(hindi) Ghar Jamai
हरिधन जेठ की दुपहर में गन्ने में पानी देकर आया और बाहर बैठा रहा। घर में से धुआँ उठता नजर आ रहा था। छन-छन की आवाज भी आ रही थी। उसके दोनों साले उसके बाद आये और घर में चले गए। दोनों सालों के लड़के भी आये और उसी तरह अंदर दाखिल हो गये; पर हरिधन अंदर नहीं जा सका। इधर एक महीने से उसके साथ यहाँ जो बर्ताव हो रहा था और ख़ासकर कल उसे जैसी फटकार सुननी पड़ी थी, वह उसके पाँव में बेड़ियाँ-सी डाले हुए था। कल उसकी सास ने तो कहा, था, “मेरा जी तुमसे भर गया, मैं तुम्हारा जिंदगी-भर का ठेका लिये बैठी हूँ क्या ?” और सबसे बढ़कर अपनी पत्नी की कठोरता ने उसके दिल के टुकड़े-टुकड़े कर दिये थे। वह बैठी यह फटकार सुनती रही; पर एक बार भी उसके मुँह से नहीं निकला, “अम्माँ, तुम क्यों इनका अपमान कर रही हो !” बैठी गट-गट सुनती रही।
शायद मेरी दुर्गति पर खुश हो रही थी। इस घर में वह कैसे जाय ? क्या फिर वही गालियाँ खाने, वही फटकार सुनने के लिए ? और आज इस घर में जीवन के दस साल गुजर जाने पर यह हाल हो रहा है। मैं किसी से कम काम करता हूँ क्या ? दोनों साले मीठी नींद सोए रहते हैं और मैं बैलों को चारा-पानी देता हूँ; फ़सल काटता हूँ। वहाँ सब लोग पल-पल हुक्का पीते हैं, मैं आँखें बन्द किये अपने काम में लगा रहता हूँ। शाम के वक़्त घरवाले गाने-बजाने चले जाते हैं, मैं देर रात तक गाय-भैंसे दुहता रहता हूँ। उसका यह इनाम मिल रहा है कि कोई खाने को भी नहीं पूछता। उल्टे गालियाँ मिलती हैं।
उसकी पत्नी घर में से बाल्टी लेकर निकली और बोली- “जरा इसे कुएँ से भर लाओ । घर में एक बूँद पानी नहीं है”।
हरिधन ने बाल्टी ली और कुएँ से पानी भर लाया। उसे जोर की भूख लगी थी, वो समझा अब खाने को बुलाने आएगी; मगर उसकी पत्नी बाल्टी लेकर अंदर गयी तो वहीं की हो गई। हरिधन थका-माँदा भूख से बेचैन पड़ा-पड़ा सो गया।
अचानक उसकी पत्नी गुमानी ने आकर उसे जगाया।
हरिधन ने पड़े-पड़े कहा- “क्या है? क्या पड़ा भी नहीं रहने देगी या और पानी चाहिए?”
गुमानी कड़वे स्वर में बोली- “गुर्राते क्यों हो, खाने को तो बुलाने आयी हूँ”।
हरिधन ने देखा, उसके दोनों साले और बड़े साले के दोनों लड़के खाना खाकर चले जा रहे थे। उसके बदन में आग लग गयी। “मेरी अब यह नौबत आ गयी कि इन लोगों के साथ बैठकर खा भी नहीं सकता। ये लोग मालिक हैं तो क्या मैं इनकी जूठी थाली चाटने वाला हूँ। मैं इनका कुत्ता हूँ, जिसे खाने के बाद एक टुकड़ा रोटी डाल दी जाती है”। यही घर है जहाँ आज से दस साल पहले उसका कितना आदर और स्वागत होता था। साले गुलाम बने रहते थे। सास मुँह देखती रहती थी। पत्नी पूजा करती थी।
तब उसके पास रुपये थे, जायदाद थी। अब वह गरीब है, उसकी सारी जायदाद को इन्हीं लोगों ने कूड़ा कर दिया। अब उसे रोटियों के भी लाले पड़ गए थे। उसके जी में एक ज्वाला-सी उठी कि इसी वक्त अंदर जाकर सास को और सालों को भिगो- भिगोकर लगाये; पर गुस्सा सहन करके रह गया। वो पड़े-पड़े बोला- “मुझे भूख नहीं है। आज नहीं खाऊँगा”।
गुमानी ने कहा-“ नहीं खाओगे मेरी बला से, हाँ नहीं तो ! खाओगे तो तुम्हारे ही पेट में जाएगा कुछ मेरे पेट में थोड़े ही चला जायगा”।
हरिधन का गुस्सा अब आँसू बन गया। यह मेरी पत्नी है, जिसके लिए मैंने अपना सब कुछ मिट्टी में मिला दिया। मुझे उल्लू बनाकर यह सब अब निकाल देना चाहते हैं। अब मैं कहाँ जाऊं! क्या करूं !
उसकी सास आकर बोली- “चलकर खा क्यों नहीं लेते जी, रूठते किस पर हो ? यहाँ तुम्हारे नखरे सहने का किसी में ज़ोर नहीं है। जो देते हो वह मत देना और क्या करोगे। तुमसे बेटी की शादी की है, कोई तुम्हारा जिंदगी का ठेका नहीं लिया है”।
हरिधन के मन पर गहरी चोट लगी, उसने कहा- “हाँ अम्माँ, मेरी भूल थी कि मैं यही समझ रहा था। अब मेरे पास है कि क्या कि तुम मेरी जिंदगी का ठेका लोगी। जब मेरे पास दौलत थी तब सब कुछ आता था। अब गरीब हूँ, तो तुम क्यों बात पूछोगी”।
बूढ़ी सास भी मुँह फुलाकर अंदर चली गयी।
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बच्चों के लिए बाप एक फालतू-सी चीज – ऐश करने का सामान भर है, जैसे घोड़े के लिए चने या बाबुओं के लिए मोहनभोग होता है । माँ दाल –रोटी है। मोहनभोग उम्र-भर न भी मिले तो किसका नुकसान है; मगर एक दिन रोटी-दाल के दर्शन न हों, तो फिर देखिए, क्या हाल होता है। पिता के दर्शन कभी-कभी सुबह-शाम हो जाते हैं, वह बच्चे को उछालता है, दुलारता है, कभी गोद में लेकर या उँगली पकड़कर सैर कराने ले जाता है और बस, यही उसकी ज़िम्मेदारी है। वह परदेस चला जाय, तो बच्चे को परवाह नहीं होती; लेकिन माँ तो बच्चे का सब कुछ है। बच्चे एक मिनिट के लिए भी उससे दूरी नहीं सह सकते।
पिता कोई भी हो, उसे परवाह नहीं, सिर्फ़ एक उछालने-कुदाने वाला आदमी होना चाहिए; लेकिन माँ तो अपनी ही होनी चाहिए, सोलह आने अपनी; वही रूप, वही रंग, वही प्यार, वही सब कुछ। वह अगर नहीं है तो बच्चे के जीवन का स्रोत ही मानो सूख जाता है, फिर वह शिव का नन्दी जैसा हो जाता है, जिस पर फूल या जल चढ़ाना ज़रूरी नहीं, अख्तियारी है। हरिधन की माँ को गुज़रे दस साल हो गए थे; उस वक्त उसकी शादी हो चुकी थी। वह सोलह साल का था। पर माँ के मरते ही उसे लगा कि मैं कितना असहाय हूँ। जैसे उस पर उसका कोई अधिकार ही न रहा हो। बहनों की शादी हो चुकी थी। भाई कोई दूसरा था नहीं । बेचारा अकेले घर में जाते हुए भी डरता था। माँ के लिए रोता था; पर माँ की परछाईं से डरता था। जिस कोठरी में उसकी माँ ने आखरी सांस ली थी, उधर वह देखता तक नहीं था।
घर में एक बुआ थी, वह हरिधन को बहुत प्यार करती थी। हरिधन को अब दूध ज्यादा मिलता था और काम भी कम करना पड़ता था । बुआ उससे बार-बार पूछती- “बेटा ! कुछ खाओगे ?” बाप भी अब उसे ज्यादा प्यार करता, उसके लिए एक अलग गाय मँगवा दिया गया, वो कभी-कभी उसे कुछ पैसे दे देते कि जैसे चाहे खर्च करे। पर इन मरहमों से वह घाव नहीं भरता था; जिसने उसकी आत्मा को दुःख दिया था। यह दुलार और प्यार उसे बार-बार माँ की याद दिलाते। माँ की डांट में जो मजा था; वह क्या इस दुलार में था ? माँ से माँगकर, लड़कर, ठुनककर, रूठकर लेने में जो आनन्द था, वह क्या इस उपकार और दया भाव में था? पहले वह स्वस्थ था, माँगकर खाता था, लड़-लड़कर खाता, पर अब वह बीमार रहने लगा था, अच्छे-से-अच्छे खाना उसे दिया जाता; पर उसे भूख ही नहीं लगती थी।
साल-भर तक वह इस दशा में रहा। फिर उसकी दुनिया बदल गयी। एक नयी पत्नी जिसे लोग उसकी माँ कहते थे, उसके घर में आयी और देखते-देखते एक काली घटा की तरह उसके सिमटी हुई दुनिया पर छा गयी- सारी हरियाली, सारी रौशनी पर अंधकार का परदा पड़ गया। हरिधन ने इस नकली माँ से बात तक नहीं की, कभी उसके पास गया तक नहीं। बस एक दिन घर से निकला और अपने ससुराल चला आया।
बाप ने बार-बार बुलाया; पर उनके जीते-जी वह फिर उस घर में नहीं गया। जिस दिन उसके पिता के मौत की ख़बर मिली, उसे एक तरह जलन से भरी ख़ुशी मिली । उसकी आँखों में आँसू की एक बूँद भी न आयी।
इस नये संसार में आकर हरिधन को एक बार फिर माँ के प्रेम का आनन्द मिला। उसकी सास ने ऋषि-वरदान की तरह उसके ख़ाली जीवन को भर दिया था। जैसे रेगिस्तान में हरियाली पैदा हो गयी थी। सालियों की शरारत में, सास के दुलार में, सालों के बात व्यवहार में और पत्नी के प्रेम में उसके जीवन की सारी इच्छाएं पूरी हो गयीं। उसकी सास कहती- “बेटा, तुम इस घर को अपना ही समझो, तुम्हीं मेरी आँखों के तारे हो”। वह उससे अपने लड़कों की, बहुओं की शिकायत करती। वह दिल में समझता था कि सासूजी मुझे अपने बेटों से भी ज्यादा चाहती हैं।
बाप के मरते ही वह घर गया और अपने हिस्से की जायदाद को कूड़ा करके, रुपयों की थैली लिए हुए आ गया। अब उसका दुगना आदर-सत्कार होने लगा। उसने अपनी सारी जायदाद सास के चरणों पर अर्पण करके अपने जीवन को सार्थक कर दिया। अब तक उसे कभी-कभी घर की याद आ जाती थी। अब भूलकर भी उसकी याद न आती, मानो वह उसके जीवन का कोई भयानक कांड था, जिसे भूल जाना ही उसके लिए अच्छा था। वह सबसे पहले उठता, सबसे ज्यादा काम करता, उसकी मेहनत और लगन देखकर गाँव के लोग दाँतों तले उँगली दबाते थे। उसके ससुर के भाग्य की तारीफ़ करते , जिसे ऐसा दामाद मिला था; लेकिन जैसे-जैसे दिन गुजरते गये, उसका मान-सम्मान घटता गया।
वो पहले देवता, फिर घर का आदमी, अंत में घर का नौकर बन गया। रोटियों में भी बाधा पड़ गयी। उसका अपमान होने लगा। अगर घर के लोग भूखे मरते और साथ ही उसे भी मरना पड़ता, तो उसे जरा भी शिकायत नहीं होती। लेकिन जब वो इन लोगों का ताव देखता तो सोचता सिर्फ़ मैं ही दूध की मक्खी बना दिया गया हूँ, तो उसके दिल की गहराई से एक लम्बी, ठंडी आह निकल आती। अभी उसकी उम्र पच्चीस साल ही तो थी। बाकी उम्र इस घर में कैसे गुजरेगी ? और तो और, उसकी पत्नी ने भी उससे आँखें फेर लीं। यह उस तकलीफ़ का सबसे क्रूर नज़ारा था।