(Hindi) Eating Animals

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इंट्रोडक्शन (Introduction)

पोल्ट्री और मीट इंडस्ट्री तो कंट्रोल से बाहर होती जा रही है. हमारे स्वाद की भारी कीमत जानवरों और एनवायरनमेंट को चुकानी पड़ रही है. तो दुनिया में मीट की बढ़ती डिमांड को एग्रीकल्चर इंडस्ट्री कैसे सप्लाई कर पा रहा है? फ़ास्ट फ़ूड चेन के डेली ऑर्डर्स को मीट producers कैसे पूरा कर पाते हैं ? इतनी भारी डिमांड होने के बावजूद भी कैसे ग्रोसरी स्टोर्स में सस्ते अंडों और फ्रोज़न मीट का अंबार लगा रहता है जिसे हम इतने चाव से एन्जॉय करते हैं?

ये बुक सिर्फ़ vegetarians के लिए ही नहीं बल्कि मीट लवर्स के लिए भी है. इस बुक के ज़रिये आप मीट इंडस्ट्री के घिनौनेसच के बारे में जानेंगे. जानवरों के साथ जो अत्याचार हो रहा है आप उस बारे में जानेंगे. कहीं ऐसा ना हो कि ये बुक आपको सोचने पर मजबूर कर दे कि असल में जानवर है कौन? वो जो दिखने में जानवर जैसे हैं या हम जो जानवर जैसे दिखते तो नहीं लेकिन शायद उनसे ज़्यादा खूंखार हैं. हो सकता है कि सब सच जानने के बाद आपकी इंसानियत आपसे सवाल करने लगे.

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फैक्ट्री फार्म  (Factory Farm)

क्या आप भी जंक फ़ूड के दीवाने हैं? क्या Kfc के चिकन बर्गर और Mcdonalds के चिकन नगेट्स का नाम सुन कर आपके मुँह में पानी आ जाता है? क्या आप अक्सर सुपरमार्केट से प्रोसेस्ड मीट प्रोडक्ट्स खरीदते हैं? इनमें प्लास्टिक से सील किया गया चिकन, चिकन विंग्स, हॉटडॉग्स, बीफ़ पैटीज़ सब शामिल हैं जिन्हें ग्रोसरी के फ्रीज़र में स्टोर किया जाता है.

आपका एक बात जानना बहुत ज़रूरी है. अक्सर ये पोल्ट्री और मीट के प्रोडक्ट्स जानवरों को बेहद तकलीफ़ पहुँचा कर बनाए जाते हैं.

एक समय था जब अमेरिका के 100% फार्म फॅमिली फार्म हुआ करते थे. ये 1970 से पहले की बात है. इनफार्म्स और जानवरों की देखभाल करने के लिए पूरा परिवार साथ मिलकर काम करता था. फार्म पेशेंस और कड़ी मेहनत का सिंबल होते हैं. किसान अपने जानवरों का बहुत ख़याल रखते थे क्योंकि एक ख़ुश और healthy जानवर का मीट बहुत टेस्टी होता है.

हालांकि, आज अमेरिका के 99% फार्म्स फैक्ट्री फार्म में बदल चुके हैं. इनके मालिक कोई परिवार नहीं बल्कि बड़े बड़े corporations होते हैं. फैक्ट्री फार्म में किसी किसान का नामो निशान तक नहीं है. उसमें बस दो चीज़ें शामिल हैं जानवरों की ह्त्या और उनका चीखें. लेकिन ये तो सिर्फ़ शुरुआत है, अभी तो बहुत कुछ ऐसा है जो आपको पता नहीं है.

corporation लोगों को फैक्ट्री फार्म चलाने के लिए encourage करते हैं. वो कॉन्ट्रैक्ट तैयार करते हैं जिनमें रूल्स बताए जाते हैं कि जानवरों को क्या खिलाना है, कितना खिलाना, कब उन्हें मारना है और कैसे उनके मीट को प्रोसेस कर के ट्रांसपोर्ट करना है. उनका सिर्फ़ एक ही मकसद होता है प्रोडक्शन बढ़ा कर कॉस्ट कम करना.

पोल्ट्री के एक किसान ने एक दर्दनाक कहानी बताई. मुर्गियों को एक बाड़े (बार्न) के अंदर बंद कर दिया जाता है और वहाँ बिलकुल रौशनी नहीं होती. 24 घंटे इतना गहरा अँधेरा होता है कि आपको अपना हाथ तक नहीं दिखेगा. उन्हें आर्टिफीसियल तरीके से बनाया गया चारा खिलाया जाता है और उस अंधकार में तीन हफ़्ते के लिए छोड़ दिया जाता है. फ़िर उसके बाद, दिन में 20 घंटे के लिए लाइट चालू की जाती है ताकि मुर्गियों को लगे कि स्प्रिंग सीजन आ गया है जिसका मतलब है अंडे देने का समय हो चुका है.

उसके बाद मुर्गियां अंडे देती हैं. पोल्ट्री इंडस्ट्री में इस सिस्टम का ज़ोरों शोरों से इस्तेमाल किया जाता है और मुर्गियां पूरे साल अंडे देती हैं चाहे सच में स्प्रिंग सीजन हो या ना हो. मुर्गियों को कभी पता नहीं चलता कि मौसम बदला है या नहीं क्योंकि उन्हें हमेशा बंद करके रखा जाता है. एक मुर्गी साल में एवरेज 300 अंडे देती है जो उसके बायोलॉजिकल और नेचुरल प्रोसेस से तीन गुना ज़्यादा है. तो सोचिये, क्या ये नेचर के साथ खिलवाड़ नहीं हुआ?

एक साल के बाद इन मुर्गियों को स्पेंट मुर्गियां कहा जाता है यानी अंडे देने की इनकी बायोलॉजिकल साइकिल पूरी हो जाती है और अब वो उतने अंडे नहीं दे सकती जितना एक साल पहले देती थी. इसलिए फार्म के लिए अब ये किसी काम की नहीं होती और उन्हें मार दिया जाता है. ये सिस्टम ना सिर्फ़ प्रोडक्शन बढ़ाता है बल्कि चिकन प्रोडक्ट्स को बहुत सस्ता भी बनाता है. पोल्ट्री इंडस्ट्री ने जान लिया है कि इस तरह मुर्गियों को पालना सस्ता होता है. जो मुर्गियां काम की नहीं उन्हें मरने दो और हर साल एक नए बैच के साथ शुरुआत करो.

सुपरमार्केट में मीट प्रोडक्ट्स पर लगे लेबल जिन पर लिखा होता है फ्री-रेंज, आर्गेनिक, केज-फ्री, फ्रेश चिकन ये सब एक बहुत बड़ा झूठ है. ये सब फैक्ट्रीफार्म से आते हैं.यकीन मानिए जिस दिन आपको सच्चाई का पता चलेगा कि कैसे इन जानवरों को बेरहमी से मारा जाता है, तो आपका favourite चिकन बर्गर का एक निवाला भी आपके गले से नीचे नहीं उतरेगा.

मीट इंडस्ट्री के नेगेटिव इफेक्ट्स और उसमें चल रही निर्मम हत्याएं  आपकी आँखें खोल देगा. एनवायरनमेंट की दुर्दशा, जानलेवा फ्लू वायरस, तेज़ी से बढती हार्ट की बीमारियाँ, स्ट्रोक और कैंसर उन अनगिनत साइड इफेक्ट्स में से कुछ हैं जो ये ज़हर खाने से तेज़ी से फ़ैल रहा है और हमें इसकी भनक तक नहीं. तो अब समय है जागरूक बनने का.

आप सोच रहे होंगे कि ऐसा सिर्फ़ अमेरिका में होता है. लेकिन मीट इंडस्ट्री में यही कल्चर दुनिया के हर देश ने अपना लिया है फ़िर चाहे वो यूरोप हो, चाइना हो या इंडिया. Kfc और Mcdonalds के हर एक ब्रांच के लिए हर दिन लाखों चिकन और दूसरे जानवरों के साथ बेरहमी से पेश आया जाता है. उसमें उनकी चीखें और दर्द शामिल होती हैं जो हमें ना दिखाई देती ना सुनाई देती है क्योंकि हमें तो बस अपने जीभ का स्वाद चाहिए, है ना?

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द फर्स्ट फैक्ट्री फार्मर (The First Factory Farmer)

सेलिया स्टील (Celia Steele) डेलावेयर (Delaware) की एक हाउसवाइफ थी. 1923 में उनके साथ एक मज़दार वाक्या हुआ. सेलिया मुर्गियों के एक छोटे ग्रुप की देखभाल करती थी जिसके लिए उन्हें पैसे मिलते थे. एक दिन, उन्होंने 50 चूज़ों (मुर्गी के बच्चे) का आर्डर दिया ताकि वो उन्हें पाल सके. लेकिन 50 की जगह सेलिया को 500 चूज़े मिले. सेलिया ने उन्हें लौटाया नहीं बल्कि सबको पालने का फ़ैसला किया.

सेलिया ने इन चूज़ों के साथ एक्सपेरिमेंट करने के बारे में सोचा. सर्दियों का मौसम शुरू होने वाला था. उसने सोचा क्या होगा अगर वो उन चूज़ों को सर्दियों में बाहर के बजाय अंदर रखेंगी तो? क्या वो जिंदा रह पाएँगे?

सेलियाने मार्केट में नए डेवेलोप किए गए चारों का इस्तेमाल किया. उसे खाने के बाद सच में वो चूज़े कई महीनों तक अंदर स्टोरेज में अच्छे से सर्वाइव कर पाए.
1926 तक सेलिया के 500 चूज़े बढ़ कर 10,000 मुर्गियां बन गए थे. 1935 तक वो कुल मिलाकर 2,50,000 हो गए थे. उस समय के दौरान, ज़्यादातर फार्म्स में सिर्फ़ 23 मुर्गियों हुआ करती थीं.

इस तरह सिर्फ़ 10 सालों में सेलिया के साथ हुए एक मज़ेदार किस्से के कारण डेलावेयर दुनिया का पोल्ट्री कैपिटल बन गया. उस एरिया में रहने वालों की कमाई का साधन पोल्ट्री फार्मिंग बन गया था.

सेलिया की मुर्गियों को महीनों तक ना धूप मिली ना चलने फिरने की जगह. जहां उन्हें रखा गया था वहाँ बहुत भीड़ हो गई थी. लेकिन चारे में मिलाए गए विटामिन डी और विटामिन ए के कारण वो सब जिंदा थे.

1930 में बड़े बिजनेसमैन जॉन टायसन और आर्थर परड्यू ने पोल्ट्री इंडस्ट्री में कदम रखा. उन्होंने बड़े और विशाल फैक्ट्री फार्म्स को सेट किया और इंडस्ट्रियल एग्रीकल्चर में कई तरह के इनोवेटिव टेक्निक्स को introduce किया.

इनमें से एक मेथड था डी-बीकिंग(de-beaking) यानी मुर्गी की चोंच को हटा देना ताकि उन्हें चोंच से आसपास की जगह को तलाशने की ज़रुरत महसूस ना हो. दूसरा था, automatic लाइट जो मुर्गियों के अंडे देने की साइकिल में हेर फेर करता था.

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द फर्स्ट चिकन ऑफ़ टुमॉरो(The First Chicken of Tomorrow)

1940 के समय मेंमुर्गियों की ग्रोथ को बढाने के लिए पोल्ट्री बिज़नेस में जेनेटिक्स की शुरुआत की गई. US Drug Administration (USDA) की मदद से एक कांटेस्ट लांच किया गया जिसका नाम था “चिकन ऑफ़ टुमॉरो”.इसका रूल ये था कि जो भी कम से कम चारे का इस्तेमाल कर के एक तगड़े मुर्गी को तैयार करेगा वो जीतेगा. इस कांटेस्ट को कैलिफ़ोर्निया के चार्ल्स वॉनट्रेस ने जीता था. उसकी मुर्गी को ख़ुराक कम दी गई थी लेकिन उसका शरीर दिखने में एक रेसलर जितना स्ट्रोंग और मस्कुलर था.

1940 में चारे में एंटीबायोटिक भी मिलाया जाने लगा. बहुत सारी मुर्गियों को एक साथ बंद कर के रखने से बीमारी फ़ैलने का ख़तरा होता है, इसका मकसद होता है उन बीमारियों को रोकना.

तो देखा आपने एक मुर्गी की जिंदगी के साथ किस तरह खिलवाड़ किया जाता है. अब मुर्गी  बस अंडे देने की मशीन और मीट या(ब्रॉयलर) के लिए इस्तेमाल की जाने वाली एक सामान से ज़्यादा कुछ नहीं थी. जिन मुर्गियों को सिर्फ़ उनके मीट के इस्तेमाल के लिए पाला जाता है उन्हें ब्रॉयलर कहते हैं. ब्रॉयलर का एवरेज साइज़ 65% हो गया था, उन्हें 50% कम खाना खिलाया जाता है. उनकी ग्रोथ का समय गिर कर 60% हो गया. मुर्गियां बड़ी और ताकतवर तो हो गई लेकिन उनकी उम्र अब भी कम थी. कहने का मतलब है कि फार्म्स का  टारगेट होता है कि मुर्गियों को तेज़ी से बड़ा कर के जल्दी बेच दो.

अगर आप इसकी तुलना इंसानों से करते हैं तो ये बिलकुल ऐसा हुआ जैसे आप अपने बच्चों को सिर्फ़ विटमिन और एनर्जी बार खिला रहे  हैं और 10 साल की छोटी उम्र में ही उनका वजन 300 pound हो जाता है. ठीक इसी तरह, मुर्गियों के पूरी तरह बड़े होने से पहले ही उन्हें मार दिया जाता है.

पोल्ट्री इंडस्ट्री में मुर्गियों को बंद कर के रखना, एंटीबायोटिक्स देना, जेनेटिक्स का इस्तेमाल करना आम बात हो गई थी. इस सिस्टम में जहां एक तरफ़ ओनर्स के लिए ज़्यादा प्रॉफिट और consumer के लिए ज़्यादा अंडे और मीट था. तो वहीँ दूसरी ओर लाखों मुर्गियों का उदास छोटा सा जीवन जिसमें वो घुट घुट कर जीते हैं.

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