(Hindi) The Better Angels of Our Nature: Why Violence Has Declined

(Hindi) The Better Angels of Our Nature: Why Violence Has Declined

इंट्रोडक्शन (Introduction)

1918 का स्पेनिश फ्लू हिस्ट्री की सबसे ख़तरनाक महामारी रही है. इस बुक में आप ये जानेंगे कि इसकी शुरुआत कैसे हुई,ये कैसे फैला और कैसे इसका अंत हुआ. इसमें आप एक वायरस के नेचर के बारे में भी जानेंगे. वायरस कहाँ से आता है और इंसान और जानवर कैसे इसकी चपेट में आ जाते हैं, ये बुक उन सभी सवालों का जवाब देगी. ये बुक हमें कुछ अहम बातें सिखाएगी कि कैसेइंसान एक जानलेवा महामारी के खिलाफ़ लड़कर ख़ुद को बचा सकता है.

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हस्केलकाउंटी(Haskell County)

एक्सपर्ट्स का कहना है कि 1918 स्पेनिश फ्लू की शुरुआत हस्केल, कंसास जो यूनाइटेड स्टेट्स में है, से हुई थी. हस्केल में रहने वालों के कमाई का साधन खेती था. वहाँ के लोगों के लिए उनके खेत, पालतू जानवर और फ़सल ही उनका खज़ाना हुआ करते थे. लगभग हर परिवार बड़े प्यार से अपनी मुर्गियों और दूसरे पालतू जानवरों की देखभाल करता था. हस्केल काउंटी में एक डॉ. भी रहा करते थे. उनका नाम था डॉ. Loring Miner.

January से February 1918 तक डॉ. लोरिंग को एक एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी एक्सपीरियंस हुआ. उनके पास एक पेशेंट आया जिसके symptoms से लग रहा था जैसे उसे कॉमन फ्लू है. उसेतेज़ बुख़ार था, वो लगातार खांस रहा था और उसके सिर और बॉडी में बहुत दर्द था. लेकिन फिर, कोपलैंड,सैंटा फ़ेके खेतों से अजीब मामले सामने आने लगे.

डॉ. लोरिंग को यकीन था कि यह बीमारी इन्फ्लुएंजा है लेकिन उन्होंने इससे पहले इस तरह के गंभीर मामले नहीं देखे थे. इन्फ्लुएंजा शरीर में तेज़ी से हमला करते हुए बढ़ता है. डॉ. लोरिंग के 12 पेशेंट्स ने इसके कारण दम तोड़ दिया था.सबसे आश्चर्य की बात तो ये थी कि वो सारे पेशेंट्स काफ़ी स्ट्रोंग और healthy थे मगर फ़िर भी वो इस बीमारी से लड़ नहीं पाए.

डॉ. लोरिंग ने इस बीमारी के बारे में ज़्यादा जानने के लिए जी जान लगा दिया.उन्होंने पेशेंट्स के यूरिन, ब्लड और कफ़ के सैंपल कलेक्ट किये, अपनी मेडिकल की सारी किताबों और जर्नल को पढ़ा. यहाँ तक कि उन्होंने मदद के लिए अपने कुछ साथियों को भी बुलाया. उन्होंने US पब्लिक हेल्थ सर्विस को भी ख़बर की लेकिन सब ने डॉ. लोरिंग की बातों को अनदेखा कर दिया.डॉ. लोरिंग पेशेंट्स की लगातार बढती हुई लाइन देख कर घबरा गए थे. हर रोज़ वो बस उनकी देखभाल में ही लगे रहते. ना जाने कितनी रातें डॉ. लोरिंग ने जाग कर बिताई.

दो महीने इस बीमारी से जूझने के बाद जब March का महिना शुरू हुआ तो ये बीमारी अचानक गायब हो गई. बच्चे वापस स्कूल जाने लगे और लोग अपने अपने काम पर लग गए. जिंदगी फ़िर से नार्मल हो गई थी मगर डॉ. लोरिंग गहरी चिंता में डूबे हुए थे.

उनकी चिंता जायज़ थी. इन्फ्लुएंजा ने कभी इतना गंभीर रूप नहीं लिया था. इतने कम समय में इतने सारे लोग एक साथ कभी इन्फेक्ट नहीं हुए थे. डॉ. लोरिंग ने पब्लिक हेल्थ ऑफिसर्स को सावधान करने की कोशिश भी की लेकिन किसी ने उनकी बातों को गंभीरता से नहीं लिया. इस बीच, ये वायरस धीरे धीरे और स्ट्रोंग हो रहा था.ये हस्केल काउंटी में ही ख़त्म हो सकता था क्योंकि ये जगह थोड़ी अलग थलग थी और वहाँ की पॉपुलेशन भी कम थी. इन्फ्लुएंजा का वायरस वहाँ हर एक को इन्फेक्ट करके वहीँ ख़त्म हो सकता था क्योंकि अगर सब इसकी चपेट में आ जाते तो वहाँ एक भी healthy इंसान नहीं बचता. लेकिन उस वक़्त World War I ने दुनिया में आतंक मचा रखा था.

डीन नीलसन जीन, हस्केल काउंटी का एक नौजवान सोल्जर था. वो भी इस बीमारी का शिकार हो गया था. एक पेशेंट इन्फेक्ट होने के एक हफ़्ते के अंदर ही इस वायरस को बाहर फ़ैला सकता है. डीन को जब फ्लू हुआ तब वो छुट्टी पर था. लेकिन एक हफ़्ते के बाद ही वो ड्यूटी पर कैंपफंस्टन लौट गया.

जॉन बॉटम भी कोपलैंड, हस्केल काउंटी का एक सोल्जर था. वो भी निमोनिया की चपेट में आ गया था. February में डीन ने भी ड्यूटी के लिए कैंप फंस्टन में रिपोर्ट किया. कैंप फंस्टन कंसास नदी के किनारे था जहां 56,000 soldier ट्रेनिंग ले रहे थे.4 March को, कैंप फंस्टन में कुक के रूप में काम करने वाला एक जवान इन्फ्लुएंजा की वजह से बीमार हो गया.सिर्फ़ तीन हफ़्तों में ही ये नंबर बढ़कर 1,100 तक पहुँच गया था. सभी जवानों को हॉस्पिटल में एडमिट कराना पड़ा. उनमें से 237 को निमोनिया था और 38 जवानों की मौत हो गई थी.

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द स्वार्म (The Swarm)

सबूतों से ज़ाहिर था कि फंस्टन में जो बीमारी फ़ैल रही थी वो हस्केल से आई थी.हस्केल से आने के बाद अब इस वायरस में किसी तरह का बदलाव हो रहा था जिस वजह से फंस्टन में स्थिति इतनी ख़राब हो गई थी.जब वायरस के अपने genes में बदलाव या शिफ्ट होता है तो उसे म्युटेशन कहा जाता है.

बहरहाल, फंस्टन से जवानों को अमेरिका और यूरोप के दूसरे कैंप में भेजा जाने लगा.वायरस का बस एक ही मकसद होता है जो है नंबर में बढ़ते जाना और फ़ैलना. लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि वायरस एक सिंपल और बहुत पुराना जीव है. इंसानों और जानवरों की तरह इनमें भी समय के साथ डेवलपमेंट और प्रोग्रेस होता है. वायरस काफ़ी डेवलप्ड जीव होते है. अब बात करते हैं इन्फ्लुएंजा के वायरस की.

इन्फ्लुएंजा का वायरस इंसानों से नहीं आया था.वो ओरिजनली बर्ड्स से आया था. इन्फ्लुएंजा वायरस के कई स्ट्रेन बर्ड्स में मौजूद हैं. इन्फ्लुएंजा इंसानों के रेस्पिरेटरी सिस्टम को अटैक करता है. लेकिन बर्ड्स में वो गैस्ट्रोइंटेस्टिनल ट्रैक्ट पर हमला करता है. इसलिए बर्ड्स के मल में बहुत बड़ी मात्रा में वायरस होता है. वो जब उड़ते हैं तो उनके मल झील, नदी और हर तरह के पानी के सोर्स में गिर जाते हैं.

एवियन वायरस अपने आप एक इंसान से दूसरे इंसान को इन्फेक्ट नहीं कर सकता. ये पहले बदलता या चेंज होता है यानी म्यूटेट करता है. कभी-कभी ये पिग्स को इन्फेक्ट करता है और फ़िर पिग्स से इंसानों में ट्रान्सफर हो जाता है. जब भी इन्फ्लुएंजा के किसी नए स्ट्रेन में कोई बदलाव होता है और वो इंसानों को इन्फेक्ट करना शुरू करता है तो ये महामारी को जन्म देता है. इस महामारी की शुरुआत को टाला नहीं जा सकता, ये नेचर का ही एक हिस्सा है.

आइए अब एक वायरस के स्ट्रक्चर को समझते हैं. वायरस एक बॉल की तरह होता है जिसके चारों ओर spikes होते हैं. वायरस काफ़ी हद तक मेम्ब्रेन से बना होता है. इसके अंदर RNA होता है जिसमें आठ gene होते हैं जो बताता है कि आख़िर वायरस है क्या.एक वायरस का साइज़ एक मिलीमीटर का 1/10,000 हिस्सा होता है.

वायरस के आस पास जो spikes होते हैं वो असल में प्रोटीन होते हैं. उन्हें Hemagglutinin कहा जाता है. उनका बस एक ही काम होता है और वो है अटैक करना.

अब मान लेते हैं कि वायरस एक इंसान के रेस्पिरेटरी सिस्टम के अंदर चला जाता है. वो बॉडी के सेल्स को अटैक करता है.सेल्स के चारों ओर सियालिक एसिड रिसेप्टरहोते हैं जिसे Hemagglutinin टच करने लगता है. Hemagglutinin और सियालिक एसिड का स्ट्रक्चर ऐसा है कि वो एक पजल के टुकड़ों की तरह आपस में जुड़ जाते हैं. जैसे-जैसे वायरस सेल मेम्ब्रेन के साथ जुड़ता जाता है वैसे वैसे hemagglutinin सियालिक एसिड के साथ जुड़ते जाते हैं.

इसके बाद सेल के मेम्ब्रेन में एक गड्ढा जैसा बन जाता है जिसके द्वारा वायरस सेल के अंदर घुसने लगता है.अब वायरस ख़ुद को एक बबल से कवर कर लेता है. ऐसा करने से वायरस का पता लगाना मुश्किल हो जाता है.बबल के अंदर वायरस ख़ुद को ट्रांसफॉर्म कर देता है. जैसे पैरों से मोज़े उतारते समय वो इकट्ठा हो जाते हैं उसी तरह वायरस भी फोल्ड होने लगता है.साइंटिस्ट इस प्रोसेस को अन्कोटिंग (uncoating) कहते हैं.

अब वायरस सेल के अंदर ख़ुद को खुला छोड़ देता है. उसका बबल और मेम्ब्रेन टूट कर गलने लगते हैं. इस वजह से वायरस का genes सेल्स के nucleus के अंदर चला जाता है. ये genes सेल्स के genes को हटाकर उनकी जगह ले लेते हैं. बिलकुल वैसे ही जैसे कोई दूसरा आपसे ज़बरदस्ती आपकी गाड़ी की स्टीयरिंग व्हीलछीन लेता है.
अब nucleus के अंदर वायरस का पूरा कंट्रोल है और वो सेल को हज़ारों वायरस के प्रोटीन बनाने का आर्डर देता है. ये प्रोटीन और वायरस बनाने के लिए जुड़ने लगते हैं.

इस प्रोसेस में आमतौर पर दस घंटे लगते हैं. ये वो टाइम फ्रेम है जब वायरस सेल से जुड़ कर नए वायरस पैदा करने लगता है. अब जिस सेल में इसकी शुरुआत हुई थी उसे होस्ट सेल कहते हैं और वो फूट जाता है. एक मिलियन वायरस वहाँ से निकल कर नए सेल्स को अटैक करने लगते हैं.

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