(hindi) Phool Ka Mulya

(hindi) Phool Ka Mulya

सर्दियों के दिन थे। ठिठुराने वाली ठंड के कारण पौधों पर से फूल झड गए थे। बगीचे-जंगलों  में उदासी छाई हुई थी। फूलों की कमी में पौधे  मुरझाए और कुम्ल्हाए हुए दिखाई दे रहे थे।

ऐसे उदास वातावरण में एक झील के बीच में कमल का फूल खिला हुआ देखकर उसका माली  ख़ुश हो उठा। उस माली का नाम सुदास था। ऐसा सुंदर फूल तो कभी उसके झील  में खिला ही नहीं था। सुदास उस फूल की सुंदरता पर मुग्ध हो उठा। उसने सोचा कि मैं अगर  यह फूल राजा साहब के पास लेकर जाऊँगा, तो वह ख़ुश हो जाएँगे। राजा साहब फूलों की सुंदरता के दीवाने थे। इस सर्दी में जब फूलों की कमी है, तब इतना सुंदर फूल देखकर उसे इसका मनचाहा इनाम मिलने की उम्मीद थी।

उसी समय एक ठंडी लहर आई। सुदास को लगा कि यह पवन भी कमल के खिलने पर अपनी ख़ुशी ज़ाहिर कर रही है। माली को यह सब शुभ लक्षण लगे।

वह हज़ारों पंखुड़ियों वाले कमल के फूल को देखकर मन-ही-मन फूला नहीं समा रहा था। वह उस फूल को लेकर राजमहल की ओर चल पड़ा। वह मनचाहे इनाम की कामना में डूबा हुआ था। राजमहल पहुँचकर उसने राजा को समाचार भिजवाया। वह इस विचार में मग्न था कि अभी उसे राजा बुलाएँगे। राजा इस सुंदर फूल को देखकर बेहद ख़ुश होंगे। अच्छे कीमत की कामना में वह बड़े ध्यान से उस फूल को पकड़े हुए उसे प्रेम से निहार रहा था।

राजमहल के बाहर खड़ा वह राजा द्वारा बुलाए जाने का इंतज़ार कर ही रहा था कि तभी राजपथ पर जाता हुआ एक भला आदमी कमल के फूल की सुंदरता पर मोहित होकर सुदास के पास आकर पूछने लगा-“फूल बेचोगे?”

“मैं तो यह फूल राजा जी के चरणों में अर्पित करना चाहता हूँ।” -सुदास यह जवाब देकर चुप हो गया।

“तुम यह फूल राजा जी को देना चाहते हो, लेकिन मैं तो यह फूल राजाओं के भी राजा जी के चरणों में अर्पित करना चाहता हूँ। भगवान बुद्ध यहाँ पधारे हैं। बोलो, तुम इसका क्या दाम लेना चाहते हो?”

“मैं चाहता हूँ कि मुझे इसके बदले एक माशा (आठ रत्ती मान की एक तरह की तौल जिसका इस्तेमाल सोने, चाँदी, रत्नों और औषधियों के तौलने में होता है।) सोना मिल जाए।”
उस आदमी ने तुरंत ही दाम स्वीकार कर लिया।

तभी शहनाइयाँ बज उठीं। मंगल बाजे बज उठे। सुंदर थाल सजाए हुए सुंदर औरतों का झुंड उधर ही चला आ रहा था। राजा प्रसेनजीत पैदल ही भगवान बुद्ध के दर्शन के लिए जा रहे थे। नगर के बाहरी भाग में वे विराजमान थे। सुदास के पास कमल का फूल देखकर वे ख़ुश  हो उठे। इस कपकपाती ठंड में फूल कहीं ढूँढने से भी नहीं मिल रहे थे। ऐसे में इतने सुंदर फूल को देखकर उनका मोहित होना स्वाभाविक ही था। उनकी पूजा की थाली में फूल की ही कमी थी।
राजा जी ने सुदास से पूछा-“इस फूल का क्या दाम लोगे?”
सुदास बोला-“ महाराज, फूल तो यह सज्जन ले चुके हैं।”
“कितने में?”
“एक माशा स्वर्ण में।”
“मैं तुम्हें इस फूल के बदले दस माशा स्वर्ण दूँगा।”
राजा जी की वंदना करके उन सज्जन ने कहा-“ सुदास, मेरी तरफ़ से बीस माशे स्वर्ण ले लो।”

राजा जी से विनती करते हुए वह सज्जन बोला-“महाराज, आप और मैं दोनों ही बुद्ध के चरणों में यह फूल अर्पित करना चाहते हैं। इसलिए आप और मैं इस समय राजा या प्रजा न होकर दो भक्तों की तरह ही व्यवहार करें तो ज़्यादा अच्छा रहेगा। भगवान की नज़र में सभी भक्त एक समान होते हैं।”

बड़े मिठास के साथ राजा प्रसेनजीत ने कहा-“ भक्तजन, मैं आपकी बात सुनकर ख़ुश हुआ। आप इस फूल के लिए बीस माशा दे रहे हैं, तो मैं इसका दाम चालीस माशा स्वर्ण देने के लिए तैयार हूँ।”
“तो मेरे…।”

भक्त के बात पूरा करने से पहले ही सुदास बोल पड़ा-“ हे राजन्‌ और भक्तजन, आप दोनों ही मुझे माफ़ करें। मुझे यह फूल नहीं बेचना है।” इतना कह कर वह वहाँ से चल पड़ा। वे दोनों उसे आश्चर्यचकित होकर देखते रह गए।

सुदास फूल लेकर गौतम बुद्ध के स्थान की ओर चल पड़ा। वह सोच रहा था कि जिस बुद्ध देव को देने के लिए यह दोनों इस फूल की इतनी कीमत देने को तैयार हैं, अगर मैं ख़ुद ही उन्हें यह फूल अर्पित करूँ, तो मुझे इससे कहीं ज़्यादा दौलत मिलेगी।

वह महात्मा बुद्ध के स्थान की ओर चल पड़ा। उसने देखा कि एक वट के पेड़ के नीचे महात्मा बुद्ध ध्यान में लीन होकर पद्मासन की मुद्रा में बैठे थे। उनके माथे पर एक अद्भुत चमक थी, चेहरे पर सूर्य का सा तेज, होठों पर आनंद और आँखों से जैसे अमृत छलक रहा था। उनका व्यक्तित्व इतना मनमोहक और दिव्य था कि कोई भी उससे मोहित हो सकता था।

सुदास उन्हें देखकर अपने होशो-हवास भूलकर आदर के साथ बिना पलक झपकाए उन्हें निहारने लगा। आगे बढ़कर उसने आदर के साथ उनके चरणों में वह फूल अर्पित कर दिया। उसका तन-मन एक अलौकिक और दिव्य सुख का अनुभव कर रहा था।

महात्मा बुद्ध ने उससे पूछा-“हे वत्स! क्‍या चाहिए? आपकी क्‍या इच्छा है?”

सुदास मधुरता से बोला-“कुछ नहीं, बस आपका आशीर्वाद चाहिए।

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