(hindi) A SHOT AT HISTORY

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इंट्रोडक्शन (Introduction )

“अ शॉट एट हिस्ट्री” इण्डिया के इकलौते ओलिंपिक गोल्ड मेडलिस्ट शूटर अभिनव बिंद्रा की ऑटोबायोग्राफी है. ये बुक एथलीट के पर्सनल एक्सपीरिएंस के बारे है कि उन्हें एक वर्ल्ड क्लास शूटर बनने के लिए किन-किन चैलेंजेज से गुजरना पड़ा था. अभिनव बिंद्रा को भारत सरकार ने अर्जुन अवार्ड और पद्म भूषण सम्मान भी दिया है. इस बुक की स्टोरी उनके बचपन के दिनों से शुरू होती है जब वो टॉय गन्स से खेला करते थे तभी उन्हें गन्स से बेहद प्यार हो गया था. अपने पेरेंट्स और कोच के सपोर्ट और गाइडेंस की हेल्प से वो कैसे वर्ल्ड और ओलिंपिक टाईटल जीतने में कामयाब हुए, ये सब उन्होंने अपनी इस बुक में शेयर किया है.

डीफीट एंड डिसपेयर इन एथेंस
एथेंस में हार और निराशा (Defeat and Despair in Athens)

मैंने एथेंस के ओलंपिक्स के सपने देखने छोड़ दिए थे. यूं तो अपने शूटिंग करियर में मैंने कई बार हार का सामना किया था लेकिन इस हार के बाद मुझे जर्मनी में थेरेपी लेनी पड़ी थी. चंडीगढ़ में मेरे शूटिंग रेंज की दीवारे सर्टिफिकेट्स, बैजेस, फोटोग्राफ्स और स्कोरशीट्स से भरी पड़ी है. इन सबको शीशे में फ्रेम करके लगाया हुआ है सिवाए उस सर्टिफिकेट के जो मुझे एथेंस के ओलंपिक्स में मिला था. इसमें लिखा था कि मुझे 10 मीटर एयर राइफल इवेंट में सेवंथ पोजीशन मिली थी. था. मै इस सर्टिफिकेट को वैसे देखता नही हूँ पर जब भी देखता हूँ तो मुझे मेरी हार याद आ जाती है.

एक बार तो मैंने इसे उठाकर जमीन पर फेंक दिया था. लेकिन इस हार ने मुझे लाइफ में एक पर्पज भी दिया है. मै एक टेलेंटेड लड़का था जो अपनी गन से 10 मीटर से 0.5 पर बुल्सआई को हिट कर सकता था. और मै वो पहला इन्डियन भी हूँ जो इंडीविजुअल ओलिंपिक गोल्ड मेडल जीतने एथेंस आया था. मैंने प्रेक्टिस में काफी अच्छा परफोर्म किया था. एट-मेन-फाइनल में फोर्टी सेवन प्लेयर्स के बीच कॉम्पटीशन था जिसमे मै थर्ड आया था. लेकिन फिर मै फाइनल में आठ प्लेयर्स में से सेवेंथ नंबर पर पहुँचकर हार गया. आमतौर पर विनर डिसाइड करने के लिए फाइनल स्कोरिंग डेसीमल प्लेस तक जाती है. और बात जब बुल्सआई की हो तो आप 10.0 से लेकर हाएस्ट 10.9 तक स्कोर कर सकते हो. और जीत सिर्फ उसी की होगी जो एकदम परफेक्ट हो.

जर्मनी में इंटरनेशनल एयर वीपन्स कॉम्पटीशन में मेरा हर शॉट 10 से ऊपर गया था. लेकिन ओलंपिक्स में मेरा स्कोर 10 से नीचे रहा था. तब एक सवाल मेरे दिमाग में आया” कहीं मै खुद को ओवरएस्टीमेट तो नहीं कर रहा”. उस रात ओलिंपिक विलेज में पूरी रात मुझे नींद नही आई, मै यही सोच रहा था कि कहाँ क्या मिस्टेक हुई है. एक शूटर के तौर पर मेरे पास सिर्फ एक ही चांस है कि मै हर चार साल बाद ओलंपिक्स में खुद को प्रूव करूँ. मेरे पास एक ही ऑप्शन है 125 मिनट्स में सेवेंटी शॉट्स. 2004 में एथेंस में अपनी हार के बाद मैंने यूं ही बोल दिया था” ओलंपिक्स सिर्फ एक कॉम्पटीशन ही तो है”. पर इसके पीछे भी एक रीजन है, मै हर कीमत पर अपनी हार को भूलने की कोशिश कर रहा था. जबकि सच्चाई तो ये है कि ओलंपिक्स में जीतना ही हर स्पोर्ट्समेन का असली गोल होता है.

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द पेरेंट फैक्टर The Parent Factor

कई बार ऐसा भी होता है कि जब मेरी स्टेबिलिटी परफेक्ट नही होती. पर मै अपनी प्रेक्टिस कभी नही छोड़ता चाहे कितनी भी थकान हो या पोस्चर खराब हो. ऐसी हालत में भी मै अपनी गन दस टाइम उठाकर शूटिंग करता था. प्रेक्टिस के मामले में मैंने कभी कोई बहाना नही किया. और मेरी इस विलपॉवर के लिए मै अपने पेरेंट्स का शुक्रगुज़ार हूँ जिन्होंने मुझे हमेशा सपोर्ट दिया. क्योंकि सपने कभी अकेले पूरे नही किये जा सकते इसके लिए टीम वर्क की जरूरत पड़ती है. मेरे पेरेंट्स और कुछ एक्सपर्ट्स है जिनके सपोर्ट और गाइडेंस के बिना मै अपने गोल्स अचीव नही कर सकता था और ना ही अपने गेम में इतना आगे जा पाता.

बचपन में कई लोग मुझे एक दब्बू लड़का समझते थे और उन्हें लगता था कि मेरे अंदर डिसप्लीन की बड़ी कमी है. पर मेरी फेमिली और मेरे कोचेस ने मिलकर मुझे उस लेवल तक पहुँचने में हेल्प की जहाँ मै आज खड़ा हूँ. मेरे पेरेंट्स मेरे लिए पिलर ऑफ़ स्ट्रेंग्थ है, उनकी वजह से ही मेरा कांफिडेंस बिल्ट हुआ है. जब मैं एथेंस ओलंपिक्स में हारा था तो मेरी मदर बबली ने मुझे आकर बोला कि सेकंड बेस्ट चीज़ जो मै कर सकता हूँ, वो है सिल्वर मेडल जीतना. लेकिन वो तुम्हारा गोल नही होना चाहिए. तुम्हारा गोल सिर्फ और सिर्फ गोल्ड मेडल जीतना है. मेरी माँ ने मुझसे कभी उम्मीद नही छोड़ी थी. एक वो ही थी जो हमेशा मुझे हिम्मत और भरोसा देती थी.

जब हम जर्मनी फर्स्ट टाइम गए थे तो उन दिनों काफी ठंड थी. मेरी मदर मुझे शूटिंग रेंज जाने के लिए रेडी होने में हेल्प करती थी. और शाम को मेरे लौटने का वेट किया करती. मेरी माँ ने मेरे लिए जो भी कुर्बानियां दी, मै कभी नहीं भूल सकता. मेरे नाना के फोरफादर्स जर्नल हरी सिंह नलवा थे जो महाराजा रणजीत सिंह की आर्मी में कमांडर इन चीफ थे. वो बड़े बहादुर इंसान थे. उनके बारे में एक स्टोरी मशहूर है.

एक बार जंगल में जब एक शेर ने महाराजा पर हमला किया तो हरी सिंह ने उस शेर को अपने हाथो से मार डाला था. मेरी मदर ने साइकोलोजी में मास्टर्स की डिग्री ली थी और वो खुद एक एथलीट रह चुकी है. वो सॉफ्टबॉल, टेबल टेनिस, हॉकी, बास्केटबॉल खेला करती थी और पंजाब यूनिवरसिटी के फर्स्ट वुमन’स क्रिकेट टीम की प्लेयर रह चुकी है. मेरे जर्मन कोच हेंज रेंकेमिएर (My German coach,) बोलते है” शी इज़ अ टफ मामा”.  वो मेरी माँ ही थी जिसने मुझे लॉ डिग्री के बजाए स्पोर्ट्स को अपना करियर चूज़ करने की छूट दी थी. मेरी माँ जब तेरह साल की थी तो उनकी माँ की डेथ हो गयी थी. वो डॉक्टर बनना चाहती थी लेकिन उस जमाने में उन्हें आगे पढने की परमिशन नही मिली, उनके फादर ने उनकी जल्दी शादी करवा दी थी.

पर मेरी माँ नहीं चाहती थी कि उनकी तरह मेरे ड्रीम भी टूट जाए. वो मुझे इमोशनल सपोर्ट देती है. और मेरे फादर, मुझे हिम्मत देते है. अपनी बिजनेस डील्स में बिज़ी रहने के बावजूद वो मेरी कोई भी शूटिंग मिस नही करते है. जब मै अपने सपनों के पीछे दुनिया भर में घूमता था, मेरे फादर कोचेस से मेरी ट्रेनिंग पर डिस्कस करते थे और शूटिंग के लिए जरूरी इक्विपमेंट्स खरीदते थे. यहाँ तक कि वो अपने सेकेट्री को भेजकर जर्नलिस्ट को मेरे रिजल्ट भेजते थे और उन्हें मेरे गेम्स के रिजल्ट्स और न्यूज़ फैक्स करते थे.

मेरे फादर एक सिख थे जो लखनऊ में पैदा हुए थे, मेरे दादाजी बीर सिंह एक आर्मी ऑफिसर थे. मेरे फादर को डेनमार्क में स्कोलरशिप मिली थी जहाँ से उन्होंने एनिमल साइंसेस में डॉक्टरेट की थी और वही पर एक वेट के तौर पर प्रेक्टिस किया करते थे. 1971 में उस वक्त की प्राइम मिनिस्टर इंदिरा गांधी जब डेनमार्क आई थी तो वो मेरे फादर से मिली और उन्हें कन्विंस किया कि इण्डिया में उन जैसे लोगो की बड़ी जरूरत है.

द स्मेल ऑफ़ गन ऑइल The Smell of Gun Oil

बचपन में मै काफी मोटा था. मुझे पढना और कोई फिजिकल एक्टिविटी पसंद नही थी. मै फिजिकल ट्रेनिंग की क्लासेस बंक करता था. फिर मै कुछ सालो के लिए दून स्कूल चला गया पर वहां मेरा मन नहीं लगा. मै अपने फादर के साथ गोल्फ खेलता था और कभी-कभी फुटबॉल भी खेल लेता था पर उससे भी मै जल्दी बोर हो गया. मुझे लगता था कि मेरे अंदर कोई टेलेंट नही है. मै जब दून बोर्डिंग स्कूल में था तो फादर मुझे रोज़ एक लैटर लिखते थे. उन सारे लैटर्स में एक बात कॉमन होती थी. वो मुझे स्पोर्ट्स में जाने के लिए एंकरेज करते थे.

मेरे फादर मानते है कि स्पोर्ट्स इन्सान को हाएस्ट ग्लोरी देता है. फिर कुछ ऐसा हुआ कि मुझे गन्स अट्रेक्ट करने लगी. मेरे फादर के पास एक डबल्यू. डब्ल्यू. ग्रीनर शॉटगन, एक 22 चेक ब्रूनो राइफल, और एक वेब्ले एंड स्कॉट रीवोल्वर है. मैं अक्सर बैठकर उन्हें अपनी गन्स को साफ़ करते हुए देखता था. वो हर गन के पार्ट्स अलग करते, बैरल में क्लीन रोड्स ऑइल से लगाकर डालते थे. एक बार मै अपने फादर के साथ गन्स रीपेयर करवाने के लिए देहरादून की लोकल गन शॉप में गया तो वहां रखी राइफल्स देखकर बड़ा फेसिनेट हुआ.

मै दस साल का था जब फर्स्ट टाइम मेरे फादर ने मुझे शूटिंग करने दी. उन्होंने शॉटगन अपने हाथ में पकड़ी थी और उन्होंने मुझे ट्रिगर पुल करने को बोला. मै गन्स से कितना फेसिनेट था, ये मेरे फादर तुरंत समझ गए थे. इसलिए वो मुझे मेरे हर बर्थडे पर एयरगन गिफ्ट करते थे. और फिर मै सारा दिन गन्स को रीलोड करता, निशाना लगाकर फायर करता और फिर से रीलोड करता था. उस वक्त मुझे अक्ल नही थी. मै अपनी मेड और उसकी बेटी तुलसी को बोलता था कि तुम सर पे बलून रखो, मै निशाना लगाऊंगा.

ये मेरी बचकानी हरकत थी पर निशाना मेरा हमेशा सही लगता था. एक दिन मेरी मदर को इस बारे में पता लगा. उन्होंने मुझे शूटिंग करने से मना नहीं किया लेकिन समझाया कि किसी इंसान या जानवर पर निशाना लगाना खतरनाक हो सकता है इसलिए तुम किसी और चीज़ पर निशाना लगाओ. तो मै अब बोटल्स पर प्रेक्टिस करने लगा. मेरे फादर अपने एक डॉक्टर फ्रेंड के घर से मेरे लिए बीयर की बोटल्स कलेक्ट करके लाते थे. फिर मेरे फादर के फ्रेंड ने सजेस्ट किया कि वो मुझे शूटिंग की प्रोफेशनल ट्रेनिंग दिलवाए. लेफ्टीनेंट\ कर्नल जागीर सिंह ढिल्लन मेरे कोच बने. मै तब 13 साल का था जब मैंने अपने कोच को लैटर में लिखा कि वो मुझे कोचिंग प्रोवाइड करे. और वो मेरी रिक्वेस्ट मान गए. I

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