(hindi) Shatranj ke Khiladi

(hindi) Shatranj ke Khiladi

वाजिदअली शाह का समय था। लखनऊ ऐयाशी के रंग में डूबा हुआ था। छोटे-बड़े, गरीब-अमीर सभी भोग विलास में डूबे  थे। कोई नाच गाने की महफ़िल सजाता था, तो कोई अफीम के नशे में मजे लेता था। जीवन के हर डिपार्टमेंट में मौज मस्ती सबसे ज़रूरी काम बन गया था। गवर्नमेंट डिपार्टमेंट में, लिटरेचर के फील्ड में, सोशल स्टेट में, आर्ट में, काम धंधे में, खान पान -व्यवहार में हर जगह ऐयाशी फ़ैली हुई थी। राजा के नौकर वासना में, कवि प्रेम और जुदाई की भावनाओं में, कारीगर कलाबत्तू और चिकन बनाने में, बिजनेसमैन सुरमे, इत्र , मिस्सी और उबटन का बिज़नेस करने में मगन थे। सभी की आँखों में ऐयाशी का नशा छाया हुआ था। दुनिया में क्या हो रहा है, इसकी किसी को खबर नहीं थी। कहीं लूडो का खेल चल रहा था ; पौ-बारह का शोर मचा हुआ था। कही शतरंज की जंग छिड़ी हुई थी।

राजा से लेकर रंक तक इसी धुन में मस्त थे। यहाँ तक कि फकीरों को पैसे मिलते तो वे रोटियाँ न लेकर अफीम खाते या शराब पीते। शतरंज, ताश, गंजीफ़ा खेलने से बुद्धि तेज़ होती है, सोचने की शक्ति बढ़ती है और इसे खेलने से मुश्किल मामलों को सुलझाने की आदत पड़ती है। ये दलीलें जोरों के साथ पेश की जाती थीं (इस तरह के लोगों से दुनिया अब भी खाली नहीं है)। इसलिए अगर मिरज़ा सज्जाद अली और मीर रौशन अली अपना ज़्यादातर समय बुद्धि तेज़ करने में बिताते थे, तो किसी आदमी को क्या आपत्ति हो सकती थी? दोनों के पास बहुत जायदाद थीं; कमाने की कोई चिंता नहीं थी। आखिर और करते ही क्या? सुबह-सुबह दोनों दोस्त नाश्ता करके शतरंज बिछा कर बैठ जाते, मुहरे सज जाते, और लड़ाई के दाव-पेंच होने लगते। फिर उन्हें कुछ खबर नहीं होती थी कि कब दोपहर हुई और कब शाम ! घर के अंदर से बार-बार बुलावा आता कि खाना तैयार है। यहाँ से जवाब मिलता- “चलो, आते हैं, प्लेट तो लगाओ”।

यहाँ तक कि बावरची मजबूर  होकर कमरे ही में खाना रख जाता था, और दोनों दोस्त दोनों काम साथ-साथ करते। मिरज़ा सज्जाद अली के घर में कोई बड़ा-बूढ़ा नहीं था, इसलिए उन्हीं के दीवान खाने में खेल खेला जाता था। मगर यह बात नहीं थी कि मिरज़ा के घर के और लोग उनसे इस व्यवहार से खुश थे। घरवालों का तो कहना ही क्या, मुहल्ले वाले, घर के नौकर-चाकर तक रोज़ गुस्से  से तानें दिया करते थे- “बड़ा मनहूस खेल है। घर को तबाह कर देता है। खुदा न करे, किसी को इसकी लत लगे, आदमी दीन-दुनिया किसी काम का नहीं रहता, न घर का, न घाट का। बुरी बीमारी  है ये” । यहाँ तक कि मिरज़ा की पत्नी को इससे इतनी नफ़रत थी कि मौक़ा खोज-खोजकर पति को डांटती रहती थीं। पर उन्हें ऐसा मौक़ा मुश्किल से मिलता था।

वह सोती रहती, तब तक खेल बिछ जाती थी और रात को जब वो सो जाती, तब कही मिरज़ाजी घर में आते थे। हाँ, नौकरों पर वह अपना गुस्सा उतारती रहती थीं- “क्या पान मंगवाया हैं? कह दो कि आकर ले जाएं। खाने की फुरसत नहीं है? ले जाकर खाना सिर पर पटक दो, फ़िर चाहे ख़ुद खाएं चाहे  कुत्ते को खिलायें”। पर सामने वह भी कुछ नहीं कह सकती थीं। उन्हें अपने पति से उतनी नाराज़गी  नहीं थीं , जितनी  मीर साहब से थी । उन्होंने उनका, नाम मीर बिगाड़ू रख दिया था। शायद मिरज़ाजी अपनी सफाई देने के लिए सारा इलजाम मीर साहब के सर ही थोप देते थे।

एक दिन उनकी पत्नी  के सिर में दर्द होने लगा। उन्होंने सेविका से कहा- जाकर मिरज़ा साहब को बुला लो। किसी हकीम के यहाँ से दवा लेकर आएं। दौड़, जल्दी कर”। सेविका गयी तो मिरज़ाजी ने कहा- “चल, अभी आते हैं”। उनकी पत्नी का मिजाज गरम था। इतना सब्र कहाँ कि उनके सिर में दर्द हो और पति शतरंज खेलता रहे। गुस्से से उनका चेहरा लाल  हो गया। उन्होंने सेविका  से कहा- “जाकर कह, अभी चलिए, नहीं तो वह ख़ुद ही हकीम के यहाँ चली जायेंगी”। मिरज़ाजी बड़ी दिलचस्प चाल खेल रहे थे, दो ही चाल में मीर साहब को हरा देते । वो झुँझलाकर बोले- “क्या जरा भी सब्र नहीं है?”

मीर- “अरे, तो जाकर सुन ही आइए न। औरतें नाजुक-मिजाज होती ही हैं”।
मिरज़ा- “जी हाँ, आप तो जाने के लिए कहेंगे ही! दो चाल में आपकी हार जो पक्की है”।
मीर- “जनाब, इस भरोसे मत रहिएगा। वह चाल सोची है कि आपकी चाल धरी की धरी रह जाएगी। पर जाइए, सुन आइए। क्यों बेवजह उनका दिल दुखा रहे हैं ?”
मिरज़ा- “अब तो हरा कर ही जाऊँगा”।
मीर- “मैं खेलूँगा ही नहीं। आप जाकर सुन आइए”।
मिरज़ा- “अरे यार, जाना पड़ेगा हकीम के यहाँ। कोई सिर-दर्द नहीं है, मुझे परेशान करने का बहाना है बस”।
मीर-“ कुछ भी हो, उनकी खातिर तो करनी ही पड़ेगी”।
मिरज़ा- “अच्छा, एक चाल और चल लूँ”।
मीर- “हरगिज़ नहीं, जब तक आप सुनकर नहीं आयेंगे, मैं नहीं खेलूंगा”।

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मिरज़ा साहब मजबूर होकर अंदर गये तो पत्नी ने तेवर बदलकर, लेकिन कराहते हुए कहा- “तुम्हें ये शतरंज इतनी प्यारी है ! चाहे कोई मर ही जाय, पर उठने का नाम नहीं लेते ! कैसे आदमी हो !”
मिरज़ा- “क्या कहूँ, मीर साहब मान ही नहीं रहे थे। बड़ी मुश्किल से पीछा छुड़ाकर आया हूँ”।
बेगम- “क्या जैसे वह खुद निकम्मे हैं, वैसे ही सबको समझते हैं। उनके भी तो बाल-बच्चे हैं; या सबका सफाया कर डाला?”
मिरज़ा- “इस आदमी को बहुत लत लगी हुई है। जब आ जाता है, तब मजबूर होकर मुझे भी खेलना पड़ता है”।
बेगम- “तो दुत्कार क्यों नहीं देते?”
मिरज़ा- “बराबर के आदमी हैं; उम्र में, पोजीशन में मुझसे दो कदम बड़े और ऊँचे हैं। मान करना ही पड़ता है”।
बेगम- “तो मैं ही दुत्कार देती हूँ। नाराज हो जायँगे तो हो जाएं। वो कौन सा हमारा घर चलाते है। हरिया; जा बाहर से शतरंज उठा ला। मीर साहब से कहना, मियाँ अब नहीं खेलेंगे; आप घर चले जाइए”।
मिरज़ा- “ऐसा गजब भी न करना ! अपमान करना चाहती हो क्या? ठहर हरिया, कहाँ जाती है”।
बेगम- “जाने क्यों नहीं देते? मेरा ही खून पियोगे क्या। अच्छा, उसे रोका, मुझे रोककर दिखाओ, तो जानूँ?”

यह कहकर उनकी पत्नी गुस्से में दीवानखाने की तरफ चलीं। मिरज़ा बेचारे का रंग उड़ गया। बीबी से विनती करने लगे- “खुदा के लिए, तुम्हें हजरत हुसेन की कसम है। मेरा मरा मुहं देखोगी जो उधर गई। लेकिन उनकी पत्नी ने एक नहीं मानी। दीवानखाने के दरवाज़े तक गयीं, पर अचानक  पराए आदमी के सामने जाते हुए पाँव बँध-से गये। अंदर झाँका, संयोग से कमरा खाली था। मीर साहब ने दो-एक मुहरे इधर-उधर कर दिये थे, और अपनी सफाई जताने के लिए बाहर टहल रहे थे। फिर क्या था, उनकी पत्नी ने अंदर पहुँचकर बाजी उलट दी, कुछ मुहरे नीचे फेंक दिये, कुछ बाहर और दरवाज़ा  अंदर से बंद करके कुंडी लगा दी। मीर साहब दरवाजे पर तो थे ही, मुहरे बाहर फेंकते हुए देखे, चूड़ियों की झनक भी कान में पड़ी। फिर दरवाजा बंद हुआ, तो समझ गये कि उनकी पत्नी बिगड़ गयीं हैं । वो चुपके से घर के रास्ते चल दिए।

मिरज़ा ने कहा- “तुमने तो गज़ब कर किया”।
बेगम- “अब अगर मीर साहब इधर आये, तो मैं खड़े-खड़े निकलवा दूँगी। इतनी मन खुदा से लगाते, तो तुम्हारा उद्धार हो जाता! आप तो शतरंज खेलते रहते हैं, और मैं यहाँ चूल्हे-चक्की की फिक्र में सिर खपाती रहती हूँ ! जाते हो हकीम साहब के यहाँ कि अब भी सोचते रहोगे”।
मिरज़ा घर से निकले, तो हकीम के घर जाने के बदले मीर साहब के घर पहुँचे और सारा किस्सा सुनाया। मीर साहब बोले- “मैंने तो जब मुहरे बाहर आती देखि , तभी समझ गया और फौरन भागा। आकी पत्नी बड़ी गुस्सेल  मालूम होती हैं। मगर आपने उन्हें इस तरह सिर पर क्यों चढ़ा रखा है, यह ठीक नहीं है। उन्हें इससे क्या मतलब कि आप बाहर क्या करते हैं। घर की देक्भाल करना उनका काम है; दूसरी बातों से उन्हें क्या मतलब?”

मिरज़ा- “खैर, यह तो बताइए, अब कहाँ खेल पाएँगे?”
मीर-“ इसका क्या दुःख है। इतना बड़ा घर पड़ा हुआ है। बस यहीं खेलेंगे”।
मिरज़ा- “लेकिन मैं अपनी पत्नी को कैसे मनाऊँगा? घर पर बैठा रहता था, तब तो वह इतना बिगड़ती थीं; यहाँ बैठक होगी, तो शायद मुझे जिंदा नहीं छोड़ेंगी”।
मीर- “अजी बकने भी दीजिए, दो-चार दिन में अपने आप ही ठीक हो जायेंगी। हाँ, आप इतना कीजिए कि आज से जरा ऐंठ कर बात कीजिए”।

मीर साहब की पत्नी किसी अनजान कारण से मीर साहब के घर से दूर रहना ही ठीक समझती थीं। इसलिए वह उनके शतरंज-प्रेम की कभी बुराई नहीं करती थीं; बल्कि कभी-कभी मीर साहब को जाने में देर हो जाती, तो याद दिला देती थीं। इन कारणों से मीर साहब को भ्रम हो गया था कि मेरी पत्नी बहुत शांत और गंभीर है। लेकिन जब दीवानखाने में खेल होने लगा, और मीर साहब दिन-भर घर में रहने लगे, तो उनकी पत्नी को बहुत तकलीफ़ होने लगी। उनकी आज़ादी में बाधा पड़ गयी थी । अब वो दिन-भर दरवाजे पर झाँकने को तरस जातीं थीं।

उधर नौकरों में भी कानाफूसी होने लगी। अब तक दिन-भर पड़े-पड़े मक्खियाँ मारा करते थे। घर में कोई आये, कोई जाये, उनसे कुछ मतलब नहीं था। अब हर समय की धौंस हो गयी। पान लाने का हुक्म होता, कभी मिठाई का और हुक्का तो किसी प्रेमी के दिल की तरह हमेशा जलता ही रहता था। वे अपनी मालकिन से जा-जाकर कहते- “हुजूर, मियाँ की शतरंज तो हमारे जी का जंजाल बन गयी है। दिन-भर दौड़ते-दौड़ते पैरों में छाले पड़ गये। यह भी कोई खेल है कि सुबह बैठो तो शाम हो जाए। कुछ देर दिल-बहलाने के लिए खेल खेलना काफ़ी है। खैर, हमें तो कोई शिकायत नहीं; हुजूर के गुलाम हैं, जो हुक्म होगा, मान लेंगे; मगर यह खेल मनहूस है। इसे खेलने वाला कभी चैन से नहीं रह पाता; घर पर कोई न कोई मुसीबत जरूर आती है। यहाँ तक कि एक के पीछे महल्ले-के-महल्ले तबाह होते देखे गये हैं। सारे मुहल्ले में यही चर्चा रहती है। हुजूर का नमक खाते हैं, अपने मालिक की बुराई सुन-सुनकर दुःख होता है? मगर क्या करें?”

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