(Hindi) Purple Cow: Transform Your Business by Being Remarkable

(Hindi) Purple Cow: Transform Your Business by Being Remarkable

इंट्रोडक्शन(Introduction)

एक बार सेथ गोडिन अपने परिवार के साथ फ्रांस में छुट्टियां मना रहे थे. जब वो हाईवे से गुज़र रहे थे तो वहाँ गायों के एक झुंड को चरता हुआ देख कर चकित हो गए.मौसम सुहाना था, हल्की हवा चल रही थी और गायें बड़ी ख़ुशी से घास चार रही थीं. वो नज़ारा  इतना प्यारा था लग रहा था मानो बच्चों की कहानी की किताब से उसे निकला गया हो. ये नज़ारा मीलों तक चलता रहा.

पहले तो सेथ और उनका परिवार उसे बड़े चाव से देख रहे थे लेकिन कुछ समय बाद वो उससे बोर होने लगे. उन्हें बस गायों का झुंड दिखाई दे रहा था, कुछ नया नहीं. अब ब्राउन रंग के गायों का नज़ारा कॉमन और बोरिंग लग रहा था. लेकिन इमेजिन करें कि उन ब्राउन गायों के बीच अगर एक पर्पल गाय होती तब क्या होता? तब ये काफ़ी दिलचस्प होता,है ना? शायद इतना कि आप चाह कर भी उससे अपनी नज़रें नहीं हटा पाते.

यहीं से सेथ को पर्पल काऊ का आईडिया आया. पर्पल काऊ का मतलब है कुछ फ्रेश,हट के, देखने लायक, अलग और एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी. इस बुक में आप सीखेंगे कि कैसे एक अलग प्रोडक्ट बनाया जा सकता है और कैसे एक हटके मार्केटिंग स्ट्रेटेजी से लोगों का ध्यान attract किया जा सकता है.

आज मार्केट में प्रोडक्ट्स की भरमार है ऐसे में कस्टमर्स का ध्यान खींचना बेहद मुश्किल हो गया है इसलिए सेथ पर्पल काऊ का कांसेप्ट लेकर आए जिसका मतलब है नया,ख़ास जिसे लोग देखने के लिए मजबूर हो जाएं. कुछ ऐसा जो लोगों ने ना कभी देखा हो और ना सुना हो और वो इसके बारे में बात किए बिना ना रह सकें.

पुरानी मार्केटिंग टेक्निक्स उन ब्राउन गायों की तरह हो गई हैं जिन्हें देख कर लोग बोर हो गए हैं. अब वो उनका ध्यान अपनी ओर नहीं खींच सकते. मार्केट में ज़बरदस्त कम्पटीशन है और advertisement का अंबार लगा हुआ है. ऐसे में आप अपना प्रोडक्ट कैसे बेच पाएंगे? आप एक सक्सेसफुल बिज़नेस को कैसे बनाए रख सकेंगे? तो इस प्रॉब्लम का solution है पर्पल काऊ और ये कैसे करना वो ये बुक हमें सिखाएगी.

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व्हाई यू नीड द पर्पल काऊ (Why You Need the Purple Cow)

बिज़नेस में सिर्फ़ एक प्रोडक्ट बनाना ही काफ़ी नहीं होता, लोगों को उसके बारे में बताना, उसकी मार्केटिंग करना बिज़नेस का सबसे अहम् हिस्सा होता है.अक्सर advertise करने से पहले, बिज़नेस वर्ड ऑफ़ माउथ के माध्यम से प्रोडक्ट बेचने की कोशिश करते हैं. अगर लोगों को प्रोडक्ट अच्छा लगा तो प्रॉब्लम सोल्व, वो इसके बारे में बात करेंगे और दूसरे लोगों को भी इसके बारे में बताएँगे.

एडवरटाइजिंग ने टीवी और प्रिंट के ज़रिए एक नए फार्मूला को जन्म दिया.अब कंपनियां टीवी कमर्शियल और न्यूज़पेपर में ad देने लगे ताकि ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को प्रोडक्ट के बारे में बताया जा सके. लेकिनबाद में यही स्ट्रेटेजी हर कम्पनी अपनाने लगी और अब मार्केट में इतने प्रोडक्ट्स और ad भर चुके हैं कि लोगों को इससे ऊब हो गई है.

लोग अपनी लाइफ में इतने बिजी हो गए हैं कि अक्सर उनका ध्यान किसी प्रोडक्ट के पोस्टर या ad पर नहीं जाता. अब ऐसे में आप अपने प्रोडक्ट की मार्केटिंग कैसे करेंगे? यहाँ आता है पर्पल काऊ का कांसेप्ट. आपको अपने प्रोडक्ट को मार्केट में मौजूद तमाम ब्राउन cows के बीच एक पर्पल काऊ की तरह पेश करना होगा. आपको उसे इस तरह डिज़ाइन करना होगा कि लोग उसे देखे बिना ना रह सकें.

एक्जाम्पल के लिए, एस्पिरिन की बात करते हैं. इस टेबलेट को बनाने वाली पहली कंपनी होना कितने कमाल की बात होगी ना. ये एक ऐसा प्रोडक्ट है जिसकी बहुत से लोगों को ज़रुरत पड़ती है. ये सस्ती है, आसानी से मिल जाती है और असरदार भी है. इसे पहली बार manufacture करने वाले लोगों ने काफ़ी पैसा कमाया होगा.

लेकिन अगर आज आप एस्पिरिन के एक नए ब्रांड को बेचना चाहते हैं तो ये काफ़ी मुश्किल होगा क्योंकि यहाँ पहले से ही एस्पिरिन बनाने वाले बहुत सारे brands मौजूद हैं जैसे advil, bayer, st. joseph. यहाँ तक कि अगर आपका प्रोडक्ट इन सब से थोडा बेहतर भी होगा तो आप उसे कैसे बेच पाएँगे?

अगर आपकी कंपनी के पास मार्केटिंग बजट है तो आप टीवी या ऑनलाइन ad पर पैसा खर्च कर सकते हैं. लेकिन इससे पहले आपको उन लोगों को खोजने की ज़रुरत है जो आपका एस्पिरिन खरीदने के लिए तैयार हैं. और सच तो ये है कि हर कोई इसे नहीं खरीदेगा.ऐसे कितने लोग होंगे जो एस्पिरिन का नया brand ट्राय करना चाहेंगे? ज़्यादातर लोग उसी brand के साथ लॉयल रहना चाहेंगे जो उन्होंने बचपन से या लंबे समय से यूज़ किया हो.इन लोगों का उस brand पर भरोसा बन चुका है. अब वो एक नए brand में शिफ्ट होने का रिस्क क्यों लेंगे?

ये मान कर चलिए कि ज़्यादातर लोग आपका प्रोडक्ट नहीं खरीदेंगे. लेकिन ऐसा क्यों? हो सकता है कि उनके पास एक नए brand को देखने का समय ना हो, हो सकता है उनके पास उसे खरीदने के पैसे ना हों या हो सकता है कि उन्हें आपका प्रोडक्ट पसंद ना आए.और अंत में आप मार्केट से गायब हो जाएँगे. ये आजकल के मार्केटिंग की सच्चाई है. पुराने मार्केटिंग टेक्निक्स  घिसे पिटे हो चुके हैं. इसलिए अब हमें पर्पल काऊ की ज़रुरत है.

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द डेथ ऑफ़ द टीवी –इंडस्ट्रियल कॉम्प्लेक्स (The Death of the TV-Industrial Complex)

टीवी इंडस्ट्रियल कॉम्प्लेक्स 1950 से 1990 तक काफ़ी हावी रहा. सभी कम्पनीज भारी मात्रा में टीवी ad में पैसा लगाने लगी. आइए समझते हैं कि ये कैसे काम करता है. पहले एक बिजनेसमैन के रूप में आपको एक ऐसे मार्केट को खोजने की ज़रुरत है जो expand हो रहा हो और जहां कोई brand या प्रोडक्ट छाया हुआ ना हो.

मार्केट ढूँढने के बाद आप अपना प्रोडक्ट बनाते हैं और टीवी पर ज़ोरों शोरों से ad के द्वारा प्रमोट करते हैं. फिर लोग उसे देखेंगे जिससे आगे की प्रोसेस डिस्ट्रीब्यूशन और सेल की शुरुआत होगी. क्योंकि टीवी ad की पहुँच बहुत लोगों तक होती है तो प्रोडक्ट की डिमांड हाई होगी जिससे ज़्यादा प्रॉफिट होगा. अब इस पैसे से और ज़्यादा टीवी ads खरीदे जाते हैं.ये ad लोगों को एक तरह की गारंटी देता है कि प्रोडक्ट हाई क्वालिटी का है.

लोग ज़्यादातर उन चीज़ों को खरीदते हैं जिसका उन्होंने ad देखा हुआ हो. जिन प्रोडक्ट्स की ad नहीं की जाती कस्टमर उससे अनजान ही रह जाते हैं. टीवी इंडस्ट्रियल कॉम्प्लेक्स ने Revlon, Quaker, Proctor&Gamble के साथ साथ कई कंपनियों के लिए कमाल किया है. इन सभी कम्पनीज ने इस मीडियम का भरपूर और बखूबी फ़ायदा उठाया और उन्हें advertisement पर किए गए खर्च से कई गुना ज़्यादा प्रॉफिट भी हुआ. इस मीडियम को करीब 50 साल तक ख़ूब इस्तेमाल किया गया. लेकिन आज के समय में इसका असर फ़ीका पड़ने लगा है. बड़े brands अभी भी टीवी पर ad देने के लिए लाखों खर्च करते हैं लेकिन अब मार्केट पहले जैसा नहीं रहा.

पहले का मार्केटिंग रूल था “एक आर्डिनरी और सेफ़ प्रोडक्ट बनाओ और फ़िर ज़बरदस्त मार्केटिंग के साथ जोड़ कर उसे लोगों के सामने पेश करो”.
लेकिन आज का मार्केटिंग रूल है “कुछ लोगों की ज़रुरत को टारगेट कर के एक हटके और अलग प्रोडक्ट बनाओ जिसे वो सही में खरीदना चाहते हैं”.

गेटिंग इन (Getting In)

क्रासिंग द चास्मके ऑथर जेफ़ मूर ने डिफ्यूज़न कर्व के बारे में बताया था. ये दिखाता है कि कैसे एक नया आईडिया या प्रोडक्ट लोगों के बीच मूव करता है.ये एक bell कर्व की तरह लगताहै जिसके 5 हिस्से होते हैं.

लेफ्ट में पहला और सबसे छोटा हिस्सा होता है इनोवेटर्स का. उसके बगल में होता है adopter का. बीच में सबसे बड़ा हिस्सा होता है अर्ली और लेट मेजोरिटी का. राईट साइड में लास्ट हिस्सा होता है laggards का.

मूर का कहना है कि सभी तरह के प्रोडक्ट लांच के बाद इस पैटर्न को फॉलो करते हैं.जो सबसे पहले इसे खरीदते हैं वो इनोवेटर्स होते हैं. ऐसे लोग हमेशा नए प्रोडक्ट्स को खरीदने में दिलचस्पी रखते हैं. इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि उन्हें उस प्रोडक्ट की ज़रुरत है या नहीं, वो सिर्फ़ उसे खरीदना चाहते हैं. उसके बाद आते हैं अर्ली adopters. ऐसे लोग हमेशा नए नए प्रोडक्ट को यूज़ करने के लिए तैयार रहते हैं. यहाँ तक कि वो ऐसे brand पर खर्च करने को तैयार हो जाते हैं जिसके बारे में उन्होंने कभी नहीं सुना.

इसके बाद मार्केट का सबसे बड़ा हिस्सा अर्ली और लेट मेजोरिटी से बना है. हालांकि इन्हें नए प्रोडक्ट्स में ज़्यादा दिलचस्पी नहीं होती. ये उन brands से संतुष्ट होते हैं जिन्हें ये सालों से यूज़ करते आ रहे हैं. कभी कभार ये लोग अपने अर्ली adopter दोस्तों से नए प्रोडक्ट्स के बारे में सुनते हैं लेकिन इस बात की गेरेंटी नहीं है कि वो प्रोडक्ट खरीदेंगे या नहीं.

टीवी की ad इंडस्ट्री ने मार्केट के सबसे बड़े हिस्से को टारगेट किया था. यही कारण है कि कोई भी कंपनी ad पर इतना खर्च करती है. बड़े brands अर्ली और लेट मेजोरिटी को अपने प्रोडक्ट्स की ओर खींचते हैं. लेकिन पर्पल काऊ के कांसेप्ट में अर्ली adopter का ध्यान खींचना ही काफ़ी होता है. ज़्यादातर कस्टमर पहले से यूज़ किए जाने वाले प्रोडक्ट से ख़ुश होते हैं. उन्हें जल्दी से कुछ नया पसंद नहीं आता. इसलिए बुद्धिमानी इसी में है कि उन लोगों को टारगेट करना चाहिए जो नया सामान खरीदना पसंद करते हैं, जिन्हें चेंज और नए प्रोडक्ट के साथ एक्सपेरिमेंट करना पसंद है.

आपकी कोशिश होनी चाहिए कि इन लोगों को आपका प्रोडक्ट पसंद आ जाए ताकि वो उसे खरीदें और उसके बारे में दूसरों को भी बताएं.जब ये लोग बातों के ज़रिए या सोशल मीडिया पोस्ट के ज़रिए आपके प्रोडक्ट के बारे में सबको बताएँगे तो आपका प्रोडक्ट कर्व के दूसरे हिस्से में पहुँच जाएगा.इसलिए आपको एक ऐसा प्रोडक्ट बनाने की ज़रुरत है जिसे अर्ली adopters खरीदने से ख़ुद को रोक ना सके. इसलिए आपका प्रोडक्ट फ्रेश, यूनिक और इनोवेटिव होना चाहिए लेकिन इसके साथ ही वो कुछ ऐसा होना चाहिए जो लोगों की ज़रुरत को पूरा कर सके.

अब डिजिटल कैमरा को ही ले लीजिये. पहले इसे कंप्यूटर और गैजेट्स को पसंद करने वाले लोग ही खरीदते थे क्योंकि इसे यूज़ करना थोड़ा मुश्किल था और फ़ोटो की क्वालिटी इतनी बढ़िया नहीं थी. फ़िर manufacturers ने अपने प्रोडक्ट को इम्प्रूव करना शुरू किया, उसे इस्तेमाल करना आसान बनाया. अब अर्ली adopters इसे इस्तेमाल कर के अपने दोस्तों को भी बताने लगे. इस वजह से डिजिटल कैमरा की सेल बढ़ने लगी. डिजिटल कैमरा चीप और इस्तेमाल करने में आसान हो गए थे और आखिरकार उसने फ़िल्म कैमरा की जगह ले ली. इस वजह से अब अर्ली और लेट मेजोरिटी भी इसे पसंद करने लगे.

अगर आपका प्रोडक्ट यूनिक हुआ तो वो बहुत जल्द अर्ली adopters को attract कर लेगा बशर्ते आपके प्रोडक्ट के फ़ायदे उन्हें साफ़ साफ़ दिखना चाहिए और वो बताने में आसान होना चाहिए ताकि वो दूसरों को भी आसानी से समझा सकें.

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