(Hindi) Never Split the Difference: Negotiating As If Your Life Depended On It

(Hindi) Never Split the Difference: Negotiating As If Your Life Depended On It

 परिचय (Introduction)

नेगोशिएशन में स्पेशलिस्ट एक फॉर्मर ऍफ़बीआई एजेंट आपको टेन्स और एन्जोएबल एडवेंचर पर ले के जाता है जहाँ आप सिख्नेगे कि बेहद क्रिटिकल सिचुएशंस को कैसे कण्ट्रोल किया जाए. इस बुक समरी  से आप जानेगे कि नेगोशिएशन एक psychological प्रोसेस है और इसे हम एक स्किल की तरह आसानी से सीख सकते हैं। जो टूल्स और टेक्नीक्स नेगोशिएशन में यूज़ होते है, वो बेहद काम के है और यहाँ हम आपको बताएँगे कि कैसे और क्यों ये टूल्स और टेक्नीक्स काम करते है.  

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द न्यू रूल्स (The New Rules)

ऍफ़बीआई में मैंने दो डिकेड्स से भी ज्यादा वक्त गुज़ारा है जिसमे मेरा 15 सालो का न्यू यॉर्क से लेकर फिलिपींस और मिडल ईस्ट तक का नेगोशिएटिंग होस्टिंग सिचुएशन का एक्स्पिरियेंश भी शामिल है. और सच बोलू तो मै इस गेम के टॉप पर हुआ करता था. मै अकेला टॉप क्लास लीड इंटरनेशनल किडनैपिंग नेगोशिएटर था. फिर मैंने हार्वर्ड जाने की सोची जहाँ पर मै क्विक एक्जीक्यूटिव नेगोशिएशंन का कोर्स करूँ ताकि मै बिजनेस वर्ल्ड के अप्रोच से भी कुछ लर्न कर सकूं.

पिछले तीन डिकेड्स से हार्वर्ड नेगोशिएटिंग थ्योरीज और प्रेक्टिस का सेंटर रहा है. जो टेक्नीक्स हम ऍफ़बीआई में यूज़ करते है, वो हमेशा ही काम करती है लेकिन मुझे बस इतना ही मालूम है. हमारी टेक्नीक्स एक्स्पिरियेंश लर्निंग का प्रोडक्ट्स होती थी .; जो एजेंट्स फील्ड में क्रिएट करते थे, बेहद टेन्श और मुश्किल हालातो के बीच नेगोशियेशन करना, एक दुसरे से स्टोरी शेयर करना कि क्या चीज़ फेल हो गयी और किस चीज़ से सक्सेस मिली. ये काफी अर्जेंट प्रोसेस होता था –हमारी थ्योरीज काम करनी चाहिए क्योंकि अगर ऐसा नही हुआ तो किसी को अपनी जान से जाना पड़ सकता है. लेकिन मेरा सवाल है कि ये थ्योरीज काम कैसे करती थी? और यही सवाल मुझे हार्वर्ड लेकर आया.

सबसे ज्यादा तो मै ये सोचकर हैरान था कि हमारी टेक्नीक्स क्या नोर्मल लोगो पर भी काम करेगी जैसे ये ड्रग डीलर्स, टेरेरिस्ट्स और खतरनाक मुजरिमों पर काम करती है. खैर इस बात का पता तो मुझे जल्दी ही हार्वर्ड जाकर चल जाएगा क्योंकि बात ये थी कि नेगोशिएशंन को लेकर जो हमारी अप्रोच होती है वो ह्यूमन इंटरएक्शन के हर डोमेन और हर रिलेशनशिप को अनलॉक करती है. इसलिए ये बुक क्या के बदले कैसे नेगोशिएट करे, इस पर ज्यादा फोकस करती है. 

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बी अ मिरर (Be A Mirror)

सितम्बर 30, 1993 (September 30, 1993)ये पतझड़ के मौसम की बात है.सुबह करीब आठ बजकर तीस मिनट पर सेवंथ एवेन्यू और कार्रोल स्ट्रीट इन ब्रूकलीन के चेज़ मैनहैट्टेन बैंक का अलार्म बजा. मास्क लगाए दो रोबेर्स बैंक लूटने आये थे. बैंक रोबेरी पर तो बहुत सारी मूवीज बनती है लेकिन न्यू यॉर्क में लगभग 20 सालो से ऐसा कोई केस नहीं हुआ था. 

मैंने इस मिशन में सीखा कि एक गुड नेगोशिएटर्स किसी भी तरह की पॉसिबल सरप्राइज़ के लिए रेडी रहते है लेकिन ग्रेट नेगोशिएटर्स अपनी स्किल्स यूज़ करने के लिए एक गोल सेट करते है ताकि जो भी सरप्राइज़ है वो खुल जाए. हमारे एक्स्पिरियेंश से हमने ये सीखा है कि नेगोशियेट करते वक्त मल्टीपल हाइपोथेसिस प्रोपेयर करना बेस्ट तरीका है –कि ओंनगोइंग सिचुएशन क्या है और क्रिमिनल्स क्या डिमांड कर सकते है –इसलिए जो भी इन्फोर्मेशन उनके सामने होती है, वो उसे यूज़ करके सही हाइपोथेसिस से मैच कर सके.

और सबसे ज़रूरी बात है कि किसी भी नेगोशिएशन को जीतने के लिए आपको आर्ग्यूमेंट पर जोर नहीं देना है बल्कि अपना मेन फोकस सामने वाले पर रखो कि वो क्या चाहता है. इस तरीके से आप उन्हें फील करा सकते हो कि वो सेफ है और उन्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचाया जाएगा. आपका मेन गोल सामने वाले और उसकी (इमोशनली या दूसरी ) ज़रूरत पर होना चाहिए. और ये तभी होगा जब आप उनकी बात ध्यान से सुनोगे, उनके इमोशंस समझने की कोशिस करोगे. एक सबसे बड़ी गलती लोग जो करते है, वो है जल्दबाजी करना. आप जब तक उनकी बात ध्यान से नहीं सुनोगे उन्हें फील नहीं होगा कि आपको उनसे सिम्पेथी है.

क्योंकि ऐसा ना करने का मतलब होगा उनके ट्रस्ट और पूरे प्रोसेस को ही डिस्ट्रॉय करना. कई रीसर्चर्स ने ये चीज़ डिस्कवर की है कि आप प्रोसेस को जितना टाइम देंगे, उतना ही सामने वाला शांत होता जाएगा. और टेक्नीक के साथ आपकी आवाज़ मोस्ट पॉवरफुल टूल है जो आप यूज़ कर सकते है. हमारी आवाज़ एक की है वर्बल कम्यूनिकेशन के लिए, जिससे आप सामने वाले को इमोशनली ट्रिगर कर सकते हो जैसे कोई इमोशनल स्विच होता है. जितना हो सके अपनी आवाज़ को पोजिटिव और प्लेफुल बनाये रखे. इससे आप भी रिलेक्स फील करेंगे और सामने वाला भी.

जब तक आपकी वौइस् टोन सॉफ्ट रहेगी आप डायरेक्ट और पॉइंट टू पॉइंट बात कर सकते है. एक और टेक्नीक जो हमने सीखी थी वो है मिररिंग यानी इसोप्रक्सिस्म (isopraxism) और ये इमिटेशन के लिए बहुत ज़रूरी है. ये एक तरह का न्यूरोबिहेवियर है जिसमे दो लोग जो नेगोशिएटिंग कर रहे है, वो एक दुसरे को कॉपी करते है और कम्फर्ट फील कराते है. ऍफ़बीआई में हम मिररिंग तब करते है जब हम अपने काउंटरपार्ट के बोले गए मोस्ट क्रिटिकल एक से तीन वर्ड्स रीपीट करते है. रीपीटिंग से मिररिंग एस्पेक्ट को हम ट्रिगर करते है,

उन्हें जताने के लिए कि हम सेम उनकी तरह है. इस तरह बिना कोई हार्म पहुंचाए हम अपने मिशन में सक्सेस हो जाते है और क्रिमिल्न्स अरेस्ट हो जाता है. मुझे ये बड़ा रिलेक्स फील कराता है लेकिन साथ ही मै पॉवर ऑफ़ इमोशंस, डायलाग और ऍफ़बीआई के डेवलपिंग टूल्स ऑफ़ एप्लाइड साइकोलोजिकल टैक्टिस का भी कायल हो जाता हूँ जो किसी को भी कन्विंस कर सकता है. फाइनली एक्जीक्यूटिव्स और स्टूडेंट्स के साथ काम करने के बाद मै हमेशा उन्हें ये फील करवाने की कोशिश करता हूँ कि एक सक्सेसफुल नेगोशिएशन का सीक्रेट राईट होना नहीं है – बल्कि एक राईट माइंडसेट का होना है.

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डोंट फील देयर पेन, लेबल इट (Don’t Feel Their Pain, Label It)

मै 1998 में न्यू यॉर्क सिटी ऍफ़बीआई क्राईसिस नेगोशिएशन टीम का हेड था. मै हार्लेम में एक हाई राईज के 27वे फ्लोर पर था. मुझे खबर मिली थी कि इस बिल्डिंग के एक अपार्टमेन्ट के अंदर हथियारों से लैस कम से कम 3 क्रिमिनल्स छुपे हुए है. काफी टेन्शड सिचुएशन थी. हमे सिखाया गया था कि इस तरह की कंडिशन में हमे बिलकुल भी इमोशनल नहीं होना है इसलिए हम एकदम न्यूट्रल मोड पर थे. बहुत से रीसर्चर्स मानते है कि नेगोशिएशन में इमोशंस का कोई रोल नहीं है, इसलिए बैटर है कि लोगो को प्रोब्लम से सेपरेट करके देखा जाए.

लेकिन ज़रा सोचो, आप लोगो को प्रोब्लम से कैसे अलग करके देख सकते है जबकि उनके इमोशन ही प्रोब्लम है? स्पेशिफीकली, जब लोग हाथ में गन लिए हुए बेहद गुस्से में हो और डरे हुये हो. इसलिए एक ग्रेट नेगोशिएटर कभी भी इमोशंस को इग्नोर नहीं करता. वो लोगो के इमोशन को समझकर उन्हें इन्फ्लुएंश करता है. खैर, बात करते है इस केस की. यहाँ एक प्रोब्लम हमारे सामने थी और वो ये कि जिसमें क्रिमिनल्स छुपे थे उस अपार्टमेंट में कॉल करने के लिए कोई टेलीफोन नंबर हमारे पास नहीं था. इसलिए मुझे डोर पे जाकर बात करनी पड़ी.

छ घंटे तक हमे कोई रीस्पोंस नहीं मिला तो हमे लगा शायद वहां पर कोई नहीं है. लेकिन तभी पास वाली बिल्डिंग से एक स्नाइपर ने हमे बोला कि उसने पर्दा हिलता हुआ देखा है. फिर धीरे से अपार्टमेंट का डोर खुला, एक औरत बाहर निकली जिसके पीछे तीनो क्रिमिनल्स बाहर आये. जब तक हमने उन्हें हथकड़ी नहीं पहना दी, कोई कुछ नहीं बोला. लेकिन मेरे माइंड में एक सवाल था” तुम लोग छेह घंटो तक चुपचाप बैठे रहे तो फिर अचानक बाहर क्यों आये? तुमने खुद को पोलिस के हवाले क्यों किया? मेरे इस सवाल का तीनो ने सेम जवाब दिया कि” हम मरना नहीं चाहते थे लेकिन आपने हमे शांत कर दिया था”.

दरअसल जब हमे उन लोगो की तरफ से कोई जवाब नहीं मिला तो दरवाजे पे जाके उन्हें बोला” ऐसा लगता है तुम बाहर नहीं आना चाहते. शायद तुम्हे लगता है कि डोर ओपन होते ही हम तुम पर गोलियों की बौछार कर देंगे और शायद तुम लोग जेल भी नहीं जाना चाहते हो”. एक्चुअल में ये एक टेक्टिकल एम्पैथी थी जिसमे हम उनकी फीलिंग्स और माइंडसेट समझने की कोशिश करते है, उनकी खामोशी को सुनने की कोशिश करते है.

फिर हम रिएलाइज कर लेते है कि अब सिचुएशन का आउटकम क्या होने वाला है.ये एक तरीका है जिसमे किसी के इमोशंस को हम वेलिडेट करने के लिए लाउडली एकनॉलेज करते है और नेगोशिएशन की लेंगुएज में इसे लेबलिंग बोलते है. ये काफी हेल्प करता है खासकर तब जब सामने वाला बेहद गुस्से में हो या डरा हुआ हो. इसमें कई सारे स्टेप्स होते है, फर्स्ट है दूसरो के इमोशंस को डिटेक्ट करना फिर आप उसे लाऊडली लेबल करते हो और लास्ट में साइलेंस. लेबल फेंको और चुपचाप वेट करो ताकि आप उनकी बात सुन सको. लेबल अपना काम खुद कर लेगा. 

बीवेयर”एस”- मास्टर”नो” (Beware “Yes” – Master “No”)

चलो एक सिनेरियो इमेजिन करते है जो हम सबने एक्स्पिरियेंश किया है: आप घर में हो कि तभी आपका फोन बजता है और आप देखते हो कि टेलीमार्केटर का फोन है. वो आपको कोई वाटर फ़िल्टर, मैगजीन सबक्रिप्शन या ऐसी ही कोई चीज़ का ऑफर दे रहा है. पहले वो आपसे आपका नाम पूछेगा फिर कुछ ऐसी ही गोल-गोल बाते करेगा. वो अपनी पिच डालेगा. वो आपके कैसे भी करके फंसाने की कोशिश करेगा. वो आपकी एक भी बात नहीं सुनेगा. आपको लग रहा होगा कि आप उसके शिकार हो लेकिन सच यही है कि उसने आपको फंसा लिया है. अब हम इस सेल्स मेन की सेलिंग टेक्निक पर गौर करते है.

ये हमसे किसी भी कीमत पर हाँ बुलवा लेते है जैसे कि हम ना बोल नहीं सकते है. और बहुत से लोग वाकई में मना नहीं कर पाते. क्योंकि नो हमारे लिए एक नेगेटिव वर्ड है, रिजेक्शन का वर्ड. लेकिन नेगोशिएशन में हां बोलकर आप बुरे बनते है, सामने वाले को इससे और ज्यादा गुस्सा आता है. एक अच्छे नेगोशिएटर के लिए ना बोलना प्योर गोल्ड है. ये नेगेटिव तो है लेकिन आपके और सामने वाले दोनों को समझ आता है आप एक दुसरे से क्या चाहते है. “नो” बोलकर हम नेगोशिएशन की शुरुवात करते है. ये उसका एंड नहीं है. हम ना बोलने से डरते है लेकिन ये एक तरह का प्रोटेक्शन है. 

इसका मतलब है कि मैंने सारे आप्शन कंसीडर कर लिए है लेकिन मै सबको मना कर रहा हूँ. और इसके अलावा लोगो को लगता है कि वो कण्ट्रोल में है. जब हम लोगो को अपने ऑफर या आईडिया के लिए ना बोलने की फ्रीडम देते है तो उन्हें एक सेंस ऑफ़ सिक्योरिटी या पीस की फीलिंग आती है. “नो” “हां” का अपोजिट है लेकिन हम इसे अवॉयड नहीं कर सकते. लेकिन हमे ये भी नहीं भूलना है कि हमारे नेगोशिएशन का फाइनल गोल हाँ है हालाँकि स्टार्टिंग में इसे यूज़ मत करो. क्योंकि फिर आपके अपोजिटर को लगेगा कि आप उसे ओवरपॉवर करना चाहते हो. इसलिए उसे ना बोलने दो. उन्हें ज्यादा सिक्योर फील होगा. और कभी-कभी तो सामने वाले को बातो में उलझाये रखने के लिए उनसे जबर्दस्ती ना बुलवाना पड़ता है. लेकिन कैसे? उनके इमोशंस या उनकी नीड्स को जानबूझ कर मिसलेबल करके आप ये कर सकते है. 

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