न मिला।

जयदेव ने दरवाजा  को इतनी जोर से मारा  कि मुझे डर  हुआ, कहीं दरवाजा टूट न जाय । फिर भी मैं बोला नहीं। उनका आना मुझे अच्छा नहीं लग  रहा था।
जयदेव चले गये। मैंने आराम की साँस ली। फिर मैने कहा मुसीबत  टली , नहीं तो घंटों सिर खाता।

मगर पाँच ही मिनट में फिर किसी के पैरों की आने की आवाज सुनी और अबकी बार टार्च की लाइट से मेरा सारा कमरा भर उठा। जयदेव ने मुझे बैठे देखकर चौक कर पूछा- “तुम कहाँ गये थे जी? घंटों चीखा, किसी ने जवाब तक न दिया। यह आज क्या मामला है? लालटेन  क्यों नहीं जलाई ?”
मैंने बहाना किया- “क्या जाने, मेरे सिर में दर्द था, दुकान से आकर लेटा , तो नींद आ गयी”

जयदेव- “और बड़ी गहरी नींद में थे ?”
मैंने जवाब दिया- “हाँ यार, नींद आ गयी।”
जयदेव -“मगर घर में दीया तो जलाना चाहिए था या वो भी नहीं होगा ?”
“आज घर में लोग व्रत से हैं । काम में उलझे होंगे “-मैं बोला।

“खैर चलो, कहीं घूमने चलते हो? सेठ घूरेमल के मंदिर में ऐसी झाँकी बनी है कि देखते ही बनता है। ऐसे-ऐसे शीशे और बिजली के सामान सजाये हैं कि आँखें झपक उठती हैं। सिंहासन के ठीक सामने ऐसा फौवारा लगाया है कि उसमें से गुलाबजल की फुहारें निकलती हैं। मेरा मन बहुत खुश हुआ देखकर । सीधे तुम्हारे पास दौड़ा चला आ रहा हूँ। बहुत झाँकियाँ देखी होंगी तुमने, लेकिन यह और ही चीज है। भीड़ लगी है। सुनते हैं दिल्ली से कोई बहुत अच्छा कारीगर आया है। उसी का कमाल है।”

मैंने उदास भाव से कहा- “मेरी तो जाने की इच्छा नहीं है भाई! सिर में जोर का दर्द है।”
जयदेव-“तब तो जरुर चलो। दर्द भाग न जाय तो कहना।”
“तुम तो यार, बहुत जिद  करते हो। इसी मारे मैं चुपचाप पड़ा था कि किसी तरह यह बला टले; लेकिन तुम तो अड़ ही गये। कह दिया- मैं न जाऊँगा।”-मैंने चिढ कर कहा।
जयदेव- “और मैंने कह दिया, मैं जरुर ले जाऊँगा।”

मुझे मनाने का तरीका  मेरे दोस्त को पता  है। यों  तो मैं हाथा-पायी, धींगा-मुश्ती, धौल-धप्पे में किसी से पीछे रहने वाला नहीं हूँ, लेकिन किसी ने मुझे गुदगुदाया और हार गया । फिर मेरी कुछ नहीं चलती। मैं हाथ जोड़ने लगता हूँ , बचने की कोशिश करता हूँ ,और कभी-कभी रोने भी लगता हूँ। जयदेव ने वही तरीका आजमाया और उसकी जीत हो गयी। शर्त में यही माँगा कि मैं चुपके से झाँकी देखने चलू।

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