(hindi) Khoon Safed

(hindi) Khoon Safed

चैत का महीना था, लेकिन वो खलियान, जहाँ अनाज की ढेर लगे रहते थे, वहाँ जानवरों का घर बना हुआ था; जहाँ घरों से फाग और बसन्त के गाने सुनाई पड़ते, वहाँ आज किस्मत का रोना था। चार महीने बीत गए, पानी की एक बूँद न गिरी।

जेठ में एक बार मूसलाधार बारिश  हुई थी, किसान बहुत खुश हुए। समय पर फसल बो दी, लेकिन इन्द्रदेव ने अपनी सारी बारिश शायद एक ही बार लुटा दिया था। पौधे उगे, बढ़े और फिर सूख गए। गाय चराने वाली जमीन में घास न जमी। बादल आते, बदली छा जाती, ऐसा मालूम होता कि खूब बारिश होगी, लेकिन वो उम्मीद के नहीं, दुख के बादल थे।

किसानों ने बहुत से पूजा पाठ किए, ईंट और पत्थर देवी-देवताओं के नाम से पुजाएं, बलि चढ़ाई, पानी की उम्मीद में खून के नाले बह गए, लेकिन इन्द्रदेव किसी तरह न पिघले। न खेतों में पौधे थे, न गायों के लिए घास, न तालाबों में पानी। इस बार बड़ी मुसीबत का सामना था। जहाँ देखिए, धूल उड़ रही थी। गरीबी और भूख के डरानक नजारे दिखाई देते थे। लोगों ने पहले तो गहने और बरतन गिरवी रखे और आखिर में बेच डाले।

फिर जानवरों की बारी आयी और अब कमाने का और कोई तरीका न रहा, तब अपनी जमीन पर जान देने वाले किसान बाल बच्चों को लेकर मजदूरी करने निकल पड़े। अकाल पीड़ितों की मदद के लिए कहीं-कहीं सरकार की सहायता से काम खुल गया था। बहुत से वहीं जाकर जमे। जहाँ जिसको सुविधा हुई, वह उधर ही जा निकला।

शाम का समय था। जादोराय थका हुआ आकर बैठ गया और पत्नी से उदास होकर बोला- “अर्जी नामंजूर हो गई”। यह कहते-कहते वह आँगन में जमीन पर लेट गया। उसका चहरा पीला पड़ रहा था और आँतें सिकुड़ी जा रही थीं। आज दो दिन से उसने खाने की सूरत तक नहीं देखी थी । घर में जो कुछ था, गहने कपड़े, बरतन-भाँड़े सब पेट में समा गए। गाँव का साहूकार भी पतिव्रता पत्नियों की तरह आँखें चुराने लगा। सिर्फ सरकारी योजना का सहारा था, उसी के लिए अर्जी दी थी, लेकिन आज वह भी नामंजूर हो गई, उम्मीद का झिलमिलाता हुआ दीपक बुझ गया।

देवकी ने पति को दयनीय नजर से देखा। उसकी आँखों में आँसू भर आये। पति दिन भर का थका-माँदा घर आया है। उसे क्या खिलाए ? शर्म के मारे वह हाथ-पैर धोने के लिए पानी भी न लायी। जब हाथ-पैर धोकर उम्मीद भरी नजरों से वह उसकी ओर देखेगा, तब वह उसे क्या खाने को देगी ? उसने आप कई दिन से कुछ नहीं खाया था।

लेकिन इस समय उसे जो दुख हुआ, वह भूखे होने की तकलीफ से कई गुना ज़्यादा था। पत्नी घर की लक्ष्मी है घर के लोगों को खिलाना-पिलाना वह अपना धर्म समझती है। और चाहे यह उसकी  नाइंसाफी ही क्यों न हो, लेकिन अपने बुरे हालात पर जो मानसिक तकलीफ उसे होती है, वह आदमी को नहीं हो सकती।

अचानक उसका बच्चा साधो नींद से चौंका और मिठाई के लालच में आकर वह बाप से लिपट गया। इस बच्चे ने आज सुबह चने की रोटी का एक टुकड़ा खाया था। और तब से कई बार उठा और कई बार रोते-रोते सो गया। चार साल का नासमझ बच्चा, उसे बारिश और मिठाई में कोई रिश्ता नहीं दिखाई देता था। जादोराय ने उसे गोद में उठा लिया और उसकी ओर दुख भरी नजर से देखा। उसकी गर्दन झुक गई और दिल का दर्द आँखों में न समा सका।

दूसरे दिन वह परिवार भी घर से बाहर निकला। जिस तरह आदमी के मन से अभिमान और पत्नी की आँख से शर्म नहीं निकलती, उसी तरह अपनी मेहनत से रोटी कमाने वाला किसान भी मजदूरी की खोज में घर से बाहर नहीं निकलता। लेकिन हाय पापी पेट! तू सब कुछ करा सकता है ! मान और अभिमान, दुख और शर्म के सब चमकते हुए तारे तेरे काले बादलों के पीछे छिप जाते हैं।

सुबह का समय था। ये दोनों तकलीफ के सताए घर से निकले। जादोराय ने लड़के को पीठ पर लिया। देवकी ने फटे-पुराने कपड़ों की वह गठरी सिर पर रखी, जिस पर मुसीबत  को भी तरस आ जाए। दोनों की आँखें आँसुओं से भरी थीं। देवकी रोती रही। जादोराय चुप था। गाँव के दो-चार आदमियों से मुलाकात भी हुई, किसी ने इतना भी नहीं पूछा कि कहाँ जाते हो? किसी के दिल में अपनापन न था।

जब ये लोग लालगंज पहुँचे, उस समय सूरज ठीक सर पर था। देखा, मीलों तक आदमी-ही-आदमी दिखाई देते थे। लेकिन हर चेहरे पर गरीबी और दुख के निशान थे।

बैसाख की जलती हुई धूप थी। आग के झोंके जोर-जोर से चल रहे थे। ऐसे समय में हड्डियों के अनगिनत ढाँचे, जिनके शरीर पर किसी तरह का कपड़ा न था, मिट्टी खोदने में लगे हुए थे, मानों वह मुर्दों को दफनाने की जमीन थी, जहाँ मुर्दे अपने हाथों अपनी कब्र खोद रहे थे। बूढ़े और जवान, आदमी और बच्चे, सबके-सब ऐसे निराश और मजबूर होकर काम में लगे हुए थे, मानो मौत और भूख उनके सामने बैठी घूर रही है।

इस आफत में न कोई किसी का दोस्त था न भला सोचने वाला। दया, अच्छाई और प्यार ये सब मानवीय भाव हैं, जिनको करने वाला इंसान है; प्रकृति ने हमें सिर्फ एक भाव दिया है और वह स्वार्थ है। मानवीय भाव ज्यादातर धोखेबाज दोस्तों की तरह हमारा साथ छोड़ देते हैं, पर यह भगवान का दिया गुण हमारा गला नहीं छोड़ता।

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आठ दिन बीत गए थे। शाम को काम खत्म हो चुका था। डेरे से कुछ दूर आम का एक बगीचा था। वहीं एक पेड़ के नीचे जादोराय और देवकी बैठी हुई थी। दोनों ऐसे कमजोर हो रहे थे कि उनके चहरे नहीं पहचाने जाते थे। अब वह आजाद किसान नहीं रहे। समय के हेर-फेर से आज दोनों मजदूर बने बैठे हैं।

जादोराय ने बच्चे को जमीन पर सुला दिया। उसे कई दिन से बुखार आ रहा था । कमल-सा चेहरा मुरझा गया था । देवकी ने धीरे से हिलाकर कहा- ‛बेटा! आँखें खोलो, देखो शाम हो गई।’

साधों ने आँख खोल दीं, बुखार उतर गया था, बोला- ‛क्या हम घर आ गये माँ?’

घर की याद आ गई, देवकी की आँखें डबडबा आयीं। उसने कहा- ‛नहीं, बेटा! तुम अच्छे हो जाओगे तो घर चलेगें। उठकर देखो, कैसा अच्छा बगीचा है?’

साधो माँ के हाथों के सहारे उठा और बोला- ‛माँ, मुझे बड़ी भूख लगी है; लेकिन तुम्हारे पास तो कुछ नहीं है। मुझे क्या खाने को दोगी?’

देवकी के दिल में चोट लगी, पर सब्र से बोली- ‛नहीं बेटा, तुम्हारे खाने को मेरे पास सब कुछ है। तुम्हारे दादा पानी लाते हैं, तो नरम-नरम रोटियाँ अभी बनाएं देती हूँ।’

साधों ने माँ की गोद में सिर रख लिया और बोला- ‛माँ मैं न होता तो तुम्हें इतना दुख न होता।’ यह कहकर वह फूट-फूटकर रोने लगा। यह वही नासमझ बच्चा है, जो दो सप्ताह पहले मिठाइयों के लिए दुनिया सिर पर उठा लेता था। दुख और चिन्ता ने क्या कर दिया है। यह मुसीबत का फल है। कितना दुखी करने वाला,कितना दयनीय व्यापार है !

इसी बीच में कई आदमी लालटेन लिये हुए वहाँ आये। फिर गाड़ियाँ आयीं। उन पर डेरे और तम्बू लदे हुए थे। देखते ही देखते यहां तंबू गड़ गए। सारे बगीचा में चहल-पहल नजर आने लगी। देवकी रोटियाँ सेंक रही थी, साधो धीरे-धीरे उठा और आश्चर्य से देखता हुआ, एक डेरे के पास जाकर खड़ा हो गया।

पादरी मोहनदास तंबू से बाहर निकले, तो साधो उन्हें खड़ा दिखाई दिया। उसकी चहरे पर उन्हें तरस आ गया। प्यार की नदी उमड़ आयी। बच्चे को गोद में लेकर तंबू में एक गद्देदार कुर्सी पर बैठा दिया और बिस्कुट और केले खाने को दिये। लड़के ने अपनी जिन्दगी में इन स्वादिष्ट चीजों को कभी न देखा था। बुखार की बेचैन करने वाली भूख अलग से मार रही थी। उसने खूब मन-भर खाया और तब एहसानमंद नजरों से देखते हुए पादरी साहब के पास जाकर बोला- ’तुम हमको रोज ऐसी चीजें खिलाओगे?’

पादरी साहब इन भोलेपन पर मुसकरा के बोले- ‛मेरे पास इससे भी अच्छी-अच्छी चीजें हैं।’

इस पर साधो ने कहा- ‛अब मैं रोज तुम्हारे पास आऊँगा। माँ के पास ऐसी अच्छी चीजें कहाँ? वह मुझे रोज चने की रोटियाँ खिलाती है।’

उधर देवकी ने रोटियाँ बनायीं और साधो को बुलाने लगी। साधो ने माँ के पास जाकर कहा- ‛मुझे साहब ने अच्छी-अच्छी चीजें खाने को दी हैं। साहब बड़े अच्छे हैं।’

देवकी ने कहा- ‛मैंने तुम्हारे लिए नरम-नरम रोटियां बनायी हैं आओ तुम्हें खिलाऊँ।’

साधो बोला- ‛अब मैं न खाऊँगा। साहब कहते थे कि मैं तुम्हें रोज अच्छी-अच्छी चीजें खिलाऊँगा। मैं अब उनके साथ रहा करूँगा।’

माँ ने समझा कि लड़का मजाक कर रहा है। उसे गले लगाकर बोली- ’क्यों बेटा, हमें भूल जाओगे? देखो, मैं तुम्हें कितना प्यार करती हूँ!’

साधो तुतलाकर बोला- ‛तुम तो मुझे रोज चने की रोटियाँ दिया करती हो, तुम्हारे पास तो कुछ नहीं है। साहब मुझे केले और आम खिलाएंगे।’ यह कहकर वह फिर तंबू की ओर भागा और रात को वही सोया।

पादरी मोहनदास वहाँ तीन दिन रुके। साधो दिन-भर उन्हीं के पास रहता। साहब ने उसे मीठी दवाइयाँ दीं। उसका बुखार जाता रहा। वह भोले-भाले किसान यह देखकर साहब को आशीर्वाद देने लगे। लड़का ठीक हो गया और अब आराम से था। साहब को भगवान सुखी रखे। उन्होंने बच्चे की जान बचा ली।

चौथे दिन रात को ही वहाँ से पादरी साहब निकल लिये। सुबह जब देवकी उठी, तो साधो नहीं मिला। उसने समझा, कहीं गिरे हुए आम ढूँढ़ने गया होगा; लेकिन थोड़ी देर देखकर उसने जादोराय से कहा- ‛लल्लू यहाँ नहीं है।’

उसने भी यही कहा- ‛कहीं गिरे हुए आम ढूँढ़ता होगा।’

लेकिन जब सूरज निकल आया और काम पर चलने का वक्त हुआ, तब जादोराय को कुछ शक हुआ। उसने कहा- ‛तुम यहीं बैठी रहना, मैं अभी उसे लिये आता हूं।’

जादो ने आस-पास के सब बगीचाों में ढुंढ डाला और आखिर में जब दस बज गए तो निराश लौट आया। साधो न मिला, यह देखकर देवकी जोर जोर से रोने लगी।

फिर दोनों अपने बेटे की खोज में निकले। बहुत से ख्याल मन में आने-जाने लगे। देवकी को पूरा यकीन था कि उस साहब ने उस पर कोई जादू कर के उसे वश में कर लिया। लेकिन जादो को इसे मान लेने में कुछ शक था। बच्चा इतनी दूर अनजान रास्ते पर अकेले नहीं जा सकता। फिर भी दोनों गाड़ी के पहियों और घोड़े के टापों के निशान देखते चले जाते थे।

यहाँ तक कि एक सड़क पर आ पहुँचे। वहां गाड़ी के बहुत से निशान थे। उस ख़ास निशान की पहचान न हो सकती थी। घोड़े के टाप भी एक झाड़ी की तरफ जाकर गायब हो गए। उम्मीद का सहारा टूट गया। दोपहर हो गई थी। दोनों धूप के मारे बेचैन और निराशा से पागल हो रहे थे। वहीं एक पेड़ की छाया में बैठ गए। देवकी रोने लगी। जादोराय ने उसे समझाना शुरू किया।

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