(Hindi) Nasha
ईश्वरी एक बड़े जमींदार का लड़का था और मैं एक गरीब क्लर्क का, जिसके पास मेहनत-मज़दूरी के सिवा और कोई जायदाद नहीं थी। हम दोनों में आपस में बहस चलती रहती थीं। मैं जमींदारी की बुराई करता, उन्हें ख़तरनाक जानवर और खून चूसने वाले जोंक और पेड़ों की चोटी पर फूलने वाला बंजर फूल कहता। वह जमींदारों का पक्ष लेता, पर नैचुरली उसका पहलू कुछ कमजोर होता था, क्योंकि उसके पास जमींदारों के लिए कोई तर्क नहीं होता था। वह कहता कि सभी इंसान एक जैसे नहीं होते, छोटे-बड़े हमेशा होते हैं और होते रहेंगे, मगर बेकार की बात थी ये।
इंसानियत या moral वैल्यूज के हिसाब से इस सिस्टम को सही साबित करना मुश्किल था। मैं इस बहस की गरमा-गर्मी में अक्सर तेज हो जाता और चुभने वाली बात कह जाता, लेकिन ईश्वरी हारकर भी मुस्कराता रहता था। मैंने उसे कभी गर्म होते नहीं देखा। शायद इसका कारण यह था कि वह अपने पक्ष की कमजोरी समझता था। नौकरों से वह सीधे मुँह बात तक नहीं करता था। अमीरों में जो बेदर्दी और घमंड होती है, उसमें कूट-कूट कर भरी थी। नौकर ने बिस्तर लगाने में जरा भी देर की, दूध जरूरत से ज्यादा गर्म या ठंडा हुआ, साइकिल अच्छी तरह साफ नहीं हुई, तो वह आपे से बाहर हो जाता। सुस्ती या बदतमीजी उसे जरा भी बरदाश्त नहीं थी, पर दोस्तों से और ख़ासकर मुझसे उसका व्यवहार प्रेम और नम्रता से भरा हुआ होता था।
शायद उसकी जगह मैं होता, तो मुझमें भी वहीं सख्ती पैदा हो जातीं, जो उसमें थीं, क्योंकि मेरा लोक प्रेम प्रिंसिपल्स पर नहीं, पर्सनल कंडीशन पर टिका हुआ था, लेकिन वह मेरी जगह होकर भी शायद अमीर ही रहता, क्योंकि वह स्वभाव से ही भोग विलासी था, ठाट बाट पसंद करता था।
अबकी बार दशहरे की छुट्टियों में मैंने फ़ैसला किया कि घर नहीं जाऊँगा। मेरे पास किराये के लिए रूपये नहीं थे और ना ही मैं घरवालों को तकलीफ देना चाहता था। मैं जानता हूँ, वे मुझे जो कुछ देते हैं, वह उनकी हैसियत से बहुत ज्यादा है, उसके साथ ही एग्जाम का ख्याल भी था। अभी बहुत कुछ पढ़ना था, बोर्डिग हाउस में भूत की तरह अकेले पड़े रहने को भी जी नहीं चाहता था। इसलिए जब ईश्वरी ने मुझे अपने घर आने के लिए कहा, तो मैं बिना रिक्वेस्ट किए ही राजी हो गया। ईश्वरी के साथ एग्जाम की तैयारी अच्छे से हो जायगी। वह अमीर होकर भी मेहनती और बहुत बुद्धिमान था।
इसके साथ उसने कहा- “लेकिन भाई, एक बात का ख्याल रखना। वहाँ अगर जमींदारों की बुराई की, तो मामला बिगड़ जायगा और मेरे घरवालों को बुरा लगेगा। वह लोग तो किसानों पर इसी दावे से राज करते हैं कि भगवान् ने किसानों को उनकी सेवा के लिए ही पैदा किया है। किसान भी यही समझता है। अगर उन्हें समझा दिया जाय कि जमींदार और किसान में कोई बुनियादी फ़र्क नहीं है, तो जमींदारी तो ख़त्म समझो”।
मैंने कहा- “तो क्या तुम समझते हो कि मैं वहाँ जाकर कुछ और हो जाऊँगा?”
‘हाँ, मैं तो यही समझता हूँ।’
‘तुम गलत समझते हो।‘
ईश्वरी ने इसका कोई जवाब नहीं दिया। शायद उसने इस मामले को मेरी समझ पर छोड़ दिया था और ये उसने बहुत अच्छा किया। अगर वह अपनी बात पर अड़ता, तो मैं भी जिद पकड़ लेता।
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सेकेंड क्लास तो क्या , मैंने कभी इंटर क्लास में भी सफर नहीं किया था। अबकी बार सेकेंड क्लास में सफर करने का सौभाग्य मिला। गाड़ी तो नौ बजे रात को आती थी, पर सफ़र की ख़ुशी में हम शाम को ही स्टेशन जा पहुँचे। कुछ देर इधर-उधर सैर करने के बाद रिफ्रेशमेंट रूम में जाकर हम लोगों ने खाना खाया। मेरे पहनावे और रंग-ढंग से पारखी खाना बनाने वाले cooks की पारखी नज़र को यह पहचानने में देर नहीं लगी कि मालिक कौन है और पिछलग्गू कौन; लेकिन ना जाने क्यों मुझे उनकी ये बात बुरी लग रही थी। पैसे ईश्वरी ने दिए।
शायद मेरे पिता को जो सैलरी मिलती है, उससे ज्यादा इन खाना बनाने वालों को इनाम- में मिल जाती होगी। सौ रूपए तो चलते समय ईश्वरी ने यूहीं दे दिए। फिर भी मैं उन सभी से उसी फुर्ती और तमीज़ की उम्मीद करता था, जिससे वे ईश्वरी की सेवा कर रहे थे। ईश्वरी के हुक्म पर सब-के-सब दौड़े चले आते, लेकिन मैं कोई चीज माँगता तो वो उतना जोश नहीं दिखाते थे! मुझे खाने में ज़रा भी स्वाद नहीं आया। यह भेदभाव मेरे ध्यान को पूरी तरह से अपनी ओर खींचे हुए था।
गाड़ी आयी, हम दोनों उसमें सवार हुए। बावर्चियों ने ईश्वेरी को सलाम किया। मेरी ओर तो देखा भी नहीं।
ईश्वरी ने कहा- “इन लोगों में कितनी तमीज़ है। एक हमारे नौकर हैं कि कोई काम करने का ढंग ही नहीं है”।
मैंने खट्टे मन से कहा- “इसी तरह अगर तुम अपने नौकरों को भी सौ रूपए रोज इनाम दिया करो, तो शायद इनसे ज्यादा तमीजदार हो जाएं”।
‘तो क्या तुम समझते हो, यह सब सिर्फ़ इनाम के लालच से इतनी इज्ज़त करते हैं।’
‘जी नहीं, बिलकुल नहीं! तमीज और इज्ज़त तो इनके खून में शामिल है।’
गाड़ी चली। प्रयाग से चली तो प्रतापगढ़ जाकर रूकी। एक आदमी ने हमारा कम्पार्टमेंट खोला। मैं तुरंत चिल्ला उठा- “सेकेंड क्लास है”।
उस मुसाफिर ने डिब्बे के अंदर आकर मेरी ओर अजीब सी अपमान भरी नज़रों से देखकर कहा- “जी हाँ, सेवक इतना समझता है”, और बीच वाले बर्थ पर बैठ गया। मुझे कितनी शर्म आयी, मैं कह नहीं सकता”।
सुबह होते-होते हम लोग मुरादाबाद पहुँचे। स्टेशन पर कई आदमी हमारा स्वागत करने के लिए खड़े थे। दो अमीर आदमी थे और पाँच मज़दूर । मज़दूरों ने हमारा लगेज उठाया। दोनों आदमी उनके पीछे-पीछे चल पड़े। उनमें से एक मुसलमान था रियासत अली, दूसरा ब्राह्मण था रामहरख। दोनों ने मेरी ओर अजनबी आँखों से देखा, मानो कह रहे हों, “तुम कौवे होकर हंस के साथ कैसे?”
रियासत अली ने ईश्वरी से पूछा- “यह बाबू साहब क्या आपके साथ पढ़ते हैं?”
ईश्वरी ने जवाब दिया- “हाँ, साथ पढ़ते भी हैं और साथ रहते भी हैं। यूं कहिए कि इनकी ही बदौलत मैं इलाहाबाद पड़ा हुआ हूँ, नहीं तो कब का लखनऊ चला आया होता। अबकी बार मैं इन्हें साथ घसीट लाया। इनके घर से कई लैटर आ चुके थे, मगर मैंने ना के जवाब भिजवा दिये। आखिरी लैटर तो अर्जेंट था, पर उसका जवाब भी ना ही गया”।
दोनों आदमियों ने मेरी ओर चकित होकर देखा।
रियासत अली ने कुछ शक भरी आवाज़ में कहा- “लेकिन आप बड़े सादे कपड़ों में रहते हैं”।
ईश्वरी ने डाउट क्लियर करते हुए कहा – “महात्मा गाँधी के भक्त हैं साहब। खादी के सिवा कुछ पहनते ही नहीं। पुराने सारे कपड़े जला डाले। यूं कहो कि राजा हैं। साल में बीस लाख की इनकम है, पर सूरत देखो तो लगता है कि अभी अनाथालय से पकड़कर आये हैं”।
रामहरख बोले- “अमीरों का ऐसा स्वभाव बहुत कम देखने को मिलता है। कोई भाँप ही नहीं सकता”।
रियासत अली ने सपोर्ट करते हुए कहा – “आपने महाराजा चाँगली को देखा होता तो दाँतों तले उंगली दबा लेते। एक गाढ़े की मिर्जई और चमरौधे जूते पहने बाजारों में घूमा करते थे। सुनते हैं, एक बार मज़दूरी में पकड़े गये थे और उन्हीं ने दस लाख से कालेज खोल दिया”।
मैं मन में कटा जा रहा था; पर न जाने क्या बात थी कि यह सफेद झूठ उस वक्त मुझे हंसी मज़ाक नहीं लग रहा था। उसकी हर बात के साथ मानों मैं उस मनगढ़त अमीरी के चमक के पास आता जा रहा था।
मैं घुड़सवार नहीं हूँ। हाँ, बचपन में कई बार लद्दू घोड़ों पर सवार हुआ हूँ। यहाँ देखा तो दो घोड़े हमारे लिए तैयार खड़े थे। मेरी तो जान ही निकल गई। मैं सवार तो हुआ, पर शरीर काँप रहा था। मैंने चेहरे पर शिकन नहीं पड़ने दी। घोड़े को ईश्वरी के पीछे डाल दिया। खैरियत यह हुई कि ईश्वरी ने घोड़े को तेज नहीं किया, वरना शायद मैं हाथ-पैर तुड़वाकर लौटता। लगता है, ईश्वरी ने समझ लिया होगा कि मैं कितने पानी में हूँ।