(hindi) Chamatkaar

(hindi) Chamatkaar

बी.ए. पास करने के बाद चन्द्रप्रकाश को टयूशन देने के सिवा और कुछ न सूझा। उसकी माँ पहले ही मर चुकी थी, इसी साल पिता भी चल बसे थे और प्रकाश जीवन के जो मधुर सपने देखा करता था, वे सब धूल में मिल गये। पिता ऊँचे पद पर थे, उनकी कोशिश से चन्द्रप्रकाश को कोई   अच्छी नौकरी मिलने की पूरी उम्मीद थी; पर वे सब अरमान धरे रह गये और अब गुजर-बसर के लिए वही 6000 रूपए महीने की टयूशन रह गई। पिता ने कुछ जायदाद  भी न छोड़ी, उलटे पत्नी  का बोझ और सिर पर लाद दिया और पत्नी  भी मिली, तो पढ़ी-लिखी, शौकीन, जबान की तेज जिसे मोटा खाने और मोटा पहनने से मर जाना कबूल था।

चन्द्रप्रकाश को 6000 की नौकरी करते शर्म तो आयी; लेकिन ठाकुर साहब ने रहने की जगह देकर उसके आँसू पोंछ दिये। यह मकान ठाकुर साहब के मकान से बिलकुल मिला हुआ था पक्का, हवादार, साफ-सुथरा और उसमें सारा जरूरी सामान मौजूद था । ऐसा मकान 10000 से कम किराए पर न मिलता, और काम था सिर्फ़ दो घंटे का। ठाकुर साहब का लड़का था तो लगभग उन्हीं की उम्र का; पर बड़ा निकम्मा, कामचोर। अभी नौवीं क्लास में पढ़ता था। सबसे बड़ी बात यह थी कि ठाकुर और ठाकुराइन दोनों प्रकाश का बहुत आदर करते थे, बल्कि उसे अपने बेटे की तरह समझते थे। वह नौकर नहीं, घर का आदमी था और घर के हर मामले में उसकी सलाह ली जाती थी। ठाकुर साहब अंग्रेज़ी नहीं जानते थे। वो सोचते थे कि अंग्रेजों का नौकर  भी उनसे ज्यादा बुद्धिमान, चतुर और अनुभवी था।

शाम का समय था। प्रकाश ने वीरेन्द्र को पढ़ाकर छड़ी उठायी, तो ठाकुराइन ने आकर कहा, “अभी न जाओ बेटा, जरा मेरे साथ आओ, तुमसे कुछ सलाह करनी है”।
प्रकाश ने मन में सोचा “आज कैसी सलाह करनी है, वीरेन्द्र के सामने क्यों नहीं कहा ?” उसे अंदर  ले जाकर रमा देवी ने कहा- “तुम्हारी क्या सलाह है, बीरू की शादी कर दूं ? एक बहुत अच्छे घर से रिश्ता आया है”।
प्रकाश ने मुस्कराकर कहा- “यह तो बीरू बाबू से ही पूछिए”।
'नहीं, मैं तुमसे पूछ रही हूँ।'
प्रकाश ने दुविधा में पड़कर कहा- “मैं इस बारे में क्या सलाह दे सकता हूँ ? उनका बीसवाँ साल तो है; लेकिन यह समझ लीजिए कि पढ़ना हो चुका”।
'तो अभी न करूँ, यही सलाह है ?'
'जैसा आप ठीक समझें। मैंने तो दोनों बातें कह दीं।'
'तो कर डालूँ ? मुझे यही डर लगता है कि लड़का कहीं बहक न जाय।'
'मेरे रहते इसकी तो आप चिन्ता न करें। हाँ, इच्छा हो, तो कर डालिए। कोई हर्ज भी नहीं है।'
'सब तैयारियाँ तुम्हीं को करनी पड़ेंगी, यह समझ लो।'
'तो मैं इनकार कब करता हूँ।'
पेट भरने की चिंता करने वाले पढ़े लिखे नौजवानों में एक तरह की दुविधा होती है, जो उन्हें कडवा सच कहने से रोकती है। प्रकाश में भी यही कमजोरी थी।

तो बात पक्की हो गयी और शादी की तैयारियां होने लगी । ठाकुर साहब उन लोगों में से थे, जिन्हें अपने ऊपर ज़्यादा विश्वास नहीं था । उनकी नज़र  में प्रकाश की डिग्री, उनके साठ साल के अनुभव से कहीं ज़्यादा कीमती थी। शादी की सारी व्यवस्था प्रकाश के हाथों में थी । दस-बारह लाख खर्च करने का अधिकार कुछ कम गर्व की बात न थी। देखते-देखते ही फटेहाल लड़का  जिम्मेदार मैनेजर बन बैठा। कहीं कपड़े वाला उसे सलाम करने आया; कहीं मुहल्ले का बनिया घेरे हुए था; कहीं गैस और शामियाने वाला खुशामद कर रहा था। वह चाहता, तो थोड़े रुपये बड़ी आसानी से बना लेता, लेकिन वो इतना नीच न था। फिर उसके साथ क्या धोखा  करता, जिसने सबकुछ उसी पर छोड़ दिया था। पर जिस दिन उसने एक लाख के गहने  खरीदे, उस दिन उसका मन चंचल हो उठा।

वो घर आकर चम्पा से बोला, “हम तो यहाँ रोटियों के मोहताज हैं और दुनिया में ऐसे आदमी पड़े हुए हैं जो लाखों रुपये के गहने बनवा डालते हैं। ठाकुर साहब ने आज बहू के चढ़ावे के लिए एक लाख के गहने खरीदे। ऐसी-ऐसी चीजें थीं कि देखकर आँखें ठण्डी हो जायँ। सच कहता हूँ, कुछ चीजों से आँख ही नहीं हट रही थी”।

चम्पा जलन की भावना से बोली- “ऊँह, हमें क्या करना है ? जिन्हें भगवान्  ने दिया है, वे पहनें। यहाँ तो रोकर मरने ही के लिए पैदा हुए हैं”।
चन्द्रप्रकाश – “इन्हीं लोगों की मौज़ है। न कमाना, न धमाना। बाप-दादा छोड़ गये हैं, मजे से खाते और चैन करते हैं। इसी लिए कहता हूँ, भगवान् बड़ा निर्दयी है”।
चम्पा- “अपना-अपना पुरुषार्थ है भगवान्  का क्या दोष ? तुम्हारे बाप-दादा छोड़ गये होते, तो तुम भी मौज करते। यहाँ तो घर चलना मुश्किल हैं, गहने-कपड़े को कौन रोये। और न इस जिन्दगी में कोई ऐसी आशा है। कोई ढ़ंग की  साड़ी भी नहीं रही कि किसी भले आदमी के घर जाऊँ, तो पहन लूँ। मैं तो इसी सोच में हूँ कि ठकुराइन के यहाँ शादी  में कैसे जाऊँगी। सोचती हूँ, बीमार पड़ जाती तो जान बचती”।

यह कहते-कहते चम्पा की आँखें भर आयीं।
प्रकाश ने तसल्ली दी-  “तुम्हारे लिए साड़ी ना लाऊँ, अब क्या इतना भी न कर सकूँगा ? मुसीबत के ये दिन क्या हमेशा  बने रहेंगे ? जिन्दा रहा, तो एक दिन तुम सिर से पाँव तक गहनों  से लदी होगी”।

चम्पा मुस्कराकर बोली- “चलो, ऐसी मन की मिठाई मैं नहीं खाती। गुज़ारा ठीक से हो जाय, यही बहुत है। मुझे गहनों की इच्छा नहीं है”।
प्रकाश ने चम्पा की बातें सुनकर शर्म और दु:ख से सिर झुका लिया। क्या चम्पा उसे इतना गया गुज़रा समझती है?

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रात को दोनों खाना खाकर लेटे, तो प्रकाश ने फिर गहनों की बात छेड़ी। गहने उसकी आँखों के सामने घूम रहे थे- “इस शहर में ऐसे बढ़िया गहने बनते हैं, मुझे इसकी उम्मीद न थी”।
चम्पा ने कहा- “क़ोई और बात करो। गहनों की बात सुनकर जी जलता है”।
'वैसी चीजें तुम पहनो, तो रानी लगो।'

'गहनों से क्या सुन्दरता बढ़ जाती है ? मैंने तो ऐसी बहुत-सी औरतें देखी हैं, जो गहने पहनकर भद्दी दिखने लगती हैं।'
'ठाकुर साहब भी मतलब के यार हैं। इतना भी नहीं कहा कि , इसमें से कोई चीज चम्पा के लिए भी लेते जाओ।'
'तुम भी कैसी बच्चों की-सी बातें करते हो ?'

'इसमें बचपने की क्या बात है ? कोई उदार आदमी कभी इतनी कंजूसी न करता।'
'मैंने तो कोई ऐसा उदार आदमी नहीं देखा, जो अपनी बहू के गहने किसी गैर को दे दे।'
'मैं गैर नहीं हूँ। हम दोनों एक ही मकान में रहते हैं। मैं उनके लड़के को पढ़ाता हूँ और शादी का सारा इन्तजाम कर रहा हूँ। अगर पांच-सात हज़ार की कोई चीज दे देते, तो वह बेकार न जाती। मगर पैसे वालों का दिल दौलत  के भार से दबकर सिकुड़ जाता है। उनमें उदारता के लिए जगह ही नहीं रहती।'

रात के बारह बज गये, फिर भी प्रकाश को नींद नहीं आ रही थी । बार-बार चमकीले गहने उसकी आँखों के सामने आ जाते। कुछ बादल छा जाते और बार-बार बिजली चमक उठती।

अचानक प्रकाश चारपाई से उठा। उसे चम्पा के शरीर पर कोई भी गहना ना देखकर बड़ी दया आयी। यही तो खाने-पहनने की उम्र है और इसी उम्र में इस बेचारी को हर एक चीज के लिए तरसना पड़ रहा है। वह दबे पाँव कमरे से बाहर निकलकर छत पर आया। ठाकुर साहब की छत इस छत से मिली हुई थी। बीच में पाँच फीट ऊँची दीवार थी। वह दीवार पर चढ़कर ठाकुर साहब की छत पर धीरे से उतर गया। घर में बिलकुल सन्नाटा था।

उसने सोचा पहले नीचे उतरकर ठाकुर साहब के कमरे में चलूँ। अगर वह जाग गये, तो जोर से हसूँगा और कहूँगा- “क़ैसा डरा दिया”, या कह दूँगा- “मेरे घर की छत से कोई आदमी इधर आता दिखायी दिया, इसलिए मैं भी उसके पीछे-पीछे आया कि देखूँ,वो  क्या करता है”। अगर बक्से की चाबी मिल गयी तो फिर जीत है। किसी को मुझ पर शक  ही न होगा। सब लोग नौकरों पर शक करेंगे, मैं भी कहूँगा- “साहब ! नौकरों की हरकत है, इन्हें छोड़कर और कौन ले जा सकता है ? मैं बेदाग बच जाऊँगा ! शादी के बाद कोई दूसरा घर ढूंढ लूँगा। फिर धीरे-धीरे एक-एक चीज चम्पा को दूंगा,जिसमें उसे कोई शक न हो”।

फिर जब वह नीचे उतरने लगा तो उसका दिल धड़क रहा था ।
धूप निकल आयी थी। प्रकाश अभी सो रहा था कि चम्पा ने उसे जगाकर कहा- “बड़ा गजब हो गया। रात को ठाकुर साहब के घर में चोरी हो गयी। चोर गहने का बक्सा उठा ले गया”।
प्रकाश ने पड़े-पड़े पूछा-“ क़िसी ने पकड़ा नहीं चोर को ?”
'किसी को खबर भी ना लगी ! वह बक्सा ले गया, जिसमें शादी के गहने रखे थे। न-जाने कैसे चाबी उड़ा ली और न-जाने कैसे उसे मालूम हुआ कि इस बक्से में सामान रखा है !'
'नौकरों से पूछताछ होगी। बाहर के चोर का यह काम नहीं है।'
'नौकर तो उनके तीनों पुराने हैं।'

'नीयत बदलते क्या देर लगती है ! आज मौका देखा, तो उठा ले गये !'
'तुम जाकर जरा उन लोगों को तसल्ली तो दो। ठाकुराइन बेचारी रो रही थीं। तुम्हारा नाम ले-लेकर कहती थीं कि बेचारा महीनों इन गहनों के लिए दौड़ा, एक-एक चीज अपने सामने जँचवायी और चोर ने उसकी सारी मेहनत पर पानी फेर दिया।'

प्रकाश चटपट उठ बैठा और घबराता हुआ-सा जाकर ठाकुराइन से बोला- “यह तो बड़ा अनर्थ हो गया माताजी, मुझसे तो अभी-अभी चम्पा ने बताया”।
ठाकुर साहब सिर पर हाथ रखे बैठे हुए थे। बोले- “क़हीं सेंध नहीं, कोई ताला नहीं टूटा, किसी दरवाजे की कुंडी नहीं उतरी। समझ में नहीं आता, चोर आया किधर से !”
ठाकुराइन ने रोकर कहा- “मैं तो लुट गयी भैया, शादी सिर पर खड़ी है, कैसे क्या होगा, भगवान् ! तुमने दौड़-धूप की थी, तब कहीं जाके चीजें आयी थीं। न-जाने किस मनहूस का साया पड़ गया”।

प्रकाश ने ठाकुर साहब के कान में कहा- “मुझे तो किसी नौकर की शरारत लगती है”।
ठाकुराइन ने विरोध किया- “अरे नहीं भैया, नौकरों में ऐसा कोई नहीं है। दस-दस हजार रुपये यों ही ऊपर रखे रहते थे, कभी एक पाई भी नहीं गयी”।

ठाकुर साहब ने नाक सिकोड़कर कहा- “तुम क्या जानो, आदमी का मन कितनी जल्द बदल जाया करता है। जिसने अब तक चोरी नहीं की, वह कभी चोरी न करेगा, यह कोई नहीं कह सकता। मैं पुलिस में रिपोर्ट करूँगा और एक-एक नौकर की तलाशी कराऊँगा। कहीं माल उड़ा दिया होगा। जब पुलिस के जूते पड़ेंगे तो अपने आप ही कबूलेंगे”। प्रकाश ने पुलिस का घर में आना खतरनाक समझा। कहीं उन्हीं के घर में तलाशी ले लें , तो अनर्थ ही हो जाएगा । वो बोले- “पुलिस में रिपोर्ट करना और तहकीकात कराना बेकार है। पुलिस माल तो न बरामद कर सकेगी। हाँ, नौकरों को मार-पीट भले ही लेगी। मेरी तो सलाह है कि एक-एक नौकर को अकेले में बुलाकर पूछा जाय”।

ठाकुर साहब ने मुँह बनाकर कहा- “तुम भी क्या बच्चों की-सी बात करते हो, प्रकाश बाबू ! भला चोरी करने वाला अपने आप कबूलेगा? तुम मारपीट भी तो नहीं करते। हाँ, पुलिस में रिपोर्ट करना मुझे भी बेकार ही लग रहा है। सामन बरामद होने से रहा, उलटे महीनों की परेशानी हो जायेगी”।

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